देश की प्रगति में विद्यार्थियों का योग

देश की प्रगति में विद्यार्थियों का योग

          आज के भारतीय बुद्धिजीवी समाज में, विद्वानों की गोष्ठियों में, प्रवक्ताओं के प्रांगणों में, वकीलों के क्लबों में, मनीषी महिलाओं की वाक् प्रतियोगिता में, राजनीति से संन्यास लिये हुए प्राचीन कूटनीतिज्ञों के कहकहे में, उच्च स्तर पर आयोजित सेमिनार्स में, कटु अनुभवों से क्षत-विक्षत वक्ष वाले प्रधानाचार्यों के प्रवचनों में आज यह ज्वलन्त प्रश्न बना हुआ है कि देश की प्रगति में विद्यार्थियों का योगदान किस माध्यम से हो, किस रूप में हो, किस विधि से हो और हो भी या न हो । ‘न हो’ वाली बात कुछ उचित प्रतीत नहीं होती, क्योंकि जिस मातृ-भूमि की गोद में सभी ने जन्म धारण किया है, जिसके धूलिकणों में हमने जीवन प्राप्त किया है, जो हमारे अनन्त अपराधों को क्षमा करते हुए हमें अमृत के समान जल और अन्न प्रदान करती है, जिसने हम पर इतने उपकार किये हैं कि हम अच्छी तरह उनका ब्यौरा भी स्मरण नहीं कर पाते, उस देश की सेवा, उसकी प्रगति में हाथ बंटाने का अधिकार कुछ वर्ग-विशेष,कुछ अवस्था विशेष, कुछ जाति विशेष और कुछ आश्रम-विशेष के व्यक्तियों को ही उपलब्ध हो, यह बात गले के नीचे आसानी से उतरती नहीं और फिर, भारत जैसे धर्म निरपेक्ष देश में, जबकि प्रत्येक आवास तथा वृद्ध को पूर्ण धार्मिक स्वतन्त्रता उपलब्ध है, तब विद्यार्थी ही अपने धर्म से वंचित क्यों रहें, चाहे वह देश-धर्म हो या भागवद्धर्म हो । धर्म, धर्म ही है। अत: उसके अनुपालन में न किसी पर कोई रोक-टोक है और न कोई पाबन्दी ही है। इसलिए भी देश की प्रगति में योगदान करने का मार्ग खुला और प्रशस्त है ।
          अब प्रश्न यह है कि जब आज के विद्यार्थी विभिन्न गतिविधियों में आगे बढ़ते हैं, तब उनकी तपे एवं सधे अनुभवी विद्वानों द्वारा प्रतिकूल आलोचनाएँ क्यों होती हैं? आज का भारतीय विचारक एवं चिन्तक, भारतीय विद्यार्थियों की गतिविधियों पर क्षुब्ध क्यों है? इसके दो प्रमुख कारण हैं—प्रथम तो यह कि देश सेवा के नाम पर अतृप्त एवं असफल राजनीतिज्ञों द्वारा छात्रों एवं छात्र नेताओं का गलत पथ-प्रदर्शन राजनीति जब राजनैतिक अखाड़े को छोड़कर सरस्वती के मन्दिरों में प्रवेश कर जाती है तब उसका विद्यार्थियों पर सुप्रभाव न पड़कर कुप्रभाव पड़ता है। जहाँ उसका ध्यान गुरु वाणी के श्रवण और उसके मनन, चिन्तन में लगा हुआ था, वहाँ इन विचारधाराओं • में उलझा दिया जाता है। फिर उसे अनवरत ऐसी प्रेरणायें दी जाती हैं, जिनसे वह स्वयं तो पथ-भ्रष्ट हो जाता है और देश को भी प्रगति के नाम पर अधोगति की ओर धकेलता है। इस प्रकार विद्यार्थी अपने कर्त्तव्य को भूलकर अधिकारों की प्राप्ति के लिये जूझने लगता है। फिर प्रगति के नाम पर वह सत्याग्रह, आन्दोलन, हड़ताल, प्रदर्शन आदि में लग जाता है। इधर विद्यार्थी पथ भ्रष्ट हुआ उधर चतुर राजनीतिज्ञों का उल्लू सीधा हुआ, उनकी स्वार्थ सिद्धि हुई दूषित विषाक्त वातावरण जिस संस्था या जिस व्यक्ति की ओर फैलवाना चाहते हैं, फैल जाता है। अब आप चाहे इसे देश की प्रगति कहें या देश-सेवा कहें। दूसरा कारण है—नियन्त्रण का अभाव। नियन्त्रण दो प्रकार का होता है—एक पर नियन्त्रण, दूसरा आत्म-नियन्त्रण। पर नियन्त्रण में माता-पिता, गुरुजन तथा ज्येष्ठ व्यक्तियों की आज्ञाओं, सम्मतियों को ध्यानपूर्वक सुनना तथा उनका पालन करना आता है। आत्म-नियन्त्रण में स्वयं पर स्वयं का अंकुश होना आता है। आत्म-नियन्त्रण जैसी वस्तु का अपरिपक्वता और विवेकशून्य की अवस्था में उत्पन्न होने का कोई प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। किशोरावस्था तथा युवावस्था ये दोनों ही अवस्थाएँ ऐसी हैं, जिनमें आत्म-विवेक बहुत दूर रहता है। आत्म-विवेक के अभाव में आत्म-नियन्त्रण सर्वथा असम्भव है। अब रह जाता है पर नियन्त्रण। भारत की स्वतन्त्रता के साथ-साथ समाज के प्रत्येक पहलू ने स्वतन्त्र शब्द को पकड़ कर ऐसा रटा. कि अर्थ का अनर्थ हो गया। अनुशासन, आज्ञापालन, नियन्त्रण कर्त्तव्य आदि शब्दों को समाज के प्रत्येक क्षेत्र में और प्रत्येक अंग में भुला दिया गया, उनके स्थान पर केवल स्वतन्त्र शब्द याद रह गया। आज समाज के किसी अंग पर दृष्टि डालकर देखें आपको पूर्ण स्वतन्त्रता ही मिलेगी। विद्यार्थी भी समाज के ही अंग हैं। अतः यह प्रभाव उन पर भी बिना पड़े न रहा और ऐसा पड़ा कि अब पचास वर्षों तक सुधरने का नहीं । आप बताइये कि देश की प्रगति के लिये सच्चे योगदान के लिये कौन बतलायेगा और वे किसकी मानेंगे, क्योंकि स्वतन्त्र देश के वे स्वतन्त्र विद्यार्थी हैं। प्रोफेसर या प्राध्यापक की आज्ञा मानना वे अपनी बुद्धि और वाक्चातुर्य की मानहानि समझते हैं। माता-पिताओं के पास देश के विषय में सोचने का स्वयं समय नहीं है, अपनी सन्तान को कौन बताये और यदि कुछ कह भी दें तो उसे सुनता कौन है ?
          स्वर्गीय प्रधानमन्त्री श्री लालबहादुर शास्त्री ने भारत-पाकिस्तान युद्ध के समय सन् १९६५ में कहा था कि “यह नहीं समझना चाहिए कि जो सैनिक युद्ध मोर्चों पर शत्रु से लड़ रहे हैं, केवल वे ही मातृभूमि की सेवा और रक्षा में लगे हुए हैं। देश का प्रत्येक निवासी, जो जिस स्थान पर है और जिस स्थिति में है, वह वहीं रहकर देश सेवा और देश की रक्षा में लगा हुआ है। किसान अपने खेतों और खलियानों में रहकर, व्यापारी अपने व्यापार में रहकर, साहित्यकार अपने साहित्य सृजन से, डॉक्टर और वैद्य अपने चिकित्सालयों में रहकर, विद्यार्थी अपना विद्याध्ययन लुहार अपनी धौंकनी पर बैठा हुआ देश की रक्षा में और शत्रु से मोर्चा लेने में उतना ही दत्तचित्ततापूर्वक संलग्न है जितना कि वे सैनिक / जो वास्तव में शत्रु से मुठभेड़ कर रहे हैं। यदि सभी देशवासी अपने-अपने कर्त्तव्यों का निष्ठा से पालन करते रहें, तो शत्रु हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता। # कितनी सारगर्भित और महत्त्वपूर्ण ये पंक्तियाँ थीं। उन्होंने यह कभी नहीं कहा कि देश के सभी निवासी सैनिक बन जायें या सभी वर्दी पहिनकर शत्रु से लड़ने के लिए मोर्चों पर पहुँचें। कहने का तात्पर्य यह है कि जिस व्यक्ति का जो काम है यदि वह निष्ठापूर्वक एकाग्रता से उसके सम्पादन में तल्लीन है तो वह निश्चय ही राष्ट्र की उन्नति में और उसकी प्रगति में पूर्ण योगदान कर रहा है और यदि वह इसके विपरीत आचरण करता है, अर्थात् जो काम उसका नहीं है यदि वह उस काम को करता है या कार्य सम्पादन में निष्ठा, एकाग्रता, ईमानदारी और सभ्यता का अभाव है, तो वह राष्ट्र का घातक है। वह राष्ट्र की प्रगति में सहायक न होकर बाधक सिद्ध होता है। चाहे वह स्व लिप्सा में अंधे बने रहने के कारण या गलत पथ-प्रदर्शन के कारण तत्काल इसका अनुभव न करे, परन्तु इस कर्त्तव्यहीनता से राष्ट्र के लिए बड़े दूरगामी घातक दुष्परिणाम निकलते हैं। तात्पर्य यह है कि आप अपना काम कीजिये, जो दूसरों का काम है, उसे दूसरों के लिये ही छोड़ दीजिये, जो बात आपके सोचने और विचारने की है, उसे ही आप सोचिये। जहाँ आपने अपना काम छोड़कर हुए दूसरों के कार्यक्षेत्र में विचार और चिन्तन क्षेत्र में निर्णय और परिणाम क्षेत्र में दखल दिया वहीं आप स्वयं तो मार्ग-भ्रष्ट हुए ही देश को भी ढकेल कर कुएँ में डाल देने में आप सहायक हुए।
          देश की प्रगति में विद्यार्थियों के योगदान पर जब गम्भीरता से विचार किया जाता है तब उनका सबसे बड़ा महत्त्वपूर्ण योगदान एकनिष्ठ भाव से और एकाग्र मन से विद्याध्ययन करना ही ठहरता है क्योंकि विद्या-प्राप्ति के लिए एक अवस्था और एक समय निश्चित है। यदि इस अवस्था में एकनिष्ठता का अभाव रहा, तो भावी जीवन के उद्देश्यों की पूर्ति सर्वथा असम्भव है। भावी जीवन की आधारशिला यदि दुर्बल हुई तो उस पर जो भवन निर्माण होगा वह चिरस्थायी नहीं रह सकेगा। वह केवल लड़खड़ाते हुए अपनी जिन्दगी काटेगा। अब आप सोचिये कि यदि आप विद्यार्थी-जीवन में तन-मन लगाकर एक शिष्ट सुशिक्षित नागरिक बनने के लिए प्रयत्नशील हैं, या एक सफल व्यवसायी बनना या विद्वान् प्रवक्ता बनना या कुशल वकील बनना या अच्छा डाक्टर बनना या निपुण शिल्पकार बनना या कर्मठ कलाकार बनना चाहते हैं और उस लक्ष्य की पूर्ति के लिये आप अनवरत तल्लीनता से अध्ययन या शिक्षा प्राप्ति में जुटे हुए हैं, तो यह भी आप देश – सेवा ही कर रहे हैं, देश की प्रगति में यह आपका महत्त्वपूर्ण योगदान है, क्योंकि व्यष्टि से ही समष्टि का निर्माण होता है। समाज बहुत-सी इकाइयों का समूह है। देश के आप अविभाज्य अंग हैं। आपका प्रत्येक निष्ठापूर्ण किया हुआ कार्य देश को, देश के चरित्र को, देश के मान को और देश के गौरव को ऊँचा उठाता है और आपके गलत कार्य से देश का पतन होता है और वह कलंकित होता है । आपके किये हुये प्रत्येक कार्य की प्रतिच्छाया देश के चरित्र में साफ दिखाई पड़ने लगती है 1 आपकी प्रगति ही देश की प्रगति है। आपका स्वाध्याय, आपका मनन, आपका चिन्तन, आपका शिष्ट और निष्ठ बनने का प्रयत्न देश की प्रगति में सबसे बड़ा योगदान है। आप अच्छे होंगे तो हैं देश अच्छा कहलायेगा, आप अनुशासित और शिष्ट होंगे तो देश अनुशासित कहलायेगा। तात्पर्य यह है कि शांत चित से और अनन्य निष्ठा से शिक्षा ग्रहण करना ही विद्यार्थियों का देश की प्रगति में सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान है, क्योंकि देश के वे ही भावी कर्णधार हैं और देश को महान् ब के कार्य में लगे हुए हैं।
          शिक्षण और स्वाध्याय से रिक्त समय में अशिक्षितों को शिक्षित बनाने का कार्य अपने हाथ में ले सकते हैं। सार्वजनिक सभाओं, गोष्ठियों और व्याख्यान मालाओं का आयोजन करके देश के चारित्रिक उत्कर्ष में आप अमूल्य योगदान दे सकते हैं । अकालग्रस्त क्षेत्रों के लिये आप टोलियों में निकलकर धन एकत्र करके भूखे और क्षुधापीड़ितों के प्राण पखेरू उड़ने से रोक सकते हैं । बाढ़-ग्रस्त क्षेत्रों के लिए धन एकत्रीकरण के अतिरिक्त आप स्वयं सेवक के रूप में वहाँ पहुँचकर डूबते हुए व्यक्तियों की प्राणरक्षा कर सकते हैं। आप स्वयं सेवी संस्थाओं का निर्माण कर सकते हैं जो दैवी विपत्ति के समय जनता की सेवा के लिए अहर्निश कटिबद्ध रहें, इधर सूचना मिली और उधर दल दौड़कर पहुँचा। इस प्रकार पुनीत कार्यों से आप जन कल्याण भी करेंगे और जनता को पथ-प्रदर्शन भी मिलेगा। ग्रीष्मावकाश की दीर्घावधि में विद्यार्थी गाँवों में जाकर श्रम दान द्वारा सड़क निर्माण, पुल निर्माण, ग्रामीण स्वच्छता आदि में सहयोग दे सकते हैं । कृषि की उन्नति के नवीन एवं वैज्ञानिक साधनों से किसानों को सुपरिचित कराना, स्वच्छता, कृषि उन्नति, परिवार नियोजन, अल्प-व्ययता आदि विचारों से सम्बन्धित चलचित्र प्रदर्शन का आयोजन करके देश की प्रगति में योगदान कर सकते हैं ।
          इन्जीनियरिंग तथा मैडीकल के छात्र अपने विश्राम के दिनों में गाँवों में जाकर ग्राम सेवा का कार्य कर सकते हैं । इतिहास और राजनीति के छात्र देश की प्राचीन संस्कृति और सभ्यता को तथा लोकतन्त्र का महत्त्व, मतदान की पुण्यता, नागरिक के अधिकार और कर्त्तव्य आदि विषयों को जनता को समझाकर देश-कल्याण कर सकते हैं। उपरिलिखित संक्षिप्त योगदान के माध्यमों के अतिरिक्त आधुनिक वर्तमान परिस्थितियों में यदि देश की प्रगति में भारतीय विद्यार्थियों का कुछ योगदान महत्त्वपूर्ण है, तो वह यह है कि वे राष्ट्र की सम्पत्ति का विनाश न करें, यह “आज के” भारतीय छात्र का देश की प्रगति में सबसे बड़ा योगदान होगा। क्योंकि आए दिन अखबारों में पढ़ा जा रहा है, आँखों से देखा जा रहा है और कानों से सुना जा रहा है कि अमुक स्थान के छात्रों ने बसों में आग लगा दी, अमुक स्थान पर विश्वविद्यालय का कार्यालय ही जला दिया गया, अमुक स्थान पर पुलिस की जीपगाड़ी पर मिट्टी का तेल छिड़क दिया गया, अमुक सिनेमा-गृह के शीशे तोड़ दिये गये, अमुक रेलगाड़ी के इतने डिब्बे जला दिये गये, इत्यादि-इत्यादि। यह भी तो सम्भव है कि ये काम शायद कोई अराजक तत्व करते हों पर पड़ता छात्रों के ही ऊपर है, क्योंकि उन स्थानों पर होती छात्रों की ही भीड़ है। अतः यदि भारतीय छात्र देश की ही सम्पत्ति को क्षति पहुँचाना बन्द कर दें, तो यह निश्चय ही उनका देश की प्रगति में महत्त्वपूर्ण योगदान होगा।
          तात्पर्य यह है कि विद्यार्थी अवस्था वह अवस्था होती है, जिसमें मनुष्य अटूट शक्ति-सम्पन्न होता है। उसमें कार्य-सम्पादन की अभूतपूर्व क्षमता होती है । मन और मस्तिष्क तेज होते हैं। उस शक्ति और कार्यक्षमता को यदि सही दिशा मिलती रहे तो उसके मन तथा शरीर के घोड़े भी सही दिशा में दौड़ेंगे और अवश्य लाभप्रद सिद्ध होंगे, परन्तु खेद है कि उन्हें उचित पथ-प्रदर्शन प्राप्त नहीं होता। हाँ कुछ ऐसे भी उच्छृंखल तत्व होते हैं, जिन पर पथ-प्रदर्शन का न कोई प्रभाव होता है और न वे पथ-प्रदर्शन चाहते ही । उचित यही है कि भारतीय छात्र अपनी पूर्ण शक्ति और सामर्थ्य से देश को आगे बढ़ायें, परन्तु सात्विक मनोवृत्ति और शान्त बुद्धि से I
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