देव-दैव आलसी पुकारा (आलस्य)

देव-दैव आलसी पुकारा (आलस्य)

          हम मानव को दो श्रेणियों में विभक्त कर सकते हैं- प्रथम कर्मवीर, द्वितीय कर्मभीरु । कर्मवीर, संसार और समाज की अनन्त असफलताओं, संघर्षों और हानियों से लड़ता हुआ अपना पथ स्वयं प्रदर्शित करता है। कर्मवीर का सिद्धान्त होता है कि “कार्य वा साधयेयं देहं वा पातयेयम्” अर्थात् या तो कार्य में सिद्धि प्राप्त करूँगा अन्यथा अपना शरीर ही नष्ट कर दूँगा । इसे हम दूसरे शब्दों में “करो या मरो” का सिद्धान्त कह सकते हैं। इसके विपरीत कर्मभीरु मनुष्य काम करने से डरता है, काम को देखकर भयभीत होता है। वह परान्न और पराश्रय पर अपना जीवन निर्वाह करता है। स्वावलम्बन और आत्म-निर्भरता उससे कोसों दूर खड़ी रहती है, न उसमें उनके आह्वान की शक्ति होती है और न आदर की। क्या आपने कभी सोचा है कि इस प्रकार के कर्मभीरु मानव के पुरुषार्थ और शक्ति को उससे किसने छीन लिया ? वह अकर्मण्य क्यों बन बैठा ? उदासी ने उसके जीवन में घर क्यों बना लिया ? इन सब प्रश्नों का आप केवल एक ही उत्तर पायेंगे कि उसके सुनहरे जीवन को आलस्य रूपी कीटाणुओं ने खोखला बना दिया । आलस्य मानव जीवन का सबसे भयंकर शत्रु है, जो उसकी समस्त सृजनात्मक और रचनात्मक शक्तियों को छीनकर उसे मिट्टी का पात्र बना देता है। आलसियों का गुरु मन्त्र है –
“अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम ।
दास मलूका कह गये, सबके दाता राम ॥”
          एक समय था कि भारत में इस विषैले मंन्त्र ने अकर्मण्यता का बीजारोपण कर दिया था,जिसके परिणामस्वरूप देश के करोड़ों लोग निकम्मे और निठल्ले बन गये ।
          चीन को देखिये कि इतने विशाल देश के लोग सैकड़ों वर्ष तक अफीम का अंटा चढ़ाकर आलस्य की नींद सोते रहे और जापान जैसे द्वीप के लोगों से पिटते रहे ।
          आलस्य व्यक्ति, परिवार, समाज और देश के लिये सबसे बड़ा कंलक होता है। संस्कृत में कहा गया है—
“आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः ।”
          राम, रावण से युद्ध की तैयारी कर रहे थे । मार्ग में समुद्र पड़ता था, रास्ता कैसे बनाया जाये, राम के सामने यह कठिन समस्या थी । समुद्र से मार्ग देने के लिये राम ने कई बार प्रार्थना की, परन्तु समुद्र ने कुछ नहीं सुना। यह सब लक्ष्मण को कहाँ सह्य था, वे सहसा क्रुद्ध हो उठे और राम से प्रार्थना की कि बल प्रयोग कीजिये ।
“कायर मन कहं अधारा, दैव-दैव आलसी पुकारा”
          वास्तव में यह उक्ति अपने में सारगर्भित है। आलसी मनुष्य ही दैव का भाग्य और प्रारब्ध का, काल और समय का अनावश्यक आश्रय लेते हैं। वे प्रयत्न तो स्वयं नहीं करते, बल्कि अपनी असफलता के लिये अज्ञात अदृश्य भाग्य एवम् ईश्वर को दोषी ठहराते हैं। ऐसा कायर पुरुषों का जीवन केवल इसलिये, होता है कि वे निन्दित और तिरस्कृत होकर कुत्ते की तरह दूसरों के भोजन, दूसरों के बल और दूसरों के धन पर अपना जीवन बितायें तथा समय-समय पर दुर्गति के शिकार बनते रहें। आलसी का जीवन नारकीय जीवन होता है। उससे समस्त समाज घृणा करता है । आलसी भी चाहता है कि मैं भी औरों की भाँति काम करूँ और आगे बढूँ परन्तु आलस्य, जिसने कि उसके हाथ पैरों की शक्ति को, मन और मस्तिष्क की सबलता को, अन्तःकरण के आत्मविश्वास को कुण्ठित कर दिया है—उठने के समय बैठा देता है और आगे बढ़ने के समय टाँग पकड़ कर पीछे घसीट लेता है। नीतिकारों का कथन है कि–
उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मी,
देवन देयमिति कापुरुषाः वदन्ति I
दैवं : निहत्कुरुपौरुषमात्मशक्त्या, 
यले कृते यदि न सिध्यति कोऽत्र दोषः ॥ 
          अर्थात् पुरुषों में सिंह के समान उद्योगी पुरुष को ही लक्ष्मी प्राप्त होती है। “दैव देगा” ऐसा कायर पुरुष कहा करते हैं। दैव को छोड़कर अपनी भरपूर शक्ति से पुरुषार्थ करो और यदि फिर भी कार्य सिद्ध न हो तो सोचिये के इसमें कहाँ और क्या कमी रह गई ।
          आलस्य मानव का सबसे प्रबल शत्रु है । यद्यपि काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य आदि शत्रु भी बड़े शक्तिशाली हैं, परन्तु आलस्य तो मनुष्य को न इस लोक के लायक छोड़ता है और न परलोक के। आलस्य से मानव की समस्त चेतनायें और शक्तियाँ नष्ट हो जाती हैं। बौद्धिक और आत्मिक शक्तियों का ह्रास हो जाता है। पग-पग पर उसे जीवन में अनेकानेक कष्ट उठाने पड़ते हैं। परिणाम यह होता है कि वह जीवन से विमुख होकर उदासी बन जाता है, चारों ओर से उसे निराशा घेर लेती है । आलस्य के इस अन्धकार में उसे कोसों तक आशा की धुँधली किरण भी दिखाई नहीं पड़ती। वह जीवन व्यतीत करता है। पराधीन और पराश्रित को तो स्वयं ही, स्वप्न में भी सुख नहीं मिलता। तुलसी ने लिखा है कि –
पराधीन सपनेहु सुख नाहीं । 
करि विचारि देखहु मन माँही II
          इस प्रसंग में मुझे एक घटना स्मरण आती है कि आलस्य मनुष्य को कहाँ तक नीचे गिरा देता है। दो आलसी किसी आम के वृक्ष के नीचे पड़े रहा करते थे । एक दिन वृक्ष से आम टूटकर एक आलसी की छाती पर आ गिरा। उसने दूसरे आलसी से प्रार्थना की कि “तुम इस आम को मेरे मुँह में निचोड़ दो।” परन्तु वह दूसरा आलसी भी कम नहीं। था, उसने कहा, “भाई ! कल तुम देख रहे थे कि एक कुत्ते ने आकर मेरे मुँह पर पेशाब कर दिया था, और मैंने अपने हाथों से उसे ही नहीं हटाया तो बताओ कि मैं तुम्हारे मुँह में आम कैसे निचोड़ सकता हूँ?” ये हैं आलसियों के कारनामे ।
          आलस्य से मानव जीवन का पतन हो जाता है। आलसी विद्यार्थी कभी परीक्षा में सफल नहीं हो पाता। वह पढ़ने के समय ऊँघता है या फिर पढ़ने में उसका मन ही नहीं लगता। उसका काम कभी समय पर पूरा नहीं होता, वह अपने साथियों से पिछड़ा रहता है। गृहस्थाश्रम के लिये तो आलस्य एक घातक विष है। यदि गृहस्थी आलस्य करेगा तो वह स्वयं और उसके परिवार के लोग भूखे मरने लगेंगे, जीवन निर्वाह भी कठिन हो जायेगा। आलसी व्यक्ति न व्यापार कर सकता है और न वकालत, न नौकरी कर सकता है और न नमाज पढ़ सकता है। चाहे मनुष्य वानप्रस्थ आश्रम में हो और चाहे संन्यास आश्रम में, वह न तो आत्म-चिन्तन की ओर ध्यान दे सकता है और न आचार-विचार पर। आलसी मनुष्य अनन्त दुर्गुणों का भण्डार होता है। संसार की समस्त बुराइयाँ उसे आ घेरती हैं। आलसी सबसे बड़ा कायर बन जाता है। वह आगे बढ़ने के समय भी पीछे हटता है, और सदैव दूसरों का मुँह देखता है। उसमें स्वावलम्बन और आत्म-निर्णय की शक्ति नहीं रहती है। उसके जीवन की उन्नति को आलस्य समाप्त कर देता है। उसे उत्थान के स्थान पर पतन, उन्नति के स्थान पर अवनति, उत्कर्ष के स्थान पर अपकर्ष और यश के स्थान पर अपयश प्राप्त होता है। स्मरण रखिये कि सामने थाली में परोंसा हुआ भोजन भी उस समय तक मुख में नहीं जा सकता जब तक कि उसके लिये हाथों द्वारा प्रयास न किया जाये । मृगेन्द्र की शक्ति और वनराजता सर्वविदित होते हुए भी उसके आहार के लिये वन्य-पशु स्वयं ही उसकी सेवा में उपस्थित नहीं होते। उसे भी अपने जीवन निर्वाह के लिये दहाड़ मार कर शिकार करना पड़ता है।” संस्कृत में कहा गया है –
उद्यमेन हि सिद्धयन्ति कार्याणि न मनोरथैः ।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः ।।
          गोस्वामी जी ने लिखा है कि आलसी और अकर्मण्य दैव पर मिथ्या दोषारोपण करते हैं—
ते परत्र दुख पाबहीं, सिर धुन-धुन पछिताहिं ।
कालहिं, कर्महिं, ईश्वरहिं, मिथ्या दोष लगाहिं II
          आलस्य का त्याग करने से मुनष्य को अपने लक्ष्य में निश्चित सफलता प्राप्त होती है, चाहे वह लक्ष्य विद्या सम्बन्धी हो, चाहे लक्ष्मी सम्बन्धी हो, चाहे व्यापार सम्बन्धी हो और चाहे ब्रह्म साक्षात्कार सम्बन्धी हो । सफलतायें उद्योगी एवं कर्मशील मनुष्य को स्वयं ही आकर वरण करती हैं। संसार की सुख सम्पत्ति, वैभव-समृद्धि स्वयं ही कर्मण्य मनुष्य के चरणों पर न्यौछावर हो जाती । भयानक विपत्ति और घोर विघ्न भी उद्योगी को लक्ष्य प्राप्ति से विचलित नहीं कर सकते । मानव स्वयं अपने भाग्य का विधाता है। वह अपने उद्योग से, उपने अथक श्रम से, अपने भाग्य की वक्र रेखाओं को भी बदल सकता है। इतिहास साक्षी है, जितने भी महापुरुष हुए हैं, वे सब अपने अथक परिश्रम से अपनी जीवन भर की साधनाओं और तपस्याओं से ही महान् बने हैं। जो आलसी और अकर्मण्य होते हैं, वे ही दैव-दैव पुकारा करते हैं। उनमें धैर्य और साहस का अभाव होता है जिससे न वे स्वयं उन्नति कर पाते हैं और न समाज के प्रति ही अपने कर्त्तव्य का निर्वाह कर पाते हैं। हमें चींटियों से शिक्षा लेनी चाहिये कि वे कितनी कर्त्तव्यशील हैं, आलस्य और विश्राम उन्हें छू तक नहीं गया। जब देखो तब आगे बढ़ते, चलते और प्रयत्न करती ही मिलेंगी। क्या कभी चींटी को विश्राम करते किसी ने देखा है।
          गीता में अर्जुन को भगवान् श्रीकृष्ण ने कर्मयोग का ही उपदेश दिया था। संसार में आकर मनुष्य को कर्म करना चाहिये तभी वह मानव कहलाने का अधिकारी है और तभी वह अपना तथा अपने समाज का कल्याण कर सकता है। आलस्य तथा निरुद्योग पूर्ण जीवन तो पशु जीवन है, जिसके खूँटे पर बँध गये वह खाने को चारा तो देगा ही। उद्योग से मानव में स्वावलम्बन की भावना का उदय होता है, इससे वह अपना तथा देश का कल्याण कर सकता है। आलसी व्यक्ति धोबी के कुत्ते की तरह होता है जो न घर की ही रखवाली करता है और न घाट पर ही जा पाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि आलसी व्यक्ति न अपना ही भला कर सकता है और न अपने परिवार का, न समाज का और न अपने राष्ट्र का। आलस्य का परित्याग ही सफलता का प्रथम सोपान है।
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