टुसू पर्व हमारी संस्कृति का विशेष अंग, टुसू मिलन समारोह में बोले DSPMU के पूर्व कुलपति UC मेहता ने

रांची : डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय में शनिवार को एक दिवसीय टुसू मिलन समारोह का आयोजन यूनिवर्सिटी परिसर स्थित अखाड़ा में किया गया. सबसे पहले टुसू के स्वरूप चौड़ल को गाजे-बाजे के साथ अखाड़ा में लाया गया. इसके बाद इसकी स्थापना कुड़मालि रिति रिवाज के साथ किया गया. फिर अतिथियों ने चौड़ल पर पुष्पार्पण किया. इस मौके पर मुख्य अतिथि के रूप में विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रो. यू. सी. मेहता शामिल हुए. उन्होंने इस पर्व के बारे में विस्तार से बात करते हुए कहा कि इस पर्व को झारखंड के अलावा असम बिहार समेत कई राज्यों में मनाया जाता है. यह हमारी संस्कृति का विशेष अंग है. खास कर कुड़मलि संस्कृति में.

टुसू पर्व की वैज्ञानिकता और दार्शनिकता को सामने लाने की जरूरत: प्रो. एस. एन. मुंडा

कार्यक्रम को पूर्व कुलपति प्रो. एस. एन. मुंडा ने भी संबोधित किया. जिसमें उन्होंने टुसू पर्व को हर्षोउल्लास और उमंग का सबसे बड़ा पर्व बतलाया. उन्होंने इस पर्व को अन्य झारखंडी पर्व-त्योहारों के ऊपर बतलाते हुए कहा कि टुसू पर्व की वैज्ञानिकता और दार्शनिकता को शोध के माध्यम से लोगों के सामने लाने की जरूरत है.

टुसू कृषि से जुड़ा महत्वपूर्ण पर्व : प्रो. तपन कुमार शांडिल्य

विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. तपन कुमार शांडिल्य ने कहा कि टुसू कृषि से जुड़ा एक महत्वपूर्ण पर्व है. किसान जब अपने फसल की कटाई कर लेता है, तब इसी खुशी में वह इस पर्व को मनाते हैं. जो पूस संक्रांति के अंतिम दिन तक चलता है.

क्यों और कैसे मनाया जाता है टुसू पर्व

बताते चलें कि ‘टुसू’ को पांच परगना और पूरे कुड़मालि क्षेत्र में लखी मां के प्रतीक के रूप में माना जाता है. इसकी उत्पत्ति कृषि सभ्यता के विकास के साथ जुड़ा हुआ है, जो हमारे अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार है. यहां की सभ्यता ने जब से धान की खेती करना शुरू किया तब से पर्व को मनाया जाता है. टुसू को डिनिमाइ भी कहा जाता है. इसकी शुरुआत वर्ष के रहइन माह से खेत में धान का बीज देने से ही हो जाती है. धान की कटाई अघहन-पूस महीना में हो जाती है. इसके बाद कुछ धान की गाछी को प्रतीकात्मक ढंग से खेत खलिहान में विधिवत लाकर स्थापित करते हैं. फिर उसी समय खलिहान से किसान उस धान के कुछ अंश को लाकर घर के कनगा अथवा दिरखा में लाकर स्थापित करते हैं. इसे टुसू थापना भी कहा जाता है. चूंकि कुड़मालि संस्कृति में कुंवारी को लखि का प्रतीक माना जाता है, इसलिए टुसू थापने का काम भी कुंवारी लड़कियां ही करती हैं. इसकी स्थापना के दिन से हर आठवें दिन में आठखलई का भोग चढ़ाया जाता है. इसमें तरह-तरह के बीजों का भूंजा रहता है जिसे लोग प्रसाद के रूप में सेवन करते हैं.

कौन कौन रहे उपस्थित

इस मौके पर रांची के मारवाड़ी कॉलेज के कुड़मालि विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष डॉ. वृंदावन महतो, विशिष्ट अतिथि के रूप विश्वविद्यालय के कुलसचिव प्रो. (डॉ.) नमिता सिंह, अंग्रेजी के विभागाध्यक्ष डॉ. विनय भरत, मानवशास्त्र विभाग के विभागाध्यक्ष डॉ. अभय सागर मिंज, फिजिक्स के डॉ. राजेश कुमार सिंह समेत कई लोग उपस्थित थे.

Also Read: ‘दिशोम गुरु’ शिबू सोरेन का ऐसे मनाया गया जन्मदिन, 81 पौंड का काटा गया केक, देखें Video और फोटो

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *