“जीवन में परिश्रम का महत्त्व” अथवा ” श्रम की महत्ता “

“जीवन में परिश्रम का महत्त्व” अथवा ” श्रम की महत्ता “

“भूरे बालों की-सी कतरन, छिपा नहीं जिसका छोटापन।
वह समस्त पृथ्वी पर निर्भय, विचरण करती, श्रम में तन्मय |
वह जीवन की चिनगी अक्षय, दिन भर में यह मीलों चलती। 
अथक कार्य से कभी न डरती ॥ “
          पन्त जी ने चौंटी का उदाहरण देकर मानव को लज्जावनत होने के लिये बाध्य कर दिया। चींटी का लघुतम जीवन परिश्रम से भरा हुआ जीवन है । वह बड़े से बड़े पर्वतों को सरलता से लाँघ जाती है | शायद ही किसी ने चींटी को सोते हुए या आराम से बैठे हुए देखा हो। वह अनवरत श्रम करती है, इसलिए उसे अपना छोटापन अखरता नहीं। वह जीवन की समस्याओं को अपने श्रम से बड़ी सरलता से सुलझा लेती है। तब क्या मनुष्य संसार की कठिन-से-कठिन समस्याओं को, विभीषिकाओं को अपने श्रम से सरल नहीं बना सकता । यदि वह चाहे तो पर्वतों को काटकर सड़क निकाल सकता है, उन्मादिनी नदियों को बाँध कर पुल बना सकता है, कंटकाकीर्ण मार्गों को सुगम बना सकता है। ऐसा कौन सा कार्य है जो परिश्रम-साध्य न हो। नेपोलियन की डायरी में असम्भव जैसा कोई शब्द नहीं था। कर्मवीर, दृढ़-प्रतिज्ञ, महापुरुषों के लिये संसार का कोई भी  प्राप्तव्य कठिन नहीं होता।
          परिश्रमी व्यक्ति अपने लक्ष्य की ओर निरन्तर अग्रसर होता रहता है, प्राकृतिक कारण भी विघ्न बनकर उसके मार्ग में खड़े नहीं हो सकते । सफलता उसी मनुष्य का वरण करती है, जिसने उसकी प्राप्ति के लिये श्रम किया हो । प्रथम श्रेणी उन्हीं विद्यार्थियों को अपने गले लगाती है, जो उसकी प्राप्ति के लिये पूरे वर्ष परिश्रम करते रहे हैं। साधारण से साधारण व्यक्ति भी अपने परिश्रमसे एक महान् उद्योगपति बन जाता है। सामने रखे हुए थाल में से रोटी का प्रास भी बिना श्रम के मुँह में नहीं जाता और जाने के बाद भी बिना मुख-चर्वण का व्यायाम किये पेट में नहीं जा सकता । भर्तृहरि जी ने लिखा है कि –
“उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मीः दैवेन देयमिति कापुरुषाः वदन्ति 
दैवं निहत्य कुरुपौरुषमात्मशक्त्या, यले कृते यदि न सिद्धयति कोऽत्र दोषः ॥” 
          उद्योगी पुरुष को ही लक्ष्मी प्राप्त होती है, “ईश्वर देगा” ऐसा कायर आदमी कहा करते हैं। देव को छोड़कर मनुष्य को यथाशक्ति पुरुषार्थ करना चाहिये । यदि प्रयत्न करने पर भी कार्य सिद्ध न हो तो यह विचार करना चाहिये कि इसमें हमारी क्या कमी रह गई ?
          जीवन की सफलता के लिये परिश्रम की नितान्त आवश्यकता है। आलसी, अनुद्योगी और अकर्मण्य व्यक्ति जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफल नहीं होता । शूकर, कूकर के समान जैसे वह आता है वैसे ही चला जाता है। मनुष्य वही है, उसी मनुष्य का जीवन सार्थक है, जिसने अपना, अपनी जाति का, अपने देश का, अपने परिश्रम से उत्थान और अभ्युदय किया हो
“सः जातः येन जातेन याति वंशः समुन्नतिम् ।”
          गति का ही दूसरा नाम जीवन है । जिस मनुष्य के जीवन में गति नहीं है, वह आगे नहीं बढ़ सकता, जहाँ पैदा हुआ है किसी दिन उसी स्थान पर सूख कर पृथ्वी पर गिर पड़ेगा । वह उस तालाब के समान है, जिसमें पानी न कहीं से आता है और न निकलता ही है। वर्षा हुई तो थोड़ा भर गया और उसमें सड़ता रहा। पथिक भी उसकी दुर्गन्ध से दूर भागते हैं, कोई पास आना भी पसन्द नहीं करता । मानव-जीवन संघर्षों के लिये है, सघर्षों के पश्चात् उसे सफलता मिलती है। संघर्षों में घोर श्रम करना पड़ता है। जो व्यक्ति संघर्षो से, श्रम से डर गया, वह मानव नहीं पशु है, पशु भी नहीं वह जड़ वृक्ष है, जहाँ पैदा हुआ है वहीं उसे मुरझा जाना है। गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कर्म करने का उपदेश देते हुए कहा
“माम् अनुस्पर युद्ध्य च”
          अर्थात् मेरा स्मरण करो और संसार में संघर्ष करो, युद्ध करो, सफलता अवश्य मिलेगी। गजराज, मृगेन्द्र यदि अपनी माँद में पड़ा पड़ा सोता रहे, तो सम्भवतः कोई भी वन्य पशु उसके भोजन के लिये वहाँ उपस्थित न हो । उसे अपने जीवन के लिये दहाड़ना पड़ता है, उछल-कूद करनी पड़ती है, तब कहीं वन के राजा का पेट भर पाता है। यदि वह अकर्मण्य होकर अपने ही स्थान में पड़ा रहे तो शायद वह भूखा मर जाये । कहा भी है—
“उद्यमेन ही सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः ।
नहि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः ॥”
          उद्योग और कठिन परिश्रम से ही मनुष्य की कार्य सिद्धि होती है, केवल इच्छामात्र से नहीं, जैसे कि सोते हुए सिंह के मुख में मृग स्वयं नहीं घुसते । जो मनुष्य अपने जीवन में जितना परिश्रमी रहा, जितना अधिक से अधिक संघर्ष और कठिनाइयाँ उसने उठा लीं, अन्त में उसने उतनी ही अधिक उन्नति की –
“जितने कष्ट संकटों में हैं जिनका जीवन-सुमन खिला।
गौरव-गन्ध उन्हें उतना ही यत्र तत्र सर्वत्र मिला ||”
          केवल ईश्वर की इच्छा और भाग्य के सहारे पर चलना कायरता है और अकर्मण्यता है। मनुष्य अपने भाग्य का विधाता स्वयम् है । वह दूध में जितना गुड़ डालेगा, दूध उतना ही मीठा होगा। जिसने जीवन के अभ्युत्थान के लिये जितना श्रम किया होगा, उसकी उतनी ही सफलता मिली होगी। वैसे भी ईश्वर उन्हीं की सहायता करता है, जो अपनी सहायता स्वयम् करने में समर्थ होते हैं, कायरों से निरीह और निकम्मों से ईश्वर भी घबड़ाता है। एक अंग्रेजी कहावत है –
“God helps those who help themselves.”
          परिश्रम करने से मनुष्य का सबसे बड़ा लाभ है, उसे आत्मिक शान्ति प्राप्त होती है, उसका हृदय पवित्र होता है, उसके संकल्पों में दिव्यता आती है, उसे सच्चे ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है, उसे व्यक्तिगत जीवन में उन्नति प्राप्त होती है। जीवन की उन्नति के लिये मनुष्य क्या काम नहीं करता, यहाँ तक कि बुरे से बुरे काम करने के लिये भी उद्यत हो जाता है। परन्तु यदि वह सफलता रूपी ताले की कुँजी परिश्रम को अपने हाथ में ले तो फिर सफलता उस मनस्वी के चरणों को चूमने लगती है। वह उत्तरोत्तर उन्नति और समृद्धि के शिखर पर चढ़ता हुआ चला जाता है। भारतवर्ष की दासता और पतन का मुख्य कारण भी यही था कि यहाँ के निवासी अकर्मण्य हो गये थे, परिश्रम करना उन्होंने भुला दिया था। यदि आज भी अकर्मण्य और आलसी बने रहे, तो प्राप्त की हुई स्वतन्त्रता फिर खो देंगे । आज देश को कठोर परिश्रमी नवयुवकों की आवश्यकता है, जिससे देश की विदेशी आक्रमण से रक्षा हो सके। आज कठिन साधना की जरूरत है –
“नहीं कौन-सी साधना है यहाँ, वहीं सिद्धि है साधन है  जहाँ
          जीवन का वास्तविक सुख और शान्ति मनुष्य को अपने काम से प्राप्त होती है। परिश्रम का फल जब उसके समक्ष होता है, तो उसका हृदय हर्षातिरेक से उछलने लगता है, वह आत्मगौरव का अनुभव करता है। परिश्रमी को कभी किसी वस्तु का अभाव नहीं होता, वह किसी के सामने हाथ फैलाकर गिड़गिड़ाता नहीं, उसे अपने श्रम पर विश्वास रहता है, वह जानता है कि मैं जो चाहूँगा, प्राप्त कर सकता हूँ, वह सदैव आत्मनिर्भर रहता है, दूसरों का मुख देखने वाला कभी नहीं बनता ।
          परिश्रम करने से मनुष्य का अन्तःकरण जान्हवी के जल की भाँति पवित्र हो जाता है। संसार की समस्त दुर्वासनायें, कलुषित भावनायें, उन्हीं को सताती हैं जिनके पास इन पर सोचने के लिये न समय है और न उनकी पूर्ति के लिये साधन हैं। परिश्रमी के पास इन सब बातों को सोचने के लिये समय कहाँ। वह तो परिश्रम रूपी यज्ञ में दुर्वासनाओं की आहुति दे चुका है। खाली मस्तिक ही शैतान का घर होता है, जैसा कि अंग्रेजी कहावत से सिद्ध है – “An empty mind is a devil’s work-shop.” जहाँ व्यस्तता है, कार्य का आधिक्य है, वहाँ इन सब बातों के लिये जगह कहाँ ? जिस प्रकार परमेश्वर की उपासना करने से मनुष्य की अन्तरात्मा पवित्र हो जाती है, उसी प्रकार परिश्रम से भी मनुष्य का अन्तःकरण पवित्र रहता है, कारण कि उसका मन संसार से खिंचकर एक निश्चित लक्ष्य की ओर लग जाता है और वह संसार को बिल्कुल भूल जाता है।
          परिश्रम से मनुष्य को यश और धन दोनों ही प्राप्त होते हैं । परिश्रम से मनुष्य धनोपार्जन भी करता है। ऐसे लोग देखे गये हैं, जिन्होंने अपना व्यापार दस रुपये से प्रारम्भ किया और अपने अथक परिश्रम और शौर्य के बल पर कुछ ही वर्षों में लक्षाधीश बन गये। जहाँ तक यश का सम्बन्ध है, वह परिश्रमी मनुष्य को जीवित रहते हुए भी मिलता है और मृत्यु से अनन्तर भी । जीवित रहते हुए समाज के व्यक्ति उसका मान करते हैं, उसकी कीर्ति उसकी जाति और नगर में गाई जाती है। मृत्यु के पश्चात् वह एक आदर्श छोड़ जाता है, जिस पर चलकर भावी सन्तति अपना पथ-प्रशस्त करती है। लोग उसकी यशोगाथा से अपना और अपने बच्चों का मार्ग निर्माण करते हैं। महामना मालवीय, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, महाकवि कालीदास, छत्रपति शिवाजी आदि महापुरुषों का गुण-गान करके हम भी अपना मार्ग निश्चित करते हैं । इतिहास साक्षी है कि इन लोगों ने अपने जीवन में कितना श्रम किया और कितने संघर्ष किये, जिसके फलस्वरूप वे उन्नति के शिखर पर पहुँचे। आज भी उनका यश है और सदैव रहेगा ।
          “एक तन्दुरुस्ती हजार नियामत” वाली कहावत आज भी घर-घर में कही जाती है। एक बार गया हुआ स्वास्थ्य फिर लौटकर नहीं आता, परन्तु यह स्वास्थ्य आता कहाँ से है, यह विचारणीय है। स्वास्थ्य आता है परिश्रम से । जो लोग दिन-रात मेहनत करते हैं, वे स्वस्थ देखे जाते हैं, वे कभी बीमार नहीं पड़ते, उन्हें कभी कोई रोग नहीं सताता । इसके विपरीत, जो लोग माल खाते हैं और गद्दे एवं तकियों के सहारे पड़े रहते हैं, उनकी शक्ल पीली देखी जाती है और आये दिन डाक्टरों और वैद्यों के घर का खर्च चलाया करते हैं। जो लोग अपना काम स्वयं नहीं कर सकते, अपने हाथ-पैरों से कोई मेहनत नहीं करते, उनके शरीर की कर्मेन्द्रियाँ शक्तिहीन हो जाती हैं। ऐसे व्यक्तियों का जीवित रहना या मर जाना दोनों एक समान हैं। परिश्रम करने से मनुष्य में नई शक्ति, नई स्फूर्ति और नवीन चेतना का उदय होता है। वह सैदव प्रसन्नवदन एवम् चिन्तामुक्त रहता है। अकर्मण्य और आलसी व्यक्ति चिड़चिड़े और क्रोधी स्वभाव के होते हैं।
          महापुरुषों ने जीवन में परिश्रम के महत्त्व का से मनुष्य की न केवल भौतिक उन्नति होती है, अपितु को क्या आवश्यकता थी मूक पशुओं को लाठी मूल्यांकन किया था। वे जानते थे कि परिश्रम आध्यात्मिक उन्नति भी होती है। श्रीकृष्ण लेकर हाँकने की तथा उन्हें वन-वन लेकर घूमने ही बुना करते थे, उमर जोन ऑफ आर्क को की । कबीर कपड़ा बुनते थे,रैदास जुते गाँठते थे, खलीफा उमर अपने रंगमहलों में बैठे-बैठे चटाई खैयाम बड़ी खुशी-खुशी तम्बू सीते फिरा करते थे, टॉलस्टाय जूते गाँठते थे, भेड़ें चराने में ही आनन्द आता था । रैमजे मैकडॉनल्ड केवल एक निर्धन श्रमिक था, परन्तु अपने अथक परिश्रम के बल पर ही एक दिन इंगलैंड का प्रधानमन्त्री बना । छत्रपति शिवाजी ने थोड़े से सैनिकों की सहायता से ही समस्त हिन्दू जाति और हिन्दू धर्म की यवन आततायियों के हाथ से रक्षा की, महामना मालवीय जी एक साधारण परिवार के बालक थे, परन्तु अपने अदम्य साहस और अथक परिश्रम के बल पर ही काशी हिन्दू विश्वविद्यालय जैसी अभूतपूर्व संस्था का निर्माण कर सके। ठीक ही कहा है –
“श्रमेण बिना न किमपि साध्यं ।”
” श्रम ही सों सब मिलत है, बिनु श्रम मिलै न काहि”
          यदि हम चाहते हैं कि अपने देश की अपनी जाति की, और अपनी उन्नति करें तो यह आवश्यक है कि हमें परिश्रमी बनना होगा। आज भारतवर्ष में परिश्रम प्रायः समाप्त होता जा रहा है। सभी लोग पकी पकाई खाने को तैयार हैं, पकाना कोई नहीं चाहता । यदि हम इसी स्थिति में रहे, तो जो कुछ हमारे पास अब तक रह गया है, वह भी एक दिन खो बैठेंगे । अंग्रेजों ने हमें दास तो बनाया ही, साथ-साथ फैशनपरस्ती भर हमें अकर्मण्य भी बना दिया। अंग्रेजी साम्राज्य ने भारतवर्ष में शासन ही नहीं किया बल्कि हमारे हाथ और पैर भी काट लिये । हमारे हाथ-पैरों का स्थान मशीनों ने ले लिया, हम पंगु बन गये । हमारी कलाकारी छिन गई । परिणामस्वरूप देश में बेरोजगारी फैली और धीरे-धीरे हम अपना काम करना भी भूल गये । हमारा कल्याण तभी हो सकता है, जब हम अपना काम, अपना व्यवसाय, अपना उद्योग, अपनी कृषि आदि सभी कार्य आलस्य को छोड़कर स्वयं अपने हाथों से करेंगे। परिश्रम जीवन है, आलस्य मरण है ।
“आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः “
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