“जहाँ सुमति तहँ सम्पति नाना “

“जहाँ सुमति तहँ सम्पति नाना “

“वन्दनीय वह देश, जहाँ के देशी निज अभिमानी हों।
बान्धवता में बँधे परस्पर, परता के अज्ञानी हों ॥”
          वास्तव में वह देश वन्दनीय है, जहाँ के निवासियों को अपने देश पर गर्व हो, जिनमें स्वाभिमान हो और जो परस्पर बन्धुत्व की भावना से बँधे हुए हों। वह देश निःसन्देह उन्नति के चरम शिखर पर पहुँचेगा, वह शक्ति सम्पन्न राष्ट्र अपनी रक्षा करने में स्वयं समर्थ होगा । एकता के सूत्र में बँधा देश कभी परतन्त्र और पराधीन नहीं हो सकता। उसमें शत्रु को धराशायी करने की शक्ति होती है। किसी की ताकत नहीं कि उनकी तरफ आँख उठाकर भी देख ले । सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक सभी प्रकार की समृद्धियाँ उसे सहज में ही प्राप्त हो जाती हैं और वह अन्य देशों में शिरोमणि देश गिना जाता है। परन्तु देश की सर्वांगीण उन्नति के लिये जनता में एकता होनी चाहिये । वह एकता विचारों की एकता हो, भावों की एकता हो, भाषा की एकता हो अथवा धार्मिक एकता हो । एक धागे को आसानी से तोड़ा जा सकता है, परन्तु वे सभी धागे मिलकर जब एक मोटा रस्सा बन जाते हैं, तो उससे केवल कुयें में से पानी ही नहीं हाथी भी बँधे चले आते हैं। इसलिये कहा गया है कि –
“संघे शक्तिः कलीयुगे।”
          कलियुग में संघ में ही शक्ति है। अकेला मुनष्य यदि कुछ करना चाहे, तो नहीं कर सकता, जब तक कि उसके पीछे एक सूत्रबद्ध सामूहिक शक्ति न हो । देश की स्थिति के समान ही घर की स्थिति समझनी चाहिये । जिस घर में सदैव कलह और झगड़े बने रहते हैं वहाँ सदैव दरिद्रता निवास करती है, एक न एक दिन उस घर का विनाश हो ही जाता है, जिस घर में सभी मेल-जोल से हिल-मिल कर रहते हैं, वह घर दिन पर दिन उन्नति करता है, वहाँ लक्ष्मी, सुख और शान्ति निवास करती है। जहाँ हृदय की एकता और विचारों का साम्य होगा, वहाँ धन-धान्य, सुख-सम्पत्ति, यश-गौरव स्वयं खिंचे चले आयेंगे । इसीलिये तुलसीदास जी ने लिखा है –
 “जहाँ सुमति तहँ सम्पति नाना ।
जहाँ कुमति तहं विपति निदाना ।।”
          सुमति से मनुष्य में शक्ति आती है। आये दिन समाज में देखा जाता है कि जिस घर में एक ही आदमी होता है उसको सड़क पर पकड़ कर कोई भी पीट लेता है और जिसके चार-छह भाई होते हैं, सभी मिल-जुलकर रहते हैं, उनसे मुहल्ले वाले भी डरते हैं। वे जानते हैं कि अगर एक से भी कुछ कह दिया तो सभी लड़ने चले आयेंगे और जान बचानी मुश्किल हो जाएगी। यह प्रताप घर में सुमति का है, एकता का है। आप अपनी एक उंगली किसी पर उठायें, उस उंगली. को आसानी से पकड़कर कोई भी तोड़-मरोड़ सकता है, परन्तु जब चारों उंगली मिलकर घूँसा बना लेती हैं और ऊपर से उनका सरदार अंगूठा मजबूती से उनकी रक्षा को उनके ऊपर बैठ जाता है, तो बड़े-बड़े शत्रु भी उस घूंसे को देखकर दहल जाते हैं। यह है एकता और सुमति की शक्ति। इसीलिए एकता को ही बल कहा गया है। अंग्रेजी में भी कहते हैं “Unity is strength” संस्कृत की परिभाषा तो स्पष्ट है ही “संघे शक्तिः कलीयुगे” फिर अर्जन करने में सुमति की बड़ी आवश्यकता है। दसवीं शताब्दी में विदेशी यवनों ने भारत पर आक्रमण किये और यहाँ के राजपूत र पराजित होते चले गये। कारण क्या था ? देश में सुमति का अभाव । सभी राजपूत राजे-महाराजे अपनी-अपनी रियासतों को ही स्वतन्त्र राष्ट्र मान बैठे थे, उन्हें आत्म-गौरव का तो ध्यान था, परन्तु देश के गौरव का किसी को ध्यान नहीं था। उन्हें व्यक्तिगत मान-मर्यादा की चिन्ता थी, परन्तु सामूहिक रूप से अपनी जाति, अपने देश और अपने धर्म का बिल्कुल ध्यान नहीं था । फलस्वरूप शत्रु के सामने एक सूत्रबद्ध सामूहिक शक्ति का परिचय न दे सके और यहाँ यवनों का झण्डा फहराने लगा। यही अंग्रेजों ने किया, उन्होंने “Divide and rule” की कूटनीति के आधार पर लगभग दो सौ वर्ष तक भारत पर अपना अधिकार रक्खा । यह सब सुमति और एकता के अभाव का ही परिणाम था ।
          अकेला व्यक्ति कितना ही परिश्रम करे उतना पैसा पैदा नहीं कर सकता, जितना कि घर के चार छ: व्यक्ति मिलकर एक व्यापार को ऊपर उठा ले जाते हैं। कहावत भी है कि “अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता” ( जिस घर में सुमति का साम्राज्य होता है, उस घर की आर्थिक स्थिति बहुत जल्दी अच्छी हो जाती है और जहाँ कुमति होती है वहाँ सभी अपनी-अपनी जेब भरने की कोशिश करते हैं। परिणाम यह होता है कि व्यापार में लगाई गई असली पूँजी भी कुछ दिनों में साफ हो जाती है क्योंकि उन सभी के सामने अपने-अपने व्यक्तिगत स्वार्थं हैं और व्यक्तिगत लक्ष्य जहाँ सुमति होती है, वहाँ अलग-अलग स्वार्थ और लक्ष्य नहीं होते। सभी का एक लक्ष्य होता है. कि हमारे घर, हमारे परिवार और हमारे पूर्वजों का नाम हो, यश फैले । घर के बड़े आदमी के इशारे पर भी चलते हैं । परिणाम यह होता है कि चन्द दिनों में ही परिवार कहीं से कहीं पहुँच जाता है। यही स्थिति देश की है । जिस देश की जनता में सुमति है, एकता है, वह देश धन-धान्य से सम्पन्न होता है। एक समय था जब भारत में सुमति थी, एकता थी, तब भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था । विश्व के जितने भी समृद्धिशाली देश हैं, जैसे—अमेरिका, इंगलैंड आदि वहाँ देशवासियों में सुमति है, विचारों की एकता है, भाषा की एकता है, भावनाओं की एकता है। वे लोग अपने व्यक्तिगत स्वार्थों का देशहित के लिए बलिदान करना जानते हैं, इसलिए आज विश्व के कोने-कोने में उनकी तूती बोल रही है।
          संसार में दो शक्तियाँ महान् हैं— एक जनशक्ति, दूसरी धनशक्ति । जिसके पास दोनों हों उसका दूसरे पर स्वयं ही प्रभाव जम जाता है। उसे स्वयं कहने की आवश्यकता नहीं होती कि आप मेरा मान कीजिए या प्रतिष्ठा कीजिये । उसका ऐश्वर्य और उसका गौरव सर्वत्र स्वयं ही छा जाता है । आज अमेरिका, इंगलैंड या रूस को किसी से कहने की आवश्यकता नहीं पड़ रही कि हम तुम से बड़े हैं बल्कि स्वयं ही विश्व के समस्त देशों पर उनका ऐश्वर्य छाया हुआ है। यही स्थिति परिवार की है, जिस परिवार में धन-जन की शक्ति पर्याप्त होती है, उसका यश और ऐश्वर्य मुहल्ले में क्या सारे नगर में छा जाता है, चारों ओर कीर्ति फैलने लगती है। जिस जाति, जिस समाज और जिस देश में लोग परस्पर मेल-जोल, बन्धुत्व की भावना, परस्परावलम्बन, सहयोग तथा सहानुभूति से कार्य करते हैं, पारस्परिक स्वार्थों और मतभेदों में नहीं उलझते, उस जाति, उस देश और समाज का उज्ज्वल यश संसार में फैलता है, वह एक सार्वभौम, प्रभुत्वसम्पन्न राष्ट्र माना जाता है।
          जहाँ और शान्ति नहीं होती वह स्थान मनुष्य के लिये नर्क बन जाता है, दिन-रात झगड़े होते हैं, कलह होती है, एक की बात दूसरे को सहन नहीं होती, एक का खाया दूसरा देख नहीं सकता, एक की अच्छी कही हुई बात भी दूसरों को काँटों की तरह चुभती है। जहाँ एक-दूसरे के प्राण लेने के लिए तैयार बैठा रहता है, जहाँ कुमति का गहन अन्धकार छाया हुआ है, वहाँ स्वर्ग की कल्पना कैसे की जा सकती है, वह तो घोर नर्क है। मनुष्य अपने कर्मों से ही स्वर्ग की सृष्टि कर लेता है और अपने कर्मों से ही नर्क की। जहाँ सुमति है, वहाँ स्वर्ग है, सुख है, शान्ति है, जहाँ कुमति है वहाँ नर्क है, कलह है, अशान्ति है। गुप्त जी ने लिखा है –
“बनालो जहाँ, हाँ, वहीं स्वर्ग है, स्वयं भूत थोड़ा कहीं स्वर्ग है। 
खलों को कहीं भी नहीं स्वर्ग है, भलों के लिए तो यहीं स्वर्ग है।I” 
          जीवन में सफलता की कुञ्जी सुमति है। जहाँ सुमति है वहाँ धन-धान्य सम्पत्ति, शक्ति, प्रतिष्ठा, यश, गौरव सभी कुछ है, फिर भला मनुष्य को सुख और शांति कैसे नहीं मिलेगी ? जीवन की असफलतायें मनुष्य को दुखी, अशान्त बना दिया करती हैं परन्तु सफलता तो सुमति की दासी है, जहाँ सुमति होगी, वहाँ सफलता अवश्य होगी और जहाँ सफलता होगी वहाँ सुख और शान्ति भी अवश्य होगी । श्रीधर पाठक का स्मरण भाव देखिये –
“जन-जन सरल सनेह सुजन व्यवहार व्याप्त नहिं,
निर्धारित नर नारि उचित उपचार आप्त नहिं । 
कलि-मल मूलक कलह कभी होवै समाप्त नहिं, 
वह देश मनुष्यों का नहीं प्रेतों का ही घेरा है। 
नित नूतन अध उद्देशथल भूतल नरक निवेश है।”
          जिस परिवार में या जिस देश में कुमति घुसी हुई है, वह कभी फल-फूल नहीं सकता। कुमति से मनुष्य को कभी जीवन में सफलता नहीं होती। समाज में वह अपमान का पात्र बना रहता । कलहपूर्ण घर की धन-जन शक्ति नष्ट हो जाती है। एक समय वह आ जाता है कि पेट भरने के लिये रोटियाँ भी नहीं मिल पातीं और न शंरीर ढकने के लिए कपड़े । जो मनुष्य कलहप्रिय होता है, उसकी विचारशक्ति नष्ट हो जाती है, उनके मन और मस्तिष्क जर्जर हो जाते हैं, वह हँसने के समय भी रोता है। कुमतिपूर्ण घर, परिवार या कुमतिपूर्ण देश, समझ लीजिये कि वह विनाश के कगार पर खड़ा हुआ एक धक्के की प्रतीक्षा कर रहा है। कुमति विनाश का घर है। झगड़ालु और कलहप्रिय व्यक्ति का जीवन भार बन जाता है, वह विश्व में आँखें फाड़कर देखता है पर दूर-दूर तक उसे अपना कोई दिखाई नहीं पड़ता, वह जीवन भर अशान्ति और विद्रोह की अग्नि में जलता में रहता है।
          आज भारतवर्ष की स्थिति बड़ी विचित्र है। शत-शत जातियों और उपजातियों में विभक्त इस देश की अशिक्षित जनता न जाने इस देश को कहाँ ले जाकर पटकेगी ? व्यक्तिगत स्वार्थ इतने बढ़ गये हैं कि एकता को कहीं प्रश्रय भी नहीं मिल पा रहा और लोग अपनी-अपनी ढपली पर अपना-अपना राग अलापते जा रहे हैं। पृथकता एकदम बढ़ती जा रही है। एकता समाप्ति की ओर अग्रसर होती जा रही है। देश में सुमति का नाम तक नहीं रहा। देश की जनता में न परस्पर सहयोग है न सहानुभूति, एक-दूसरे का गला काटने को अहर्निश तैयार बैठे हैं। भारतवर्ष जैसे विशाल देश में अनेक जातियाँ रहती हैं, उनकी अनेक भाषायें हैं और वे भिन्न-भिन्न धर्मावलम्बी हैं। भारतीय होने के नाते राष्ट्रीयता की भावना सभी में होनी चाहिये, देश हित का ध्यान सभी को रखना चाहिए। जिस देश में हम पैदा हुए, जिसकी धूलि में लेट-लेटकर हम बड़े हुए, जीवन प्राप्त किया, क्या उस मातृभूमि के प्रति हमारा यही कर्त्तव्य है कि उसके टुकड़े-टुकड़े कर दें और विनाश के मुँह में झोंक दें? लज्जा की बात है। आज एक जाति दूसरी जाति से घृणा करती है, एक धर्मानुयायी दूसरे धर्मानुयायी को देखना तक नहीं चाहता। एक भाषा-भाषी दूसरे भाषा-भाषी को बात सुनना भी पसन्द नहीं करता। प्रान्तीयता इतनी घुस गई है कि इसके बारे में जितना कहा जाये उतना थोड़ा है। अब आप बतलाइये कि जिस देश में कुमति घर किए हुए हो और सुमति का कहीं नाम तक न हो उस देश का क्या भविष्य होगा ?
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