जनतन्त्र और नागरिकों के अधिकार एवं कर्त्तव्य
जनतन्त्र और नागरिकों के अधिकार एवं कर्त्तव्य
प्रजातन्त्र प्रणाली के सफलतापूर्वक निर्वाह के लिए यह परम आवश्यक है कि उस देश के नागरिकों में नागरिकता की भावना पूर्णरूप से विद्यमान हो । नागरिक शब्द का साधारण अर्थ नगर में रहने वाला होता है। इस परिभाषा से ग्रामवासी नागरिक किस प्रकार कहे जा सकते हैं ? आजकल नागरिक का बहुत व्यापक अर्थ हो गया है। आज का नागरिक समाज का वह सभ्य व्यक्ति है, जो किसी राज्य का हो, चाहे वह नगर में रहता हो, चाहे ग्राम में। उसे राजनीतिक अधिकार प्राप्त होते हैं। वह चुनाव में स्वयं खड़ा हो सकता है। भारतवर्ष के नवीन संविधान ने सभी नागरिकों को सामाजिक अधिकार प्रदान किये हैं। १८ वर्ष या इससे अधिक अवस्था वाले व्यक्ति इन सामाजिक तथा राजनैतिक अधिकारों का उपभोग कर सकते हैं, परन्तु पागल, कोढ़ी, दिवालिये तथा साधु-संन्यासी, आदि को इन अधिकारों से वंचित कर दिया है। जहाँ नागरिक के अधिकार होते हैं, वहाँ उनके कुछ कर्त्तव्य भी होते हैं। अधिकार और कर्त्तव्यों का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। इसीलिये जहाँ नागरिकों को अधिकारों के उपभोग में प्रसन्नता होती है, वहाँ उन्हें कर्त्तव्य पालन का भी पूर्ण ध्यान रखना चाहिए ।
आदर्श नागरिक में कुछ गुणों का होना बहुत आवश्यक है। महात्मा ईसा मसीह ने कहा है कि “अपने पड़ौसी को अपनी तरह ही प्यार करो।” हमारी भारतीय सभ्यता “बहुजनहिताय बहुजन सुखाय” के सिद्धान्तों पर आधारित है । “आत्मवत् सर्वभूतेषु” आदि वाक्यों पर जनता विश्वास करती है। आदर्श नागरिक वही है, जिसके हृदय में सहानुभूति, सहयोग की भावना है। लार्ड ब्राइस का कथन है कि “चमत्कार, सहानुभूति एवं आत्मसंयम आदर्श नागरिक के आवश्यक गुण हैं। आदर्श नागरिक की बुद्धि में चमत्कार होना चाहिये, उसकी बुद्धि में विवेक होना आवश्यक है। दूसरों के प्रति सहानुभूति एवं संवेदना रखनी चाहिये । उसे आत्मसंयम रखना चाहिये । ईर्ष्या, क्रोध इत्यादि से दूर रहना चाहिये ।”
संविधान प्रत्येक नागरिक को अधिकार प्रदान करता है। बिना अधिकारों के नागरिक जीवन का कोई विशेष महत्व नहीं । ये अधिकार दो प्रकार के हैं – सामाजिक तथा राजनैतिक ।
सामाजिक अधिकारों में सबसे प्रमुख अधिकार मनुष्य को जीवित रहने का अधिकार है । शासन की ओर से प्रत्येक नागरिक को इस प्रकार की सुविधा प्राप्त हुई, जिससे वह निर्भीक और निश्चिन्त होकर अपना जीवन यापन कर सकें । जीवन के साथ-साथ दूसरा सामाजिक अधिकार • सम्पत्ति का है। यदि किसी मनुष्य ने न्यायोचित रीति से धनोपार्जन किया हो या किसी प्रकार की सम्पत्ति एकत्रित की हो, तो उससे वह सम्पत्ति छीनी नहीं जा सकती। यदि कोई व्यक्ति इस सम्पत्ति को छीनने या चुराने का प्रयत्न करेगा तो राज्य की ओर से उसे दण्ड मिलेगा । उसे रहने के लिए घर, पहिनने के लिए वस्त्र और भोजन के लिए अन्न की सुव्यवस्था भी होनी चाहिए। तीसरा सामाजिक अधिकार सामुदायिक जीवन का अधिकार है, उसे विवाह आदि की स्वतन्त्रता का अधिकार है। चौथा धर्म सम्बन्धी अधिकार है। धर्म पालन में उसे पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त है । इसके अतिरिक्त उसे काम करने का अधिकार प्राप्त है, यदि कोई व्यक्ति बेकार है, तो शासन का कर्त्तव्य है कि उसको उसकी विद्या और बुद्धि के अनुसार कार्य प्रदान करे ।
स्वतन्त्र देशों में विचार स्वातन्त्र्य तथा उनकी अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता बहुत बड़ा अधिकार समझी जाती है। भारतीय संविधान अपने प्रत्येक नागरिक को विचार और भाषा की स्वतन्त्रता प्रदान करता है क्योंकि मनुष्य की यह स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है कि वह केवल दूसरों की ही बात सुनना नहीं चाहता, अपितु अपनी भी दूसरों को सुनाना चाहता है। परन्तु इस भाषण स्वातन्त्र्य पर इतना प्रतिबन्ध अवश्य होता है कि कोई व्यक्ति ऐसे विचार प्रकट न करे, जो दूसरों की भावनाओं को ठेस पहुँचाते हों, या उस भाषण से समाज में साम्प्रदायिक द्वेष फैलता हो ।
नागरिक के राजनैतिक अधिकारों में, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, उसे मताधिकार प्राप्त है। वह प्रत्येक सार्वजनिक चुनाव में अपना मत दे सकता है । निर्वाचन की शर्तों को पूरा कर लेने पर उसे निर्वाचित होने का भी अधिकार प्राप्त है। वह अपनी योग्यतानुसार अपने को राज्य के ऊँचे से ऊँचे पद पर सुशोभित कर सकता है। उसे आवेदन करने का भी अधिकार प्राप्त है। यदि सरकारी कर्मचारी अपने कर्त्तव्य का यथोचित पालन नहीं करते, तो वह उनके विरुद्ध आवेदन कर सकता है। बाढ़, महामारी, दुर्भिक्ष आदि के कष्टों के साथ जनता द्वारा अपने विचारों का समर्थन प्राप्त कर सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि जो देश जितना उन्नत और समृद्ध होता है, उसके नागरिकों को उतने ही अधिकार प्राप्त होते हैं ।
अधिकारों का संसार बड़ा मधुर होता है, वे बड़े सुन्दर और आकर्षक होते हैं, परन्तु अधिकारों की शोभा कर्त्तव्य पालन से है। अधिकार प्राप्त करके जो अपने कर्त्तव्य का पालन नहीं करता, उससे अधिकार छीन लिए जाते हैं। नागरिक जीवन के अधिकारों के साथ-साथ कर्त्तव्य भी लगे हुए अधिकारों के बदले में हमें समाज के प्रति कर्त्तव्य करने पड़ते हैं। बिना कर्त्तव्य के नागरिक के अधिकार सुरक्षित नहीं रह सकते । हमारा सर्वश्रेष्ठ कर्त्तव्य राष्ट्र – भक्त रहना है। जो शासन हमारी सुख-समृद्धि के लिये निरन्तर प्रयत्नशील है, उसकी रक्षा के लिए हमें सदैव सन्नद्ध रहना चाहिये । हमारा यह कर्त्तव्य है कि हम देश में अशान्ति और, अव्यवस्था न फैलने दें । राज्य हमारी उन्नति के लिए जो कुछ करता है, उन कार्यों के लिए धन की आवश्यकता होती है। हमें राज्य द्वारा लगाये गये करों को प्रसन्नतापूर्वक देना चाहिये, जिससे राज्य की आर्थिक स्थिति बिगड़ने न पाये ।
कानून की रक्षा करना प्रत्येक नागरिक का परम कर्त्तव्य है। उसे ऐसा कोई भी कार्य नहीं करना चाहिए जिससे सरकार के कानूनों का उल्लंघन होता हो । समाज के कल्याण के लिए वैधानिक नियमों का पूर्ण रूप से पालन करना परम आवश्यक है । नागरिक का जीवन केवल अपने ही लिए नहीं है, अपितु अपने परिवार, अपने नगर, अपने देश तथा मानवता की रक्षा के लिये भी है। उसे सदैव यह ध्यान रखना चाहिये कि उससे कोई ऐसा काम न हो, जिससे दूसरों को कष्ट पहुँचे। देश की रक्षा के लिये उसे तन, मन, धन से सरकार की सहायता करनी चाहिए। जिस देश की धूलि में लेट-लेट कर हम बड़े हुए, जिसके अन्न, जल, और वायु से हमारा पोषण हुआ है, उसकी रक्षा करना हमारा परम धर्म है।
शासन-व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए श्रेष्ठ नागरिकों को सदैव सरकार की सहायता करनी चाहिए । प्रत्येक देश में भले और बुरे सभी प्रकार के व्यक्ति रहते हैं। जहाँ सज्जन होते हैं, वहाँ समाज विरोधी तत्व भी होते हैं। इनका दमन करना यद्यपि पुलिस और सरकार का काम है, परन्तु अकेली पुलिस तक अपना कार्य सफलतापूर्वक नहीं कर सकती, जब तक उसे नागरिकों का पूरा सहयोग प्राप्त न हो । प्रत्येक नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि चोरों, डाकुओं तथा इसी प्रकार के अन्य अपराधियों का पता लगाने में सरकार की पूर्ण रूप से सहायता करें ।
अब हमारा देश स्वतन्त्र है । इसकी शासन सत्ता हमारे ही हाथों में है। देश का उत्थान-पतन हमारे ही कार्यों पर निर्भर है । कहीं ऐसा न हो कि हमारी यह स्वतन्त्रता उच्छृंखलता का रूप धारण कर ले, हमें सदैव इस बात का ध्यान रखना चाहिये । स्वतन्त्रता के साथ-साथ हमें बहुत से उत्तरदायित्व भी मिलें हैं, जिन्हें सत्यता के साथ निभाना हमारा परम धर्म है। हमें अपनी विभिन्न दलबन्दियों में बिखरी हुई शक्ति को संगठित करके देश के कल्याण में लगाना चाहिये । अभी हमारे देश में पर्याप्त शिक्षा का अभाव है, इसीलिये योग्य नागरिकों का अभाव है। परन्तु शनैः शनैः यह कमी भी दूर होती जा रही है । ध्यान रखिये कि जो नागरिकों के कर्त्तव्य हैं, वे ही राज्य के अधिकार हैं और जो नागरिकों के अधिकार हैं वे ही राज्य के कर्त्तव्य हैं । अतः राज्य और नागरिक दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। इसलिए दोनों को ही अपने-अपने कर्त्तव्यों का पालन करना चाहिये, तभी भारतवर्ष में जनतन्त्र और भी अधिक सफल हो सकेगा। जनतन्त्र की सुरक्षा और नागरिकों के अधिकारों के प्रति – सरकार यथेष्ट सजग एवं जागरूक है । नागरिकों को भी अपने कर्त्तव्यों का पालन करना चाहिये ।
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