चिपको आन्दोलन – एक गाँधीवादी प्रयोग

चिपको आन्दोलन – एक गाँधीवादी प्रयोग

          सोचा तो यह था कि “रात जितनी ही संगीन होगी, सुबह उतनी ही रंगीन होगी।” पर हुआ इसका उल्टा ही। सोचा तो यह था स्वतन्त्र होने पर विकास हमारा वरण करेगा पर विकास का स्थान विनाश ने ले लिया। मनुष्य सोचता कुछ है पर वास्तविकता के घोड़े दूसरी दिशा में विनाशोन्मुख हो उठते हैं। हमने विकसित कहलाने के लिये पहाड़ों को, पेड़ों को, फूल और पत्तों को जड़ से उखाड़ फेंका, देवदारु काट डाले । वन और वन के प्राणियों को समुद्र के जन्तुओं को जो पर्यावरण को सन्तुलित रखते थे जड़ से उखाड़ फेंका। उन पहाड़ी मार्गों पर अब पेड़ कहाँ, फल कहाँ ? पेड़ और पहाड़ों को काट कर सड़कें और इन्डस्ट्रीज बनाई गई जिन पर धुँआ उगलती हुई गाड़ियाँ वायुमण्डल को प्रतिक्षण प्रदूषित कर रही हैं। अस्त्रों का परीक्षण समुद्र के वातावरण को विषाक्त बना रहा है। अब भारतीयों के आगे चाहे वह शहर का हो या गाँव का एक ही प्रश्न है कि ‘जायें तो जायें कहाँ’
          इतिहास साक्षी है इन वृक्षों को बचाने के लिये राजस्थान के खेजड़ली गाँव में खेजड़ी के ३६३ वृक्षों को कटने से बचाने के लिये विश्नोई समाज के ३६३ स्त्री पुरुषों ने आत्म-बलिदान दिया था, पर पेड़ नहीं कटने दिये थे और न वहाँ जोधपुर नरेश का भवन बनने दिया। धन्य था वह समाज और वे बलिदानी १७५० की यह घटना भूत के गर्भ में विलीन हो गई, लोग भूल गये इन देश पर मिटने वालों को प्रेरणा के स्थान पर चिपको आन्दोलन – प्रसुप्ति आ गई। पर हमें इतना ध्यान रखना होगा वह आन्दोलन का ही पूर्वरूप था।
          अंग्रेज आये, उन्होंने जहाँ भारत का अनेक रूप में दोहन प्रारम्भ किया, वहाँ उन्होंने वन-सम्पदा को भी अछूता नहीं छोड़ा । रेलवे पथ और जहाज निर्माण के लिये लकड़ी के स्लीपरों की पूर्ति हेतु देवदार और चीड़ प्रजाति के वृक्षों का अन्धाधुन्ध दोहन शुरू कर दिया गया। १८६४ में ब्रिटिश राज्य ने अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये टिहरी राज्य के वनों को अगले २० सालों के लिये अनुबन्ध कर लिया । लकड़ी की ढुलाई के लिये सड़कें बनीं। उससे हिमालय का संतुलन बिगड़ता गया और वनों के विनाश की गति तीव्र होती चली गई । स्थानीय जनता जो अपनी दैनिक आवश्यकताओं को वनों से पूरी करती थी उससे वंचित होती चली गई । शनैः शनैः असन्तोष की आग भड़कती रही उसका उग्ररूप १९०७ में प्रगट हुआ अब वन अधिकारी सदानन्द गैरोला की मृत्यु हुई
          १९३० में जब गाँधी जी के नेतृत्व में देश स्वतन्त्रता की लड़ाई लड़ रहा था तब भी पंडित गोविन्द बल्लभ पन्त के नेतृत्व में राज्य की वन नीति के विरोध में अहिंसक असहयोग आन्दोलन चल रहा था और अनेक सत्याग्रही काल कवलित होते जा रहे थे । भारत के स्वतन्त्र होने के बाद भी भारत का वन निर्माण व औद्योगिक नीति आदि के कारण हिमालय क्षेत्र में वनों के दोहन की प्रक्रिया नहीं रुकी । पं० जवाहर लाल नेहरू भारत में भारी उद्योगों की स्थापना के हामी थे इसलिये तथा चीनी आक्रमण ने पहाड़ों की कटाई और पथ निर्माण तेज होता गया | वन-सम्पदा नष्ट होती गई।
गाँधीवादी प्रयोग का सूत्रधार
          गांधीजी की दो शिष्याएँ मीरा बेन और सरला बेन क्रमशः ऋषिकेश, गढ़वाल व कसौनी, कुमायूँ में सर्वोदयी आश्रम स्थापित कर गांधीवादी मूल्यों व सर्वोदय के लिए कार्य करने लगीं इन्होंने वहाँ के गाँवों के विकास हेतु स्त्री शिक्षा व पर्यावरणीय चेतना को जागृत कराने हेतु अन्य अनेक कार्यक्रम साथ में लिए इनके गांधीवादी मूल्यों के प्रचार व प्रयोग ने वहाँ की स्थानीय जनता को प्रभावित किया जिसकी परिणति गाँधीवादी आदर्शों में विश्वास रखने वाली सर्वोदयी कार्यकर्ताओं की नई पीढ़ी के रूप में सामने आई, जिन्होंने चिपको आन्दोलन को आधार उपलब्ध कराया तथा जिनमें सुन्दरलाल बहुगुणा, चण्डीप्रसाद भट्ट, मानसिंह रावत, धूमसिंह नेगी, लोक कवि घनश्याम रतूड़ी आदि मुख्य ।
          चिपको आन्दोलन गढ़वाल की जनता के अहिंसक प्रतिरोध की परम्परा की एक कड़ी है, गांधीवादी व सर्वोदयी कार्यकर्ता १९६१ में सरला बेन के नेतृत्व में उत्तराखण्ड सर्वोदय मण्डल के तत्वावधान में कार्यरत थे । उनका सर्वोदय आन्दोलन मुख्यतः चार बिन्दुओं पर आधारित था :
          १. स्त्रियों का संगठन, २. मद्यनिषेध हेतु कार्य, ३. वन अधिकार हेतु कार्य, ४. स्थानीय वनाधारित उद्योगों की स्थापना ।
          मद्यनिषेध आन्दोलन की अभूतपूर्व सफलता ने स्त्रियों को संगठित होने के लिए एक महत्वपूर्ण आधार प्रस्तुत किया। स्त्रियों को अपनी रचनात्मक शक्ति का अहसास हुआ, उन्होंने संगठित रूप से रचनात्मक कार्यक्रमों को हाथ में लेना शुरू किया, जिससे लड़कियों को शिक्षण-प्रशिक्षण, पर्यावरण संरक्षण हेतु कार्य आदि सम्भव हुए। अपने वन अधिकार व पर्यावरण संरक्षण हेतु गढ़वाल-कुमायूँ की जनता ने ३० मई, १९६८ को तिलारी में स्मृति सभा में एकबद्ध होकर पर्यावरण संरक्षण का वचन लिया । १९७० तक स्त्रियों का संगठनात्मक ढाँचा तैयार हो चुका था, जिसमें स्वामी चिदानन्दजी के १९७२ के एक मास की पदयात्रा के अन्तराल में और दृढ़ता आई । सर्वोदयी कार्यकर्ताओं ने अपने कार्य-क्षेत्र को और बढ़ाया, जिसमें सुन्दरलाल बहुगुणा व चन्डीप्रसाद भट्ट मुख्य थे I
          सुन्दरलाल बहुगुणा टिहरी जिले के घनसाली क्षेत्र के निकट सिलरा गाँव तथा चन्डीप्रसाद भट्ट चमोली जिले के गोपेश्वर क्षेत्र में रहते थे । ६० के दशक से ही दोनों अपने सहयोगियों के साथ ग्रामीण क्षेत्रों में पर्यावरण संरक्षण, शिक्षा आदि विषयों पर पूरे उत्तराखण्ड क्षेत्र (गढ़वाल व कुमायूँ) में पदयात्रा द्वारा निरन्तर जनचेतना को जागृत कराने का कार्य करते रहे थे। चन्डीप्रसाद भट्ट दशौली ग्राम स्वराज्य संघ के प्रमुख कार्यकर्ता के रूप में वन संरक्षण हेतु कार्य कर रहे थे। इस कार्य में उनके मुख्य सहयोगी अनसूया प्रसाद, चक्रधर तिवाड़ी, मुरारीलाल, कवि घनश्याम रतूड़ी तथा वनस्पति शास्त्री डॉ० वीरेन्द्र कुमार थे । सुन्दलाल बहुगुणा का कार्यक्षेत्र प्रमुखतः टिहरी क्षेत्र रह्य, जहाँ उनके प्रमुख सहयोगी उनकी धर्मपत्नी विमला, धूमसिंह नेगी, युवा शिक्षिका शशि, पान्डुरंगा हेगड़े (जो बाद में कर्नाटक में अप्पिको आन्दोलन का सूत्रधार बना) आदि थे।
चिपको का प्रयोग
          दिसम्बर १९७२ में वन संरक्षण हेतु जगह-जगह पर सामूहिक अहिंसक प्रदर्शन किया गया जिनमें ११ दिसम्बर पुरेला, १२ दिसम्बर उत्तरकाशी, १५ दिसम्बर गोपेश्वर आदि प्रमुख प्रदर्शन केन्द्र हैं। इन्हीं प्रदर्शनों के दौरान घनश्याम दास रतूड़ी ने लोक कविताओं के रूप में लोगों को वृक्षों से चिपक कर बताने का आह्वान किया । इससे १९७३ तक वन संरक्षण आन्दोलन में और गति आई । १९७४ में खेल का सामान बनाने वाली कम्पनी ‘साइमंड’ को चमोली जिले के अंगू प्रजाति के वृक्षों को काटने का ठेका दिया गया। कृषि उपकरण बनाने के कार्य आने वाली इस लकड़ी को स्थानीय जनता के लिए निषिद्ध कर दिया गया। प्रशासन द्वारा रैणी गाँव में सैकड़ों एकड़ वन क्षेत्र की नीलामी के निर्णय से इस क्षेत्र में पहले ही असन्तोष फैल रहा था । २५ मार्च को वन विभाग से कटान की आज्ञा प्राप्त होने पर वन कर्मी व श्रमिक रैणी गाँव के लिए रवाना हो गए। वनों के कटान के प्रति जनता में विरोध की स्थिति को देखते हुए जनता के प्रतिरोध को कम करने के उद्देश्य से रैणी और आसपास के ग्रामों के पुरुषों को प्रशासन द्वारा युद्धकाल में ली गई. उनकी भूमिका के मुआवजे की भरपाई के लिए चमोली बुला लिया गया। दूसरी ओर वनकर्मियों एवं श्रमिकों के रैणी गाँव पहुँचते ही खलबली मच गई क्योंकि गाँव के सभी पुरुष चमोली जा चुके थे। पुरुषों की अनुपस्थिति में रैणी की एक साधारण महिला गौरा देवी श्रमिकों द्वारा वृक्षों को काटने से रोकने के लिए आगे आई। गौरा देवी ने गाँव के घर-घर जाकर लड़कियों-स्त्रियों को प्रतिरोध करने के लिए प्रेरित किया। मुरारीलाल जो कि अस्वस्थ होने के कारण गाँव में ही था, वह और २७ अन्य स्त्रियाँ-लड़कियाँ गौरा देवी के नेतृत्व में पेड़ों से जाकर चिपक गईं। शीघ्र ही अन्य स्थानों से गाँव की स्त्रियाँ आ गई और लगभग १०० की संख्या में स्त्रियों ने गौरादेवी के नेतृत्व में वृक्षों को बचाने के लिए अहिंसक तकनीक चिपको का प्रयोग किया। महिलाओं की इस जागरूकता पर वनकर्मी व ठेकेदार हतप्रभ रह गये । महिलाओं का कहना था “ये जंगल हमारा मायका है, इसे हम किसी भी कीमत पर कटने नहीं देंगे।” ठेकेदारों एवं वनकर्मियों ने महिलाओं को बंदूक दिखाकर धमका-डराकर, लोभ-लालच देकर झुकाना भी चाहा, किन्तु सफल नहीं हुए। इस अहिंसक प्रतिरोध का सर्वप्रथम फल उन ६० श्रमिकों (जो वृक्ष काटने गए थे) का हृदय परिवर्तन था जो स्त्रियों के सामूहिक अहिंसक प्रदर्शन को देखते हुए वहाँ से चले गए। स्त्रियों ने लगातार २ दिन व २ रात तक जंगल को घेरे रखा तथा जंगल में प्रवेश कर एकमात्र पुल भी तोड़ दिया ।
          २६ मार्च, १९७४ की घटना के बाद तो रैणी गाँव पूरे चिपको आन्दोलन का कर्मक्षेत्र बन गया। गौरादेवी के इस प्रेरणादायक कदम ने चिपको आन्दोलन को एक नए स्वरूप में ला खड़ा किया। वास्तव में देखा जाए तो गौरादेवी का मात्र छोटा-सा प्रयास ही चिपको की शुरूआत थी । इस घटना के बाद पूरे उत्तराखण्ड क्षेत्र में वन संरक्षण हेतु जनता में नवीन उत्साह का संचार हुआ । ग्रामीण क्षेत्रों में चिपको दर्शन व तकनीक के प्रसार को व्यापक बनाने के लिए विमला बहुगुणा, राधा व शशि जैसी कर्मठ कार्यकर्ताओं द्वारा ७५ दिन की पदयात्रा आरम्भ की गई। आन्दोलन को गति प्रदान करने को सुन्दरलाल बहुगुणा ने २८०० किमी की पदयात्रा का श्रीगणेश किया। इन सब प्रचार-प्रसार से चिपको तकनीक के अहिंसक प्रदर्शन को भव्य सफलता मिली । आन्दोलनकारियों के रुख को देखते हुए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने रैणी गाँव के क्षेत्र में वन काटने पर रोक लगा दी तथा चिपको आन्दोलन के कार्यकर्ताओं को वार्ता हेतु आमंत्रित किया जिसकी परिणति उत्तर प्रदेश वन विकास निगम की स्थापना व ठेकेदारी प्रथा के उन्मूलन से हुई । वन संरक्षण हेतु चिपको कार्यकर्ताओं व निगम अधिकारियों के संयुक्त प्रयत्न व प्रयास करने पर सहमति हुई । किन्तु सरकारी कामकाज के तरीकों, कुछ ऊँची पहुँच वाले ठेकेदारों आदि के कारण उसमें कोई खास सफलता नहीं मिली ‘और चिपको तकनीक के द्वारा समय-समय पर जन-प्रतिरोध मुखरित होता रहा । इस अहिंसक आन्दोलन की श्रृंखला में ९ जनवरी, १९७९ को सुन्दरलाल बहुगुणा ने बडियारगढ़ वन के क्षेत्र में हरे वृक्षों के कटान के विरोध हेतु आमरण अनशन प्रारम्भ कर दिया। प्रतिक्रिया स्वरूप को २२ जनवरी को देहरादून जेल में बन्दी बनाकर भेज दिया । बहुगुणा की शासन ने बहुगुणा अनुपस्थिति में लोग कवि घनश्याम रतूड़ी व पुजारी किसी शास्त्री ने प्रदर्शन को नेतृत्व किया जिसमें हजारों व्यक्ति बडियारगढ़ वन क्षेत्र पर तब तक धरने पर बैठे रहे, जब तक वृक्षों को काटने वाले श्रमिक आदि वहाँ से चले नहीं गए । चिपको आन्दोलन को राष्ट्रीय समर्थन मिला व लोकप्रियता बढ़ी, स्वीडन के एक दम्पत्ति-इवो इलस्टी और ब्रिगिटा ने अन्तराष्ट्रीय प्रेस में इस आन्दोलन को स्थान देकर इसको अन्तर्राष्ट्रीय जगत में महत्वपूर्ण स्थान व जन समर्थन उपलब्ध कराया । ३१ मई सुन्दरलाल बहुगुणा को जेल से मुक्त किया गया। हिमालय क्षेत्र के वनों को संरक्षित क्षेत्र घोषित करने की चिपको कार्यकर्ताओं की माँग सैद्धान्तिक रूप से स्वीकार कर ली गई । तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने बहुगुणा से वार्ता उपरान्त हिमालय क्षेत्र में हरे वृक्षों के कटान पर अगले १५ वर्षों तक रोक लगाने का आदेश दिया। को
          सुन्दरलाल बहुगुणा ने पर्यावरण संरक्षण व चिपको सन्देश को पूरे हिमालय क्षेत्र में प्रचारित करने के उद्देश्य से हिमालय क्षेत्र में ४८७० किमी की पदयात्रा आरम्भ की, वही दूसरी ओर चण्डीप्रसाद भट्ट ने अपने कार्यक्षेत्र गोपेश्वर में वृक्षारोपण के कार्य को सफलतापूर्वक आगे बढ़ाया। जिन क्षेत्रों में कार्य किया गया, वह क्षेत्र आज फिर हरे हो गए हैं, जो कि चिपको आन्दोलन के रचनात्मक पक्ष की महान् सफलता है। कार्यकर्ताओं ने अन्य भागों में उपयोगी वृक्षों का रोपण ‘ आरम्भ किया है। भारत के अन्य पर्वतीय क्षेत्रों जैसे—अरावली, पश्चिमी घाट तथा मध्य भारत आदि में वहाँ के स्थानीय लोगों द्वारा पर्यावरण संरक्षण हेतु चिपको तकनीक का प्रयोग कर इस आन्दोलन को और व्यापकता दी है।
मूल्यांकन 
          अपने वृहतर स्वरूप में चिपको आन्दोलन न केवल प्राकृतिक पारिस्थितिकी सन्तुलन व संरक्षण के लिए मंच प्रदान करता है। अपितु रचनात्मक कार्यक्रमों को हाथ में लेकर कल्याणकारी स्थानीय आर्थिक व्यवस्था हेतु कार्य करता है । इसके साथ ही स्थानीय जनता में पर्यावरणीय चेतना के प्रति जागरूकता तथा अपने अधिकारों को समझने व माँगने के लिए एक सम्बल के रूप में कार्य करता है ।
          यह आन्दोलन सामूहिक होने के उपरान्त भी केन्द्रीकृत न होकर छोटे-छोटे समूह में कार्यरत रहा । स्थानीय जनता ने अपने-अपने क्षेत्र का दायित्व स्वयं सँभाल कर गांधी के ग्राम स्वराज की परिकल्पना को मूर्त रूप दिया । इस आन्दोलन में स्त्रियों की भागीदारी उल्लेखनीय रही, नारी उत्थान के लिए चिपको आन्दोलन ने प्रशंसनीय भूमिका निभाई है। आन्दोलनकर्ता महिलाओं ने महिला मंगल दल बनाकर नारी शक्ति को संगठित किया। इससे शोषित स्त्रियों को अपनी रचनात्मक शक्ति का अहसास हुआ, जिससे उन्होंने स्कूली शिक्षा, व्यावसायिक शिक्षा, चिकित्सा, उचित काम; जाति-भेद मिटाने हेतु कार्यक्रम हाथ में लिए ।
          गांधीजी ने कहा, “शान्ति व्यक्तिगत सन्तोष की सामूहिक अभिव्यक्ति है।” गांधीजी ने पाया कि वास्तविक विकास तो तब ही सम्भव है जब मानव और प्रकृति के बीच प्रेममूलक सम्बन्धों की स्थापना हो। चिपको आन्दोलन का अन्तिम लक्ष्य गांधीजी के सपनों को साकार करना है, जिसमें आन्दोलन ने उल्लेखनीय सफलता पाई है।
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