चाँदनी रात में नौका-विहार
चाँदनी रात में नौका-विहार
पूर्णिमा थी, चन्द्रदेव अपनी मुस्कराहट से विश्व को आनन्द -विभोर कर रहे थे । शीतल-मन्द सुगन्धित वायु धीरे-धीरे गवाक्षों से मेरे कक्ष में प्रवेश करती और मेरे श्रांत मस्तिष्क को फिर से ताजा बना देती । सहसा तीन-चार साथियों ने कमरे में प्रवेश किया और कहा, “हमारा तो आज पढ़ने का नहीं है, पढ़ने तुम्हें भी नहीं देंगे, आज हम लोगों ने नौका विहार का निश्चय किया है, बोलो – तुम्हारा क्या विचार है?” मैं भी पढ़ते-पढ़ते ऊब चुका था, बोला- “जरूर चलूँगा ।” धीरे-धीरे हम लोग दस साथी हो गये, दो-तीन साथी ऐसे भी लिये जो गाने-बजाने में निपुण थे। हम दशाश्वमेघ घाट की ओर चल दिये। विशाल घाटों के नीचे पंक्तिबद्ध नौकाएँ एक मनोरम दृश्य प्रस्तुत कर रही थीं। काशी की नौकाएँ दो मन्जिलें मकान की तरह होती हैं, बहुत बड़ी एक सुन्दर सी नौका तय की गई, चतुर नाविक ने मुस्कराकर पाँच रुपये मांगे, मामला चार रुपये में तय हुआ। नाव अच्छी थी, चाँदनी बिछी हुई थी, मसनद लगी हुई थी। बैठने से पूर्व कुछ शंकर-भक्त साथियों ने भंग की फंकी लगाई और गंगाजल चढ़ाया और नौका में बैठना प्रारम्भ किया ।
निपुण नाविक ने “जय गंगे” कहकर नाव को किनारे से खोल दिया। पतवार के संकेत पर, नृत्य करने वाली नर्तकी की तरह डगमगाती हुई नौका अपने चरण बढ़ाने लगी। क्षितिज की गोद से चन्द्रदेव कुछ ऊपर उठ चुके थे, अवनि अम्बर पर शुभ्र ज्योत्सना बिखेर रही थी । थिरक-थिरक कर नृत्य करने वाली तरंग मालाओं से पवन अठखेलियाँ कर रहा था । ऐसा प्रतीत होता था कि मानो हम किसी स्वर्ग में पहुँच गये हों। इस किनारे पर विश्वनाथ की काशी और उस किनारे पर रामनगर। वातावरण शांत और स्निग्ध था । गायक और वादक मित्रों से आग्रह किया गया, बस फिर क्या था संगीत छिड़ा, गंगा की हिलोरों के साथ हृदय भी हिलोरें लेने लगा । यदि सिनेमा का संगीत होता तो समझ में आ जाता था और यदि कभी पक्के गाने की बारी आ जाती तो समझ में न आता, परन्तु उसकी लय और ध्वनि हमें मन्त्र मुग्ध कर देती थी । बीच-बीच में तालियाँ पिटतीं, वाह-वाह की आवाजें लगतीं और कोई-कोई मनचला साथी कभी-कभी पंक्ति विशेष की पुनरावृत्ति की प्रार्थना भी करता ।
चन्द्रिकाचर्चित यामिनी की निस्तब्धता चारों ओर फैली हुई थी। दोनों किनारों के बीच श्वेतसलिला भागीरथी अपनी तीव्र गति से प्रियतम जलनिधि से मिलने के लिए मिलन गीत गाती, इठलाती, पूर्व की ओर अग्रसर हो रही थी । जहाँ तक दृष्टि जाती जल ही जल दृष्टिगोचर होता था । एक किनारे पर काशी विद्युत बल्बों से जगमगाती दिखाई पड़ रही थी, दूसरी ओर रामनगर राजसी वैभव की याद दिला रहा था, परन्तु चाँदनी के प्रकाश में विद्युत बल्ब धूमिल प्रतीत हो रहे थे। दूर दिशाओं में वृक्षों की फैली हुई मौन पंक्तियों को देखकर सहसा साधनारत साधक स्मरण हो जाता था। भागीरथी के वक्षस्थल पर हिलोरें लेती हुई छोटी-छोटी लहरें तथा उन पर पड़ता हुआ चन्द्र प्रकाश उन्हें हीरे के हार की समता दे रहा था और हमारी नौका हंसिनी की तरह मन्थर गति से आगे बढ़ती जा रही थी । चन्द्र और तारागणों का प्रतिबिम्ब गंगा-जल में स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा था मानो चन्द्रमा जान्हवी के पवित्र जल में अनेक प्रकार से क्रीड़ा कर रहा हो । कभी-कभी मछलियाँ हमारी नाव के पास आकर अपना मुख दिखा जातीं परन्तु हमें खाली हाथ देखकर तुरन्त डुबकी लगा लेतीं और हमारी रिक्तहस्तता की निन्दा करती हुई चली जातीं । सर्वत्र निस्तब्धता का साम्राज्य था, प्रकृति सुन्दरी लहरों के नूपुर बजा रही थी । चंचल जल पर इन्दुलक्ष्मी नृत्य निरत थी और हमारी नाव दक्षिणी किनारे की ओर चली जा रही थी ।
कुछ समय के लिए संगीत बीच में बन्द कर दिया गया परंन्तु साथियों के हृदय में फिर इच्छा हुई कि कार्यक्रम चलना चाहिए, गायक बन्धुओं से कुछ सुनने का निवेदन किया गया । बस फिर क्या था संगीत की स्वर-लहरियाँ आकाश में स्वरमत हो उड़ने लगीं । कौन सा राग गाया जा रहा था इसका तो कुछ पता ही नहीं, परन्तु इतना अवश्य जानता हूँ कि मेरा मन बाँसों उछल रहा था। संगीत की मधुर ध्वनि ने सभी को मन्त्रमुग्ध कर दिया था। हम लोग ही नहीं, हमारा नाविक भी मस्ती से झूमने लगा। उसके हाथ की पतवार जो प्रत्येक क्षण बड़ी शीघ्रता से घूमती थी, अब उसमें न उतनी तीव्रता थी और न त्वरा थी, न जाने वह अपने जीवन के अतीत की कौन-सी मधुर स्मृति में अपने को भूले जा रहा था। तभी हम लोगों ने उसकी तन्द्रा भंग करते हुये कहा, “हम लोग कुछ क्षणों के लिए उस पार उतरना चाहते हैं, बोलो रुकोगे ?” उसने मस्तक नीचे किये हुए ही कुछ देर हाथ की उंगली से आँखों की कोर पोंछते हुए स्वीकारात्मक सिर हिला दिया। अब नौका का प्रवाह दूसरे किनारे की ओर था, जहाँ नीरवता थी, जंगल था और जंगली जानवर थे। उस शुन्य तट पर हम उतर पड़े । मुझे सहसा प्रसाद की ये पंक्तियाँ स्मरण हो आई –
“नाविक ! इस सूने तट पर, किन लहरों में खे लाया,
इस बीहड़ बेला में क्या, अब तक था कोई आया ।”
हम लोग लघुशंका इत्यादि से निवृत्त होकर प्रसन्न मुद्रा में आकाश को देख रहे थे । सुधास्नात चन्द्रिका मन को मुग्ध किये दे रही थी । सहसा आकाश के कोने में एक काली बदली दिखाई पड़ी, हवा तेजी से चल रही थी, परन्तु अब उसमें कुछ धीमापन आ गया था । हमारे देखते ही देखते उस छोटी-सी बदली ने समस्त आकाश आच्छादित कर दिया, कालिमा की गहनता क्षण-क्षण बढ़ती जा रही थी। सभी ने विचार किया कि जल्दी ही लौटना चाहिये, कहीं ऐसा न हो कि वर्षा होने लगे। गंगा का कल-कल निनाद अब कुछ भयंकरता धारण कर रहा था । हम लोग तुरन्त नाव पर चढ़ गये और मल्लाह से शीघ्रता करने के लिए प्रार्थना की । बड़ी कठिनाई से हमारी नाव ५० गज की दूरी तय कर पाई होगी कि एक-दो बूंदें गिरीं । जिसके ऊपर गिरीं वही पहले चिल्लाया, वर्षा आ गई। सब ऊपर को देख ही रहे थे कि बूंदें पड़ने लगीं । मल्लाह बड़ी तेजी से पतवार चला रहा था। रुक-रुक कर बादल गरजते और बीच-बीच में बिजली चमक जाती। गंगा का जल बीच-बीच में गोलाकार होकर भयानक भंवरों की सूचना दे रहा था । केवल बिजली की गड़गडाहट और जंगली जानवरों के रोने की ध्वनि सुनाई पड़ रही थी । अब वर्षा के वेग में भयानकता थी और जल-बिन्दुओं के आकार में स्थूलता । परन्तु किनारा अब अधिक दूर नहीं था, कुछ ही क्षणों में नाव किनारे पर आ लगी। हम लोगों ने कूद-कूद कर भागना शुरू किया और घाट पर बने हुए सामने वाले मन्दिर में आकर शरण ली । मल्लाह अब भी हमारे साथ था, क्योंकि उसे हमसे किराया लेना था। उसे किराया देकर हमने रिक्शे लिए । वर्षा और रात का समय देख रिक्शे वालों ने हमसे दुगुने पैसे माँगे। इस समय और दूसरा कोई उपाय न देखकर हमने उनके माँगे हुए पैसे स्वीकार कर लिए ।
सारा जन-समूह निद्रा देवी की गोद में स्वप्निल संसार में विचरण कर रहा था । केवल नगर के प्रहरी, कुत्ते तथा सड़कों के विद्युत बल्ब ही जाग रहे थे, मानो वे हमारी प्रतीक्षा में हों । होस्टल के बन्द द्वार पर जाकर हमने चौकीदार को आवाज लगाई । वह बेचारा वास्तव में हमारी प्रतीक्षा में बैठा था। अपने चिरसहचर हुक्के को हाथ में लिए उसने दरवाजा खोला और हमने अपने-अपने कमरों की शरण ली।
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