चलचित्र या सिनेमा

चलचित्र या सिनेमा

          मनुष्य ने जैसे-जैसे होश सम्भाला, वैसे-वैसे ही उसने अपनी बढ़ती हुई इच्छाओं को पूरा करने के लिए अपने ज्ञान की रोशनी को और तेज करने का उद्योग भी शुरू कर दिया। इस उद्योग के द्वारा उसने ज्ञान से बढ़कर विज्ञान को प्राप्त कर लिया। आज मनुष्य ने विज्ञान से बहुत कुछ प्राप्त कर लिया है – विज्ञान से मनुष्य ने जो कुछ प्राप्त किया है, उसमें सिनेमा भी एक महत्त्वपूर्ण साधन है । यह एक सुविधा भी है। आज विश्व के प्राय सभी मनुष्य इससे प्रभावित हो रहे हैं । चलचित्र ने समाज और वातावरण को कैसे प्रभावित किया है । इस पर हम यहाँ प्रकाश डाल रहे हैं ।
          चलचित्र या सिनेमा ने सचमुच में समाज और वातावरण की काया उलट-पलट करके रख दी है। चलचित्र आज जीवन का आवश्यक और अभिन्न अंग बन चुका । यह विज्ञान का एक आकर्षक और स्वस्थ आविष्कार है। इसने अपने अद्भुत प्रभाव के द्वारा समस्त संसार को विस्मयकारी परिवर्तन की परिधि में ला दिया है ।
          चलचित्र 19वीं शताब्दी का आविष्कार है। इसके आविष्कारक टामस एल्वा एडिसन अमेरिका के निवासी थे। जिन्होंने 1890 में इसको हमारे सामने प्रस्तुत किया था । पहले-पहल सिनेमा लंदन में कुमैर नामक वैज्ञानिक द्वारा दिखाया गया था। भारत में चलचित्र दादा साहब फाल्के के द्वारा सन् 1913 में बनाया गया, जिसकी काफी सराहना की गई थी। फिर इसके बाद में न जाने आज तक कितने चलचित्र चल पड़े और कितने रुपए इस पर खर्च हुए, कौन कह सकता है ? लेकिन यह बात अवश्य ध्यान देने योग्य है कि भारत का स्थान चलचित्र के महत्त्व की दिशा में विश्व में अमेरिका के बाद दूसरा है। यदि यह कहा जाएं कि कुछ समय के बाद भारत प्रथम स्थान प्राप्त कर लेगा तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी ।
          सिनेमा जहाँ मनोरंजन का साधन है, वहाँ शिक्षा व प्रचार का भी सर्वश्रेष्ठ साधन है। अमेरिका और यूरोपीय देशों में भूगोल, इतिहास और विज्ञान जैसे शुष्क विषयों को चलचित्रों द्वारा समझाया जाता है ।
          समाज को सुधारने में चित्रपट का पर्याप्त हाथ है। सामाजिक कुरीतियों को दूर करने में सहस्त्रों प्रचारक जो काम न कर सकें, वह चलचित्र ने कर दिखाया । ‘बाबी’, ‘प्रेमरोग’, ‘आँधी’, ‘जागृति’, ‘चक्र’, ‘आकोश’, ‘फिर भी’ आदि फिल्मों ने समाज पर अपना प्रभाव स्थापित किया।
          अब सिनेमा का रूप केवल काली और सफेद तस्वीरों तक सीमित न होकर विविध प्रकार की रंगीन और आकर्षक चित्रों में ढलता हुआ, जन-जन के गले का हार बना हुआ दीख रहा है । सच कहा जाए तो सिनेमा अपनी इसी अद्भुत विशेषता के कारण समाज और संसार को अपने प्रभावों में ढाल रहा है। उसकी काया पलट कर रहा है । सिनेमा की सरगर्मी कहीं भी देखी जा सकती है। यहाँ तक देखा जाता है कि लोग भरपेट भोजन की चिन्ता न करके पैसा बचा कर सिनेमा देखने के लिए जरूर जाते हैं। सिनेमा के बढ़ते हुए प्रभाव से यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो चुकी है कि सिनेमा हमारे जीवन का एक अत्यन्त आवश्यक अंग तो बन ही चुका है। इसके साथ-ही-साथ यह जीवन प्राण भी बन गया है । इसके बिना तो ऐसा लगता है, जैसे हम प्राणहीन हो चुके हैं ।
          सिनेमा से जहाँ इतने लाभ हैं, वहाँ हानियाँ भी बहुत है। आज भारत में अधिकांश चित्र नग्न, प्रेम और अश्लील वासना वृद्धि पर आधारित होते हैं। इससे जहाँ नवयुवकों के चरित्र का अधपतन हुआ है। वहाँ समाज में व्यभिचार और अश्लील भी बढ़ गई है।
          दूसरे आजकल के सिनेमा में जो गाने चलते हैं, वे प्रायः अश्लील और वासनात्मक प्रवृत्तियों को उभारने वाले होते हैं, किन्तु उनकी लय और स्वर इतने मधुर होते हैं कि आज तीन-तीन और चार-चार वर्ष के बच्चों से भी आप वे गाने सुन सकते हैं ।
          आज जीवन में सिनेमा का बहुत ही अधिक महत्त्व है। सिनेमा से हमारा मनोविनोद जितनी आसानी और सुविधा से होता है, उतना शायद अन्य किसी और साधन के द्वारा नहीं होता है । सिनेमा से हमें लाभ-ही-लाभ हैं । शिक्षा, राजनीति धर्म-दर्शन, कला, संस्कृति सभ्यता, विज्ञान, साहित्य, व्यापार इत्यादि के विषय में हमें आपेक्षित जानकारी होती है। वास्तव में सिनेमा हमारी स्वतंत्र इच्छाओं के अनुसार हमें दिखाई देता है, जिसे देखकर हम फूले नहीं समाते हैं ।
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