ग्रीष्मावकाश के क्षण

ग्रीष्मावकाश के क्षण

          जीवन की एकरसता जीवन को नीरस बना देती है, न उसमें आनन्द होता है और न आकर्षण ! नित्य प्रति एक से व्यवहार से, एक से कार्यक्रमों से वह ऊब जाता है, मन उचटने लगता है। जीवन आकर्षणहीन ग्रीष्मावकाश के क्षण होकर लोहे की मशीन की तरह चलता रहता है, उसके रक्ततन्तु शिथिल पड़ जाते हैं। जीवन और जगत् के प्रति मानसिक उल्लास व उत्साह समाप्त-सा हो जाता है। उसे सुन्दरता में भी कुरूपता दृष्टिगोचर होने लगती है। दैनिक कार्यों के अतिरिक्त उसकी कार्यक्षमता ५. उपसंहार । समाप्त-सी हो जाती है। इसलिए मानव जीवन में समय-समय पर विश्राम और विनोद के लिए कुछ अवकाश के क्षण आवश्यक हो जाते हैं, दैनिक जीवन के वातावरण में परिवर्तन की आवश्यकता होती है क्योंकि संसार में परिवर्तन का दूसरा नाम जीवन है।
          संसार में ऐसा कोई व्यवसाय नहीं जिसमें कुछ न कुछ आवकाश न हो, किसी व्यवसाय अधिक छुट्टियाँ होती हैं और किसी में कम, परन्तु होती अवश्य हैं। रेलवे तथा पोस्ट ऑफिस, आदि में में कुछ कम अवकाश होते हैं परन्तु स्कूल कॉलिजों में अन्य विभागों की अपेक्षा कुछ अधिक अवकाश होते हैं। इसका मुख्य कारण यही है कि अध्यापक और विद्यार्थी दोनों ही मानसिक श्रम अधिक करते हैं। शारीरिक श्रम की अपेक्षा मानसिक श्रम मनुष्य को अधिक थका देता है । शारीरिक श्रम से केवल शरीर ही थकता है, परन्तु मानसिक श्रम से शरीर और मस्तिष्क दोनों ही | इसलिए विद्यार्थी तथा अध्यापक को विशेष विश्राम की आवश्यकता होती है। विद्यार्थी बड़ी उत्सुकता से छुट्टियों की प्रतीक्षा करते हैं। चपरासी के हाथ में आर्डर बुक देखते ही क्लास के छात्र अध्यापक से पूछ उठते है, “क्या मास्टर साहब कल की छुट्टी है” इस प्रकार पूछते हुए उनके मुख पर प्रसन्नता नाच उठती है।
          ग्रीष्म की भयंकरता तथा विद्यार्थियों के स्वास्थ्य को दृष्टि में रखकर मई और जून में कॉलिज बन्द हो जाते हैं। इसका कारण यह भी है कि विद्यार्थी पूरे वर्ष पढ़ने में परिश्रम करता है। मार्च और अप्रैल के महीनों में वह अपने परिश्रम की परीक्षा देता है। इसके पश्चात् उसे पूर्ण विश्राम के लिये कुछ समय चाहिये । इन्हीं सब कारणों से हमारे छोटे और बड़े स्कूल ४० दिन के लिये बन्द हो जाते हैं। हमें इन लम्बी छुट्टियों को व्यर्थ में नहीं बिता देना चाहिये। कुछ छात्र इन लम्बी छुट्टियों का समुचित उपयोग नहीं करते, वे केवल खेल-कूद में सारा समय बिता देते हैं। बहुत थोड़े छात्र ऐसे होते हैं, जो अपना सारा समय सन्तुलित और समान रूप से विभक्त करके उसका सदुपयोग करते हैं। कुछ दिन भर सोते ही सोते बिता देते हैं, कुछ दिनभर गप्पों में, कुछ आपस के झगड़ों में और कुछ दुर्व्यसनों में फँसकर अपने अवकाश के अमूल्य क्षणों को नष्ट कर देते हैं। अन्त में माता-पिता कहने लगते हैं कि हे भगवान इनकी छुट्टियाँ कब खत्म होंगी।
          अवकाश के क्षणों में विश्राम और विनोद आवश्यक है, परन्तु मनोविनोद भी ऐसे होने चाहियें जिनसे हमारा कुछ लाभ हो। पढ़े-लिखे व्यक्तियों का मनोरंजन करने वाली वस्तुओं में पुस्तक का स्थान सर्वप्रथम है। पुस्तकों जैसा साथी संसार में कोई नहीं हो सकता, चाहे धूप हो या वर्षा, ग्रीष्म हो या शीत वे हर समय आपको सहयोग दे सकती हैं, आपका मनोविनोद कर सकती हैं। यह साथी एक ऐसा साथी है, जो मस्तिष्क के साथ-साथ हृदय को भी खाना खिलाता है। यह साथी हमें अतीत की मधुर स्मृतियों की याद दिलाता हुआ, वर्तमान के दर्शन कराता हुआ भविष्य की ओर अग्रसर करता है । यह साथी आपको अनेक आनन्द दे सकता है, इससे आपकी न कभी लड़ाई हो सकती है न झगड़ा । यदि आप चाहें तो घर बैठे ही बैठे देशान्तर के भ्रमण का आनन्द ले सकते हैं। यही आपको ज्ञान की शिक्षा दे सकता है, दुःख में धैर्य और संयम भी सिखा देता है। शिक्षाप्रद उपन्यास और कविताओं के अध्ययन से मन ही मन मानव के व्यक्तित्व का विकास, भी होता है। परन्तु साथी का चुनना अपनी योग्यता और विचारों के अनुसार होना चाहिये । इतना ध्यान रखना चाहिये कि वह साहित्य सत्साहित्य हो, ऐसा न हो कि वह आपको पतन की ओर अग्रसर करने में सहायक सिद्ध हो जाये । पुस्तकों के अतिरिक्त इन लम्बी-लम्बी छुट्टियों में विद्यार्थियों के लिए बहुत से हितकर कार्य हैं जैसे बागवानी । यह हमारे स्थायी मनोरंजन का साधन है फोटोग्राफी भी मनोरंजन और समय-यापन का अच्छा साधन है। प्रकृति के रमणीय दृश्यों का चित्र लेकर आप अपना मनोरंजन कर सकते हैं, अपने मित्रों, सम्बन्धियों, मुहल्ले वालों का चित्र लेकर तथा उन्हें वे चित्र उपहारस्वरूप भेंट करके आप उनके स्नेह-भाजन बन सकते हैं। यदि हम अपने अवकाश के क्षणों को समाज सेवा में व्यतीत करें तो हमारी भी उन्नति होगी और देश एवं जाति का उत्थान भी। अशिक्षित को शिक्षा व शिक्षा का महत्त्व बतावें, स्वयं भी अपने गाँव, अपने मुहल्ले, अपने घर की सफाई में अपना समय व्यतीत करें। अपने-अपने गाँव तथा मुहल्ले में पुस्तकालय, वाचनालय, व्यायामशालायें तथा नाट्य परिषदों की स्थापना करके अपने ग्रीष्मावकाश को सफलतापूर्वक व्यतीत कर सकते हैं। कवि गोष्ठी तथा सांस्कृतिक सभायें भी समय के सदुपयोग के लिए उपयुक्त हैं। अधिक परिश्रम करने के कारण विद्यार्थियों का स्वास्थ्य भी खराब हो जाता है, उन्हें ग्रीष्मावकाश में अपने स्वास्थ्य के सुधार के लिये भी आवश्यक प्रयत्न करने चाहियें । ।
          ग्रीष्मावकाश के सदुपयोग के और भी साधन हैं, परन्तु वे धनसाध्य हैं। इन छुट्टियों में विद्यार्थियों को नये-नये ऐतिहासिक और सांस्कृतिक स्थानों का भ्रमण करना चाहिये । देशाटन से मनोरंजन के साथ-साथ शिक्षा भी प्राप्त होती है। इससे विद्यार्थी नवीन भाषा, नये रीति-रिवाज, नई वेश- -भूषा से परिचित होते हैं। इनसे हमारे मानसिक क्षितिज का विकास होता है। गगन-चुम्बी . पर्वत-मालायें, सघन वन, हरी-भरी घाटियाँ हमारे जीवन को सरसता प्रदान करती हैं। प्रकृति के सम्पर्क में आने से हमारा मन प्रसन्न हो जाता है और खिन्नता दूर हो जाती है। तीर्थस्थानों में भ्रमण करने से हमारे हृदय में धार्मिक भावनायें जाग्रत हो जाती हैं। घर से बाहर निकलने से हमें स्वावलम्बी बनने का अभ्यास होता है। व्यावहारिक ज्ञान की वृद्धि होती है। इसमें शीलता तथा कष्ट सहन करने की क्षमता आती है।
          इन सबके साथ-साथ हमें यह भी ध्यान रखना चाहिये कि पिछले वर्ष हमारे कौन-से विषय कमजोर थे, जिनमें हमें दूसरों का मुँह देखना पड़ता था। उन विषयों की कमजोरी को अपने बुद्धिमान मित्रों के सहयोग से या अध्यापकों से मिलकर दूर कर लेना चाहिये, या आगामी वर्ष में पढ़ाई जाने वाली पुस्तकों का थोड़ा पूर्व ज्ञान कर लेना चाहिये, इससे विद्यार्थी को आगे के अध्ययन में सरलता हो जाती है। अध्यापकों ने जो काम छुट्टी में करने को दिया हो उसे पूरा करना चाहिये । एक विद्वान् की उक्ति हैं कि–
काव्यशास्त्रविनोदेन कालो गच्छति धीमताम् । 
व्यसनेन च मूर्खाणाम् निद्रया कलहेन वा ॥
          बुद्धिमान विद्यार्थियों के अवकाश के क्षण भी पुसत्कानन्द में ही व्यतीत होते हैं। ज्ञान दो प्रकार का होता है— एक स्वावलम्बी और दूसरा परावलम्बी । परावलम्बी ज्ञान हमें गुरुजनों से एवं अच्छी पुस्तकें पढ़ने से प्राप्त होता है। हम लोग अपने-अपने विद्यालय में उसे प्राप्त करते हैं । परन्तु स्वावलम्बी ज्ञान हमें स्वयं अपने द्वारा ही प्राप्त होता है और उसके अर्जन के लिए उचित समय विद्यार्थी के अवकाश के क्षण हैं, चाहे वह ग्रीष्मावकाश हो और चाहे वह दशहरावकाश हो । उसमें वह स्वावलम्बी ज्ञान को अधिक मात्रा में प्राप्त करके अपने लम्बे अवकाश को सफल बना सकता है।
          संसार में सबसे अधिक मूल्यवान वस्तु समय है, प्रत्यके व्यक्ति को समय का महत्त्व समझना चाहिये, “समय चूकि पुनि का पछताने” जब समय बीत जाता है तब मनुष्य केवल पछताता ही रहता है और फिर उसे काई लाभ नहीं होता। जो समय का जितना आदर करेगा, समय भी उसका उतना ही आदर करेगा । विशेष रूप से छात्रों को अपना अवकाश कुरुचिपूर्ण बातों में व्यतीत न करके ऐसे सत्कार्यों में व्यतीत करना चाहिये, जिनसे उनमें नैतिक एवं शैक्षणिक भावनाओं का संचार हो और वे सन्मार्गगामी बन सकें।
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