ग्राम पंचायत राज्य

ग्राम पंचायत राज्य

          जिस देश की पवित्र भूमि से यज्ञ का धुँआ उठकर आकाश को भी पवित्र और गौरवान्वित कर देता था, जिस देश में विप्र वटुकों की वेद पाठ की पवित्र ध्वनि से दिगदिगन्त भी पवित्र हो जाते थे, जिस देंश में घर-घर में शंखनाद और घण्टावादन होता था, जिसकी भूमि के महान् आकर्षण ने परब्रह्म को राम और कृष्ण के रूप में भारत-भूमि पर मानव लीला करने के लिये विवश कर दिया था, समय के प्रभाव से वह पुण्य भूमि विदेशियों से पदाक्रान्त हुई । शनैः शनैः हम भारतीय अपनी पवित्र संस्कृति, पुण्यवती सभ्यता तथा ज्ञानमयी चेतना से हाथ धो बैठे। विदेशियों ने हमारी राजनीति, अर्थनीति और धर्मनीतियों पर कुठाराघात किये और वह छिन्न-भिन्न हो गयी, बिखरी हुई कड़ियों के रूप में यद्यपि वह आज भी दृष्टिगोचर होती है। परतन्त्रता ने हमें अविद्या और दरिद्रता के गहन अन्धकार् में धकेल दिया। दासता जब अपनी चरम सीमा पर थी, हमारे डूबने में कुछ ही समय शेष था, तभी भारतीय क्षितीज पर एक प्रकाश पुंज अवतीर्ण हुआ, जिसने न केवल युगों की दासता की शृंखलाओं को ही काटा, । अपितु शताब्दियों से अन्धकार में भटकती हुई जनता को प्रकाश प्रदान किया। उसी महापुरुष का कथन था कि, “हमारा भारतवर्ष गाँवों में बसता है, गाँव हमारी संस्कृति के केन्द्र स्थान हैं, जब तक भारत में सवा पाँच लाख गाँव उन्नत, स्वावलम्बी और समृद्धिशाली न होंगे, जब तक यहाँ से अविद्या का अन्धकार, दरिद्रता का दानव और ऊँच-नीच का भेद-भाव नष्ट न होगा, तब तक स्वतन्त्रता अथवा स्वराज का भारत के लिये कोई मूल्य नहीं ।” यह मन्त्रदाता महात्मा गाँधी थे ।
          सच्चे लोकतन्त्र की प्राण प्रतिष्ठा तभी सम्भव है जब, समाज सुखी और समृद्ध हो । भारतीय ग्रामों की स्थिति अत्यन्त दयनीय थी, चाहे वह शिक्षा की दृष्टि से हो या आर्थिक दृष्टि से, चाहे वह स्वच्छता की दृष्टि से हो या चिकित्सा की दृष्टि से, चाहे वह भेद-भाव की दृष्टि से हो या कलह की दृष्टि से। भारतवर्ष गाँवों का देश है। जब तक गाँवों की उन्नति नहीं होती तब तक भारतवर्ष की उन्नति सम्भव नहीं । आज भी भारतीय ग्राम अविकसित हैं, आज भी ग्रामीणों के चारों ओर भेद-भाव, कलह, अज्ञान और संकीर्णता घेरा डाले हुए है। अतः ग्रामीणों के जीवन के सुधार तथा सर्वांगीण उन्नति लाने के लिये भारत सरकार ने ग्राम पंचायतों की स्थापना की।
          प्राचीन काल में पंचायतों का स्वरूप छोटे-छोटे प्रजातन्त्रों के स्वरूप में था, जिनका कर्तव्य जनता का स्तर उन्नत करना होता था । ये प्रजातन्त्र जनता पर शासन भी करते थे तथा शिक्षा एवं न्याय सम्बन्धी कार्य भी करते थे। इन प्रजातन्त्रों के अधिकार कुछ लिखित प्रतिज्ञा के रूप में होते थे और कुछ अलिखित होते थे। लेकिन संसार की परिवर्तनशीलता ने इस व्यवस्था को भी शनैः शनैः लुप्त कर दिया। भारत के साथ-साथ इस लोकतन्त्रात्मक शासन प्रणाली का फिर से नया जन्म हुआ। गाँधी जी की इच्छा थी कि भारत में राम राज्य की स्थापना हो ।
          स्वतन्त्रता और स्वराज्य की वास्तविकता तभी सार्थक हो सकती है, जब इस देश के सवा पाँच लाख गाँवों को स्वराज्य का सन्देश पहुँच जाये । इसी स्वप्न को साकार रूप देने के लिए सन् १९४७ में सरकार ने एक पंचायत राज्य कानून बनाया और गाँवों में एक नया युग प्रारम्भ हुआ। पंचायत राज्य कानून के अनुसार एक हजार या इससे अधिक आबादी वाले प्रत्येक गाँव में एक ग्राम सभा स्थापित की गई। एक हजार से कम आबादी वाले गाँवों के लिये यह नियम बनाया गया कि कुछ छोटे-छोटे गाँवों को मिलाकर ग्राम सभा का संगठन होगा। गाँव के सभी वयस्क स्त्री-पुरुष अर्थात् जिनकी अवस्था १८ वर्ष की हो चुकी हो, ग्राम सभा के सदस्य होंगे। केवल वे ही लोग इस सभा की सदस्यता से वंचित होंगे जो पागल हों या उनको कोढ़ की बीमारी हो या जो दिवालिया घोषित हों या जो सरकारी नौकरी करते हों और अन्यत्र रहते हों या जो चुनाव सम्बन्धी अपराध में दोषी सिद्ध हो चुके हों । इसके अतिरिक्त, गाँव में स्थानीय रूप से रहने वाले सब लोग ग्राम सभा के सदस्य बहुमत से अपने में से किसी एक योग्य व्यक्ति को सभा का सभापति और दूसरे को उपसभापति चुन लेते हैं। सभापति सभा के कार्यों का संचालन करता है। साधारण स्थिति में, वर्ष में दो बार ग्राम सभा की बैठक होती है, एक बार गर्मियों में जब लोग खेती का काम समाप्त कर लेते हैं और दूसरी बार खरीफ की फसल काटने के बाद । आवश्यकता पड़ने पर सभापति या कुल सदस्यों के पाँचवें भाग के कहने पर ग्राम सभा की खास बैठक बुलाई जा सकती है। ग्राम सभा की बैठक तभी हो सकती है जब उसके कम से कम १५ सदस्य उपस्थित हों। ग्राम सभा अपनी एक कार्यकारिणी समिति का निर्माण करती है, जिसे ग्राम पंचायत कहते हैं। ग्राम सभा के सदस्य आबादी के हिसाब से ग्राम पंचायत में ३० से ५० तक सदस्य चुन लेते हैं । ग्राम सभा के सभापति उपसभापति इस पंचायत में भी प्रधान और उपप्रधान होते हैं। ग्राम पंचायत के सदस्यों का चुनाव तीन वर्ष के लिये होता है। पंचायत में गाँव में रहने वाली सब जाति और सभी वर्गों के लोगों के प्रतिनिधि चुने जाते हैं।
          ग्राम सभा की अनुमति से ग्राम पंचायत सीर, खुदकाश्त, व्यापार, मकान आदि पर कर लगा सकती है। उसे दान स्वीकार करने का अधिकार है । आवश्यकता पड़ने पर वह कर्ज भी ले सकती है। इन कार्यों में उसे ग्राम सभा का आदेश मानना पड़ता है । इसके अतिरिक्त सड़कें बनवाना, उनकी मरम्मत करना, सफाई, रोशनी का प्रबन्ध करना, चिकित्सा और जच्चा-बच्चा की देख-रेख करना, छूत की बीमारियों को रोकने का प्रबन्ध करनों, सभा की सम्पत्ति या इमारतों की रक्षा की व्यवस्था करना, जन्म-मरण का हिसाब रखना, ग्राम पंचायत के मुख्य कार्य हैं। अपने क्षेत्र में मेला, बाजार, स्कूल, चरागाह, कुँआ, तालाब, बीज गोदाम का प्रबन्ध करना भी ग्राम पंचायत के अधिकार में है। ग्राम से सम्बन्धित सरकारी कर्मचारियों के काम के विषय में ऊपर के अधिकारियों के पास प्रमाण के साथ अपनी रिपोर्ट भेजने का अधिकार भी ग्राम पंचायत को है। ग्राम पंचायत की बैठक प्रति मास एक बार होती है। सदस्यों को बैठक की सूचना सात दिन पहले दी जाती है।
          पंचायत राज्य द्वारा ग्रामीण जनता को न्याय सुलभता और सरलता से प्राप्त होता है। अंग्रेजी शासनकाल में न्याय केवल धनिकों तक ही सीमित था, निर्धन व्यक्ति के लिये यह न्याय यदि असम्भव नहीं तो कष्टसाध्य अवश्य था । छोटे-छोटे मामले उत्तरोत्तर अपील की व्यवस्था के कारण इतना भयानक रूप धारण कर लेते थे कि उनके निर्णय के लिये हाई कोर्ट में शरण लेनी पड़ती थी । पंचायत राज्य की योजना के अनुसार ग्राम सभायें पंचायती अदालतों का निर्माण करती हैं प्रत्येक अदालत में तीन से लेकर पाँच तक ग्राम सभायें होती हैं और प्रत्येक ग्राम सभा पंच चुनती है । इस प्रकार के तीन मण्डल में १५ से लेकर २५ पंचों तक की एक पंचायती अदालत बन जाती है। वे सब पंच अपने में से एक सरपंच चुनते हैं, जिनका पढ़ा-लिखा होना जरूरी है। पंच का कार्यकाल तीन-तीन वर्ष का होता है। प्रत्येक मुकदमे के लिये सरपंच पाँच पंचों का एक पंच-मण्डल बनाता है, जिसमें एक पंच ऐसा होता है जो पढ़-लिख सके और वादी के गाँव या पक्ष का हो और एक प्रतिवादी के पक्ष या गाँव का हो । ये ही पंच मण्डल पंचायती अदालतों से आम मुकदमों का फैसला करते हैं। कोई ऐसा पंच मुकदमे में भाग नहीं ले सकता जो वादी का रिश्तेदार हो । फौजदारी और दीवानी दोनों के साधारण मामले इन अदालतों में लाये जा सकते हैं । इन अदालतों को १०० रुपये तक जुर्माना करने का अधिकार प्राप्त है, लेकिन इन्हें कैद की सजा देने का अधिकार प्राप्त नहीं है। दीवानी के मुकदमे में ढाई रुपया तथा फौजदारी में पच्चीस पैसे प्रवेश शुल्क लिया जाता है। पंचायती अदालतों में वकील पैरवी करते और न इनके निर्णय की आगे कोई अपील हो सकती है। इन दोनों नियमों के कारण ग्रामीण जनता का धन पानी की तरह बहने से बच जाता है।
          ग्राम-पंचायत राज्य हमारे देश के लिये, जिनकी आत्मा गाँवों में निवास करती है, अत्यन्त महत्वपूर्ण है। भारत में जनतन्त्र को सफल बनाने के लिये ग्राम पंचायतों का संगठन आवश्यक है । जनतन्त्र शासन को सफल बनाने के लिये सहकारिता का संगठन प्रयास, समाज की सेवा की भावना, सार्वजनिक कार्यों को अपना समझकर उनमें योग देना, बहुमत का आदर करना, विचार, भिन्नता होते हुए भी मिल-जुलकर काम करना, नियन्त्रण में रहने का स्वभाव बनाना आदि गुण परम आवश्यक हैं। इन सब गुणों को प्राप्त करने के प्रशिक्षण का स्थान इस देश की जनता के लिए ग्राम-पंचायतें ही हैं। ग्रामीण जनता को इनसे उत्तरदायित्व पूरा करने की भी शिक्षा मिलती है। ग्राम-पंचायत के संगठन से भारत के शासन के केन्द्रीयकरण का दोष भी बहुत अंशों में कम हो जायेगा । राज्य के किसी अधिकारी का जनता के कार्यों में तथा उसके जीवन में हस्तक्षेप का अवसर भी कम प्राप्त होगा। ग्राम पंचायतों के संगठनों से गाँवों में आत्मनिर्भरता का समावेश होगा, ग्रामीण समस्याओं के सुलझाने में तथा उनके प्रबन्ध करने में जितनी सुविधा ग्राम पंचायतों की होगी, उतनी किसी अन्य संस्थाओं की नहीं, क्योंकि वहाँ की जनता अपनी आवश्यकताओं, कमियों, शक्ति और समस्याओं से पूर्णरूप से परिचित है।
          उपर्युक्त तत्वों पर विचार करके हम निःसन्देह यह कह सकते हैं कि भारतीय लोकतन्त्र शासन की सफलता में जन जागृति, सुधार, निर्माण आदि कामों में ग्राम पंचायत से बढ़कर और कोई संस्था सहायता नहीं कर सकती । इसलिये भारतीय संविधान की ४० वीं धारा में कहा गया है कि –
          “राज्य ग्राम पंचायत का संगठन करने के लिये अग्रसर होगा तथा उन्हें ऐसी शक्तियाँ और अधिकार प्रदान करेगा जो उन्हें स्वायत्त शासन की इकाइयों के रूप में कार्य करने योग्य बनाने में आवश्यक हों।”
          सन्तोष की बात है कि राज्य सरकारों ने भारत सरकार के निर्देश पर १९८८ की जौलाई में सात वर्षों बाद ग्राम प्रधान एवं ग्राम पंचायतों के चुनाव सम्पन्न कराये हैं। इससे भारत में लोकतन्त्र की जड़ें और अधिक मजबूत होंगी और लोगों को अपने झगड़े अपने आप सुलझाने के लिये स्वर्णिम अवसर मिलेगा ।
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