कवि अपने युग का प्रतिनिधि होता है

कवि अपने युग का प्रतिनिधि होता है

          कवि और उनके काव्य किसी दूसरे संसार से नहीं आते, कवि इसी धरातल पर अवतीर्ण होते हैं और उनके काव्य इसी समाज में बैठकर लिखे जाते हैं । वे भी धरती के मनुष्य हैं, हैं और समाज और देश की अवस्था का उनके हृदय पर भी प्रभाव पड़ता है। अन्तर इतना ही है कि साधारण मनुष्य उन्हें मूक होकर अनुभव करता है और कवि अपनी काव्य-प्रतिभा से उन्हें समाज के आगे अभिव्यक्त कर देता है। समाज की प्रमुख प्रवृत्तियाँ सहसा ही उसके काव्य में अपना स्थान बना लेती हैं। वह अपने समय का प्रतिनिधित्व करता है। संसार के सभी साहित्यों पर दृष्टिपात करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि कवियों ने अपने देश और समय की विभिन्न विचारधाराओं को ही अपने काव्य में स्थान दिया है तथा श्रोता और समाज उनका आदर करता है । लोकरुचि और लोकप्रवृत्ति से भिन्न राग अलापने वाला कवि समाज में आदृत नहीं होता । उसे समाज के स्वर में स्वर मिलाकर चलना पड़ता है, समाज भी उसे अपनी ओर आकर्षित किए बिना नहीं रहता, क्योंकि दोनों अन्योन्याश्रित हैं, परस्पर सापेक्ष्य हैं।
          कवि के मनोगत भाव जब सहसा स्वर लहरी के माध्यम से फूट पड़ते हैं, तब समाज उसे कविता की संज्ञा देता है । कवि के हृदय के उद्गार ही कविता है। वह अपने हृदय के भावों और विचारों को कविता से कैसे दूर रख सकता है। प्रत्येक युग की सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक और आर्थिक अवस्थायें तत्कालीन साहित्य में प्रतिबिम्बित हुआ करती हैं। युग के परिवर्तन के साथ साहित्य की गति में भी परिवर्तन अवश्यम्भावी हो जाता है। इसीलिए विद्वान् साहित्य को समाज का दर्पण, प्रतिबिम्ब, प्रतिरूप और प्रतिच्छाया स्वीकार करते हैं। कवि अपने युग की सामाजिक चेतनाओं का पूर्णरूप से प्रतिनिधित्व करता है ।
          हिन्दी साहित्य का इतिहास चार भागों में विभाजित किया जाता है—आदिकाल या वीरगाथा काल, भक्तिकाल, रीतिकाल और आधुनिक काल । प्रत्येक काल की अपनी भिन्न-भिन्न विशेषताएँ थीं। उदाहरणों से स्पष्ट होगा कि उन कालों के विभिन्न कवियों ने अपनी युगीन विचारधाराओं का सफल प्रतिनिधित्व किया । हिन्दी साहित्य का आदिकाल एक प्रकार से लड़ाई-झगड़े का युग था। उसमें अशान्ति थी और एक प्रकार की राजैनतिक आँधी चल रही थी। मुसलमानों के आक्रमण आरम्भ हो गए. थे । हिन्दू राजा लोग अपने-अपने राज्य की रक्षा में लगे हुए थे । मुसलमानों की लूटमार जारी थी। गजनवी और गौरी के आक्रमणों ने राजपूतों को शिथिल-सा कर दिया था। राजपूत राजा लोग अपने-अपने गौरव की रक्षा में लगे हुए थे, देश के गौरव का उन्हें कम ध्यान था | उनमें वीरता थी, परन्तु वीरता का कोष पारस्परिक प्रतिद्वन्द्विताओं में खाली किया जा रहां था। इन प्रतिद्वन्द्विताओं के कारण राजपूत एक सूत्रबद्ध सामूहिक शक्ति का परिचय न दे सके, मुसलमानों के पैर धीरे-धीरे जमते गए। वह युद्ध का युग था। वे युद्ध कभी विदेशी आक्रमणकारियों को रोकने के लिए किये जाते थे, कभी पारस्परिक वीरता प्रदर्शन के लिए होते थे और कभी-कभी स्त्रियों का सौंदर्याधिक्य भी इन युद्धों का कारण होता था । अतः तत्कालीन साहित्य में वीरता की छाप पड़ी। वीर गाथाओं के साथ-साथ तत्कालीन रचनाओं में शृंगार का पुट भी पर्याप्त मात्रा में रहता था, क्योंकि प्रायः स्त्रियाँ ही पारस्परिक प्रतिद्वन्द्विता और झगड़े का कारण हुआ करती थीं। इन काव्यों में युद्धों का बड़ा सुन्दर और सजीव वर्णन है । चन्द ने यदि पृथ्वीराज का वर्णन किया तो भट्ट केदार ने जयचन्द का यशोगान किया ।
          आँधी हमेशा नहीं रहती, आँधी के बाद शान्ति और स्थिरता आ जाती है। भारतवर्ष के राजनैतिक वातावरण में भी अपेक्षाकृत शान्ति स्थापित हुई। राजपूतों में जब तक कुछ शक्ति थी, वीरता थी, साहस था, तब तक वीरगाथाओं से थोड़ा बहुत काम चला । किन्तु बल के क्षीण हो जाने पर उत्साह प्रदान से भी कोई काम नहीं चलता “निर्वाह दीपे किं तैल्य दानम्।” शान्ति के समय एक-दूसरे ही प्रकार के काव्य की आवश्यकता थी । भारतवर्ष में मुसलमान अपना आधिपत्य स्थापित कर चुके थे। हिन्दुओं पर भिन्न-भिन्न प्रकार के अत्याचार हो रहे थे। उन्हें जीवन भार मालूम पड़ रहा था। चारों ओर अंधकार दृष्टिगोचर हो रहा था । घोर नैराश्य के कारण जनता ने परमात्मा का आश्रय लिया। कुछ हिन्दू यह भी चाहते थे कि उनका धर्म इस रूप में आए कि मुसलमान उसका खण्डन न कर सकें । इतना ही नहीं यदि सम्भव हो सके तो विरोध को छोड़कर उनके साथ मिलें । इसके अतिरिक्त एक प्रवृत्ति और भी थी । कुछ लोग अपना स्वत्व और व्यक्तित्व अलग चाहते थे। वे लोग मुसलमानों के विरोधी तो नहीं थे, परन्तु ऐक्य की वेदी पर अपने इष्टदेवों के प्रति अनन्य भावना का बलिदान करना नहीं चाहते थे। इन्हीं भिन्न-भिन्न सामाजिक प्रवृत्तियों ने भक्तिकालीन तीनों शाखाओं को जन्म दिया। ज्ञानाश्रयी, प्रेममार्गी तथा कृष्ण-राम भक्त कवि अपने-अपने ढंग से जनता की चित्तवृत्तियों का अपने काव्य में चित्र अंकित करने लगे। ज्ञानाश्रयी कवियों ने हिन्दू और मुसलमानों के पारस्परिक वैमनस्य को दूर करके उन्हें मिलाने का प्रयत्न किया । प्रेममार्गी कवियों ने भी हिन्दू और मुसलमानों के पारस्परिक भेद-भाव को समाप्त करके प्रेम-सिद्धान्तों का प्रचार किया। परन्तु इन दोनों शाखाओं के प्रमुख साहित्यकार जनता में हृदय का पूर्ण स्पर्श न कर सके। आगे चलकर सूर और तुलसी ने कृष्ण और राम का गुनगान सुनाकर जनता को मन्त्रमुग्ध ने कर दिया। जनता भक्ति रस की धारा में अपने दुखों को भूल गई ।
          भक्तिकाल के पश्चात् हिन्दुओं को कुछ शांति मिली। मुगल बादशाह भी अपना साम्राज्य स्थापित कर चुके थे तथा हिन्दुओं को छोटी-छोटी जागीरों का मी बना दिया था। सम्राट विलासिता की सरिता में गोते लगा रहे थे । जहाँगीर और शाहजहाँ की विलासिता की सीमा न थी । छोटे-छोटे हिन्दू राजा भी इसी रंग में रंग गये थे। प्रजा भी सांसारिक भोग-विलासों में आनन्द ले रही थी । परिणाम यह हुआ कि तत्कालीन कवियों ने जनता का अपने काव्य में चित्र खींचना प्रारम्भ कर दिया। हिन्दी काव्य में शृंगारपूर्ण, प्रेमी मादकारिणी रचनायें होने लगीं । नायिका भेद, नख-शिख वर्णन और ऋतु वर्णन में ही कवियों ने अपना काव्य चमत्कार दिखाना प्रारम्भ किया । तत्कालीन काव्य में राजदरबारों की गुलगुली गिलमें और गलीचों के विलासमय जीवन की छाप थी। कविता में सुलाने की सामग्री अधिक थी, जगाने और जिलाने की कम ।
          आधुनिक युग का आरम्भ अंग्रेजी की साम्राज्य स्थापना के साथ आरम्भ होता है। अंग्रेजों के अन्याय और शोषण के विरुद्ध जनता में प्रारम्भ से ही चेतना विद्यमान थी । भारतीयों का जीवन दुःखी था। समाज की राजनैतिक और आर्थिक अवस्था अच्छी नहीं थी, अतः समाज में एक कोने से दूसरे कोने तक राष्ट्रीयता की लहर उमड़ने लगी । युग प्रतिनिधि होने के नाते कवियों के काव्यं में भी राष्ट्रीयता गूंजने लगी । कविता राजसी दरबारों की वस्तु न रहकर किसानों और मजदूरों की वस्तु बन गई । वर्तमान युग की कविता गाँधी जी की विचारधारा से बहुत प्रभावित हुई । समाज की कुरीतियों, जैसे—अछूतोद्धार, स्त्री शिक्षा पर भी लेखनी चली । मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, सोहनलाल द्विवेदी, सुभद्राकुमारी चौहान आदि की कवितायें राष्ट्रीय भावनाओं से परिपूर्ण । हैं
          तात्पर्य यह है कि हिन्दी के ही नहीं, सभी भाषाओं के कवि अपने युग का प्रतिनिधित्व करते हैं। क्योंकि वे कवि भी प्राणी हैं और इसी भूमि पर रहते हैं, जहाँ एक ओर प्रसन्नता है और दूसरी ओर हाहाकार, जहाँ एक ओर जन्म है तो दूसरी ओर मरण । सामाजिक विचार और समाज की परिस्थिति से वे कैसे दूर रह सकते हैं। कवि जो कुछ समाज से ग्रहण करता है, उसे अपनी रीति से समाज को ही समर्पित कर देता है –
दुनिया ने तजुर्बात की सूरत में आज तक । 
जो कुछ मुझे दिया है, वो लौटा रहा हूँ मैं |
          अतः कवि निःसन्देह अपने युग का प्रतिनिधि होता है। कवि-धर्म और युग-धर्म दोनों अन्योन्याश्रित हैं, एक-दूसरे के पूरक हैं। युगीन भावनायें अनायास ही कवि के काव्य में प्रतिबिम्बित के होने लगती हैं।
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