कविता और विज्ञान अथवा “सावधान, मनुष्य ! यह विज्ञान है तलवार”

कविता और विज्ञान अथवा “सावधान, मनुष्य ! यह विज्ञान है तलवार”

“सावधान मनुष्य ! यह विज्ञान है तलवार”
          एकांगी उन्नति पूर्ण, उन्नति नहीं कही जाती । मनुष्य की सर्वांगीण उन्नति के लिये हृदय और बुद्धि की समानता चाहिये । कोरी भावुकता या ज्ञान की कोरी नीरसता मानव जाति का कल्याण नहीं कर सकती । मानव-जाति के समुचित विकास के लिए हृदय और बुद्धि का समन्वय चाहिये । हृदय अर्थात् कविता, बुद्धि अर्थात् विज्ञान । जिस प्रकार गृहस्थ जीवन के स्त्री और पुरुष दो पहिये कहे जाते हैं, उसी प्रकार मानव जीवन की उन्नति के दो पहिये हैं, कविता और विज्ञान | दोनों में से किसी एक से अकेले नाव नहीं चल सकती, कविता “सत्यं शिवं सुन्दरम” की समष्टि है। समाज के सहृदय तथा भावुकं व्यक्तियों की आनन्दमयी एवं लोकहितकारिणी भावनाओं की संचित निधि ही कविता है तथा समाज के तार्किक एवं बुद्धिप्रधान अन्वेषकों द्वारा खोजे हुए चमत्कारिक सत्यों का अक्षुण्ण भण्डार ही विज्ञान है । मानव-समाज का हृदय-पक्ष कविता है, बुद्धि-पक्ष विज्ञान ।
          कविता तथा विज्ञान अन्योन्याश्रित हैं। जिस प्रकार बिना आत्मा के शरीर का और बिना कविता और विज्ञान भी परस्परावलम्बित हैं। दोनों एक-दूसरे शरीर के आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं होता, उसी प्रकार की पूरक शक्तियाँ हैं। कविता का विकास मानव समाज की भावनाओं का प्रसार एवं परिष्कार करती है और विज्ञान मानव-जाति को भौतिक उन्नति की ओर अग्रसर करता है I कविता मानव जाति की भौतिक उन्नति में सहायक नहीं होती और विज्ञान मनुष्य की आध्यात्मिक एवं मानसिक उन्नति में सहायक नहीं होता । भौतक तथा आध्यात्मिक विकास के समन्वय से ही मनुष्य जाति का कल्याण हो सकता है। केवल एक पर आश्रित रहने से मनुष्य पक्ष का ही हो जाएगा। मनुष्य का समुचित विकास हृदय और बुद्धि के सहयोग से ही हो सकता है। कुछ विद्वान् कविता और विज्ञान को नितान्त ही भिन्न बताते हैं । परन्तु हाँ, इतना अवश्य है कि कविता और विज्ञान का क्षेत्र कुछ भिन्न अवश्य है, क्योंकि कविता मनुष्य की रागात्मक वृत्तियों का परिणाम है और विज्ञान ज्ञानात्मक वृत्तियों का | कविता का सम्बन्ध आदर्श से है और विज्ञान का सम्बन्ध यथार्थ से | साहित्य के क्षेत्र में केवल आदर्शवाद या केवल यथार्थवाद हास्यास्पद बन जाते हैं और उनसे जीवन और जगत् का कोई कल्याण नहीं होता है । इसलिये आदर्श और यथार्थ का सामंजस्य ही विद्वान् को सम्मत होता है । साहित्य आदर्शोन्मुख यथार्थवादी होना चाहिए । इसी प्रकार, कविता और विज्ञान के सामंजस्य से ही लोकहित सम्भव हो सकता है । कविता की प्रकृति संश्लेषणात्मक होती है जबकि विज्ञान की विश्लेषणात्मक | कविता का लक्ष्य मानव के संकुचित ‘स्व हो’ को विस्तृत करके परमानन्द प्राप्त कराना है, जबकि विज्ञान मानव के भौतिक सुख को अपना लक्ष्य स्वीकार करता है।
          आज के युग में विज्ञान उन्नति की चरम सीमा पर है। आज का वैज्ञानिक ईश्वर के अस्तित्व. को मानव-मन की दुर्बलता स्वीकार करता है। आज वह प्राचीन भारतीय संस्कृति का परिहास उड़ाने में गौरव का अनुभव कर रहा है, आज वह प्रकृति से भयभीत नहीं होता, उसे अपनी अनुचरी और सहचरी समझता है। प्रकृति के पाँचों तत्वों-पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश पर आज उसका पूर्ण अधिकार है। चन्द्रमा और मंगल आदि ग्रहों पर आज वह नया संसार बसाने को आतुर हो रहा है, चाहे उसके बदले में उसे इस संसार का बलिदान करना पड़े। संसार के महान् देश आज विनाशकारी अस्त्रों के निर्माण में गौरव- गरिमा का अनुभव कर रहे हैं। विज्ञान ने मानव जाति के लिये अनन्त सुख सुविधायें प्रदान की हैं। कोई भी अवैज्ञानिक विद्वान् द्वारा आविष्कृत साधनों की उपेक्षा नहीं कर सकता । राष्ट्रीय भावनाओं के ओजस्वी कवि दिनकर ने लिखा है –
आज की दुनिया विचित्र, नवीन,
प्रकृति पर सर्वत्र है विजयी पुरुष आसीन । 
हैं बंधे नर के करों में वारि, विद्युत, भाप, 
हुक्म पर चढ़ता उतरता है पवन का ताप, 
है नहीं बाकी कहीं व्यवधान,
लॉघ सकता नर, सरित गिरि सिन्धु एक समान ॥ 
          एक ओर विज्ञान ने जहाँ हमें जीवनयापन के लिये अत्यन्त सुख-सुविधायें प्रदान की हैं, वहाँ दूसरी ओर मानवता भयग्रस्त हो रही है। विज्ञान ने मनुष्य से मनुष्यता छीन ली और उसे दानव बना दिया। “वसुधैव कुटुम्बकम” का वह भारतीय पुरातन आदर्श आज प्रायः लुप्त-सा दृष्टिगोचर हो रहा है। संसार अपने-अपने स्वार्थों में व्यस्त है, प्रत्येक राष्ट्र अपना ही चिन्तम करता है, न उसकी पड़ौसी देशों के साथ कोई सहानुभूति है और न संवेदना । विश्व के महान् देश आज अपनी-अपनी वैज्ञानिक उपलब्धियों के आधार पर एक-दूसरे के विनाश के लिए कटिबद्ध हैं। विश्व के मानव-मात्र को सावधान करते हुए ‘दिनकर’ लिखते हैं –
सावधान मनुष्य ! यदि विज्ञान है तलवार 
तो इसे दे फेंक तजकर मोह स्मृति के पार |
हो चुका है सिद्ध है तू शिशु अभी अज्ञान,
 फूल काँटों की तुझे कुछ भी नहीं पहचान । 
खेल सकता तू नहीं ले हाथ में तलवार 
काट लेगा अंग, तीखी है बड़ी यह धार । 
          विज्ञान के भय से अभय होने के लिये यह आवश्यक है कि मानव के भौतिक उत्थान के साथ-साथ आध्यात्मिक एवं मानव विकास के सभी यथासम्भव प्रयत्न किए जायें । मानव का आध्यात्मिक विकास कविता द्वारा ही सम्भव है । कविता मानव के दूषित संस्कारों को, हृदय के कलुषित भावों को और स्वार्थपूर्ण विचारधाराओं को समाप्त करके उसके हृदय में उदात्त और सात्विक भावों का सृजन और परिवर्द्धन करेगी, परन्तु आवश्यकता है दोनों के समन्वय की। अकेला विज्ञान, जैसे आज समस्त मानवता को संत्रस्त किए बैठा है, वैसे ही कविता की कोरी भावुकता से भी संसार में कार्य नहीं चल सकता । आज संघर्षमय संसार में सभी बातों की आवश्यकता है। अकेला योगी या अकेला भोगी संसार का कल्याण नहीं कर सकता । आज के विश्व में दोनों का सन्तुलन अपेक्षित है। यदि आज हम भौतिक उन्नति की उपेक्षा करते हैं, तो निश्चित ही हम संसार में जीवित नहीं रह सकते । संसार के देश हमें खा जायेंगे । भौतिक उन्नति की उपेक्षा का परिणामभारतवर्ष ने पराधीनता के रूप में कई शताब्दियों तक भोगा है। परन्तु इसके साथ-साथ हमें अपनी आध्यात्मिक उन्नति की भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए अन्यथा हम हास्यास्पद बनकर ही रह जायेंगे।
          सारांश यह है कि कविता और विज्ञान एक-दूसरे के पूरक हैं, विरोधी नहीं। एकांगी प्रगति मानव-कल्याण करने में सर्वथा असमर्थ रहेगी। अकेली कविता अपूर्ण है और अकेला विज्ञान भी अपूर्ण है। हृदय-पक्ष और बुद्धि पक्ष, दोनों के समन्वय से ही मानव-बुद्धि का परिष्कार सम्भव है। इसके सन्तुलित शिलान्यास पर ही मानव-कल्याण का भव्य प्रासाद बन सकता है, अन्यथा नहीं। आज के वैज्ञानिक के पास कवि जैसे उदार एवं कोमल हृदय हों, तो निश्चित ही विज्ञान मानव जाति का शत्रु न बनकर मित्र बन जायेगा। अतः विश्व कल्याण के लिए नितान्त आवश्यक है कि विज्ञान और कविता में सामंजस्य स्थापित हो तथा दोनों एक-दूसरे के सहचर हों।
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