“कबिरा संगति साधु की, हरै और की व्याधि” अथवा “सठ सुधरहिं सत्संगति पाये” अथवा सत्संगति

“कबिरा संगति साधु की, हरै और की व्याधि” अथवा “सठ सुधरहिं सत्संगति पाये” अथवा सत्संगति

          मानव और पशु के दैनिक जीवन में नितान्त समानता है। जहाँ तक भोजन, शयन और कर्म का सम्बन्ध है दोनों ही करते हैं। वासना दोनों में ही होती है, फिर ऐसी कौन-सी बात है, जिसके द्वारा मनुष्य पशु से इतना आगे बढ़ गया है। यदि हम बुद्धि कहें, तो बुद्धि तो पशुओं में भी होती है, किसी में कम किसी में अधिक। पशु अपना हित और अहित भी अच्छी तरह समझते हैं। इसीलिये तुलसीदास जी ने लिखा है कि- “हित अनहित पशु पक्षिहु जाना।” विचार करने पर प्रतीत होता है कि मानवता और पशुता की विभाजन रेखा यदि कोई है, तो वह ज्ञान ही है। ज्ञान की मात्रा मनुष्य में है, पशु में नहीं। यद्यपि मनुष्य विद्याध्ययन से ज्ञान प्राप्त करता है परन्तु वह बहुत कुछ विद्वानों, गुरुजनों तथा अपने से बड़ों की संगति से भी प्राप्त करता है। सत्संगति का अर्थ है, “श्रेष्ठ पुरुषों की संगति ।” मनुष्य जब अपने से अधिक बुद्धिमान, विद्वान्, गुणवान् एवं योग्य व्यक्ति के सम्पर्क में आता है, तब उसमें स्वयं ही अच्छे गुणों का उदय होता है और उसके दुर्गुण नष्ट हो जाते हैं, सत्संगति से ही अच्छे मनुष्य की कलुषित वासनायें, बुद्धि की मुर्खता और पापाचरण दूर हो जाते हैं। जीवन में उसे सुख और शान्ति प्राप्त होती है। समाज में उसकी प्रतिष्ठा बढ़ती है। साधारण से साधारण और नीच से नीच व्यक्ति भी सत्पुरुषों के साथ रहने से उच्च स्थान प्राप्त कर लेता है। कबीरदास जी ने लिखा है –
“कबीरा संगति साधु की, हरे और की व्याधि । 
अछी संगति नीच की, आठों पहर उपाधि ॥”
          सत्संगति कल्पलता के समान है। इससे मनुष्य को सदैव मधुर फल ही प्राप्त होते हैं। संस्कृत में कहा गया है— “सत्संगतिः कथय कि न करोति पुंसाम्”, सत्संगति मनुष्य के लिए क्या नहीं करती अर्थात् सब कुछ करती है। साधारण कीड़ा भी पुष्प की संगति से बड़े-बड़े देवताओं और महापुरुष के मस्तक पर चढ़ जाता है –
“ कोटिडपी सुमनः संगात् आरोहति सतां शिर ।”
          सत्संगति भी दो प्रकार से की जा सकती है—प्रथम, श्रेष्ठ, सज्जन एवं गुणवान् व्यक्तियों की अनुभूत शिक्षायें ग्रहण करना, उनके साथ अपना सम्पर्क रखना आदि। दूसरी प्रकार का सत्संग हमें श्रेष्ठ पुस्तकों के अध्ययन से प्राप्त होता है। परन्तु मनुष्य में सजीवता रहने के कारण मानवीय सत्संगति का प्रभाव तुरन्त और चिरस्थायी होता है, जब कि पुस्तकों का विलम्ब से और क्षण भंगुर ।
          सत्संगति से मनुष्यों की ज्ञान-वृद्धि होती है। ज्ञान-वृद्धि के लिये इससे बढ़कर और कोई साधन नहीं। गोस्वामी जी ने लिखा है कि “बिनु सत्संग विवेक न होई”, अर्थात् बिना सत्संगति के मनुष्यों को ज्ञान प्राप्त नहीं होता। इससे मनुष्य को ऐहिक और पारलौकिक दोनों प्रकार की समृद्धि प्राप्त होती है। ऐहिक समृद्धि से तात्पर्य यह है कि सत्संगति से मनुष्य को जीवन में सुख, समृद्धि और परम शान्ति की प्राप्ति होती है, वह समाज में उच्च स्थान प्राप्त करता है, उसकी कीर्ति संसार में फैलती है। पारलौकिक ज्ञान से हम ब्रह्म साक्षात्कार के लिए प्रयत्नशील होते हैं। संसार के आवागमन से मुक्त होने के लिए पूर्ण ज्ञान ही एकमात्र उपाय है। यदि हम पुस्तकों से ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं, तो वेदव्यास की भागवत, श्रीकृष्ण की गीता, तुलसी की रामायण, आदि ग्रन्थों में हम जब चाहें पढ़कर ज्ञान के भण्डार को भर सकते हैं। पुस्तकों का सत्संग स्थान या समय की बाधा प्रस्तुत नहीं करता । आज से सहस्रों वर्ष पूर्व के विद्वानों के साथ हम उसी प्रकार का विचार-विमर्श कर सकते हैं, जिस प्रकार आधुनिक विद्वानों के साथ | उनके ग्रन्थ-रत्नों से हम उनकी संगति का अमूल्य लाभ उठा सकते हैं ।
          श्रेष्ठ पुरुषों के सम्पर्क में आने से हमारे आचरण पर गहरा प्रभाव पड़ता है। हमारा चरित्र उच्च और निर्मल हो जाता है। हमारे क्रूर-कर्म हमसे सदैव के लिये छूट जाते हैं। प्राचीन भारत में विद्यार्थी अहर्निश गुरु के निकट सम्पर्क में रहता था, इसीलिए आश्रमों और गुरुकुलों की व्यवस्था की गई थी, क्योंकि मनुष्य पर शिक्षा से अधिक प्रभाव व्यक्तित्व का पड़ता है। सत्संग के प्रभाव से अनेक दुश्चरित्र व्यक्ति सच्चरित्र बन गये, अनेक क्रूर-कर्मा पुरुष सत्संगति से ही महापुरुष बन गये, क्योंकि गुण और दोष मनुष्य में संगति से उत्पन्न होते हैं—“संसर्गजः दोषागुणाः भवन्ति । ” आदिकवि बाल्मीकि ने सत्संगति के प्रभाव से अपना डकैती का नीच कर्म छोड़कर “मरा मरा” का जप किया था। जैसे—पारस की संगति से लोहा भी सोना हो जाता है, काँच में कंचन की संगति से मरकतमणी की सी चमक आ जाती है, कहा है-“काँच: काँचन-संसर्गाद्धते मारनेतीं बुतिम् ।” उसी प्रकार सत्संगत से बुरा आदमी अच्छा बन जाता है। उसके दोष समाप्त हो जाते हैं। गोस्वामी जी ने लिखा है –
“सठ सुधरहिं सत्संगति पाई, पारस परस कुधातु सुहाई । “
          सत्संगति से मनुष्य का समाज में सम्मान होता है। सज्जनों के साथ रहकर दुराचरी मनुष्य भी अपने दुष्कर्म छोड़ देता है। समाज में उसकी प्रतिष्ठा होने लगती है। गुलाब के पौधे के पास है की मिट्टी भी कुछ समय में सुवासित होकर अपने सम्पर्क में आने वाले को सुगन्धित कर देती है। सहस्रों निरपराध पशुओं को मौत के घाट उतार देने वाला वधिक का छुरा कुशल शल्य चिकित्सक के हाथों में जाकर अनेक प्राणियों की जीवन रक्षा करने में समर्थ होता है। इसी प्रकार दुष्ट से दुष्ट व्यक्ति भी सज्जनों के सम्पर्क में आने से दयावान, विनम्र, परोपकारी और ज्ञानवान् हो जाता है। सत्संगति से मनुष्य विवेकवान् और सदाचारी बनता है और इसी कारण समाज उसका • आदर करने लगता है।
          सत्संगति से से मनुष्य में धैर्य, साहस और सान्त्वना का संचार होता है। कहावत है—ज्ञान काटे ज्ञान से मूरख काटे रोय।” सत्संग उसे इतना विवेकपूर्ण बना देता है कि भयानक से भयानक विपत्ति में भी वह साहस नहीं छोड़ता। सत्संगति उसे सान्त्वना देती है। निराशा में आशा का संचार करती है, घोर अन्धकार में प्रकाश रश्मि विकीर्ण करती है। सत्संगति उसे सुख-दुःख में हर्ष और शोक में सदैव समान रक्खेगी ।
          कुसंगति से अनेक हानियाँ होती हैं। क्योंकि दोष और गुण सभी संसर्ग से ही उत्पन्न होते हैं। मनुष्य में जितना दुराचार, पापाचार, दुश्चरित्रता और दुर्व्यसन होते हैं सभी कुसंगति की कृपा के फलस्वरूप प्राप्त होते हैं । श्रेष्ठ विद्यार्थियों को, जो सदैव प्रथम श्रेणी में ही पास होते हैं, इन आँखों से बिगड़ते देखा है, बर्बाद होते देखा है, केवल नीच साथियों के कारण बड़े-बड़े घराने नष्ट-भ्रष्ट हो गये हैं। बुद्धिमान से बुद्धिमान व्यक्ति पर भी कुसंगति का प्रभाव अवश्य पड़ता है, यह ऐसा जादू है कि अपना असर दिखाये बिना नहीं रहता है। ठीक ही कहा है –
“काजर की कोठरी में कैसो हू सयानो जाय,
एक लीक काजर की लागहि पै लागि है।” 
          दुष्ट और दुराचारी व्यक्ति का साथ कभी नहीं करना चाहिये । नीच मनुष्य की संगति से सदैव उपद्रव होने की आशंका बनी रहती है। नीच की संगति से अच्छे मनुष्य में भी दोष लग जाते हैं। शराब की दुकान पर खड़े होकर दूध पीने वाले व्यक्ति को भी सब यही समझते हैं कि यह शराब पी रहा है। दुष्ट से दूर रहना ही श्रेयस्कर है । तुलसीदास जी ने कहा है
“बरु भल वास नरक कर ताता, दुष्ट संग जनि देहु विधाता ।”
          निष्कर्ष यह है कि क्या विद्यार्थी और क्या गृहस्थी, क्या बालक और क्या वृद्ध, सत्संग से सभी लाभान्वित हो सकते हैं। कुसंगति से मनुष्य की बुद्धि का विनाश हो जाता है और सत्संगति से से मनुष्य को ज्ञान की प्राप्ति होती है। अतः सभी मनुष्यों को सुसंगति करनी चाहिये और कुसंगति त्याग देनी चाहिये । इससे मनुष्य समाज में आदर और प्रतिष्ठा प्राप्त करके सुख और शान्तिपूर्वक जीवन-यापन कर सकता है। सत्संग की महिमा अनन्त है। सत्संगति के प्रभाव से साधारण मनुष्य भी महान् बन जाते हैं। विद्यार्थियों को सदैव अच्छे व्यक्तियों के साथ सम्पर्क रखना चाहिये। इससे वे निश्चय ही सदाचारी, आज्ञापालक और अनुशासन-प्रिय बनेंगे, परन्तु इतनी बात अवश्य है कि सत्संगति का प्रभाव देर में होता है और कुसंगति का प्रभाव तुरन्त । विद्यार्थियों की निर्दोष और निर्मल बुद्धि पर कहीं कुसंगति का वज्रपात न हो जाये, यह प्रतिक्षण देखना माता-पिता का कर्तव्य है।
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