औद्योगीकरण का युग

औद्योगीकरण का युग

अध्याय का सार

1. औद्योगिक क्रांति से पहले
औद्योगीकरण को अकसर हम कारखानों के विकास के साथ ही जोड़कर देखते हैं। जब हम औद्योगिक उत्पादन की बात करते हैं तो हमारा आशय फैक्ट्रियों में होने वाले उत्पादन से होता है। और जब हम औद्योगिक मजदूरों की बात करते हैं, तो भी हमारा आशय कारखानों में काम करने वाले मजदूरों से ही होता है। औद्योगीकरण के इतिहास अकसर प्रारंभिक फैक्ट्रियों की स्थापना से शुरू होते हैं।
पर इस सोच में एक समस्या है। दरअसल, इंग्लैंड और यूरोप में फैक्ट्रियों की स्थापना से भी पहले ही अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार के लिए बड़े पैमाने पर औद्योगिक उत्पादन होने लगा – था। यह उत्पादन फैक्ट्रियों में नहीं होता था। बहुत सारे इतिहासकार द्योगीकरण के इस चरण को आदि-औद्योगीकरण (protoindustrialisation) का नाम देते हैं।

सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दी में यूरोपीय शहरों के सौदागर गाँवों की तरफ रुख करने लगे थे। वे किसानों और कारीगरों को पैसा देते थे और उनसे अंतर्राष्ट्रीय बाजार के लिए उत्पादन करवाते थे। उस समय विश्व व्यापार के विस्तार और दुनिया के विभिन्न भागों में उपनिवेशों की स्थापना के कारण चीजों की माँग बढ़ने लगी थी। इस मांग को पूरा करने के लिए केवल शहरों में रहते हुए उत्पादन नहीं बढ़ाया जा सकता था। वजह यह थी कि शहरों में शहरी दस्तकारी और व्यापारिक गिल्ड्स काफी ताकतवर थे। ये गिल्ड्स उत्पादकों के संगठन होते थे।

गाँवों में गरीब काश्तकार और दस्तकार सौदागरों के लिए काम करने लगे। जैसा कि आपने पिछले साल की पाठ्यपुस्तक में देखा है, यह एक ऐसा समय था जब खुले खेत खत्म होते जा रहे थे और कॉमन्स की बाड़ाबंदी की जा रही थी। अब तक अपनी रोजी-रोटी के लिए साझा ज़मीनों से जलावन की लकड़ी, बेरियाँ, सब्जियाँ, भूसा और चारा आदि बीन कर काम चलाने वाले छोटे किसान (कॉटेज़र) और गरीब किसान आमदनी के नए स्रोत ढूँढ़ रहे थे। बहुतों के पास छोटे-मोटे खेत तो थे लेकिन उनसे घर के सारे लोगों का पेट नहीं भर सकता था।

2. हाथ का श्रम और वाष्प शक्ति
विक्टोरिया कालीन ब्रिटेन में मानव श्रम की कोई कमी नहीं थी। गरीब किसान और बेकार लोग कामकाज की तलाश में बड़ी संख्या में शहरों को जाते थे। जैसा कि आप आगे जानेंगे, जब श्रमिकों की बहुतायत होती है तो वेतन गिर जाते हैं। इसीलिए, उद्योगपतियों को श्रमिकों की कमी या वेतन के मद में भारी लागत जैसी कोई परेशानी नहीं थी। उन्हें ऐसी मशीनों में कोई दिलचस्पी नहीं थी जिनके कारण मजदूरों से छुटकारा मिल जाए और जिन पर बहुत ज्यादा खर्चा आने वाला हो।

बहुत सारे उद्योगों में श्रमिकों की माँग मौसमी आधार पर घटती-बढ़ती रहती थी। गैसघरों और शराबखानों में जाड़ों के दौरान खासा काम रहता था। इस दौरान उन्हें ज़्यादा मजदूरों की ज़रूरत होती थी। क्रिसमस के समय बुक बाइंडरों और प्रिंटरों को भी दिसंबर से पहले अतिरिक्त मज़दूरों की दरकार रहती थी। बंदरगाहों पर जहाज़ों की मरम्मत और साफ़-सफाई व सजावट का काम भी जाड़ों में ही किया जाता था। जिन उद्योगों में मौसम के साथ उत्पादन घटता-बढ़ता रहता था वहाँ उद्योगपति मशीनों की बजाय मजदूरों को ही काम पर रखना पसंद करते थे।

विक्टोरिया कालीन ब्रिटेन में उच्च वर्ग के लोग-कुलीन और पूँजीपति वर्ग-हाथों से बनी चीज़ों को तरजीह देते थे। हाथ से बनी चीजों को परिष्कार और सुरुचि का प्रतीक माना जाता था। उनकी फ़िनिश अच्छी होती थी। उनको एक-एक करके बनाया जाता था और उनका डिज़ाइन अच्छा होता था। मशीनों से बनने वाले उत्पादों को उपनिवेशों में निर्यात कर दिया जाता था।

जिन देशों में मजदूरों की कमी होती है वहाँ उद्योगपति मशीनों का इस्तेमाल करना ज्यादा पसंद करते हैं ताकि कम से कम मजदूरों का इस्तेमाल करके वे अपना काम चला सकें। उन्नीसवीं सदी के अमेरिका में यही स्थिति थी। बाजार में श्रम की बहुतायत से मजदूरों की जिंदगी भी प्रभावित हुई। जैसे ही नौकरियों की खबर गाँवों में पहुँची सैकड़ों की तादाद में लोगों के हुजूम शहरों की तरफ चल पड़े। नौकरी मिलने की संभावना यारी-दोस्ती, कुनबे-कुटुंब के ज़रिए जान-पहचान पर निर्भर करती थी।

बहुत सारे उद्योगों में मौसमी काम की वजह से कामगारों को बीच-बीच में बहुत समय तक खाली बैठना पड़ता था। काम का सीज़न गुजर जाने के बाद गरीब दोबारा सड़क पर आ जाते थे। कुछ लोग जाड़ों के बाद गाँवों में चले जाते थे जहाँ इस समय काम निकलने लगता था।
बेरोजगारी की आशंका के कारण मजदूर नयी प्रौद्योगिकी से चिढ़ते थे। जब ऊन उद्योग में स्पिनिंग जेनी मशीन का इस्तेमाल शुरू किया गया तो हाथ से ऊन कातने वाली औरतें इस तरह की मशीनों पर हमला करने लगी। जेनी के इस्तेमाल पर यह टकराव लंबे समय तक चलता रहा।

1840 के दशक के बाद शहरों में निर्माण की गतिविधियाँ तेज़ी से बढ़ी। लोगों के लिए नए रोज़गार पैदा हुए। सड़कों को चौड़ा किया गया, नए रेलवे स्टेशन बने, रेलवे लाइनों का विस्तार किया गया, सुरंगें बनाई गईं, निकासी और सीवर व्यवस्था बिछाई गई, नदियों के तटबंध बनाए गए।

परिवहन उद्योग में काम करने वालों की संख्या 1840 के दशक में दोगुना और अगले 30 सालों में एक बार फिर दोगुना हो गई।

3. उपनिवेशों में औद्योगीकरण
मशीन उद्योगों के युग से पहले अंतर्राष्ट्रीय कपड़ा बाज़ार में भारत के रेशमी और सूती उत्पादों का ही दबदबा रहता था। बहुत सारे देशों में मोटा कपास पैदा होता था लेकिन भारत में पैदा होने वाला कपास महीन किस्म का था। आर्मीनियन और फारसी सौदागर पंजाब से अफगानिस्तान, पूर्वी फारस और मध्य एशिया के रास्ते यहाँ की चीजें लेकर जाते थे। यहाँ के बने महीन कपड़ों के थान ऊँटों की पीठ पर लाद कर पश्चिमोत्तर सीमा से पहाडी दरों और रेगिस्तानों के पार ले जाए जाते थे। मुख्य पूर्व औपनिवेशिक बंदरगाहों से फलता-फूलता समुद्री व्यापार चलता था। गुजरात के तट पर स्थित सूरत बंदरगाह के जरिए भारत खाड़ी और लाल सागर के बंदरगाहों से जुड़ा हुआ था।
1750 के दशक तक भारतीय सौदागरों के नियंत्रण वाला यह नेटवर्क टूटने लगा था।

यूरोपीय कंपनियों की ताकत बढ़ती जा रही थी। पहले उन्होंने स्थानीय दरबारों से कई तरह की रियायतें हासिल की और उसके बाद उन्होंने व्यापार पर इज़ारेदारी अधिकार प्राप्त कर लिए। इससे सूरत व हुगली, दोनों पुराने बंदरगाह कमज़ोर पड़ गए। इन बंदरगाहों से होने वाले निर्यात में नाटकीय कमी आई। पहले जिस कर्जे से व्यापार चलता था वह खत्म होने लगा। धीरे-धीरे स्थानीय बैंकर दिवालिया हो गए। सत्रहवीं सदी के आखिरी सालों में सूरत बंदरगाह से होने वाले व्यापार का कुल मूल्य 1.6 करोड़ रुपये था। 1740 के दशक तक यह गिर कर केवल 30 लाख रुपये रह गया था।

1760 के दशक के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी की सत्ता के सुदृढ़ीकरण की शुरुआत में भारत के कपड़ा निर्यात में गिरावट नहीं आई। ब्रिटिश कपास उद्योग अभी फैलना शुरू नहीं हुआ था और यूरोप में बारीक भारतीय कपड़ों की भारी माँग थी।

इसलिए कंपनी भी भारत से होने वाले कपड़े के निर्यात को ही और फैलाना चाहती थी। 1760 और 1770 के दशकों में बंगाल और कर्नाटक में राजनीतिक सत्ता स्थापित करने से पहले ईस्ट इंडिया कंपनी को निर्यात के लिए लगातार सप्लाई आसानी से नहीं मिल पाती थी।

1860 के दशक में बुनकरों के सामने नयी समस्या खड़ी हो गई। उन्हें अच्छी कपास नहीं मिल पा रही थी। जब अमेरिकी गृहयुद्ध शुरू हुआ और अमेरिका से कपास की आमद बंद हो गई तो ब्रिटेन भारत से कच्चा माल मँगाने लगा। भारत से कच्चे कपास के निर्यात में इस वृद्धि से उसकी कीमत आसमान छूने लगी। भारतीय बुनकरों को कच्चे माल के लाले पड़ गए। उन्हें मनमानी कीमत पर कच्ची कपास खरीदनी पड़ती थी। ऐसी सूरत में बुनकरी के सहारे पेट पालना संभव नहीं था। . उन्नीसवीं सदी के आखिर में बुनकरों और कारीगरों के सामने एक और समस्या आ गई। अब भारतीय कारखानों में उत्पादन होने लगा और बाज़ार मशीनों की बनी चीज़ों से पट गया था। ऐसे में बुनकर उद्योग किस तरह कायम रह सकता था?

4. फैक्ट्रियों का आना
बंबई में पहली कपड़ा मिल 1854 में लगी और दो साल बाद उसमें उत्पादन होने लगा। 1862 तक वहाँ ऐसी चार मिलें काम कर रही थीं। उनमें 94,000 तकलियाँ और 2,150 करघे थे। उसी समय बंगाल में जूट मिलें खुलने लगीं। वहाँ देश की पहली जूट मिल 1855 में और दूसरी 7 साल बाद 1862 में चालू हुई।

उत्तरी भारत में एल्गिन मिल 1860 के दशक में कानपुर में खुली। इसके साल भर बाद अहमदाबाद की पहली कपड़ा मिल भी चालू हो गई। 1874 में मद्रास में भी पहली कताई और बुनाई मिल खुल गई।

देश के विभिन्न भागों में तरह-तरह के लोग उद्योग लगा रहे थे। आइए देखें ये कौन लोग थे। बहुत सारे व्यावसायिक समूहों का इतिहास चीन के साथ व्यापार के ज़माने से चला आ रहा था। जैसा कि पिछले साल की किताब में आपने पढ़ा था, अठारहवीं सदी के आखिर से ही अंग्रेज़ भारतीय अफीम का चीन को निर्यात करने लगे थे। उसके बदले में वे चीन से चाय खरीदते थे जो इंग्लैंड जाती थी। इस व्यापार में बहुत सारे भारतीय कारोबारी सहायक की हैसियत में पहुँच गए थे। वे पैसा उपलब्ध कराते थे, आपूर्ति सुनिश्चित करते थे और माल को जहाज़ों में लाद कर रवाना करते थे।

फैक्ट्रियाँ होंगी तो मज़दूर भी होंगे। फैक्ट्रियों के विस्तार से मज़दूरों की मांग बढ़ने लगी। 1901 में भारतीय फैक्ट्रियों में 5,84,000 मजदूर काम करते थे। 1946 तक यह संख्या बढ़कर 24 36,000 हो चुकी थी। ये मज़दूर कहाँ से आए?

ज़्यादातर औद्योगिक इलाकों में मज़दूर आसपास के जिलों से आते थे। जिन किसानों-कारीगरों को गाँव में काम नहीं मिलता था वे औद्योगिक केंद्रों की तरफ जाने लगते थे। 1911 में बंबई के सूती कपड़ा उद्योग में काम करने वाले 50 प्रतिशत से ज़्यादा मज़दूर पास के रत्नागिरी जिले से आए थे। कानपुर की मिलों में काम करने वाले ज़्यादातर कानपुर जिले के ही गाँवों से आते थे। मिल मज़दूर बीच-बीच में अपने गाँव जाते रहते थे। वे फसलों की कटाई व त्यौहारों के समय गाँव लौट जाते थे।

5. औद्योगिक विकास का अनूठापन
भारत में औद्योगिक उत्पादन पर वर्चस्व रखने वाली यूरोपीय प्रबंधकीय एजेंसियों की कुछ खास तरह के उत्पादों में ही दिलचस्पी थी। उन्होंने औपनिवेशिक सरकार से सस्ती कीमत पर जमीन लेकर चाय व कॉफ़ी के बागान लगाए और खनन, नील व जूट व्यवसाय में पैसे का निवेश किया।

इनमें से ज्यादातर ऐसे उत्पाद थे जिनकी भारत में बिक्री के लिए नहीं बल्कि मुख्य रूप से निर्यात के लिए आवश्यकता थी।
उन्नीसवीं सदी के आखिर में जब भारतीय व्यवसायी उद्योग लगाने लगे तो उन्होंने भारतीय बाजार में मैनचेस्टर की बनी चीज़ों से प्रतिस्पर्धा नहीं की। भारत आने वाले ब्रिटिश मालों में धागा बहुत अच्छा नहीं था इसलिए भारत के शुरुआती सूती मिलों में कपड़े की बजाय मोटे सूती धागे ही बनाए जाते थे। जब धागे का आयात किया जाता था तो वह हमेशा बेहतर किस्म का होता था। भारतीय कताई मिलों में बनने वाले धागे का भारत के हथकरघा बुनकर इस्तेमाल करते थे या उन्हें चीन को निर्यात कर दिया जाता था।

बीसवीं सदी के पहले दशक तक भारत में औद्योगीकरण का ढर्रा कई बदलावों की चपेट में आ चुका था। स्वदेशी आंदोलन को गति मिलने से राष्ट्रवादियों ने लोगों को विदेशी कपड़े के बहिष्कार के लिए प्रेरित किया। औद्योगिक समूह अपने सामूहिक हितों की रक्षा के लिए संगठित हो गए और उन्होंने आयात शुल्क बढ़ाने तथा अन्य रियायतें देने के लिए सरकार पर दबाव डाला। 1906 के बाद चीन भेजे जाने वाले भारतीय धागे के निर्यात में भी कमी आने लगी थी। चीनी बाज़ारों में चीन और जापान की मिलों के उत्पाद छा गए थे। फलस्वरूप, भारत के उद्योगपति धागे की बजाय कपड़ा बनाने लगे। 1900 से 1912 के भारत में सूती कपड़े का उत्पादन दोगुना हो गया।

पहले विश्व युद्ध तक औद्योगिक विकास धीमा रहा। युद्ध ने एक बिलकुल नयी स्थिति पैदा कर दी थी। ब्रिटिश कारखाने सेना की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए युद्ध संबंधी उत्पादन में व्यस्त थे इसलिए भारत में मैनचेस्टर के माल का आयात कम हो गया। भारतीय बाज़ारों को रातोंरात एक विशाल देशी बाज़ार मिल गया।

युद्ध लंबा खिंचा तो भारतीय कारखानों में भी फ़ौज के लिए जूट की बोरियाँ, फौजियों के लिए वर्दी के कपड़े, टेंट और चमड़े के जूते, घोड़े व खच्चर की जीन तथा बहुत सारे अन्य सामान बनने लगे। नए कारखाने लगाए गए। पुराने कारखाने कई पालियों में चलने लगे। बहुत सारे नए मजदूरों को काम पर रखा गया और हरेक को पहले से भी ज्यादा समय तक काम करना पड़ता था। युद्ध के दौरान औद्योगिक उत्पादन तेजी से बढ़ा।

6. वस्तुओं के लिए बाज़ार
नए उपभोक्ता पैदा करने का एक तरीका विज्ञापनों का है। जैसा कि आप जानते हैं, विज्ञापन विभिन्न उत्पादों को जरूरी और वांछनीय बना लेते हैं। वे लोगों की सोच बदल देते हैं और नयी ज़रूरतें पैदा कर देते हैं। आज हम एक ऐसी दुनिया में हैं जहाँ चारों तरफ विज्ञापन छाए हुए हैं। अखबारों, पत्रिकाओं, होर्डिंग्स, दीवारों, टेलीविज़न के परदे पर, सब जगह विज्ञापन छाए हए हैं। लेकिन अगर हम इतिहास में पीछे मुड़कर देखें तो पता चलता है कि औद्योगीकरण की शुरुआत से ही विज्ञापनों ने विभिन्न उत्पादों के बाज़ार कोफैलाने में और एक नयी उपभोक्ता संस्कृति रचने में अपनी भूमिका निभाई है।

जब मैनचेस्टर के उद्योगपतियों ने भारत में कपड़ा बेचना शुरू किया तो वे कपड़े के बंडलों पर लेबल लगाते थे। लेबल का फ़ायदा यह होता था कि खरीदारों को कंपनी का नाम व उत्पादन की जगह पता चल जाती थी। लेबलही चीज़ों की गुणवत्ता का प्रतीक भी था। जब किसी लेबल पर मोटे अक्षरों में ‘मेड इन मैनचेस्टर’ लिखा दिखाई देता तो खरीदारों को कपड़ा खरीदने में किसी तरह का डर नहीं रहता था।

उन्नीसवीं सदी के आखिर में निर्माता अपने उत्पादों को बेचने के लिए कैलेंडर छपवाने लगे थे। अखबारों और पत्रिकाओं को तो पढ़े-लिखे लोग ही समझ सकते थे लेकिन कैलेंडर उनको भी समझ में आ जाते थे जो पढ़ नहीं सकतेथे।

चाय की दुकानों, दफ्तरों व मध्यवर्गीय घरों में ये कैलेंडर लटके रहते थे। जो इन कैलेंडरों को लगाते थे वे विज्ञापन को भी हर रोज, पूरे साल देखते थे। इन कैलेंडरों में भी नए उत्पादों को बेचने के लिए देवताओं की तसवीर होती थी।

औद्योगीकरण का युग Important Questions and Answers

प्रश्न 1.
औद्योगिकरण से पूर्व के समय को क्या कहा गया?
उत्तर-
पूर्व आदि-औद्योगिकरण।।

प्रश्न 2.
17वीं एवं 18वीं सदी में यूरोपीय शहर के सौदागर गाँवों की ओर क्यों रुख करने गले?
उत्तर-
अन्तर्राष्ट्रय व्यापार के लिए अधिक उत्पादन की आवश्यकता थी जो केवल शहरों में होने वाले उत्पादन से पूरी नहीं की जा सकती थी। अतः सौदागरों ने गाँवों की ओर रुख किया।

प्रश्न 3.
गिल्ड्स क्या थे?
उत्तर-
गिल्ड्स उत्पादकों द्वारा बनाए गए संगठन थे जो कारीगरों को प्रशिक्षण देते, मूल्य निश्चित करते तथा नए व्यवसायियों के आगमन पर रोक लगाते थे।

प्रश्न 4.
प्रश्न 2 के उत्तर में दिए गए कारण के अतिरिक्त क्या कारण था जो सौदागरों ने गाँवों का रुख किया? .
उत्तर-
गिल्ड्स के एकाधिकार तथा नए उत्पादकों पर बाजार में रोक के कारण उन्होंने गाँवों में अपने लिए उत्पादन करवाना आरम्भ कर दिया।

प्रश्न 5.
गाँवों के किसान एवं काश्तकार सौदागरों के लिए काम करने के लिए क्यों तैयार हुए?
उत्तर-
गाँवों में बाड़ाबन्दी आरम्भ हो गई। इस कारण छोटे किसानों को जीवन के लिए आय एकत्रित करना मुश्किल हो गया। छोटे-छोटे खेतों से आमदनी नहीं हो पा रही थी। सौदागरों ने काम करने के लिए उन्हें पेशगी देनी आरम्भ की तो वे उनके लिए काम करने के लिए तेयार हो गए।

प्रश्न 6.
स्टेपलर क्या है?
उत्तर-
वह व्यक्ति जो रेशों के हिसाब से ऊन को स्टेपल करने या छाँटने का काम करता है, उसे स्टेपलर कहा जाता है।

प्रश्न 7.
फुलर कौन है?
उत्तर-
वह व्यक्ति जो चुन्नटों के द्वारा कपड़ों को समेटता है, उसे फुलर कहा जाता है।

प्रश्न 8.
शहरों और गाँवों में संबंध किस प्रकार विकसित हुआ?
उत्तर-
सौदागरों ने गाँवों से अपना काम करवाना आरम्भ किया। ये सौदागर शहरों से आते थे। पूरा कपड़ा गाँवों में तैयार होता तथा लंदन में उनकी फिनिशिंग होती थी। तत्पश्चात् निर्यातक कपड़े को अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में बेच देते थे।

प्रश्न 9.
इंग्लैंड में कारखाने का उदय कब हुआ?
उत्तर-
इंग्लैंड में कारखाने का उदय 1730 के दशक में हुआ।

प्रश्न 10.
नए युग का प्रतीक किसको माना गया?
उत्तर-
कपास को नए युग का प्रतीक कहा गया।

प्रश्न 11.
18वीं सदी में उत्पादन बढ़ने के क्या कारण थे?
उत्तर-
18वीं सदी में उत्पादन इस कारण बढ़ा, क्योंकि उत्पादन की प्रक्रिया के प्रत्येक चरण में कुशलता में वृद्धि हुई।

प्रश्न 12.
कारखानों की उत्पत्ति के कारण क्या लाभ हुए?
उत्तर-
पहले कपड़ा उत्पादन ग्रामीण क्षेत्रों में फैला हुआ था। काम लोग घरों में करते, लेकिन फिर मालिकों ने मशीनें खरीदकर कारखाने लगाना आरम्भ कर दिया। उत्पादन की सभी प्रक्रियाएँ एक ही छत के नीचे सम्भव थीं। मालिक आसानी से पूरे उत्पादन पर नियन्त्रण कर पा रहे थे तथा कपड़े की गुणवत्ता का ध्यान रख पाना आसान हो गया।

प्रश्न 13.
उन्नीसवीं सदी के यूरोप में कुछ उद्योगपति मशीनों की बजाय हाथ से काम करने वाले श्रमिकों को प्राथमिकता क्यों देते थे?
उत्तर-
बहुत से उद्योगपति केवल हाथ से काम करने वाले श्रमिकों को पसन्द करते थे। मशीन के द्वारा केवल एक ही प्रकार का उत्पाद कर पाना सम्भव था। परन्तु बाजार में बारीक डिजाइन तथा विभिन्न आकारों की माँग की जाती थी। कई वस्तुओं को बनाने के लिए निपुणता की आवश्यकता थी।

प्रश्न 14.
बाजार में श्रम के बहुतायत से श्रमिकों का जीवन किस प्रकार प्रभावित हुआ?
उत्तर-
जब औद्योगिकरण हुआ तो शहरों में श्रमिकों की माँग बढ़ी। लोग नौकरियों की तलाश में शहरों की ओर चल पड़े। शहरों में रोजगार के लिए उन्हें कई हफ्तों तक प्रतीक्षा करनी पड़ती। इसके अतिरिक्त सीजन का प्रभाव भी श्रमिकों पर पड़ता था।

प्रश्न 15.
उन्नीसवीं सदी में वेतन पर क्या प्रभाव था?
उत्तर-
उन्नीसवीं सदी के आरम्भ से मजदूरों की आय में कुछ वृद्धि हुई परन्तु उनकी दैनिक आय तय होती थी। उनकी आय इस बात पर निर्भर करती थी कि उन्होंने कुल कितने दिन काम किया है।

प्रश्न 16.
1840 के दशक में शहरों के निर्माण की प्रक्रिया बताएँ।
उत्तर-
उद्योगों में वृद्धि के कारण शहरों के निर्माण की प्रक्रिया भी बढ़ी। सड़कों को चौड़ा किया गया, रेलवे स्टेशनों का निर्माण हुआ, रेलवे लाइनें बढ़ गई, नदियों के तटबंध बनाए गए, सुरंगों का निर्माण हुआ तथा सीवर व्यवस्था को बेहतरीन बनाया गया।

प्रश्न 17.
स्पिनिंग जेनी का बेरोजगारी पर क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर-
स्पिनिंग जेनी का आविष्कार जेम्स हरग्रीव्ज के द्वारा 1764 में हुआ। इसके द्वारा कलाई की प्रक्रिया बढ़ गई जिसके कारण मजदूरों की माँग अत्यन्त कम हो गई।

प्रश्न 18.
मशीनी उद्योगों के युग से पूर्व भारत की स्थिति अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में कैसी थी?
उत्तर-
भारत में उत्पादित रेशमी तथा सूती कपड़े का दबदबा अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्रों में था। यहाँ उत्पन्न होने वाला कपास महीन था। आर्मीनिया तथा फारस के सौदागर भारत से यह कपड़ा ले जाते।

प्रश्न 19.
भारत में पूर्व-औपनिवेशिक समय में व्यापार किन माध्यमों से विकसित हुआ?
उत्तर-
भारत में व्यापार के लिए कई बंदरगाहों का निर्माण किया गया था। व्यापार मुख्यतः समुद्र द्वारा होता था। उदाहरण-गुजरात के तट लाल-सागर तथा भारत की खाड़ी द्वारा जुड़े हुए थे। दक्षिण-पूर्वी एशियायी बन्दरगाह बंगाल में हुगली तथा कोरोमण्डल तट पर मछलीपटनम से जुड़े हुए थे।

प्रश्न 20.
पूर्व-औपनिवेशिक समय में भारतीय व्यापारिक की क्या स्थिति थी?
उत्तर-
भारत के अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में बैंकर एवं भारतीय व्यापारी सक्रिय थे। उत्पादन में पैसा लगाकर वे चीजों को निर्यातकों तक पहुँचाते थे। बुनकरों को पेशगी देकर उनसे काम करवाया जाता था। ततपश्चात् जहाज के मालिकों या निर्यात व्यापारियों के दलालों को उत्पाद बेच दिया जाता था।

प्रश्न 21.
1750 के दशक से सौदागरों का नेटवर्क क्यों टूटने लगा?
उत्तर-
18वीं सदी से यूरोपीय ताकतों ने भारत में प्रवेश किया। स्थानीय राजाओं से उन्होंने व्यापारी रियायतें प्राप्त की। उन्होंने इजारेदारी पर अधिकार भी प्राप्त किए। इस कारण निर्यात में बहुत कमी आई। कई बैंक दिवालिया हो गए। जो व्यापारी बच गए, उन्होंने यूरोपीय व्यापारियों से हाथ मिला लिया।

प्रश्न 22.
1760 का आरम्भिक दौर कैसा था?
उत्तर-
जब ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने 1760 से स्वयं को सुदृढ़ करना आरम्भ किया। आरम्भ में कपड़ा निर्यात में कोई कमी नहीं आई। इस समय ब्रिटिश कपास उद्योग अधिक नहीं फैला था। यूरोप में भारत के महीन कपास से बने कपड़े की बहुत माँग थी कम्पनी इसी व्यापार को फैलाना चाहती थी।

प्रश्न 23.
ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारतीय बुनकरों से सूती और रेशमी कपड़े की नियमित आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए क्या किया।
उत्तर-
ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने कपड़े की नियमित आपूर्ति के लिए पहले एक नई व्यवस्था को लागू किया। इस काम को निम्न चरणों में किया गया कम्पनी ने व्यापार में सक्रिया व्यापारियों और दलालों तथा बुनकरों पर प्रत्यक्ष नियन्त्रण स्थापित करने का प्रयत्न किया। इसके लिए उन्होंने गुमाश्ताओं को तैनात किया। ये गुमाश्ता कर्मचारी कपड़ों की गुणवत्ता तथा बुनकरों पर निगरानी करते थे।

जो बुनकर कम्पनी के साथ काम करते थे, उन पर अन्य व्यापारियों तथा खरीदारों के साथ काम करने पर पाबन्दी लगा दी गई। उन्हें पेशगी भी दी जाती तथा कच्चा माल खरीदने के लिए कर्जा भी। इस कारण वे किसी अन्य व्यापारी को कपड़ा नहीं बेच सकते थे।

प्रश्न 24.
उपर्युक्त प्रश्न में दिए गए चरणों का भारतीय बुनकरों पर क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर-
अधिक आय होने की आशा में बुनकर कर्जे स्वीकार कर लेते। महीन कपड़े की माँग बढ़ने लगी। जिन बुनकरों के पास जमीनें थीं, वे उन्हें किराए पर दकत स्वयं पूरा
समय बुनकरी करने लगे। उनका मुख्य उद्देश्य आय में वृद्धि __ करना था।

प्रश्न 25.
बुनकरों एवं गुमाश्तों के मध्य संबंध किस प्रकार के थे?
उत्तर-
बुनकरों तथा गुमाश्तों के बीच सदैव टकराव होते रहे। वे उन व्यापारियों के समान कदापि नहीं थे जो समय-समय पर उनकी मदद करते थे। परन्तु गुमाश्तों का व्यवहार अत्यन्त बुरा था। इनका गाँवों के साथ कोई सामाजिक संबंध नहीं था। उनका व्यवहार बुनकरों के प्रति दम्भपूर्ण था। वे काम पूरा न होने पर बुनकरों को मारते तथा कोड़े बरसाते थे।

प्रश्न 26.
19वीं सदी के भारत के कपड़े में गिरावट क्यों आने लगी?
उत्तर-
इंग्लैंड में कपास उद्योग में वृद्धि के कारण वहाँ के उद्योगपति अन्य देशों से आयात के कारण परेशान हो गए। आयातित कपड़े पर आयात शुल्क वसूल करने की माँग की जाने लगी। उन्होंने ईस्ट इंडिया कम्पनी पर ब्रिटिश कपड़ों को भारतीय बाजार में बेचने का दबाव डाला जिससे भारत में उत्पादों का निर्यात कम होने लगा, परन्तु 1870 तक आयात 50 प्रतिशत हो गया।

प्रश्न 27.
निर्यात में कमी के कारण बुनकरों के सामने क्या समस्याएँ उत्पन्न हुई।
उत्तर-
निर्यात में कमी के कारण स्थानीय बाजार सिकुड़ने लगा था। मशीनों द्वारा बनाया गया आयातित कपास बहुत सस्ता था। इसका मुकाबला बुनकर नहीं कर पा रहे थे। जल्दी ही अधिकतर बुनकर बेरोजगार होने लगे। 1860 में उन्हें अच्छी कपास बुनकरों से मिलनी बंद हो गई।

प्रश्न 28.
अमेरिकी गृहयुद्ध का भारत में कपास पर क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर-
अमेरिकी गृहयुद्ध के कारण ब्रिटेन को वहाँ से कपास मिलना बंद हो गया। इस कारण भारत से कच्चा कपास ब्रिटेन जाने लगा। निर्यात में वृद्धि से बुनकरों को कच्चा कपास ऊँची कीमत पर मिलने लगा जिससे उनकी आय में बहुत कमी आई।

प्रश्न 29.
भारत में फैक्ट्रियों का आना कब आरम्भ हुआ?
उत्तर-
पहली कपड़ा मिल मुम्बई में 1854 में लगी जिसमें उत्पादन दो वर्ष बाद शुरू हुआ। 1862 तक चार मिलें खुल गई। प्रथम जूट मिल 1855 में तथा दूसरी 1862 में खुली।

प्रश्न 30.
विभिन्न उद्यमी कौन थे जिन्होंने तरह-तरह के उद्योग लगाए?
उत्तर-
चीन के समय से भारत में व्यापार चल रहा था। 18वीं सदी के अंत में अफीम का व्यापार हो रहा था। कुछ उद्यमी उस धन से उद्योग लगाना चाहते थे। द्वारकानाथ टैगोर ने इस व्यापार के बाद 1830 से 1840 तक 6 संयुक्त उद्यम कम्पनियाँ स्थापित की। फिर बम्बई में डिनशॉ पेटिट और काफी समय बाद जमशेदजी टाटा ने उद्यम लगाए। 1917 में हुकुमचन्द ने कलकत्ता में जुट मिल लगाई।

प्रश्न 31.
प्रारंभ में उद्यमी किस प्रकार पूँजी एकत्रित करते थे?
उत्तर-
उद्यमी पूँजी एकत्रित करने के लिए अन्य व्यापारिक नेटवर्को का सहारा लते थे। मद्रास के व्यापारी बर्मा और तथा मध्य पूर्व और पूर्वी अफ्रीका के साथ भी व्यापार करते थे। कुछ अन्य समूह व्यापार से प्रत्यक्ष रूप से नहीं जुड़े थे। ये लोग सूद पर कर्जा देते थे तथा एक शहर से दूसरे शहर धन पहुँचाते थे।

प्रश्न 32.
औपनिवेशकों के आने से भारतीय व्यापर की स्थिति में क्या परिवर्तन हुआ?
उत्तर-
औपनिवेशिक ताकतों के आने से भारतीय व्यापारियों के लिए स्थिति खराब हो गई। उनके लिए जगह एकदम सिकुड़ गई। वे अब तैयार उतपाद यूरोप में नहीं बेच रहे थे। वे केवल नील, गेहूँ, कपास तथा अफीम का निर्यात करते थे। तत्पश्चात् उनका जहाजरानी का व्यवसाय भी समाप्त हो गया।

प्रश्न 33.
फैक्ट्रियों में काम करने के लिए श्रमिक कहाँ से आते थे?
उत्तर-
फैक्ट्रियों में काम करने वाले मजदूर सामान्यतः समीप के जिलों से आते थे। ये श्रमिक वे लोग थे जिन्हें गाँवों में काम नहीं मिलता था। उदाहरण-बम्बई के सूती उद्योग में काम करने के लिए 1911 में श्रमिक रत्नगिरी क्षेत्र से आए। कानपुर के गाँवों के लोग कानपुर के शहरों की फैक्ट्रियों में काम करते थे। त्यौहारों आदि के समय ये सभी श्रमिक अपने गाँवों में वापिस लौट जाते थे।

प्रश्न 34.
मिलों के बढ़ने से मजदूरों पर क्या असर पड़ा?
उत्तर-
मिलों की संख्या भारत में लगातार बढ़ रही थी परंतु इसके साथ ही मजदूरों की माँग बढ़ी। बेरोजगारों की __ संख्या भी इसके साथ बढ़ी थी। मिलों में प्रवेश सदैव निषेध रहता था। उद्योगपति जॉबर के जरिए नए श्रमिकों को काम पर रखते थे। जॉबर अपने गाँवों से लोगों को लाकर काम दिलाता।

प्रश्न 35.
यूरोपीय एजेंसियों ने किन उत्पादों में अपनी दिलचस्पी दिखाई?
उत्तर-
यूरोपीय एजेंसियाँ केवल उन्हीं उत्पादों में निवेश करती थीं जिनमें उन्हें अधिक से अधिक लाभ प्राप्त होता है। चाय, कॉफी के बागान, नील, जूट और खनन आदि में निवेश किया क्योंकि इसे निर्यात किया जा सकता था।

प्रश्न 36.
पहले विश्वयुद्ध के समय भारत का औद्योगिक उत्पादन क्यों बढ़ा?
उत्तर-
बीसवीं सदी में औद्योगिकरण के कारण भारत के उद्योगों में बहुत से परिवर्तन आए। पहले विश्वयुद्ध से पूर्व उद्योगों का विकास भारत में कम था, परंतु इस युद्ध से विश्व में नई स्थिति उत्पन्न हो गई। ब्रिटेन के कारखानों में युद्ध संबंधी सामान बनाया जा रहा था। इस कारण भारत में मैनचेस्टर का उत्पाद नहीं आ रहा था। भारतीय फैक्ट्रियों में सेना के लिए सामान बनने लगा। नई फैक्ट्रियों को लगाया गया। नए मजदूरों को काम पर रखा गया। इससे युद्ध के समय उत्पादन में बहुत तेजी आई।

प्रश्न 37.
20वीं सदी में हथकरघों पर बने कपड़े के उतपादन में सुधार हुआ। इसका क्या कारण था?
उत्तर-
1900 से 1940 के मध्य हथकरघों पर बने कपड़े में बहुत सुधार हुआ जो लगभग तीन गुना था। इसका मुख्य कारण तकनीकी बदलाव था। 20वीं सदी तक कई बुनकर फ्लाई शटल का प्रयोग करने लगे जिसकी लागत अधिक नहीं थी। परंतु उत्पादन भी बढ़ता था। इस कारण श्रम की माँग में भी कमी आई।

प्रश्न 38.
प्रथम युद्ध के पश्चात् बुनकरों की क्या स्थिति रही?
उत्तर-
हालाँकि बुनकरों ने फ्लाई शटल के द्वारा उत्पादन में वृद्धि की, परंतु कुछ बुनकर मिलों के कपड़ों का सामना कर पाए तो कुछ नहीं। कुछ बुनकर मोटे कपड़े को निर्मित करते तो कुछ महीन कपास का। मोटा कपड़ा गरीब खरीदते थे। बेहतर तथा महीन कपड़े को अमीर खरीदते। बुनकरों पर मुख्य प्रभाव अकाल आदि का पड़ता था। बुनकरों का जीवन बहुत कठिन था। उन्हें रात-दिन काम करना पड़ता। परिवार का प्रत्येक सदस्य किसी न किसी रूप में कार्यरत रहता था।

औद्योगीकरण का युग Textbook Questions and Answers

1. निम्नलिखित की व्याख्या करें

(क) ब्रिटेन की महिला कामगारों ने स्पिनिंग जेनी मशीनों पर हमले किए।
उत्तर-
स्पिनिंग जेनी (Spinning Jenny) का अविष्कार जेम्स हरग्रीज ने 1764 ईन ने किया। इस मशीन ने कताई की प्रव्यिा तेज कर दी जिसके कारण अब मजदूरों की मांग घट गई। एक ही पहिये को घुमाकर एक मजदूर एक सारी स्पिडलस को घुमा देता था और एक साथ कई धागे बनने लगते थे। बेरोजगारी के डर से महिला-कारीगर, जो हाथ से धागा कातकर गुजारा करती थीं, घबरा गई। इसलिये उन्होनें इन नई मशीनों को लगाने का विरोध किया और जहाँ-जहाँ ये मशीनें लगाई गई उनपर आक्रमण करके उनको तोड़-फोड़ दिया। महिलाओं का विरोध और तोड़-फोड़ काफी समय तक चलती रही।

(ख) सत्रहवीं शताब्दी में यूरोपीय शहरों के सौदागर गाँवों में किसानों और कारीगरों से काम करवाने लगे।
उत्तर-
औद्योगिक वन्ति इंग्लैंड को मिलाकर, यूरोप के बहुत से देशों में 18वीं शताब्दी में फैली। इससे पहले यूरोप में नए व्यापारी वर्ग को नगरों में अपनी औद्योगिक इकाइयाँ स्थापित करने में अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ा। इस प्रकार उन्होनें अपने व्यापार और औद्योगिक इकाइयों को गा!व में स्थापित करने का प्रयत्न किया। निम्नलिखित कारणों और परिस्थितियों ने उन्हें ग्रामीण क्षेत्रों की ओर जाने के लिए मजबूर किया।
(क) उस समय विश्व-व्यापार के विस्तार और उपनिवेशों की स्थापना के कारण चीज़ों की मांग बढ़ने लगी थी, इसलिये उद्योगपति और व्यापारी अपना उत्पादन बढ़ाना चाहते थे। परन्तु शहरों में रहकर वे ऐसा नहीं कर सकते थे क्योंकि वहाँ मजदूर संघो व्यापारिक गिल्ड्स काफी शक्तिशाली थे जो उनके लिये अनेक समस्याएँ पैदा कर सकते थे।
(ख) शासकों ने भी विभिन्न गिल्ड्स को खास चीजों के उत्पादन और व्यापार का एकाधिकार दे रखा था। इसलिये व्यापारी लोग नगरों में अपनी इच्छानुसार कार्य नहीं कर सकते थे।
(ग) ग्रामीण क्षेत्रों में किसान लोग और कारीगर वर्ग ऐसे सौदागरों के लिये काम करने को तैयार थे क्योंकि खुले खेत खत्म होने और कामन्स भूमियों की बाड़ाबंदी होने के कारण उनके पास जीने के अब बहुत कम साधन बचे थे।

(ग) सूरत बंदरगाह अठारहवीं सदी के अंत तक हाशिये पर पहुँच गया था।
उत्तर-
भारत में पश्चिमी तट पर स्थित सरत की बन्दरगाह मशीन युग से पहले, भारत को पश्चिमी देशों से मिलाने और व्यापारिक गतिविधियों को अंजाम देने वाली सबसे प्रसिद्ध बन्दरगाह थी। परन्तु 19वीं सदी के आते-आते विभिन्न यूरोपीय कम्पनियों विशेषकर अंग्रेज़ी ईस्ट इंडिया कम्पनी ने इसके बहुत से व्यापार पर अधिकार कर लिया और इसके पहले ही शान और महत्व जाता रहा। उन्होंने पश्चिमी तट पर अपनी-अपनी बन्दरगाहें स्थापित कर ली, जैसे अंग्रेजों ने बम्बई की बन्दरगाह का निर्माण कर अपना सारा व्यापार इस बन्दरगाह से करना शुरु कर दिया। ऐसे में भारत की पुरानी बन्दरगाहें, जैसे सूरत की बन्दरगाह द्वारा होने वाले विदेशी व्यापार की मात्रा बहुत कम हो गई। एक अनुमान के अनुसार 17वीं शताब्दी के अंत में सूरत से जहाँ 16 मिलियन मूल्य का माल आता जाता था। वह 1740 के दशक में घटकर केवल 3मिलियन ही रह गया।

(घ) ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में बुनकरों पर निगरानी रखने के लिए गुमाश्तों को नियुक्त किया था।
उत्तर-
ईस्ट इंडिया कम्पनी ने भारतीय व्यापारियों और दलालों की भूमिका समाप्त करने तथा बुनकरों पर अधिक नियन्त्रण स्थापित करने के विचार से वेतनभोगी कर्मचारी तैनात कर दिये जिन्हें गुमाशता कहा जाता था। इन गुमाशतों को अनेक प्रकार के काम सौंपे गए।

(क) वे बुनकरों को कर्ज देते थे ताकि वे किसी और को अपना माल तैयार करके न दे सकें।
(ख) वे ही बुनकरों से तैयार किये हुए माल को इकट्ठा करते थे।
(ग) वे बने हुए सामान विशेषकर बने हुए कपड़ों की गुणवना की जांच करते थे।

क्योंकि ये गुमाशता लोग बुनकरों के बीच में नहीं रहते थे इसलिये किसी न किसी बात पर उनका बुनकर से टकराव हो जाता था। कई बुनकर तो इन गुमाशतों के कठोर व्यवहार से तंग आकर अपना गा!व तक छोड़ जाते थे और दूसरे स्थानों पर जाकर वहाँ अपना करघा लगा लेते थे और वहाँ अपना काम शुरु कर देते थे।

प्रश्न 2. प्रत्येक वक्तव्य के आगे ‘सही’ या ‘गलत’ लिखें-

(क) उन्नीसवीं सदी के आखिर में यूरोप की कुल श्रम शक्ति का 80 प्रतिशत तकनीकी रूप से विकसित औद्योगिक क्षेत्र में काम कर रहा था।
उत्तर-
गलत।

(ख) अठारहवीं सदी तक महीन कपड़े के अंतराष्ट्रीय बाजार पर भारत का दबदबा था।
उत्तर-
सही।

(ग) अमेरिकी गृह युद्ध के फलस्वरूप भारत के कपास निर्यात में कमी आई।
उत्तर-
गलत।

(घ) ल्लाई शटल के आगे से हथकरथा कामगारों की उत्पादकता में सुधार हुआ।
उत्तर-
सही।

प्रश्न 3.
आदि-औद्योगिक का मतलब बताएँ।
उत्तर-
आदि-औद्योगिक से हमारा अभिप्राय उन उद्योगों से है जो फैक्ट्रियां लगने से पहले पनप रहे थे। अभी जब इंग्लैड़ और यूरोप में फैक्ट्रिया शुरु नहीं हुई थीं तब भी वहाँ अन्तराष्ट्रीय माँग को पूरा करने के लिये बहुत-सा माल बनता था। यह उत्पादन फैक्ट्रियों में नहीं होता था। परन्तु घर-घर में हाथों से माल तैयार होता था और वह भी काफी मात्रा में।

बहुत से इतिहासकार फैक्ट्रियों की स्थापना से पहले की औद्योगिक गतिविधियों को आदि औद्योगिकरण (ProtoIndudtrialisation) के नाम से पुकारते हैं। शहरों में अनेक व्यापारिक गिल्ड्स थीं जो विभिन्न प्रकार की चीजों का,
फैक्ट्रियों की स्थापना से पहले, उत्पादन करती थीं। ग्रामीण क्षेत्रों में बहुत से सौदागार यही काम किसानों और मजदूरों से हाथ द्वारा करवाते थे।

यह आदि-औद्योगिक की व्यवस्था इंग्लैंड और यूरोप में फैक्ट्रियाँ लगने से पहले के काल में व्यापारिक गतिविधियों का एक महत्वपूर्ण अंग बनी हुई थी।

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