ऐसा क्यों और कैसे होता है -36

ऐसा क्यों और कैसे होता है -36

कुछ पौधे मांसाहारी क्यों होते हैं?

सामान्यतः यह माना जाता है कि पेड़-पौधे अपना भोजन स्वयं तैयार करते हैं, लेकिन कुछ पौधे ऐसे भी होते हैं, जो कीट आदि खाकर अपना काम चलाते हैं। आखिर क्यों हो जाते हैं पौधे मांसाहारी? असल में, कुछ पौधे अपने विकास के लिए जरूरी प्रोटीन का निर्माण स्वयं नहीं कर पाते हैं। ये पौधे प्रोटीन प्राप्त करने के लिए ही कीटों का भक्षण करते हैं। हां इन पौधों के कीट पकड़ने का तरीका जरूर अलग-अलग होता है। पिचर प्लांट नामक पौधे की पत्ती का अगला हिस्सा घड़े जैसा और काफी आकर्षक रंग लिए होता है। इस घड़े के द्वार पर रेशे होते हैं जो कीट को अंदर प्रवेश तो करने देते हैं, लेकिन बाहर नहीं निकलने देते हैं । इस घड़े में चिपचिपा तरल पदार्थ भरा होता है। जब इसके आकर्षक रंग को देख कीट इसकी तरफ आते हैं, तो इसी में फंस कर रह जाते हैं और इस कीट से पौधा अपनी प्रोटीन की जरूरत पूरी कर लेता है। इसी तरह कोबरा प्लांट और सन ड्यू नामक पौधा भी अपने शिकार को अपनी सुंदरता से फंसा लेते हैं। ऐसे ही कई अन्य पौधे भी मांसाहार के जरिये ही जीवनोपयोगी प्रोटीन प्राप्त करते हैं।
अंधमहासागर हरा क्यों दिखता है?
भूमध्यसागर और अंधमहासागर की विशेषता है कि इन्हें इनके रंग के आधार पर पहचाना जा सकता है। भूमध्यसागर का जल नीचा और अंधमहासागर का जल हरा दिखाई देता है। आइए, देखें कि ऐसा क्यों होता है? सूर्य के प्रकाश में सात रंग होते हैं। कोई वस्तु किस रंग की दिखाई देगी, यह इस बात पर निर्भर करता है कि वह सूर्य के प्रकाश में मिले 7 रंगों में से किस रंग को परावर्तित करती है। यह उस वस्तु या पदार्थ की संरचना पर निर्भर करता है कि वह किस रंग को परावर्तित करेगी। सामान्यतः समुद्र के पानी की विशेषता होती है कि वह सिर्फ नीले रंग को ही परावर्तित करता है। इसलिए सभी समुद्रों का जल नीला दिखाई देता है। अंधमहासागर के तल पर हरे पौधों की बहुतायत है। इन पौधों के नष्ट होने के कारण पीला रंग इस महासागर के पानी में घुलता रहता है। इस कारण यह महासागर नीले और पीले दोनों ही रंगों को परावर्तित करता है। चूंकि दोनों रंग एक साथ ही परावर्तित होते हैं, इसलिए इस महासागर का पानी हरा दिखाई देता है, जो नीले और पीले रंग से मिलकर बना है। चूंकि भूमध्यसागर के जल में पीला रंग नहीं घुलता, इसलिए वह अन्य सागरों की तरह सिर्फ नीले रंग को ही परावर्तित करता है। इसीलिए उसका पानी नीला दिखाई देता है।
प्रोटीन जरूरी क्यों है?
सभी जीवित प्राणियों की कोशिकाओं में प्रोटीन होते हैं। प्रोटीन को जीवन का ‘बिल्डिंग ब्लॉक’ कहा जाता है और इसके बिना जीवन की कल्पना करना भी व्यर्थ है। प्रोटीन ऐसे रासायनिक पदार्थ हैं जो अमीनो अम्ल की क्रिया – प्रतिक्रिया से बनते हैं। कुछ जीवों के शरीर में अमीनो अम्ल का निर्माण होता है, जबकि शेष को भोजन से अमीनो अम्ल प्राप्त करना होता है। यह भोजन में पाए जाने वाले प्रोटीन से मिलता है। प्रोटीन शरीर में जाकर अमीनो अम्ल में टूट जाते हैं और यह क्रिया प्रोटीन सिंथेसिस कहलाती है। प्रोटीन शरीर में कई कार्य करते हैं। एंजाइम नाम के प्रोटीन पाचन क्रिया में उत्प्रेरक का काम करते हैं और भोजन को शीघ्र पचा देते हैं। प्रोटीन शरीर की उपापचय क्रियाओं के लिए भी अत्यंत आवश्यक है। इंसुलिन जैसे कुछ हार्मोन भी एक प्रकार के प्रोटीन हैं। इन्हें नियंत्रक प्रोटीन कहा जाता है क्योंकि ये रक्त दबाव और शरीर में शक्कर की मात्रा नियंत्रित रखते हैं। प्रोटीन की कमी से शरीर की प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है और इच्छाशक्ति कमजोर हो जाती है।
स्टनेलैस स्टील को गरम करने पर उसकी सतह पर रंगीन धब्बे क्यों पड़ जाते हैं ?
स्टेनलैस स्टील को जंग लगने से बचाने के लिए मिश्र धातुओं से बनाया गया है। इसमें लोहे के अतिरिक्त कुछ अन्य तत्त्वों एवं धातुओं की भी थोड़ी मात्रा मिलाई जाती है। इनमें क्रोमियम, कार्बन, निकेल तथा मोलिवडीनम प्रमुख हैं। जब स्टेनलैस स्टील के बरतनों आदि को हवा में गरम करते हैं तो स्टील की घटक धातुओं के ऑक्साइडों की एक बहुत पतली-सी परत उन पर बन जाती है, जो प्रकाश के हस्तक्षेप से अलग-अलग रंग उत्पन्न कर देती है। लेकिन इस तरह बननेवाले रंग इस बात पर निर्भर करते हैं कि ऑक्साइडों की परत कितनी मोटी बनी है और धातु को कितने तापक्रम तक गरम किया गया है। सामान्यतः यदि 145° सेंटीग्रेड तक गरम किया गया है तो पीले रंग के धब्बे बनते हैं। ठीक इसी तरह 350° सेंटीग्रेड पर हरे रंग के, 230° सेंटीग्रेड पर भूरे रंग के, 260° सेंटीग्रेड पर गुलाबी रंग के और 300° सेंटीग्रेड पर नीले रंग के धब्बे पड़ते हैं।
इस तरह स्टेनलैस स्टील को गरम करने पर उसकी सतह पर पड़नेवाले रंगीन धब्बे उसमें मिली घटक धातुओं एवं तत्त्वों के ऑक्साइड की परत एवं गरम करनेवाले तापमान के अनुसार हरे, पीले, भूरे, नीले अथवा गुलाबी आदि रंगों के बन जाते हैं।
आग की लौ ऊपर ही क्यों जाती है?
आग की लौ हमेशा ऊपर की ओर जाती है, यह कभी भी नीचे की ओर नहीं जाती। ऐसा क्यों होता है यह समझने के लिए जरूरी है यह भी जानना कि लौ क्या है? दरअसल लकड़ी, मोमबत्ती या माचिस की तीली आदि सभी जलने वाले पदार्थों में मुख्य रूप से कार्बन और हाइड्रोजन होते हैं, जब ये पदार्थ जलते हैं, तो जलने वाले हिस्से से कई गैसें पैदा होती हैं। जलती हुई ये गैसें ही हमें लौ के रूप में दिखाई देती हैं। हवा से हलकी होने के कारण यह गैसें ऊपर उठती रहती हैं। इनके ऊपर उठने से हमें लौ भी सदा ऊपर की ओर ही जाती दिखाई देती है। जब हम किसी लौ की ओर हलकी सी फूंक मारते हैं, तो लौ हिलने लगती है। मुंह से निकलने वाली हवा लौ की गर्म गैसों को तितर-बितर कर देती है। जैसे ही हम फूंक मारना बंद करते हैं, वैसे ही लौ फिर सीधी हो जाती है। हवा की अनुपस्थिति में लौ कभी नहीं हिलती, बल्कि सदा ही सीधी रहती है। लौ आमतौर पर दो प्रकार की होती है : एक तो चमकने वाली और दूसरी न चमकने वाली। जलती हुई मोमबत्ती, लकड़ी, मिट्टी के तेल आदि से निकलने वाली लौ चमकीली होती है। जबकि हाइड्रोजन के जलने से निकलने वाली लौ में बहुत ही हल्का नीलापन होता है, इसलिए इसे न चमकने वाली लौ की श्रेणी में रखा जाता है।
पेसमेकर क्यों लगाया जाता है ?
एक सामान्य स्वस्थ आदमी का हृदय एक मिनट में करीब 70 से 80 बार तक धड़कता है। हृदय की निरंतर और पेसमेकर नियमबद्ध धड़कन का नियंत्रण एट्रिया नामक मांसपेशियों द्वारा किया जाता है। इसे पेसमेकर कहते हैं। हृदय चार प्रकोष्ठों या खानों के बीच स्थित होता है। ऊपर के दो प्रकोष्ठों को एट्रिया तथा बीच के प्रकोष्ठों को वेंट्रिकल्स कहते हैं। एट्रिया नामक ये मांसपेशियां कोशिकाओं के छोटे से समूह में स्थित होती हैं। यहीं से कम तीव्रता के विद्युत स्पंद पैदा होते हैं। इन विद्युत स्पंदों से एट्रिया सिकुड़ते हैं। जब ये संदेश वेंट्रिकल्स में पहुंचते हैं तो वह भी सिकुड़ते हैं। सिकुड़ने के बाद थोड़े से समय के लिए ये फैलते हैं। यह सिलसिला नियमित रूप से चलता रहता है। हृदय की कुछ बीमारियों के कारण जब शरीर का यह पेसमेकर खराब हो जाता है, तब हृदय की धड़कन को नियमित रखने के लिए कृत्रिम पेसमेकर का उपयोग किया जाता है। यह बैटरी से चलने वाली इलेक्ट्रानिक युनिट होती है। इस कृत्रिम पेसमेकर को सीने के अंदर ऑपरेशन करके लगा दिया जाता है। यह कृत्रिम पेसमेकर हृदय को आवश्यक विद्युत संदेश देता रहता है, जिससे हृदय की धड़कन नियमित रूप से चलती रहती है।
हवा से भारी होने पर भी ओजोन वायुमंडल के ऊपर क्यों पाई जाती है?
यह सच है ओजोन हवा से भारी होती है, अतः सामान्यतः इसे हवा के नीचे धरती पर होना चाहिए था। लेकिन ऐसा न होकर यह पृथ्वी की सतह से लगभग 25 से 45 किलोमीटर ऊपर के वायुमंडल में पाई जाती है। इसका कारण यह है कि ओजोन ऊपर के वायुमंडल में ही बनती है। जब ऑक्सीजन के तीन परमाणु पास आकर मिल जाते हैं तो ओजोन का एक अणु बनता है। सामान्यतः ऑक्सीजन के परमाणु अकेले मुक्त अवस्था में नहीं पाए जाते हैं, बल्कि वे जोड़े में ऑक्सीजन के अणु के रूप में मिलते हैं। लेकिन ऊपरी वायुमंडल में सूर्य से आनेवाले तेज शक्तिशाली विकिरण के द्वारा ऑक्सीजन के अणु विखंडित हो जाते हैं। हालांकि पृथ्वी की सतह पर भी ऑक्सीजन पर्याप्त मात्रा में है, लेकिन यहां सूर्य से आनेवाला विकिरण इतना शक्तिशाली नहीं होता कि वह ऑक्सीजन को विखंडित कर उसके अणुओं को परमाणुओं में बदल सके। लेकिन फिर भी यदि कुछ विखंडन हो जाता है तो भूतल पर बहुत अल्प मात्रा में ही ओजोन बनती है। जबकि ऊपरी वायुमंडल में यह पर्याप्त मात्रा में बनती रहती है ।
इसके अतिरिक्त ओजोन परत भी इसी तरह न रहकर विकिरण के द्वारा ऑक्सीजन के परमाणुओं में टूटती रहती है। ये परमाणु पुनः मिलकर ताजा ओजोन बन जाते हैं और इस तरह ओजोन के विखंडन या टूटने तथा पुनः मिलकर ताजा ओजोन बनने का क्रम लगातार चलता रहता है, और ओजोन परत में ओजोन की सांद्रता स्थिर बनी रहती है। यही कारण है कि ओजोन हवा से भारी होने पर भी नीचे की ओर न आकर वायुमंडल के ऊपरी भाग मे ही रहती है।
लहसुन को लाभकारी क्यों माना जाता है ?
लहसुन का पौधा यूरोप और एशिया का मूल पौधा है। यह इटली तथा दक्षिणी फ्रांस के जंगलों में अपने आप बहुत अधिक संख्या में पैदा हो जाता है। अब इसे संसार के सभी देशों में पैदा किया जाता है। यह लिली परिवार में आता है। इसमें एक प्रकार का तेल पाया जाता है, जो अनेक रोगों को दूर करने के गुण रखता है। भोजन में लहसुन का प्रयोग मनुष्य प्राचीन समय से ही करता आ रहा है। इसकी गंध बहुत ही तेज और स्वाद तीखा होता है। प्राचीन काल में रोम के लोग अपने सिपाहियों को लहसुन खिलाते थे। उनका विश्वास था कि इसके खाने से साहस और शक्ति आ जाती है। मध्ययुग में प्लेग जैसे भयानक रोग के आक्रमण से बचने के लिए लोग लहसुन का इस्तेमाल करते थे। कीटाणुनाशक औषधि के रूप में लहसुन का वास्तविक महत्व मनुष्य को कुछ ही वर्ष पहले पता लगा है। इसके अंदर एलियम नामक एंटीबायोटिक होता है, जो बहुत से रोगों में लाभप्रद है। लहसुन खाने से रक्तदाब कम हो जाता है। आंतों के विकारों, पेट की गैस और शिकायत मे  इसका प्रयोग बहुत ही लाभदायक है। हृदय संबंधी रोगों में तो लहसुन रामबाण सिद्ध हो रहा है।
टी. वी. पर घोस्ट या छायाकार तस्वीर क्यों आती है?
टी.वी. एक ऐसा उपकरण है जो टी.वी. प्रसारण केंद्र से प्रसारित होनेवाली उच्च फ्रीक्वेंसी की रेडियो तरंगों को अपने एंटीना के माध्यम से ग्रहण करता है और उन्हें पिक्चर ट्यूब एवं इलेक्ट्रॉनिकी के द्वारा तस्वीर में परिवर्तित करता है। जब ग्रहण करनेवाले इन सिगनलों में कोई अवरोध आ जाता है तो तस्वीर छायादार दिखाई देने लगती है। जब हमारे आसपास ऊंची इमारतें आदि होती हैं तो प्रसारित होनेवाली इलेक्ट्रॉनिक तरंगें उनसे परावर्तित होती हैं। हमारे टी.वी. सैट का एंटीना टी.वी. केंद्र से सीधी आ रही तरंगों के साथ इन परावर्तित तरंगों को भी ग्रहण कर लेता है, और टी. वी. सैट इन दोनों तरह की तरंगों को तस्वीर में बदलना प्रारंभ कर देता है। क्योंकि परावर्तित होकर आनेवाली तरंगें टी.वी. सैट पर आने में सीधी तरंगों की अपेक्षा कुछ अधिक मात्रा तय करती हैं। इसलिए इनकी भी एक हलकी-सी तस्वीर असली तस्वीर से कुछ हटकर बनती है, जो हमें टी.वी. पर घोस्ट या छायादार तस्वीर में समान दिखाई देती है।
मिस्र के लोग ममी क्यों बनाते थे?
ममी उस मृतक शरीर को कहते हैं, जिसे दफनाने से पहले सुरक्षित रखने के लिए विशेष रसायनों के साथ क्रिया कराई जाती है। ममी शब्द की उत्पत्ति अरबी भाषा के ममियाह शब्द से हुई है, जिसका अर्थ है मोम या टार द्वारा शरीर को सुरक्षित रखना। प्राचीन मिस्र में ममियों को सुरक्षित रखना एक अत्यंत लोकप्रिय तरीका था। आइए जानें कि मिस्र के लोग शवों को सुरक्षित क्यों रखते थे। मिस्र के लोगों का विश्वास था कि मृत्यु के बाद एक दूसरा जीवन शुरू होता है और इसी धारणा को लेकर वे मृतक के शव को दूसरे जन्म के लिए तैयार करते थे। उनका विचार था कि मानव की आत्मा एक चिड़िया की तरह होती है, जिसका चेहरा आदमी से मिलता-जुलता होता है। यह आत्मा चिड़िया की तरह दिन में कहीं पर भी उड़कर भ्रमण कर सकती है, लेकिन रात होते ही दुरात्माओं के भय से यह मृतक शरीर में वापस आ जाती है। इस संकल्पना के आधार पर ही वे मृतक के शव पर ऐसे रसायनों का लेप करते थे, जिससे वह खराब न हो और सुरक्षित रहे ताकि आत्मा अपने शरीर को पहचान सके और लौट कर उसमें वापस आ सके।
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