ऐसा क्यों और कैसे होता है -35

ऐसा क्यों और कैसे होता है -35

गिलास पानी से तो गीला हो जाता है, पारे से नहीं, क्यों?

किसी चीज का गीला होना इस बात पर निर्भर करता है कि गीली होनेवाली वस्तु में उनके आसंजक बल और संसंजक बल में क्या संबंध है। आसंजक बल चिपकने में और संस् बल वस्तु के अणुओं को आपस में चिपकाए रहने का कार्य इसी से पृष्ठीय तनाव मापा जाता है। पारे में संसंजक बल उसके आसंजक बल की तुलना में बहुत अधिक होता है। यही गिलास और पारे के अणुओं के बीच का आकर्षण बल है। पारे का पृष्ठीय तनाव पानी के पृष्ठीय तनाव की तुलना में लगभग छः गुना अधिक होता है। इसलिए पारा अपने आप में बंधा रहता है और फैलता नहीं है, अतः वह गिलास को गीला नहीं करता है। लेकिन ठीक इसके विपरीत पानी और गिलास के बीच आसंजक बल अधिक होता है तथा पानी के अणुओं के बीच संसंजक बल कम होता है। इसलिए पानी फैलता रहता है और गिलास की सतह से चिपक – सा जाता है, जिसके कारण गिलास गीला हो जाता है। इसलिए पानी से तो गिलास गीला हो जाता है लेकिन पारे से गीला नहीं होता है।
तारे क्यों टूटते हैं?
जब भी रात के अंधेरे में कोई चमकदार चीज आसामान से धरती की ओर बढ़ती दिखाई देती है, तो यह कहा जाता है कि कोई तारा टूटा है। आसमान से नीचे गिरती हुई चमकदार चीज तारा नहीं होकर, उल्काएं होती हैं। ये उल्काएं सुई की नोक से लेकर कई किलो वजनी होती हैं।
इन्हें बिना किसी उपकरण की मदद से भी अंधेरी रात में देखा जा सकता है। जब इन उल्काओं की सतह और वायु के बीच का घर्षण ऊर्जा उत्पादित करता है, तब ये उल्काएं पृथ्वी की तरफ बढ़ने लगती हैं और इस ऊर्जा और पृथ्वी के वातावरण के कारण छोटे आकार की उल्काएं जलने लगती हैं। इस कारण तेज रोशनी दिखती है और लगता है जैसे कोई चमकदार तारा आसमान से टूटकर जमीन की तरफ बढ़ रहा हो । खगोलशास्त्रियों ने पाया कि उल्काएं समूह में ही रहती हैं। जब छोटी उल्काएं तारे की तरह टूट कर गिरती नजर आती हैं, तब बड़ी उल्काएं भी पृथ्वी के वातावरण में प्रवेश करती हैं। ये बड़ी उल्काएं जब पृथ्वी की सतह पर गुरुत्वाकर्षण के कारण आ गिरती हैं, तब उन्हें उल्कापिंड कहा जाता है। बहुत सारे उल्कापिंड बिना नष्ट हुए पृथ्वी पर एक साथ गिरते हैं, तो उसे उल्कापात कहते हैं ।
उंगलियों के निशान महत्वपूर्ण क्यों होते हैं?
संसार में किन्हीं भी दो व्यक्तियों की उंगलियों के निशान एक जैसे नहीं हो सकते । प्रकृति ने सभी की उंगलियों की त्वचा की संरचना इस प्रकार से की है कि किन्हीं दो व्यक्तियों की संरचना एक जैसी नहीं है। हालांकि जीवन भर व्यक्ति के शरीर में कई तरह की बढ़त और बदलाव होते रहते हैं, लेकिन हाथ-पैरों की उंगलियों के निशानों में जन्म से लेकर मृत्यु तक कोई परिवर्तन नहीं होता। दो व्यक्तियों की उंगलियों के निशान एक जैसे नहीं होते, यह तथ्य चीन के लोगों को दो हजार वर्ष पहले से पता था और इसीलिए चीनी राजा महत्वपूर्ण कागजातों पर अपने अंगूठे की निशानी लगा देते थे। इस तथ्य को सन 1892 में एक अंग्रेज वैज्ञानिक सर फ्रांसिस गाल्टन ने सबसे पहले सिद्ध करके दिखाया कि संसार में किन्हीं भी दो व्यक्तियों की उंगलियों के निशान एक जैसे नहीं हो सकते। तभी से इस तथ्य को अपराधियों का पता लगाने के लिए प्रयोग में लाया जा रहा है। किसी भी पुलिस विभाग में हजारों व्यक्तियों के उंगलियों के निशानों के चित्र एक फाइल में रहते हैं। इन निशानों से मिनटों में अपराधियों का पता लग जाता है। इन सभी कारणों से उंगलियों के निशान महत्वपूर्ण होते हैं।
टी. वी. पर सिनेमास्कोप
फिल्म सिकुड़कर चपटी क्यों आती है ?
सिनेमास्कोप फिल्मों को फिल्माते समय अधिक लंबे-चौड़े क्षेत्र का फिल्मांकन करने के लिए विशेष प्रकार के कैमरों का उपयोग किया जाता है, जिनमें सिलेंड्रीकल लेंस लगे होते हैं। इनसे चित्र अनुप्रस्थ, अर्थात् समतल स्तर पर सिकुड़ जाता है। इस तरीके में बड़े क्षेत्र का दृश्य फिल्माने में सहायता मिलती है। जब ऐसी सिनेमास्कोप फिल्मों को एक और सिलेंड्रीकल लेंस की सहायता से परदे पर दिखाया जाता है तो फिल्म ऊर्ध्वाकार की अपेक्षा अनुप्रस्थ आकार में अधिक फैल जाती है। इसके परिणामस्वरूप हमें ऊंचाई की अपेक्षा चौड़ाई में ढाई गुनी अधिक बड़ी तस्वीर दिखाई देती है। इसलिए सिनेमास्कोप फिल्मों को ऐसे ही परदों पर दिखाया जाता है जिनकी ऊंचाई और चौड़ाई का अनुपात 2.5 होता है। इसके विपरीत टी. वी. के परदे, अर्थात् पिक्चर ट्यूब के परदे का आकार इसकी तुलना में बहुत अधिक छोटा होता है। अतः इसमें चौड़ी सिनेमास्कोप तस्वीर नहीं आ सकती है। इसलएि टी.वी. पर सिनेमास्कोप फिल्म सिकुड़ी और चपटी लगती है।
सेक्सटेंट का उपयोग क्यों किया जाता है ?
सेक्सटेंट एक ऐसा यंत्र है, जो धरती के किसी स्थान और सूरज या तारों जैसे खगोलीय पिंडों के बीच बनने वाले कोणों को मापने के काम आता है। इसका उपयोग समुद्री जहाजों के नाविकों द्वारा अक्षांश ज्ञात करने के लिए भी किया जाता है तथा ऊंची इमारतों और खंभों की ऊंचाई भी इससे मापी जाती है। इस यंत्र में धातु से बना एक वृत्तखंड होता है, जो एक वृत्त के छठे भाग यानी 60 अंश के बराबर होता है। इसके वृत्ताकार भाग पर कोणों का मान ज्ञात करने के लिए एक पैमाना लगा होता है। इसमें धातु की एक पत्ती होती है, जो वृत्त के केंद्र पर एक पेंच से कसी होती है। सेक्सटेंट को इस्तेमाल करते समय धरती के पास के किसी स्थान को दूरदर्शी यंत्र द्वारा देखकर फोकस कर लिया जाता है। फिर सूर्य या तारे की ओर पत्ती को खिसका कर दूरदर्शी यंत्र द्वारा धरती के उस स्थान से मिला दिया जाता है, जिसके लिए उसे फोकस किया गया था। इस प्रक्रिया में पत्ती जितनी अपनी मूल स्थिति में खिसकी है, उस कोण को माप लिया जाता है।
इंफ्रा रेड किरणें महत्वपूर्ण क्यों हैं?
सूर्य के सफेद प्रकाश में वे सभी रंग मिलते हैं, जिन्हें हम इंद्रधनुष में देखते हैं। यह प्रकाश एक प्रकार की तरंगों में चलता है। प्रकाश के भिन्न-भिन्न रंगों की अलग-अलग आवृत्ति होती है। हमारी आंखें सभी आवृत्तियों के प्रति संवेदनशील है। इसलिए इन सभी रंगों को देख सकती हैं। सूर्य के प्रकाश में रंगों की ऐसी आवृत्तियां भी होती हैं, जिनके प्रति हमारी आंखें संवेदनशील नहीं हैं। इन्हीं में लाल रंग से कम आवृत्ति की तरंगों को अवरक्त किरणें (इंफ्रा रेड ) कहते हैं। इनकी खोज ब्रिटेन के खगोल शास्त्री सर विलियम हर्षेल ने सन 1800 में की थी। अवरक्त किरणें सूर्य के प्रकाश से ही नहीं निकलतीं, बल्कि हर गर्म वस्तु से उसके तापक्रम के अनुसार निकलती हैं। ये बहुत उपयोगी हैं। कुछ बीमारियों की चिकित्सा के लिए इन किरणों का प्रयोग होता है। मांसपेशियों के दर्द को ठीक करने तथा युद्ध में काम आने वाले प्रक्षेपास्त्रों के नियंत्रण में भी अवरक्त किरणों का इस्तेमाल किया जाता है। अवरक्त किरणें पैदा करने वाले लैंपों से घर के कमरों को गर्म किया जाता है।
स्वीटेक्स मिठास में शर्करा के समान होने पर भी कैलोरी मान में कम क्यों होती है?
शर्करा के अतिरिक्त भी मिठास देनेवाले अनेक यौगिक हैं जो शर्करा के समान अथवा उससे भी अधिक गुने मीठे होते हैं। शर्करा से बहुत अधिक कैलोरी मिलती है। अतः इनसे उपापचय के बाद प्राप्त होनेवाली कैलोरी घातक हो सकती है, क्योंकि उससे मोटापा बढ़ सकता है। अन्य यौगिक जैसेकि सैकरीन शर्करा की तुलना में बहुत अधिक मीठे होते हैं। लेकिन वे शून्य कैलोरीवाले मिठास स्रोत होते हैं। स्वीटेक्स में मिठास का स्रोत सैकरीन ही होती है। अतः स्वीटेक्स सुरक्षित मिठास स्रोत है, तभी तो डायबिटीज के रोगी इसका उपयोग करते हैं। इनके अलावा भी कुछ अन्य मिठास स्रोत भी हैं जो उपयोग में कम कैलोरी  के उत्पाद हैं। कुछ मिठास स्रोत तो ऐसे हैं कि वे बिल्कुल उपापचयित नहीं होते हैं और बिना परिवर्तित हुए ऐसे-के- ऐसे ही मल के द्वारा शरीर से बाहर निकल जाते हैं, और शरीर में कैलोरी भी नहीं पहुंचाते हैं। इनमें एलेसुल्फाम के प्रमुख है। में शर्करा के यही कारण है कि स्वीटेक्स मिठास समान होने पर भी कैलोरी मान में कम होती है।
ड्राइक्लीनिंग कैसे/ क्यों की जाती है?
ड्राइक्लीनिंग कपड़े धोने का ऐसा तरीका है, जिसमें साबुन और पानी की जगह रासायनिक विलायकों का प्रयोग किया जाता है। इनमें से बहुत से विलायक पेट्रोलियम से प्राप्त किए जाते हैं। पेट्रोल एक बहुत ही महत्वपूर्ण विलायक है, जो ड्राइक्लीनिंग में दूसरे पदार्थों की अपेक्षा अधिक मात्रा में प्रयोग होता है। कार्बन टेट्राक्लोराइड और ट्राइक्लोरोइथलीन ऐसे रसायन हैं, जो कपड़ों से चिकनाई हटाने के लिए सामान्य रूप से प्रयोग होते हैं। ड्राइक्लीनिंग संस्थानों में पहले कपड़ों पर लगे दाग हटाने का काम किया जाता है। फिर उन्हें ड्राइक्लीनिंग मशीन में साफ करने वाले द्रव या विलायक के साथ धोया जाता है। यह प्रक्रम लगभग आधा घंटा चलता है। इसके बाद एक बार फिर साफ द्रव में डालकर कपड़ों को निचोड़ा जाता है। अंत में गर्म वायु द्वारा कपड़ों को सुखा लिया जाता है। विलायक ऐसे धब्बों को अपने साथ घोलकर हटा देते हैं, जिन्हें साबुन या डिटर्जेंट नहीं हटा सकते। ड्राइक्लीनिंग का तरीका महंगे रेशमी और ऊनी कपड़ों के लिए अधिक उपयोगी है, क्योंकि इससे कपड़ों के रंग नहीं उड़ते हैं।
परमाणु रिएक्टर क्यों बनाए जाते हैं?
द्वारा परमाणु भट्टी ( रिएक्टर) परमाणु ऊर्जा स्टेशनों की सबसे महत्वपूर्ण इकाई होती है। विखंडन परमाणु रिएक्टर नाभिकीय परमाणु ऊर्जा को नियंत्रित रूप में उत्पन्न करने की एक विधि है। विखंडन द्वारा विशाल पैमाने पर ताप ऊर्जा उत्पन्न होती है। रिएक्टर तीन प्रकार के होते हैं – थर्मल, फास्ट ब्रीडर और फ्यूज़न । थर्मल रिएक्टर में विखंडन की कुशलता में वृद्धि के लिए कार्बन या गफ्रेाइट के मॉडरेटर्स का उपयोग कर न्यूट्रॉन्स को अंतर्भाग में भेजा जाता है। फास्ट ब्रीडिंग रिएक्टर्स में न्यूट्रॉन्स के द्वारा विखंडन किया जाता है और प्लूटोनियम तथा यूरेनियम ऑक्साइड के मिश्रण का ईंधन के रूप में उपयोग किया जाता है। प्रक्रिया शुरू होने पर यूरेनियम को वह प्लूटोनियम में बदल देती है। इस प्लूटोनियम को निकाल कर बाद में ईंधन के रूप में उपयोग कर लिया जाता है। फास्ट ब्रीडर द्वारा यूरेनियम से थर्मल रिएक्टर की तुलना में 60 गुना ज्यादा ऊर्जा प्राप्त की जाती है। फ्यूज़न रिएक्टर्स में हल्के बहुत परमाणुओं को बलपूर्वक जोड़ा जाता है। परमाणु ऊर्जा का सबसे बड़ा लाभ कम ईंधन व लागत में अधिक विद्युत ऊर्जा प्राप्त करना है।
गैस चूल्हा जलाने पर सिलेंडर में आग क्यों नहीं लगती ?
जब हम गैस चूल्हे को जलाते हैं तो चूल्हे के बर्नरों में गैस इसलिए जलती है क्योंकि वह जलने से पहले हवा के साथ मिश्रित हो जाती है। यदि गैस हवा के साथ उचित तरीके से मिश्रित न हो, तो वह नहीं जल सकती है। गैस सिलेंडर में उसके गैस निकास का द्वार और चूल्हे तक गैस पहुंचानेवाले पाइप का गैस रास्ता बहुत संकरा होता है। इतना ही नहीं, सिलेंडर पर एक रेगुलेटर भी लगा होता है। इसमें से गैस निकलकर सिलेंडर से पाइप द्वारा चूल्हे की ओर तो जा सकती है, लेकिन हवा सिलेंडर में नहीं जा सकती। गैस जलाने के लिए हमें गैस के अणुओं का तापक्रम बढ़ाना आवश्यक होता है, जिसे हम माचिस अथवा लाइटर जलाकर बढ़ाते हैं। गैस सिलेंडर गैस जलने की आवश्यक आवश्यकताओं को ही पूरा नहीं करता है, बल्कि पूरी तरह सुरक्षित होता है। इसलिए गैस चूल्हा जलाते समय गैस सिलेंडर में आग नहीं लगती है ।
हमसे जुड़ें, हमें फॉलो करे ..
  • Telegram ग्रुप ज्वाइन करे – Click Here
  • Facebook पर फॉलो करे – Click Here
  • Facebook ग्रुप ज्वाइन करे – Click Here
  • Google News ज्वाइन करे – Click Here

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *