ऐसा क्यों और कैसे होता है -3
ऐसा क्यों और कैसे होता है -3
ध्वनि की पिच में परिवर्तन क्यों होता है ?
जब कोई रेलगाड़ी या अन्य कोई गाड़ी पास आती है, तो उसकी आवाज की पिच ऊंची प्रतीत होती है। यह गाड़ी जब दूर जाती है, तो उसकी आवाज की पिच कम होती हुई लगती है, किंतु वास्तव में दोनों स्थितियों में आवाज की पिच एक ही होती है? आइए जानें कि पिच का परिवर्तन क्यों होता है। इस तथ्य की विवेचना जोहान्न डापलर ने की थी, जिनके नाम पर इसे ‘डापलर प्रभाव’ कहा जाता है। इसके अनुसार ध्वनि तरंगों के रूप में यात्रा करती है। ध्वनि की पिच इसकी आवृत्ति पर निर्भर करती है। आवृत्ति ध्वनितरंगों की उस संख्या को कहते हैं, जो प्रति सेकेंड कानों से टकराती है। जब ध्वनि-स्रोत श्रोता की तरफ बढ़ रहा होता है, तो स्रोत से निकली प्रत्येक ध्वनि तरंग को पहले निकली तरंग से कम रास्ता तय करना होता है। इस प्रकार प्रत्येक तरंग स्रोत के स्थिर होने की अपेक्षा श्रोता के कानों तक जल्दी पहुंच जाती है। परिणाम यह होता है कि तरंगों के बीच की दूरी कम होती जाती है, इसलिए इनकी आवृत्ति या पिच अनुपात में ऊंची होती जाती है। जैसे ही रेलगाड़ी श्रोता से आगे निकल जाती है अर्थात् दूर जाने लगती है, तो ध्वनि तरंगों के बीच की दूरी बढ़ने लगती है और सामान्य स्थिति के विपरीत प्रत्येक तरंग कुछ लंबी हो जाती है, जिससे पिच कम हो जाती है।
रिकॉर्ड की गई अपनी ही आवाज परिवर्तित क्यों लगती है?
जब हम बोलते हैं, तो हमें अपनी आवाज हवा में बनी ध्वनि तरंगों के माध्यम से तो सुनाई पड़ती ही है, इसके साथ ही हमारे जबड़ों तथा कान के आंतरिक भाग में होने वाले कंपन के माध्यम से भी मालूम पड़ती है। इस तरह हमें अपनी आवाज दो तरह के कंपनों; तथा वायु से आई ध्वनि तरंगों तथा जबड़ों आदि से हुई कंपनों के द्वारा सुनाई पड़ती है। लेकिन जब हम किसी अन्य की आवाज और अपनी ही रिकॉर्ड की गई आवाज को पुन: प्रसारित कर सुनते हैं, तब ऐसा नहीं होता है। टेपरिकॉर्डर को बजाकर जब हम अपनी ही आवाज सुनते हैं, तो वह हवा के द्वारा ही आती है, जबड़ों आदि के कंपन से नहीं, इसलिए वह कुछ भिन्न होती है और हमें टेपरिकॉर्डर से रिकॉर्ड की गई अपनी ही आवाज पहचान में नहीं आती है।
पेंक्रिआस का शरीर में क्या महत्व है ?
पैंक्रिआस मानव शरीर सहित सभी रीढ़ की हड्डी वाले प्राणियों का बहुत ही महत्वपूर्ण अंग है। यह पेट के निचले भाग में स्थित होता है और पार्श्व से लेटे फ्लास्क जैसा दिखता है। इस ग्रंथि का रंग गुलाबीपन लिए पीला होता है और यह 12 से 15 सेमी. लंबी, 3.8 सेमी. चौड़ी और 2.5 सेमी. मोटी होती है। आइए जानें यह शरीर के लिए महत्वपूर्ण क्यों होती है? पेंक्रिआस एक बहुत ही शक्तिशाली पाचक रस पैदा करता है । यह रस ही आंतों में भोजन को तोड़ता है। इससे इंसुलिन और ग्लूकैजन नामक हार्मोन भी पैदा होते हैं। यह ग्रंथि रोज करीब सवा किलो से डेढ़ किलो पेंक्रिऑटिक रस पैदा करती है। सोडियम बाइकार्बोनेट युक्त यह रस अम्ल को उदासीन कर एक नली से होता हुआ छोटी आंत या डुओडिनम तक पहुंचता है। इस रस में लवण और एंजाइम होते हैं, जो प्रोटीन, स्टार्च, शर्करा और वसा को पचाने में सहायता करते हैं । इस रस में पांच एंजाइम होते हैं, जो प्रोटीन और कार्बोहाइड्रेट को पचाने का काम करते हैं। अगर पेंक्रिआस ग्रंथि नहीं हो, तो न तो भोजन ठीक से पच सकता है और न ही इंसुलिन के अभाव के कारण रक्त में शर्करा की मात्रा को नियंत्रित किया जा सकता है।
शरीर में बिजली क्यों पैदा होती है ?
बिजली पैदा करने वाली मछलियों की बात तो सबने सुनी है, लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि हमारे शरीर में भी बिजली पैदा होती है। शरीर के अंदर पैदा होने वाली विद्युत धारा से शरीर की तंत्रिकाओं, मांसपेशियों और दूसरे अंगों का नियंत्रण तथा संचालन होता है। वास्तविकता तो यह है कि शरीर के समस्त कार्यो और प्रक्रियाओं में विद्युत का किसी न किसी रूप में प्रयोग होता है। आइए जानें कि मानव शरीर में बिजली क्यों पैदा होती है? असल में, मांसपेशियों का बल विद्युत आवेश के आकर्षण और विकर्षण से ही पैदा होता है। मस्तिष्क से आने वाले सभी संदेश विद्युत धारा के रूप में ही तंत्रिकाओं से आते-जाते हैं। विद्युत संदेश कुछ विशेष प्रकार की कोशिकाओं की विद्युत रासायनिक प्रक्रिया के फलस्वरूप पैदा होते हैं। ये विद्युत संकेत बीमारियों के बारे में भी जानकारी देते हैं। हृदय के संकेतों की तीव्रता को मापकर आसानी से जाना जा सकता है कि दिल में कोई खराबी है या नहीं। मांसपेशियों से आने वाले संदेशों को इलेक्ट्रोमायोग्राम या ईएमजी, हृदय से आनेवाले संदेशों को इलेक्ट्रोकार्डियोग्राम या ईसीजी, मस्तिष्क के संदेशों को इलेक्ट्रोएसफेलोग्राम या ईईजी और हृदय के चुंबकीय संदेशों को मैग्नेटोकार्डियोग्राम या एमसीजी कहते हैं। विद्युत संदेशों से प्राप्त सूचनाएं चिकित्सकों के लिए काफी महत्वपूर्ण होती हैं।
अधिकतम वृक्षों के तने बेलनाकार ही क्यों होते हैं?
यह सच है कि अधिकतर वृक्षों का तना बेलनाकार होता है; लेकिन सभी वृक्ष बेलनाकार नहीं होते। घास जैसे पौधों का तना तिकोना होता है तो तुलसी एवं अन्य पौधों का तना चौकोर होता है । हम जानते हैं कि पौधें बहुत छोटी-छोटी कोशिकाओं के बने होते हैं। ये कोशिकाएं आपस में सर्पिल कुंडलीदार या गोलाकार आकार में जुड़ी होती हैं। पौधों की आकृति कुछ अंश तक कोशिकाओं की आकृति पर और कुछ-कुछ इन कोशिकाओं के क्रम-विन्यास पर निर्भर करती है। पौधों के तनों में संचार ऊतक होते हैं, जो जाइलम और फ्लोअम की संकरी रज्जुओं से युक्त होते हैं। तने के बीच केंद्र में भीतर की ओर जाइलम काष्ठीय बेलन के भीतर निर्मित होते हैं जो पुराने होने पर मृत हो जाते हैं और तने के मध्य को काष्ठीय बना देते हैं। इसके चारों ओर बेलनाकार आकार में फ्लोअम बढ़ते हैं और कोशिका भित्ति निर्मित करते हैं। क्योंकि तना परत-दर-परत बाहर की ओर त्रिज्यीय रूप में बढ़ता है अतः तने की आकृति बेलनाकार रूप ही धारण करती है।
चिकन पॉक्स क्यों होता है?
चिकन पॉक्स (छोटी माता) बच्चों में होने वाला आम रोग है। यह दो से छह वर्ष के आयु वर्ग में होता है। यह रोग आमतौर से महामारी के रूप में फैलता है। चिकन पॉक्स एक प्रकार के सूक्ष्म विषाणु द्वारा फैलता है, जिसे विशेष प्रकार के सूक्ष्मदर्शी से ही देखा जा सकता है। इस सूक्ष्म विषाणु का नाम ‘वरिसेला जॉस्टर’ है। हवा की नमी द्वारा इसके विषाणु यह बीमारी तेजी से फैला देते हैं। जब कोई बच्चा चिकन पॉक्स से ग्रस्त हो जाता है, तो उसके शरीर पर छोटे-छोटे दाने निकलते हैं। ये दाने फफोलों की तरह होते हैं और इनमें साफ तरल पदार्थ भरा रहता है। इस रोग के कोई विशेष पूर्वसूचक लक्षण नहीं होते, केवल 24 घंटे के लिए हल्का-सा बुखार आता है और शरीर पर दाने उभर आते हैं। लगभग तीन दिन तक ये दाने शरीर पर उभरते रहते हैं। इसके बाद ये दाने दूधिया रंगत लेने लगते हैं। इन तीन दिनों के अंत तक इनका विभिन्न अवस्थाओं में विकास और क्षय होता रहता है। जब तक चिकन पॉक्स के फफोलों में द्रव पदार्थ भरा रहता है, तब तक बीमारी के फैलने का खतरा बना रहता है, क्योंकि इस तरल पदार्थ में रोग के विषाणु मौजूद रहते हैं और खुजलाने से ये फफोले फूट जाते हैं। इससे इस बीमारी के विषाणु मुक्त होकर दूसरे बच्चों में संक्रमण फैलाते हैं।
पृथ्वी तथा अंतरिक्ष में चलने में अंतर क्यों होता है?
यह एक विचित्र – सा प्रश्न है कि अंतरिक्षयात्री अंतरिक्ष के खाली स्थान (स्पेस) पर, जहां गुरुत्वाकर्षण का अभाव होता है, किस प्रकार चल पाते हैं? पृथ्वी तथा आकाश में चलने में बहुत अंतर होता है। खाली स्थान पर चलने के लिए अंतरिक्ष यात्री एक हैंड रॉकेट का प्रयोग करते हैं, जो उन्हें गति उत्पन्न कर शक्ति देता है। हाथ में पकड़ा जाने वाला यह रॉकेट आगे बढ़ने के सिद्धांत पर काम करते हुए पीछे बहुत तेजी और शक्ति से गैस निष्कासित करता है, जो उन्हें उतनी ही तेजी से आगे बढ़ाती है। यह सिद्धांत न्यूटन के गति के नियम पर आधारित है : ‘प्रत्येक क्रिया की सदैव उतनी ही प्रतिक्रिया होती है।’ अंतरिक्ष यात्री जब रॉकेट चालू करता है, तब रॉकेट के पीछे से निकलने वाली गैस के धक्के के फलस्वरूप रॉकेट आगे बढ़ता है, जिससे उसके साथ ही अंतरिक्ष यात्री भी आगे को बढ़ता है। वास्तव में वह आगे चलता नहीं है, बल्कि हवा में तैरता है, क्योंकि खाली स्थान पर पैर रखने के लिए कोई स्थान नहीं होता है। अंतरिक्ष में विभिन्न प्रकार के काम करने के लिए उसे इधर से उधर जाना पड़ता है। ऐसे कार्यों के लिए वह हैंड रॉकेट का प्रयोग करता है । और उसके गैस निकलने के छिद्र को अपने चलने के मार्ग की दिशा के विपरित रखता है ।
साबुन के झाग सफेद ही क्यों होते हैं?
रंग-बिरंगे साबुनों की तरह उनसे बनने वाले झाग भी रंगीन होते, तो देखने का आनंद ही कुछ और होता। लेकिन सभी तरह के साबुनों के झाग सफेद ही होते हैं। हम यह जानते हैं कि झाग साबुन के बुलबुलों का झुंड होते हैं। साबुन का बुलबुला हवा के चारों ओर साबुन के घोल की पतली परत से बना होता है। साबुन के घोल का पृष्ठीय तनाव कम होने से परत खिंचकर बड़ी हो जाती है। इसलिए पानी से बनने वाले बुलबुले की तुलना में झाग का कुल पृष्ठीय क्षेत्रफल बहुत अधिक होता है। इसलिए बुलबुलों की परत में साबुन के रंग का जो भी थोड़ा-सा रंग होता है, वह बेमालूम होकर अदृश्य हो जाता है। क्योंकि साबुन की परत पारदर्शी होती है, इसलिए झाग के बुलबुलों पर जो भी प्रकाश पड़ता है, वह झाग के बुलबुलों के झुंड से टकराकर दिशाओं में उछल या बिखर जाता है। इसलिए साबुन चाहे किसी भी रंग के क्यों न हों, उनसे बनने वाले झाग सफेद रंग के ही दिखाई देते हैं ।
फ्लू क्यों हो जाता है ?
फ्लू एक ऐसा रोग है जो कई प्रकार के विषाणुओं से फैलता है। क्या आप जानते हैं फ्लू क्यों और कैसे फैलता है? दरअसल यह एक संक्रामक रोग है और बड़ी शीघ्रता से एक व्यक्ति से दूसरे को लग जाता है। जब यह रोग फैलता है तो बड़े व्यापक रूप से फैलता है। इस रोग में अक्सर बुखार हो जाता है तथा ठंड लगती है। रोगी को कमजोरी आ जाती है। सारे शरीर में दर्द होने लगता है। फ्लू फैलाने वाले विषाणुओं को तीन श्रेणियों में बांटा जाता है। पहले प्रकार के विषाणुओं से होने वाले फ्लू का प्रकोप दो से तीन साल के बाद होता है। दूसरे प्रकार के विषाणुओं का प्रकोप चार-पांच साल के अंतराल से होता है। यह रोग सभी उम्र के व्यक्तियों पर हमला कर सकता है। इस रोग का प्रकोप जाड़ों में अधिक होता है। किसी रोगी के खुलेआम खांसने या छींकने से इस रोग के विषाणु स्वस्थ व्यक्ति में चले जाते हैं और नाक व गले के अंदर पहुंच जाते हैं। विषाणुओं के प्रकोप से जुकाम और खांसी हो जाती है तथा गला खराब हो जाता है। इससे बुखार, ठंड और सिर दर्द होता है। सामान्यतः रोग का प्रकोप तीन दिन से एक सप्ताह तक रहता है। फ्लू के उपचार के लिए कोई विशेष औषधि नहीं है ।
फ्लोराइड से दांत क्यों मजबूत होते हैं?
प्रत्येक मनुष्य के जीवनकाल में दांत दो बार निकलते हैं। जन्म के कुछ महीनों बाद निकलने वाले दांत नौ दस साल की उम्र में गिर जाते हैं। इन्हें दूध के दांत कहते हैं। इनके स्थान पर नए स्थायी दांत आ जाते हैं। दूध के दांतों की संख्या बीस होती है। स्थायी दांतों की संख्या बत्तीस होती है। प्रत्येक दांत में मसूढ़ों से ऊपर क्राउन नामक हिस्सा होता है और प्रत्येक दांत की एक से लेकर तीन तक जड़ें होती हैं, जो उसके आकार-प्रकार और स्थिति पर निर्भर करती हैं। दांत का अधिकांश भाग पीले रंग के एक सख्त पदार्थ से बना होता है, जिसे ‘डेंटाईन’ कहते हैं। दांत के क्राउन भाग पर एक सफेद रंग के पदार्थ की परत चढ़ी रहती है, जिसे ‘इनेमल’ कहते हैं। यह मानव शरीर का सबसे सख्त ऊतक है। फ्लोराइड एक ऐसा रासायनिक पदार्थ है, जो दांतों के इनेमल को और भी मजबूत बनाता है। जब हम अपने दांतों को फ्लोराइड टूथपेस्ट से ब्रश करते हैं, तो फ्लोराइड के अणु दांतों पर चिपक जाते हैं। चूंकि फ्लोराइड के अणु दांत की ऊपरी संरचना में अधिक उपयुक्त रूप से फिट हो जाते हैं, अतः वे दांतों की ऊपरी परत को और भी मजबूत बना देते हैं।
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