ऐसा क्यों और कैसे होता है -26

ऐसा क्यों और कैसे होता है -26

बूमरैंग लौटकर क्यों आता है?

बूमरैंग सख्त लकड़ी की एक मुड़ी हुई छड़ होती है, जो ऑस्ट्रेलिया और दूसरे देशों में शिकार या लड़ाई के काम आती है। इसकी सबसे महत्वपूर्ण किस्म वह होती है, जो निशाना चूकने पर वापस फेंकने वाले के पास आ जाती है। इसका विकास ऑस्ट्रेलिया के लोगों ने किया था और इसकी लंबाई 12 से 30 इंच तक होती है। इस बूमरैंग का वजन 340 ग्राम होता है। जब इसे पूरी शक्ति से फेंका जाता है, तो यह 45 मीटर की ऊंचाई पर चक्कर काटता है और फिर कुछ छोटे-छोटे चक्कर काटने के बाद फेंकने वाले के पास वापस आ जाता है। इसके वापस लौटने का कारण यह माना जाता था कि हवा इसके निचले सपाट हिस्से पर दबाव डालती हुई ऊपरी सतह पर निकलती है और इसी दाब के कारण यह वापस लौटता है। बाद में एक स्कॉटिश शोधकर्ता ने पाया कि इसे फेंकने का तरीका और वायु दाब, दोनों ही इसे वापस लाने का काम करते हैं। बूमरैंग हमेशा हाथ को कंधो से नीचे रख फेंका जाता है। फिर इसे फेंकते समय कलाई को भी कुछ इस तरह घुमाया जाता कि बूमरैंग पर हवा के दाब के साथ ही इसका दाब भी बनता है और इसी दाब के कारण यह वापस लौटता है।
अचानक किसी वाहन के तेज चलने पर सवारियां पीछे की ओर तथा एकदम ब्रेक लगने पर आगे की ओर क्यों झुक जाती हैं?
न्यूटन का एक जड़त्व नियम है। इसके अनुसार द्रव्यात्मक वस्तुएं अपनी विराम अवस्था अथवा अचर गति को अपने द्वारा सरल रेखा में बदल पाने में असमर्थ होती हैं। यही कारण है कि जब कोई वाहन चल रहा होता है तो उसमें बैठा व्यक्ति भी उसी के अनुसार गतिशील होता है। जब वाहन रुकता है तो व्यक्ति या सवारी का वह निचला भाग, जिसके सहारे वह बैठा होता है, वाहन की विराम गति के साथ विराम अवस्था में आ जाता है और शरीर के ऊपर का भाग गतिशील ही बना रहता है। इसी कारण वाहन के रुकने पर सवारियां आगे की ओर झुक जाती हैं। ठीक इसके विपरीत जब वाहन अचानक तेज गति से चल पड़ता है तो सवारियों का नीचे का भाग गतिशील हो जाता है, जबकि ऊपरी भाग विराम अवस्था में ही बना रहता है। इसलिए वाहन के अचानक तेज गति से चल पड़ने पर सवारियां पीछे की ओर झुक जाती हैं।
चंद्रमा क्यों चमकता है?
पृथ्वी का एकमात्र प्राकृतिक उपग्रह है चंद्रमा । यह पृथ्वी की परिक्रमा ठीक उसी तरह करता है, जैसे पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है। चंद्रमा में अपनी कोई चमक नहीं होती, इसके बाद भी यह रात के अंधेरे में साफ दिखाई देता है। इसका कारण सूर्य की किरणें हैं। सूर्य की किरणें चंद्रमा की सतह पर पड़कर प्रतिवर्तित होती हैं और इसी कारण चंद्रमा चमकता हुआ प्रतीत होता है। चंद्रमा पृथ्वी की परिक्रमा करता है, इसलिए उसका सिर्फ आधा ही हिस्सा दिखाई देता है। चंद्रमा पर वातावरण नहीं है, इसलिए सूर्य की किरणों का वहां काफी दिलचस्प प्रभाव होता है। करीब 14 दिनों तक तो सूर्य की किरणों के कारण चंद्रमा की सतह खौलते पानी के तापमान से भी गरम हो जाती है। वहीं इसके शेष दिन यह बर्फीला और स्याह रात जैसा होता है। ऐसा ही एक और दिलचस्प प्रभाव सूर्य, पृथ्वी और चंद्रमा के एक सीध में आने पर होता है। जब पृथ्वी चंद्रमा और सूर्य के बीच आ जाती है, तब पृथ्वी की छाया चंद्रमा पर पड़ती है और चंद्र ग्रहण होता है। वहीं जब चंद्रमा पृथ्वी और सूर्य के बीच आ जाता है, तो चंद्रमा की छाया पृथ्वी पर पड़ती है और सूर्य ग्रहण पड़ता है।
सर्दियों में गरम पानी से नहाने के बाद ठंड और ठंडे से नहाने के बाद थोड़ी गरमी क्यों लगती है ?
गरमी और ठंडक तुलनात्मक अनुभूतियां हैं। तापमान जो भी हो, जब हम किसी कम तापमान से अधिक तापमान की ओर जाते हैं तो हमें गरमी लगती है, और जब अधिक तापमान से कम की ओर आते हैं तो ठंडक लगती है। यही अनुभूति गरम अथवा ठंडे पानी से नहाने पर शरीर के तापमान और आसपास के वातावरण के तापमान में हुए परिवर्तन के कारण होती है।
प्राय: सर्दी के मौसम में वातावरण का तापमान बहुत कम होता है, अतः ठंडक से बचने के लिए लोग जब गरम पानी से नहाते हैं तो गरम पानी के कारण कुछ समय के लिए हमारी त्वचा का तापमान कमरे या गुसलखाने के तापमान से अधिक हो जाता है। हमारे शरीर की ऊर्जा वातावरण की ओर जाने लगती है। जिससे शरीर की ऊर्जा कम होनी प्रारंभ हो जाती है और हमें ठंडक लगने लगती है। लेकिन जब हम ठंडे पानी से नहाते हैं तो हमारे शरीर की त्वचा का तापमान हमारे आसपास के वातावरण से कम हो जाता है। ऐसी स्थिति में वातावरण की उष्मा हमारे शरीर की ओर आने लगती है, जिसके कारण हमें थोड़ी-सी गरमी लगने लगती है।
कुत्ते पागल क्यों हो जाते हैं?
सामान्यतः कुत्ते पागल नहीं होते हैं। अन्य पशुओं की तरह कुत्तों को भी अनेक बीमारियां होती रहती हैं। इनमें एक बीमारी है रेबीज की, जो कुत्तों के शरीर में इस बीमारी के विषाणुओं के प्रवेश कर जाने के कारण होती है। होता यह है कि जब कुत्तों के शरीर पर कोई जख्म या घाव हो जाता है तो हवा अथवा अन्य जानवरों से रैबीज रोग के विषाणु कुत्तों की कटी त्वचा, जख्म या घाव के द्वारा शरीर में चले जाते हैं। इनका असर एक से डेढ़ महीने के बाद मालूम पड़ने लगता है। ऐसा होने पर कुत्ता सुस्त रहने लगता है और बुखार के कारण खाने-पीने से जी चुराने लगता है। धीरे-धीरे जब विषाणु मस्तिष्क में पहुंच जाते हैं तो कुत्ते के मुंह से लार टपकने लगती है और वह उत्तेजित होकर भौंकने लगता है तथा गुर्राता हुआ इधर-उधर घूमने लगता है। ऐसी स्थिति आ जाने पर कुत्ता पागल कहा जाने लगता है और चार-पांच दिन से अधिक नहीं जी पाता है। इसीलिए कहा जाता है कि यदि कोई कुत्ता काट खाए तो उसे देखते रहना चाहिए, अगर वह पागल होगा तो लगभग हफ्ते भर में मर जाएगा। कुत्ता न मरे तो कुत्ता काटे के इलाज की जरूरत नहीं होती है।
पागल कुत्ता लार टपकने की अवस्था आने पर मनुष्यों को काटने लगता है। इसी लार के साथ काटे गए स्थान से मनुष्यों में रेबीज के विषाणु शरीर में प्रवेश कर जाते हैं और मनुष्य कमजोर, बेचैन, चिंतित, बुखारग्रस्त तथा अनिद्रा, भय, खाने-पीने में कठिनाई आदि से परेशान रहने लगता है और पानी से डरता है। समय पर इलाज न होने पर जब रेबीज के विषाणु मनुष्य के मस्तिष्क में पहुंच जाते हैं तो मनुष्य को बचा पाना कठिन होता है। इसलिए कुत्ते के द्वारा काट लेने पर कटे स्थान को फौरन धोकर साफ करना चाहिए और एंटीरेबीज के टीके लगवाने चाहिए जिससे रोग बढ़ न पाए और मनुष्यों को जान लेवा बीमारी से बचाया जा सके। इस तरह यह जानलेवा बीमारी रेबीज के विषाणुओं द्वारा कुत्तों में फैलती है और उन्हें पागल कर देती है।
अंतरिक्ष में गुरुत्वाकर्षण क्यों नहीं होता ?
अंतरिक्ष यात्रियों को यात्रा पर रवाना होने से पहले भारहीनता का अभ्यास कराया जाता है। भारहीनता या शून्य गुरुत्व वाली स्थिति पृथ्वी पर तो नहीं होती, लेकिन अंतरिक्ष में उन यात्रियों को इसी स्थिति में रहना होता है। आइए, देखें कि अंतरिक्ष में भी पृथ्वी की तरह गुरुत्वाकर्षण क्यों नहीं होता? ब्रह्मांड का हर पिंड दूसरे पिंडों को एक बल के द्वारा आकर्षित करता है, जिसे गुरुत्वाकर्षण बल कहा जाता है। इसी सिद्धांत पर पृथ्वी भी अपनी सतह पर मौजूद चीजों को केंद्र की तरफ आकर्षित करती है, लेकिन गुरुत्वाकर्षण बल की तीव्रता दो बातों पर निर्भर करती है – एक है, पिंडों का आकार। हमेशा बड़ा पिंड छोटे पिंड को अपनी तरफ आकर्षित करता है। दूसरा आधार है, पिंडों के बीच की दूरी । चूंकि पृथ्वी हर वस्तु को अपने केंद्र की तरफ आकर्षित करती है, इसलिए केंद्र से दूरी बढ़ने पर बल की तीव्रता भी कम हो जाती है। यही वजह यह है कि समुद्र तट पर गुरुत्वाकर्षण सबसे ज्यादा होता है, जबकि पहाड़ों की चोटियों पर कम । जैसे-जैसे पृथ्वी के तल से ऊपर की तरफ जाते हैं, गुरुत्वाकर्षण कम होता जाता है। पृथ्वी के गुरुत्वीय क्षेत्र के बाहर इस बल का मान शून्य हो जाता है। यही वजह है कि अंतरिक्ष यात्री भार महसूस नहीं करते और हवा में तैरते रहते हैं ।
रबर क्या है और कैसे बनती है ?
२बर एक ऐसा पदार्थ है जो हमारे जीवन के अनेक कार्यों में उपयोगी पाया जाता है। इससे टायर-ट्यूब से लेकर त्रिपाल, वाटर प्रूफ कपड़े एवं बोतल की डाट तक हजारों प्रकार की वस्तुएं बनाई जाती हैं। बिजली के प्रति कुचालक होने के कारण विद्युत् उपकरणों में इसका विशेष उपयोग है। आज यह प्राकृतिक और कृत्रिम दोनों तरीकों से प्राप्त की जाती है। प्राकृतिक रबर वृक्षों से प्राप्त की जाती है और कृत्रिम रबर रासायनिक प्रक्रियाओं से बनाई जाती है। यूं तो रबर के वृक्षों की किस्में चार सौ से भी अधिक पाई जाती है लेकिन इनमें हेविया ब्रेसिलीनसिस प्रमुख किस्म है। इस किस्म से अन्य किस्मों की तुलना में सबसे अधिक रबर मिलता है । रबर के लिए इन वृक्षों से एक तरल पदार्थ निकाला जाता है जो लैटेक्स कहलाता है। इसी के सूखने पर प्राकृतिक रबर बनती है। यह ठोस कार्बनिक पदार्थ होती है और खिंचने पर अपनी लंबाई के लगभग आठ गुने तक खींची जा सकती है। यह लचीली होती है, तभी तो इससे गुब्बारे, गेंदें, जूते तथा पाइप आदि आसानी से बन जाते हैं।
यह तो रही रबर की प्राप्ति एवं उपयोगिता की बातें, लेकिन इसका नाम रबर रखे जाने की घटना बड़ी दिलचस्प है। हुआ यूं कि जब कोलंबस अपनी दूसरी समुद्री यात्रा पर गया था तो उसने हाइटी के निवासियों के बच्चों को उछलती-कूदती गेंद से खेलते देखा था। यह गेंद वृक्षों के लैटेक्स को जमाकर बनाई गई थी। कोलंबस भी इस लैटेक्स को अपने साथ यूरोप ले आया था। वहां अनेक वैज्ञानिकों ने इस पदार्थ की जांच-पड़ताल की। इन्हीं में एक जोसफ गेस्टले नामक अंग्रेज वैज्ञानिक भी थे। उन्होंने अपने प्रयोग में पाया कि इस पदार्थ से रब करने या रगड़ने पर पेंसिल का लिखा हुआ आसानी से मिट जाता है। अतः इस गुण के कारण उन्होंने इसका नाम रबर रख दिया। तभी से इसे रबर कहा जाता है।
खगोलीय पिंड गोल क्यों होते हैं?
धरती गोल है, सूर्य और चंद्रमा भी गोल हैं, यहां तक कि सभी ग्रह, उपग्रह और तारे भी गोल हैं। क्या आप जानते हैं कि ब्रह्मांड के ये सभी पिंड गोल क्यों होते हैं? विज्ञान के सिद्धांत के अनुसार ब्रह्मांड की हर वस्तु निम्नतम ऊर्जा स्थिति में रहना चाहती है। न्यूनतम ऊर्जा स्थिति में ही वस्तुओं में अधिकतम स्थिरता आती है। अतः अधिकतम स्थिरता के लिए वस्तु की ऊर्जा निम्नतम होनी चाहिए। सभी पिंडों की बनावट ही ऐसी है जिसकी सतह का क्षेत्रफल सबसे कम होता है, इसलिए गोलाकार वस्तुओं की सतह की ऊर्जा निम्नतम होती है। इसी निम्नतम ऊर्जा या अधिकतम स्थिरता को प्राप्त करने के लिए वस्तुएं गेंद जैसा आकार धारण करने की कोशिश करती हैं। यही कारण है कि सूरज, चांद, तारे, धरती और दूसरे सभी खगोलीय पिडों की बनावट गोल होती है। वर्षा में गिरने वाली पानी की बूंदें भी गोल होती हैं। इसका कारण भी यही है कि गोलाकार बूंद की सतह की ऊर्जा निम्न होती है और उसकी स्थिरता अधिकतम होती है। पानी की बूंदें किसी भी तरीके से पैदा की जाएं वे तुरंत ही गोलाकार रूप में बदलने का प्रयास करती हैं।
हमें गूंज कब और क्यों सुनाई पड़ती है?
यह हम जानते हैं कि आवाज ध्वनि तरंगों के रूप में एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाती है। हवा में ध्वनि की गति या वेग 340 मीटर प्रति सेकंड होता है। यदि कोई रुकावट न हो तो यह ध्वनि इसी गति से आगे बढ़ती है लेकिन जब किसी दीवार या रुकावट के कारण वह आगे नहीं बढ़ पाती तो टकराकर वापस लौट आती है। यह ध्वनि परावर्तित ध्वनि कहलाती है। जब यह लौटकर हमारे कानों में पड़ती है तो गूंज की तरह सुनाई पड़ती है।
लेकिन लौटकर आनेवाली हर आवाज गूंज नहीं होती। यहां यह जान लेना जरूरी है कि किसी आवाज का असर हमारे कान पर 1 / 10 सेकंड तक रहता है, अतः यदि कोई आवाज 1 / 10 सेकंड से पहले हमारे कान पर पड़े तो वह हमें सुनाई नहीं दे सकती। इसलिए परावर्तित आवाज हमारे कान पर 1/10 सेकंड से पहले न आकर 1/10 सेकंड पर आनी चाहिए, तभी वह हमें गूंज के रूप में सुनाई पड़ेगी। इसके लिए आवाज को परावर्तित करनेवाली वस्तु कम-से-कम 17 मीटर या 55 फीट की दूरी पर अवश्य होनी चाहिए। क्योंकि 1/10 सेकंड में आवाज 34 मीटर या 110 फीट की दूरी तय करती है। है। इसलिए आवाज के जाने और लौटकर वापस आने के लिए इसकी दूरी आधी, अर्थात् 17 मीटर या 55 फीट होगी तो आवाज की यह मात्रा 1 / 10 सेकंड में पूरी हो जाएगी और वह हमारे कानों में गूंज के रूप में सुनाई पड़ने लगेगी।
इस तरह की गूंज प्रायः गहरी खाई या कुएं के पास आवाज लगाने पर सुनाई पड़ती है। लेकिन सभी वस्तुओं से ध्वनि परावर्तित नहीं होती है। कुछ वस्तुएं ध्वनि को परावर्तित करने के बजाय उसे अपने में अवशोषित कर लेती हैं जैसे जूट, गत्ता तथा लकड़ी आदि। इसीलिए बड़े-बड़े हॉलों, जैसे सिनेमाघरों में वक्ताओं अथवा किसी भी कार्यक्रम की आवाजों को गूंजने से बचाने के लिए उनकी दीवारों आदि पर ध्वनि को अवशोषित करने वाले पदार्थ लगाए जाते हैं, तभी आवाज साफ और स्पष्ट सुनाई पड़ती है, अन्यथा हॉल में गूंज-ही-गूंज सुनाई पड़े।
ट्यूब से रोशनी क्यों पैदा होती है ?
आदिकाल से ही मनुष्य अंधकार को दूर भगाने के लिए प्रकाश पैदा करने का कोई न कोई साधन जुटाता रहा है। उसके बाद उसने मोमबत्ती और तेल के दीपकों का इस्तेमाल करना शुरू किया। आर्गन गैस व पारे का वाष्प काँचे का Rea पारा फॉस्फर की परत पराबैंगनी विकिरण पारे के अणु que इलेक्ट्रॉ प्रवाह कैथोड वर्तमान में ट्यूब लाइट का बहुतायत में प्रयोग किया जा रहा है। क्या आप जानते हैं कि घरों मे लगी ट्यूब से रोशनी क्यों पैदा होती है? दरअसल रोशनी पैदा करने के लिए घरों में काम आने वाली ट्यूब कांच की एक नली होती है। इस नली की अंदर की दीवारों पर किसी उपयुक्त प्रतिदीप्त पदार्थ की तह चढ़ा दी जाती है। प्रतिदीप्त पदार्थ वे हैं, जो आंखों को न दिखने वाली पराबैंगनी किरणों को प्रकाश में बदल देते हैं। इसके दोनों सिरों पर टंगस्टन धातु के दो इलेक्ट्रोड लगाए जाते हैं। नली के अंदर की हवा निकालकर थोड़ा सा पारा और आर्गन गैस भर दी जाती है। जब इन इलेक्ट्रोडों का संबंध विद्युत धारा से किया जाता है, तब ये गर्म हो जाते हैं और इनसे इलेक्ट्रॉन निकलने लगते हैं। ये इलेक्ट्रॉन पारे के परमाणुओं से टकराते हैं, जिसके फलस्वरूप आंखों को न दिखाई देने वाला पराबैंगनी प्रकाश पैदा होता है। जब यह पराबैंगनी प्रकाश कांच की नली पर लगे पदार्थ से टकराता है, तब उससे प्रकाश निकलने लगता है।
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