ऐसा क्यों और कैसे होता है -24

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जेब्रा के शरीर पर धारियां क्यों होती हैं?
जेब्रा घोड़ा परिवार का सदस्य है, लेकिन इसके शरीर पर मौजूद धारियों के कारण यह परिवार के अन्य सदस्यों से अलग ही दिखाई देता है। जेब्रा की तीन प्रजातियां इक्वस क्वेगा, इक्वस ग्रेवी और इक्वस जेब्रा हैं, जो अफ्रीका के विभिन्न हिस्सों में पाई जाती हैं। भले ही ये तीनों प्रजातियां शरीर के आकार के मामले में अलग-अलग हों, फिर भी धारियां सभी के शरीर पर अनिवार्य रूप से पाई जाती हैं। आइए देखें, कि जेब्रा के शरीर पर धारियां क्यों होती हैं? जेब्रा के शरीर का रंग काला होता है, जिस पर सफेद या भूरी धारियां होती हैं। वैज्ञानिकों के मुताबिक जेब्रा की ये धारियां उसकी सुरक्षा के लिए प्रकृति द्वारा उसे दिया गया हथियार है। जेब्रा का सबसे बड़ा शत्रु शेर होता है और इन्हें सबसे ज्यादा खतरा भी शेर से ही होता है। शेर जब इन्हें देखता है, तो काले और सफेद रंग की धारियों का मिला-जुला प्रभाव उसकी आंखों में एक तरह की चकाचौंध पैदा करता है, जिससे शेर को अपने शिकार पर हमला करने में दिक्कत होती है। एक और मान्यता यह है कि जेब्रा झुंड में रहते हैं। इनके शरीर पर मौजूद धारियां इनके आकार को विघटित रखती हैं और शेर यह निश्चित नहीं कर पाता कि हमला किस पर किया जाए?
हमें नहाने के बाद ठंड क्यों लगती है?
सामान्यतः जब हम नहाते हैं तो हमारे आसपास के वातावरण का तापमान नहानेवाले पानी से अधिक होता है। अतः शरीर पर पानी डालकर नहाने पर हमारे शरीर से पानी का वाष्पीकरण होना प्रारंभ हो जाता है। वाष्पीकरण की क्रिया के लिए उष्मा की आवश्यकता होती है। यह उष्मा हमारे शरीर से ही ली जाती है। इसके परिणामस्वरूप हमारे शरीर का ताप पहले की तुलना में कम होने लगता है और हमें ठंडक अनुभव होने लगती है। ठंडक की कमी या अधिकता वाष्पीकरण की क्रिया के अनुसार ही होती है। यदि वाष्पीकरण अधिक होता है तो ठंडक भी अधिक लगती है और वाष्पीकरण कम होने पर ठंडक भी कम या मामूली-सी लगती है। यदि नहाने के बाद पंखे की हवा में खड़े हो जाएं तो ठंडक अधिक लगती है क्योंकि तेज हवा के कारण शरीर से वाष्पीकरण भी अधिक होता है। अतः सर्दी के मौसम के अतिरिक्त नहाने के बाद ठंडक लगने का कारण शरीर से पानी का वाष्पीकरण होना ही होता है।
हम खर्राटे क्यों लेते हैं?
अगर घर में कोई खर्राटे लेता है, तो बाकी सब लोगों को सोने में काफी परेशानी होती है। खर्राटं हमारी श्वसन नली के ऊपरी हिस्से के कंपनों के कारण होने वाली आवाज होती है। असल में श्वसन नली में जो झिल्लीदार अंग होते हैं, जिन्हें उपास्थि का सहारा नहीं होता है, कंपन करते हैं। यह कंपन रात को सोते समय मांसपेशियों के शिथिल होने के कारण होता है। इस शिथिलता के कारण श्वसन नली में हवा का प्रवेश द्वार छोटा हो जाता है और इस मार्ग में पड़ने वाले सभी झिल्लीदार हिस्से हवा का दबाव तीव्र होने पर कंपन करने लगते है खर्राटे लेना कोई बीमारी नहीं है, बल्कि यह एक बीमारी का लक्षण है। यह एक विशेष तरह का निद्रा अवरोध होता है। इसमें न सिर्फ व्यक्ति खर्राटे लेता है, बल्कि उसे सांस लेने में भी काफी परेशानी होती है और उसके शरीर में ऑक्सीजन की मात्रा भी काफी कम हो जाती है। इस कारण व्यक्ति पूरी नींद नहीं ले पाता है और बार-बार उसकी नींद खुलती है। इससे वह दिन में भी उनींदा रहता है। कुछ व्यक्तियों को खर्राटे लेने की आदत सी हो जाती है। ऐसा नहीं है कि खर्राटे सिर्फ युवा या बूढ़े ही लेते हैं, बच्चे भी खर्राटे लेते हैं।
जो कंबल हमें सर्दियों में गरम रखता है वही बर्फ को पिघलने से कैसे बचाता है ?
कंबल न हमें गरम रखता है और न बर्फ को पिघलने से बचाता है। ऊन का कंबल तो उष्मा या ताप का कुचालक होता है। वह जहां भी होता है वहां से ताप के आवागमन को रोक देता है। इसीलिए जब सर्दियों में हम कंबल ओढ़ते हैं तो शरीर का ताप बाहर के ठंडे वातावरण में जाने से रुक जाता है और हम अपने ही ताप या उष्मा से अपने आपको गरम अनुभव करते रहते हैं। कंबल हटते ही हमारा ताप ठंडे वातावरण की ओर जाने लगता है और हमें ठंड लगने लगती है। लेकिन जब हम कंबल से बर्फ को ढक देते हैं तो बर्फ का तापमान शून्य डिग्री सेंटीग्रेड पर ही स्थिर हो जाता है क्योंकि कंबल के उष्मा के प्रति कुचालक होने से उष्मा का आदान-प्रदान नहीं हो पाता है। इससे बर्फ का तापमान बढ़ता नहीं है और वह पिघलने से बच जाती है।
धूल भी उपयोगी होती है, क्यों?
धूल सिर्फ हानिकारक ही नहीं होती है, बल्कि कई मामलों में यह फायदेमंद भी है। छोटे-छोटे कणों से मिलकर ठोस पदार्थ बनता है और जब ये छोटे कण बिखरते हैं तो इनसे धूल के कण बनते हैं। किसी ठोस चीज का टूटना, कोयले के जलने से उत्पन्न होने वाला धुआं तथा लकड़ी, पेट्रोल इत्यादि धूल उत्पन्न करने वाले प्रमुख कारक हैं। मृत पेड़-पौधों, समुद्र के नमक, मरूस्थल, ज्वालामुखी विस्फोट इत्यादि से भी धूल के कण बनते हैं। धूल बारिश बनाने में सहयोगी है। दरअसल समुद्र, नदियों, ताल-तलैयों से भाप बनकर उड़ा पानी सूक्ष्म धूल कणों पर जमा होकर बूंद का रूप लेता है और बरसात के रूप में धरती पर गिरता है। यहां तक कि कोहरे, धुंए आदि का कारण भी धूल कण ही होते हैं। धूल के कण सूर्य की किरणों को फैलाते हैं, इसलिए सूर्यास्त के एक से दो घंटे के बाद भी पूरी तरह से अंधेरा नहीं छाता है। सूर्योदय के समय आकाश में दिखने वाली लालिमा भी धूल और वाष्प का ही नतीजा है। शाम के समय धूल के कारण ही सूरज की किरणें खूबसूरत दिखती हैं।
आंधी से पहले हवा शांत क्यों होती है ?
 जैसे मछलियां पानी में रहती हैं, हम अपनी पृथ्वी पर हवा के सागर में रहते हैं। इसे ही पृथ्वी का वायुमंडल कहा जाता है। यह हमारी पृथ्वी के चारों ओर पाया जाता है लेकिन यह एक समान न होकर भिन्न-भिन्न भागों में भिन्न-भिन्न होता है। इसके कारण ही पृथ्वी की सतह पर हवा का एक दबाव रहता है, जो वायुदाब कहलाता है। यह बदलता रहता है। जब किसी स्थान पर यह कम हो जाता है तो इसे हवा के कम दबाव का क्षेत्र कहते हैं। इस स्थिति में ऐसे स्थान निर्वात क्षेत्र हो जाते हैं और हवा बिल्कुल शांत हो जाती है। लेकिन यह स्थिति अधिक देर तक नहीं रहती है। इस निर्वात को दूर करने के लिए आसपास की हवा बड़ी तेजी से आने लगती है। इसे ही हम आंधी कहते हैं। आंधी में हवा के तेज होने से उसके साथ धूल-मिट्टी, कूड़ा-करकट तथा अन्य चीजें भी उड़कर चली आती हैं। इस तरह आंधी भयंकर रूप धारण कर कभी-कभी जान-माल दोनों की हानि करती है। इसीलिए आंधी आने से पहले हवा के कम दबाव के कारण हवा शांत हो जाती है। ठीक इसके विपरीत जब हवा का दबाव अधिक होता है तो मौसम बहुत अच्छा और सुहावना हो जाता है।
पक्षियों के अंडे विभिन्न रंग के क्यों होते हैं?
यह तो सभी जानते हैं कि विभिन्न मादा पक्षी अलग-अलग रंग के अंडे देती हैं। ये अंडे सफेद, नीले, हरे, लाल, भूरे अथवा पीले रंग के हो सकते हैं। कुछ अंडों के ऊपर कई किस्म के दाग, धब्बे अथवा धारियां भी होती हैं। पक्षी विज्ञानियों के अनुसार पक्षी अलग-अलग रंगों तथा धब्बों के अंडे देकर शत्रुओं से उनका बचाव करते हैं। जमीन पर घोसले बनाने वाली जातियों के अंडों का रंग और बनावट उन्हें छद्मावरण प्रदान करने में मदद करते हैं। जब मादा भोजन की खोज में जाती है, तो वह अंडे घोंसलों में छोड़ जाती है। इसी बीच अंडों को दूसरे पक्षी, गिलहरियां, सांप, चूहे, यहां तक कि मनुष्य भी नष्ट कर सकते हैं अथवा खा सकते हैं। नन्ही टर्न समुद्र के किनारे पड़े हुए कंकड़ों के बीच चित्तीदार तथा कंकड़ों के आकार के अंडे देती है। वे पक्षी जो खोखले वृक्षों, छेदों या बिलों में अपने घोंसले बनाते हैं, सफेद अथवा हलके रंग के अंडे देते हैं, ताकि उनका रंग एक-दूसरे के साथ मिल जाए। इस प्रकार सुरक्षात्मक अनुरंजन और वातावरणीय प्रभाव के कारण अंडों का रंग अलग- अलग होता है।
सूर्य की रचना कैसे हुई ?
आकाश में अनेक तारे टिमटिमाते नजर आते हैं। हमारा सूर्य भी एक तारा है। अतः इसका जन्म भी अन्य तारों की तरह ही हुआ है। अंतरिक्ष में बहुत कम ताप (-173° सें.) पर हीलियम और हाइड्रोजन नामक दो गैसें होती हैं। इतने कम ताप पर होने के कारण ये बहुत घने बादलों का रूप धारण कर लेती हैं। इनमें गुरुत्वाकर्षण बल भी बहुत अधिक होता है। इस अधिक बल के कारण इन गैसों के कण आपस में बहुत निकट आ जाते हैं। इस तरह इनका बहुत घने बादलों का पिंड-सा बन जाता है। यह तारा बनने की पूर्व अवस्था होती है, इसलिए इसे प्रोटोस्टार कहते हैं। इस अवस्था में इसमें किसी प्रकार का प्रकाश नहीं होता है। धीरे-धीरे इन गैसों के कण गुरुत्वाकर्षण बल के कारण और भी अधिक निकट आ जाते हैं तो वे एक-दूसरे से टकराने लगते हैं। इस टकराहट के कारण बहुत अधिक मात्रा में ऊर्जा पैदा होती है। प्रारंभ में जो ताप 130° सें. था वह 107° सें. तक पहुंच जाता है। इतने अधिक ताप पर फ्यूजन, अर्थात् संलयन क्रिया प्रारंभ हो जाती है। इस क्रिया में हाइड्रोजन के चार कण मिलकर हीलियम का एक कण बनाते हैं। जब ऐसा होता है तो ढेर सारी ऊर्जा उष्मा और प्रकाश के रूप में निकलकर बाहर   आती है। इस प्रकाश के कारण न चमकने वाला प्रोटेस्टार अब चमकने लगता है और एक तारा बनकर तैयार हो जाता है। हमारा सूर्य भी एक तारा है और इसी तरह इसकी भी रचना हुई है।
जहां तक अन्य तारों की तुलना में इसके बड़े दिखाई देने का प्रश्न है, सूर्य पृथ्वी के निकट होने के कारण बड़ा दिखाई देता है और हमें भरपूर प्रकाश और गरमी प्रदान करता है।
बिच्छू डंक क्यों मारते हैं?
बिच्छू भयंकर किस्म के जीव हैं। ये उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में पाए जाते हैं। बिच्छुओं का जीवाश्मी इतिहास 40 करोड़ वर्ष पुराना है। यह माना जाता है कि वे पृथ्वी पर रहने वाले सबसे प्राचीन आर्थोपोड्स में से एक हैं। आज मनुष्य बिच्छुओं की 600 जातियों से परिचित हैं। इनके काटने से कई बार आदमी की मृत्यु तक हो जाती है। सवाल यह उठता है कि आखिर बिच्छू काटते क्यों हैं? दरअसल बिच्छू एकांत में जीवन व्यतीत करना पसंद करते हैं। उनकी यही आदत उन्हें मनुष्य के लिए और भयानक बना देती है और इसीलिए डराने या छेड़ने पर वे बार-बार डंक मारने से नहीं हिचकते हैं। बिच्छुओं की हर प्रजाति की घातकता मनुष्य के लिए भिन्न-भिन्न होती हैं। यूं तो अधिकांश बिच्छू हानिरहित होते हैं। उनका डंक पीड़ादायक तो होता है, पर वह घातक नहीं होता, लेकिन बिच्छु की इजिप्शियन या लीयुरूस जैसी प्रजातियां बहुत खतरनाक हो सकती हैं और इनका काटना कभी-कभी मृत्यु का कारण भी बन जाता है। इन खतरनाक प्रजातियों के बिच्छुओं का जहर हृदय के स्नायुओं तथा सीने की मांसपेशियों का पक्षाघात कर देता है। संयुक्त राज्य अमेरिका तथा मैक्सिको में तो सांप की अपेक्षा बिच्छू के डंक मारने से लोग ज्यादा मरते हैं।
पहाड़ों तथा ऊंचे स्थानों पर दाल देर से क्यों गलती है?
हम जिस धरती पर रह रहे हैं इसे चारों ओर से हवा की परत घेरे हुए है। इसका दबाव नीचे स्थानों पर सबसे अधिक और ऊंचे स्थानों पर ऊंचाई के अनुसार कम होता जाता है। किसी भी द्रव को उबलने के लिए जिस ताप की आवश्यकता होती है वह भी हवा के दबाव के अनुसार घटता-बढ़ता रहता है। जब हम निचले स्थानों में दाल पकाते हैं तो वहां पानी हवा के अधिक दबाव होने से अधिक ताप, अर्थात् 100° सें. के ताप पर उबलता है। इसलिए दाल कम समय में गल या पक जाती है। लेकिन जब यही दाल पहाड़ों अथवा ऊंचे स्थानों पर पकाई जाती है तो वहां हवा का दबाव कम होने से पानी कम ताप, अर्थात् 100° सें. से भी कम ताप पर ही उबलने लगता है। इसलिए दाल को कम ताप मिलता है और इसे गलने या पकने में अधिक समय लगता है।
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