ऐसा क्यों और कैसे होता है -20

ऐसा क्यों और कैसे होता है -20

डॉक्टर नब्ज क्यों देखते हैं?

जब भी कोई व्यक्ति बीमार पड़ता है और डॉक्टर के पास जाता है, तो डॉक्टर सबसे पहले उसकी नब्ज देखते हैं। आखिर नब्ज ऐसे कौन से राज खोलती है? असल में नब्ज दिल में होने वाली सिकुड़न के कारण धमनियों की नियमित थिरकन के चलने को कहते हैं। जब दिल सिकुड़ता है, तो उसके बाद कुछ पल को रुक जाता है। इस दौरान महाधमनी की सतह सिकुड़ती है और इससे रक्त धमनियों की तरफ बढ़ जाता है। महाधमनी के इस फैलने और सिकुड़ने के कारण ही नब्ज चलती है। नब्ज महसूस करने के लिए उन स्थानों पर उंगलियां रखी जाती हैं, जहां धमनियां त्वचा के काफी करीब हों जैसे – कलाई व कनपटी । नब्ज की दर दिल के सिकुड़ने व काम करने की गति बताती है। एक मिनट में नब्ज की दर जो होती है, वही दिल की धड़कन भी होती है। अगर नब्ज की दर सामान्य से कम या ज्यादा हो, तो इसका मतलब है कि दिल सही तरीके से काम नहीं कर रहा। महिलाओं की नब्ज की दर प्रति मिनट 78 से 82, पुरुषों की 70 से 72, बच्चों की 140 से 90 और बुजुर्गों की 50 से 65 होती है।
पानी से भरी बालटी कुएं में हलकी और बाहर भारी क्यों होती है ?
वास्तविकता तो यह है कि पानी से भरी बालटी का भार हवा में और पानी में बराबर ही होता है। लेकिन फिर भी वह हवा में भारी और पानी के अंदर हलकी लगती है। आर्कमिडीज का एक सिद्धांत है कि जब कोई भी वस्तु किसी द्रव में पूरी तरह या आंशिक रूप से डुबोई जाती है तो उसके भार में कुछ कमी आ जाती है यह कमी बराबर होती है उस वस्तु के द्वारा हटाए गए द्रव के भार के। इसीलिए जब बालटी पानी में डूबी होती है तो बालटी द्वारा हटाए गए पानी के आयतन के भार के बराबर उसके भार में कमी महसूस होती है, लेकिन जब बालटी पानी से बाहर हवा में आती है तो जिस पानी के उछाल बल के कारण बालटी हलकी थी वह तो समाप्त हो जाता है और बालटी पर गुरुत्व बल प्रारंभ हो जाता है, जो उसे नीचे की ओर खींचने लगता है। इसके परिणामस्वरूप पानी से भरी बालटी कुएं के पानी से बाहर आने पर भारी लगने लगती है। अतः हम कह सकते हैं कि द्रवों के उछाल बल के कारण बालटी हलकी और पृथ्वी के गुरुत्व बल के कारण बालटी अधिक भारी लगती है।
मकड़ी कीट क्यों नहीं होती?
मकड़ी आकार में भले ही छोटी हो, लेकिन उसे कीट नहीं माना जाता है। उसे बिच्छू, पीने खून वाले खटमल और दीमक के परिवार में रखा गया है। आखिर इसका क्या कारण है? कीट जैसे होने के बाद भी इन्हें अलग किया गया है, क्योंकि इनके आठ पैर, कम से कम आठ आंखें और दो या तीन शारीरिक अंग होते हैं। इनके पंख भी नहीं होते हैं। मकड़ियां हर तरह की आबो-हवा वाले क्षेत्रों में पाई जाती हैं। ये जमीन के साथ ही पानी पर भी आराम से चल लेती हैं और पेड़ या दीवार पर चढ़ना भी इनके लिए कोई मुश्किल नहीं है। कुछ मकड़ियां तो पानी में ही रहती हैं। इनको कीट से अलग करने में इसके जाल की भी भूमिका होती है, जो ये अपने पेट में पाई जाने वाली एक ग्रंथि के स्राव से बनाती है। इसके पेट के ऊपर स्पिनिंग अंग होते हैं और इनमें काफी छोटे-छोटे छिद्र होते हैं। जब इन छिद्रों से रेशम जैसा तार निकलता है, तो वह तरल रूप में होता है और हवा के संपर्क में आते ही यह ठोस हो जाता है। फिर मकड़ी मांसभक्षी होती है और अपने जाल का उपयोग शिकार को फंसाने के लिए करती है।
हमें स्वाद कैसे मालूम पड़ता है?
हम जो कुछ भी खाते-पीते या चखते हैं, उसमें जो भी स्वाद होता है उसकी जानकारी हमें जीभ द्वारा मिलती है। तुम सोचते होगे कि स्वाद तो खट्टे-मीठे, कड़वे या चटपटे अनेक तरह के होते हैं, फिर यह जीभ उनको ठीक से कैसे पता कर लेती है। इसके लिए जीभ में स्वादों की जांच-पड़ताल के लिए स्वाद कलिकाएं होती हैं। यदि जीभ को ध्यान से देखें तो उस पर बहुत बारीक-बारीक छोटे-छोटे तंतुओं से युक्त सैकड़ों दानेदार उभार नजर आते हैं। इन्हें भी स्वाद कलिकाएं कहा जाता है। जब भोजन आदि जीभ के संपर्क में आते हैं तो वे हमारी लार में घुलकर स्वाद कलिकाओं को चैतन्य और सक्रिय कर देते हैं। यहां एक रासायनिक क्रिया होती है जिसके द्वारा स्वाद की जानकारी शरीर के सूचना केंद्र दिमाग को मिल जाती है और हमें स्वाद का पता चल जाता है।
यहां यह जान लेना जरूरी है कि अलग-अलग तरह के स्वादों की पहचान के लिए जीभ के अलग-अलग भागों पर स्वाद कलिकाएं होती हैं। जैसे रूचिकर मीठे और नमकीन स्वादों के लिए जीभ के आगे के भाग पर और अरूचिकर कड़वे स्वादों के लिए पीछे के भाग पर तथा खट्टे स्वाद के लिए ये स्वाद कलिकाएं जीभ के किनारे के भागों पर रहती हैं। लेकिन जीभ के बीच में स्वाद कलिकाएं नहीं होती, इसलिए इस भाग से किसी भी तरह के स्वाद का पता नहीं चलता है। स्वाद में भोजन की गंध या खुशबू का भी अपना महत्त्व होता है। इस कार्य में नाक सहायता करती है और स्वाद – गंध का बोध कराती है। कभी-कभी मुंह के कड़वे होने पर मुंह का स्वाद बदलने की स्थितियां भी आ जाती हैं। ऐसा पेट खराब होने से जीभ पर मैल जम जाने के कारण स्वाद कलिकाओं के मैल के नीचे दब जाने या बुखार के कारण स्वाद कलिकाओं के शिथिल पड़ जाने से होता है। इसलिए ठीक स्वाद के लिए जीभ का साफ रहना आवश्यक होता है।
भेंगापन क्यों होता है?
भेंगेपन के शिकार व्यक्तियों को कई नामों से पुकारा जाता है। इस बीमारी के शिकार व्यक्तियों की दोनों आंखें अलग-अलग दिशाओं में देखती हैं, इसलिए यह पता लगाना मुश्किल होता कि वे वास्तव में देख किस तरफ रहे हैं। आइए, देखें कि भेंगापन क्यों होता है? भेंगेपन को वैज्ञानिकों ने कई रूपों में वर्गीकृत किया है। इसके लिए मुख्यतः आंखों की नसें और मांसपेशियां जिम्मेदार होती हैं। हमारी आंखों की हरकत के लिए मुख्यतः 6 मांसपेशियां उत्तरदायी होती हैं। इनमें से चार तो सीधी होती हैं, लेकिन दो घुमावदार होती हैं। यदि इन छ: में से किसी भी मांसपेशी की नस में कोई खराबी आ जाती है, तो उस पर मस्तिष्क का नियंत्रण कमजोर हो जाता है और वह सामान्य ढंग से काम नहीं करती। इसी के कारण आंखों की पुतलियों का मूवमेंट एक दिशा में नहीं हो पाता और ऐसा लगता है, जैसे दोनों आंखें अलग-अलग दिशाओं में देख रही हों । वैज्ञानिक प्रगति के दम पर अब भेंगापन लाइलाज बीमारी नहीं रही है। इसके उपचार के लिए सर्जरी भी की जाती है और कुछ आर्थोप्टिक व्यायाम भी कराए जाते हैं, जिससे आंखों की कमजोर मांसपेशियां स्वस्थ हो जाएं।
ठंडा पानी रखने पर धातु के बरतनों की बाहरी परत पर बूंदें क्यों दिखाई देती हैं?
हमारे वातावरण में हवा के साथ-साथ थोड़ी-बहुत मात्रा में पानी की भाप भी होती है। यह मात्रा वातावरण के ताप के अनुसार घटती-बढ़ती रहती है। यह बात तो सभी जानते हैं कि पानी गरम करने पर भाप में बदल जाता है। ठीक इसी तरह भाप भी ठंडी होकर पानी में बदल जाती है।
जब धातु के बरतनों में ठंडा पानी भरा जाता है तो बरतन की सतह ठंडी हो जाती है। वायुमंडल की हवा में पानी की भाप जब बरतन की ठंडी सतह के संपर्क में आती है तो वह ठंडी होकर पानी की बूंदों के रूप में बरतनों की बाहरी सतह पर दिखाई देने लगती है। जब ये बूंदें अधिक मात्रा में इकठ्ठी हो जाती हैं तो नीचे की ओर बहने भी लगती हैं।
यहां यह जान लेना भी जरूरी है कि यह क्रिया केवल धातु के बरतनों में ही नहीं होती बल्कि उन सभी बरतनों में होती है जो ठंडे पानी के कारण ठंडे हो जाते हैं जैसे प्लास्टिक या कांच आदि के बरतन । लेकिन धातु के बरतनों में यह क्रिया अधिक होती है। क्योंकि धातुएं ताप की अच्छी सुचालक होती हैं, इसलिए धातु के बरतन पानी भरने पर जल्दी ठंडे हो जाते हैं और वातावरण से वाष्प या पानी की भाप को अपने संपर्क में आने पर शीघ्र ठंडा कर देते हैं। यही भाप धीरे-धीरे संघनित होकर बरतन की बाहर की दीवार या सतह पर हमें पानी की छोटी-छोटी बूंदों के रूप में दिखाई देती हैं।
जिराफ की गर्दन लंबी क्यों होती है ?
जिराफ सभी जीवित प्राणियों में सबसे ज्यादा लंबा होता है। इसमें भी उसके शरीर में सबसे लंबी उसकी गर्दन होती है। जिराफ की यह लंबाई और उसका अजीब-सा आकार उसे हर मौसम में खाना प्राप्त करने में मदद करता है। जिराफ शाकाहारी होता है और उसका मुख्य भोजन हरी पत्तियां होती हैं। उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में घास का अभाव रहता है। ऐसे क्षेत्र में रहने और लंबी गर्दन के कारण जिराफ को आसानी से भोजन मिल जाता है। जिराफ की गर्दन के अलावा उसकी जीभ भी काफी लंबी होती है। अपनी 18 इंच लंबी जीभ के कारण जिराफ कंटीले पेड़ों से भी छोटी-छोटी पत्तियां आसानी से तोड़कर खा लेता है और उसे कांटे भी नहीं चुभते। जिराफ का ऊपरी होंठ भी थोड़ा लंबा होता है, जिससे एक ही बार में ढेर सारे पत्ते उसके मुंह में पहुंच जाते हैं। जिराफ को अपने शरीर के अजीब आकार के कारण पानी पीने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती है। इसके लिए उसे पहले अपने आगे के दोनों पैर काफी दूर रखने पड़ते हैं और फिर अपनी गर्दन झुका कर पानी पीना होता है।
क्या खाना पकानेवाली गैस द्रव होती है? क्या यह कई गैसों का मिश्रण होती है और इसमें गंध क्यों आती है?
खाना  पकाने की गैस एल. पी. जी. कहलाती है। इसका पूरा नाम लिक्वीफाइड पेट्रोलियम गैस है। यह पेट्रोलियम से मिलनेवाले हाइड्रोकार्बनों का मिश्रण होती है। सामान्यत: इसमें प्रोपेन और ब्यूटेन गैसें होती हैं। इनके साथ-साथ प्रोपीन, ब्यूटीन तथा मीथेन आदि अन्य हाइड्रोकार्बन भी मिले रहते हैं।
इस गैस में कोई गंध नहीं होती लेकिन यह बहुत अधिक ज्वलनशील होती है। गंधहीन होने के कारण इसके रिसने पर इसका पता लगाना बहुत कठिन होता है। रिसने पर पता न चले तो ज्वलनशील होने के कारण आग लगने की दुर्घटनाएं आदि हो सकती हैं। इसलिए सुरक्षा की दृष्टि से और गैस की रिसन पर पता लग जाने के लिए इसमें गंधयुक्त थायोएल्कोहल (मरकैप्टन) मिलाया जाता है। आपकी रसोई गैस में आनेवाली सुपरिचित गंध इसी के कारण होती है। अत्यधिक दबाव पर भरने या रहने पर यह द्रव रूप में होती है और दबाव कम होने पर पुनः गैस में बदल जाती है। चूंकि सिलेंडर में यह अधिक दबाव पर भरी जाती है, अतः सिलेंडर में द्रव रूप में होती है और जैसे ही गैस का वाल्व खोलते हैं तो दवाब कम हो जाता है और यह गैस मे परिवर्तित होकर हमारे चुल्हे में जलने लगती है।
जीवधारियों के लैटिन नाम क्यों रखे गये?
सामान्यतः सभी जीवधारियों, जंतुओं, पौधों और सूक्ष्म जीवों को उनके लैटिन नाम से जाना जाता है। लेकिन यह परंपरा ज्यादा पुरानी नहीं है। आइए देखें कि जीवधारियों को कोई लैटिन नाम क्यों दिया जाता है? पौधों और जंतुओं की एक विशेषता यह होती है कि ये दुनिया के कई देशों में पाए जाते हैं। हर देश में इन्हें अलग-अलग नाम से पुकारा जाता है। यह प्रक्रिया एक देश से दूसरे देश जाने वाले व्यक्तियों के लिए काफी असुविधाजनक होती थी। नतीजतन एक ऐसी प्रणाली की जरूरत महसूस की गई, जिससे किसी भी जीवधारी को ऐसा नाम दिया जा सके, जो सारी दुनिया में जाना जाता हो। इस आवश्यकता ने ही जीवधारियों के लैटिन नाम रखने की प्रणाली को जन्म दिया। इनके नाम लैटिन में इसलिए रखे गए, क्योंकि उस समय लैटिन ही ऐसी भाषा थी, जिसे दुनिया के ज्यादातर शिक्षित व्यक्ति जानते थे । इस प्रणाली की शुरूआत कार्ल लिनीयस ने की। इस प्रणाली में किसी भी जीवधारी का नाम दो टुकड़ों में होता है। पहला नाम उस पौधे या जंतु के समूह को दर्शाता है, जबकि दूसरा नाम उस जीव या वनस्पति विशेष का नाम होता है। कई बार इसकी जगह उस व्यक्ति का नाम भी रख दिया जाता है, जिसने उस जंतु या वनस्पति की खोज की हो ।
लाफिंग गैस क्या है? इसके सूंघने से हंसी क्यों आ जाती है ?
ब्रिटेन के जोसेफ प्रीस्टले नामक वैज्ञानिक ने 1772 ई. में नाइट्रस ऑक्साइड (N, O) गैस का आविष्कार किया था। इस गैस का उपयोग हेरेस वाल्स द्वारा 1844 ई. में निश्चेतक के रूप में किया गया और तब से यह बिना दर्द अनुभव किए दांत निकालने के लिए निश्चेतक की तरह उपयोग में आने लगी। धीरे-धीरे इस गैस की एक विशेषता और सामने आई। जब कोई व्यक्ति इस गैस को अधिक मात्रा में सूंघ लेता है तो वह उत्तेजित होकर जोर-जोर से हंसने लगता है। अपने इस गुण के कारण ही नाइट्रस ऑक्साइड (N, O) को हंसानेवाली गैस या लाफिंग गैस नाम से पुकारा जाने लगा।
इसके सूंघने पर हंसी आने का कारण यह है कि यह गैस रक्त में मिलकर मस्तिष्क के हंसी केंद्र को उत्तेजित कर देती है। इस उत्तेजना के कारण ही मनुष्य जोर-जोर से हंसने लगता है। इस गैस का असर बहुत जल्दी होता है और बहुत कम समय में समाप्त भी हो जाता है। इसलिए असर समाप्त होते ही मनुष्य शांत भी जल्दी हो जाता है। फिर भी इसे अधिक मात्रा में नहीं सूंघना चाहिए, अन्यथा हिस्टीरिया के हलके दौरे पड़ सकते हैं।
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