ऐसा क्यों और कैसे होता है -14
ऐसा क्यों और कैसे होता है -14
साइकल चल पड़ने पर हलकी क्यों चलती है ?
साइकल पर सवारी करते हैं, तो प्रारंभ में वह स्थिर अवस्था में खड़ी होती है। थोड़ा चलाकर जब इस पर सवार हो जाते हैं तो इस पर सवारी का भी भार आ जाता है। अब साइकल और सवार दोनों के भार को गतिमान होना पड़ता है। इसे गतिमान करने के लिए सवार को साइकल के पैडलों पर पर्याप्त बल लगाना पड़ता है। इस बल से जब साइकल चल पड़ती है, तो वह स्थिर के बजाय गतिमान स्थिति में आ जाती है, अतः अब उसे चलाए रहने के लिए कम बल की आवश्यकता पड़ती है। इसीलिए साइकल सवार को साइकल चल पड़ने पर चलाने में हलकी लगती है।
वैसे न्यूटन का गति का पहला नियम है कि कोई भी चल अथवा स्थिर वस्तु, जिस भी अवस्था में होती है, उसी अवस्था में तब तक रहना चाहती है, जब तक कोई अन्य बल उसकी अवस्था को बदल न दे। इसीलिए साइकल को स्थिर अवस्था से गति अवस्था में लाने के लिए कुछ बल आवश्यक होता है और जब साइकल चल अवस्था में आ जाती है, अर्थात् चलने लगती है, तो इस बल की आवश्यकता न रहकर केवल उसे चलाए रहने के ही बल की आवश्यकता रह जाती है। इस तरह चलती साइकल को चलाने में कम बल लगता है और साइकल सवार को कम बल लगाने के कारण यह अनुभव होने लगता है कि साइकल हलकी चल रही है।
हमें आसमान नीला क्यों दिखाई देता है ?
सूरज से आनेवाला प्रकाश जब धरती के वायुमंडल में आता है तो यह हवा में तैर रहे धूल के कणों तथा हवा के अणुओं से टकराता है। इस टकराहट से यह प्रकाश अनेक दिशाओं में चारों तरफ बिखर जाता है। सूरज के प्रकाश में प्रकाश की तरंगें विविध लंबाई की होती हैं। इनमें से प्रत्येक का रंग अलग होता है । तरंग दैर्घ्य या लंबाई से ही रंग विशेष के बिखरने की मात्रा निर्धारित होती है। प्रकाश के रंगों में से नीला और नीलालोहित रंग सबसे अधिक बिखरता है।
इसलिए नीले प्रकाश का धरती की ओर अधिक विचलन होने लगता है और इसी नीले प्रकाश के कारण हमें आसमान नीला दिखाई देने लगता है।
टायफाइड क्यों होता है ?
टायफाइड एक भयानक संक्रामक रोग है। लगभग 60 साल पहले इस महामारी से हजारों लोग मर जाते थे, पर अब नई-नई दवाइयों के आविष्कार और विकास से इस पर काबू पा लिया गया है। टायफाइड एक प्रकार के जीवाणु से फैलता है। आयुर्विज्ञान की भाषा में इसे ‘बैसिलस सेलमोनेला टायफोसा’ कहते हैं। यह गंदे भोजन या गंदे पानी के साथ शरीर में प्रवेश कर के खून तक पहुंच जाता है। यह खून को प्रभावित करके पूरी रक्त व्यवस्था को दूषित कर देता है। इस बीमारी में बुखार, खांसी, खाल का उधड़ना, तिल्ली का बढ़ जाना और सफेद रक्त कोशिकाओं की संख्या में कमी हो जाना आदि होता है। इस बीमारी में भूख भी कम लगती है और लगातार बुखार रहता है। टायफाइड की जितनी भी महामारियां फैलीं, उनमें से अधिकांश कुएं, तालाब आदि के पानी के दूषित होने से फैलीं। टायफाइड के जीवाणु पकने से पहले भोजन सामग्री में वाहक द्वारा भी पहुंच सकते हैं। मक्खियां भी इन जीवाणुओं को इधर से उधर पहुंचाती हैं। टायफाइड की बीमारी ठीक हो जाने के बाद भी शरीर में ये जीवाणु बचे रह जाते हैं। टायफाइड की जांच के लिए ‘विडेल टैस्ट’ किया जाता है। इसमें खून की जांच की जाती है।
हमें कोई स्टेशन मिलाने के लिए रेडियो एक खास दिशा में क्यों रखना पड़ता है?
ऐसा उन्हीं रेडियो सैटों के साथ करना पड़ता है जिनके एंटीना रेडियो में ही लगे होते हैं। ये एंटीना दिशात्मक होते हैं। इनमें कुछ एंटीना कॉइलदार होते हैं। इन्हें मीडियम वेव के स्टेशनों को पकड़ने के लिए उपयोग किया जाता है। अन्य दूसरे एंटीना लूप एंटीना होते हैं, जो शॉर्ट वेव स्टेशनों को पकड़ने के काम आते हैं। इस तरह के एंटीना चल रेडियो सैटों में लगाए जाते हैं; ताकि उन्हें कहीं भी ले जाकर चलाया जा सके। इस तरह के एंटीना कम जगह घेरते हैं; इसलिए वे चल रेडियो सैटों के अनुकूल होते हैं। ये ठीक तरह से कार्य तभी करते हैं जब उन्हें सिगनल भेज रहे रेडियो स्टेशन की दिशा में रखा जाता है।
कॉइल एंटीना में एक फैराइट पदार्थ की छड़ होती है जिस पर तार लिपटा होता है। यह सिगनलों को तब अच्छा पकड़ती है जब कॉइल चढ़ी छड़ सिगनलों के लंबवत् होती है। जब राड और सिगनल एक दिशा में होते हैं तो सिगनल कमजोर आता है। लूप एंटीना में तार के एक या एक से अधिक पूरे चक्कर होते हैं। इस एंटीना में सिगनल पकड़ने की स्थिति कॉइल एंटीना के विपरीत होती है।
इसीलिए रेडियो सैट को रेडियो स्टेशन के सिगनल पकड़ने के लिए उसमें लगे कॉइल या लूप एंटीना के अनुसार खास दिशा में घुमाना पड़ता है। –
स्त्री और पुरुष की आवाज में अंतर क्यों होता है?
हमारे गले में नीचे ध्वनिबॉक्स में वाक्-तंतु होते हैं; जो एक तरह से मांसल डोरी के समान होते हैं। इन दो मांसल डोरियों के कंपन से जो ध्वनि पैदा होती है उसी का परिवर्धित रूप आवाज कहलाती है। आवाज की टोन या स्वर का स्वरूप इन्हीं वाक्-तंतुओं की प्रकृति पर निर्भर करता है। जैसे इनकी लोचकता एवं वास्तविक लंबाई स्वर के स्वरूप पर विशेष प्रभाव डालती है। हर व्यक्ति के वाक्-तंतु अलग-अलग होने से उनकी आवाजें भी अलग-अलग होती हैं जहां तक पुरुषों के वाक्-तंतुओं का प्रश्न है वे महिलाओं के वाक्-तंतुओं की तुलना में कुछ मोटे और कम लोचवाले होते हैं, इसलिए पुरुषों की आवाज भारी होती है। इसकी तुलना में स्त्रियों के वाक्-तंतु पतले और बहुत अधिक लोचदार होते हैं। इसीलिए स्त्रियों की आवाज पतली और सुरीली होती है।
बच्चों की प्यारी आवाज सदैव प्यारी नहीं रहती, क्योंकि जैसे-जैसे वे बड़े होते जाते हैं उनके वाक्-तंतु की प्रकृति में परिवर्तन आता जाता है। इसलिए बचपन, जवानी और बुढ़ापे की आवाज भी बदली सुनाई पड़ती है।
अंतरिक्ष में लंबाई क्यों बढ़ जाती है?
वैज्ञानिकों ने निरीक्षणों से पता लगाया है कि गुरुत्वाकर्षण शक्ति से रहित स्थान में रहने पर अंतरिक्ष यात्रियों के शरीर की लंबाई कुछ बढ़ जाती है। अंतरिक्ष यात्रियों की लंबाई बढ़ने का कारण यह होता है कि रीढ़ की हड्डी के कोमल, लचीले भागों के पेड्स पर गुरुत्वाकर्षण का दबाव नहीं पड़ने से वे फैल जाते हैं। इससे लंबाई पांच सेंटीमीटर तक बढ़ सकती है । तथापि जब अंतरिक्ष यात्री पृथ्वी पर वापस लौटते हैं तो वे अपनी पहले वाली लंबाई में वापस आ जाते हैं। एक अध्ययन से यह पता चला है कि अंतरिक्ष में लबे समय तक रहने से अंतरिक्ष यात्रियों के शरीर में कैल्शियम की कमी हो जाती है। भारहीनता के कारण अंतरिक्ष यान के अंदर रहने वाले अंतरिक्ष यात्रियों को किसी भी प्रकार की गति करते हुए अपनी शक्ति पर नियंत्रण रखना पड़ता है, नहीं तो वे अंतरिक्ष यान की दीवारों अथवा उपकरणों से टकरा सकते हैं। सोते समय अंतरिक्ष यात्री अपने शरीर को एक ही जगह पर स्थिर नहीं रख सकते हैं, इसलिए सोने से पहले उन्हें अपने शरीर को एक स्थान पर बांधना पड़ता है।
उड़ने वाली लोमड़ी किसे कहते हैं?
उड़ने वाली लोमड़ी वास्तव में लोमड़ी नहीं, बल्कि एक प्रकार का चमगादड़ है, जिसका चेहरा और सिर लोमड़ी से मिलता है, इसीलिए इसे उड़ने वाली लोमड़ी कहा जाता है। जिस चमगादड़ को उड़ने वाली लोमड़ी का नाम दिया गया है उसका आकार एक छोटे कुत्ते के बराबर होता है, जबकि अधिकतर प्रजाति के चमगादड़ छोटे-छोटे होते हैं । इस चमगादड़ के पंख का फैलाव दो मीटर तक होता है। इसके दांत बहुत लंबे और तीखे होते हैं। यह अपने दांत से नारियल तक तोड़ सकता है। उड़ने वाली लोमड़ी की 175 प्रजातियां होती हैं। चमगादड़ों के विपरीत इनकी आंखें बड़ी होती हैं और थुथनी लंबी। उड़ने वाली लोमड़ी आस्ट्रेलिया, मलेशिया तथा एशिया के कुछ अन्य देशों में पाई जाती है। वैज्ञानिक अब तक उड़ने वाली लोमड़ी की 65 किस्मों का अध्ययन कर चुके हैं। इनकी कुछ किस्में हिंद महासागर और प्रशांत महासागर के द्वीपों में भी पाई जाती हैं। इनकी अधिकतर आदतें आम चमगादड़ों से मिलती-जुलती हैं, लेकिन कुछ आदतों में ये उनसे भिन्न हैं। ये फलों पर ही अपना जीवन निर्वाह करती हैं, इसलिए इन्हें फलों के बगीचों का दुश्मन माना जाता है। ये दूसरे चमगादड़ों की भांति अपने रास्ते का निर्धारण ध्वनि तरंगों से न करके आंखों से करती हैं। ये हजारों की संख्या वाले समूहों में रहती हैं।
सेफ्टीरेजर ब्लेड को साफ करना क्यों मना है?
बहुत समय पहले सेफ्टीरेजर के ब्लेड कठोर कार्बन स्टील से बनाए जाते थे; लेकिन आज वे मुलायम स्टेनलैस स्टील से बनाए जाते हैं। तभी तो इन आधुनिक ब्लेडों की धारें बहुत कोमल होती हैं । अतः इनकी सुरक्षा के लिए तथा किसी भी प्रकार के नुकसान बचाने हेतु, इन पर हानि प्रतिरोधी प्लास्टिक ‘टेफलोन’ की परत चढ़ाई जाती है। इससे ब्लेड और ब्लेड की धारों की ही सुरक्षा नहीं होती, बल्कि बालों और ब्लेड की धार के बीच घर्षण भी पर्याप्त कम हो जाता है; जिससे बाल बनाने में आराम मिलता है। अब यदि इतने आरामदायक कोमल ब्लेड को तौलिये से पोंछा जाएगा तो उसकी धार खराब हो सकती है, जिससे वह न तो आरामदायक रहेगा, और न अच्छी तरह बाल काट सकेगा। इसीलिए आजकल ब्लेड को रेजर से बाहर निकालकर, पोंछकर सुखाने के बजाय उसे रेजर में लगे रहकर झटके देकर ही पानी झाड़कर सुरक्षित रखने की सलाह दी जाती है।
तेज धार वाला चाकू लकड़ी को आरी की तरह क्यों नहीं काट सकता?
लकड़ी के कड़े रेशों के कारण तेज धारवाला चाकू लकड़ी की छोटी-सी परत तो उतार सकता है, लेकिन उसे आर-पार काट नहीं सकता है। आरी से लकड़ी को आर-पार चीरा जा सकता है। आरी के दांते इस तरह बनाए जाते हैं कि वे एक छोड़कर एक दाएं-बाएं झुके होते हैं। इससे जब आरी को आगे-पीछे चलाया जाता है, तो लकड़ी कटती जाती है और बुरादा निकलता चला जाता है। दांते दाएं-बाएं मुड़े होने से कटनेवाली लकड़ी में बनी कटी नाली आरी की मोटाई से अधिक होती है। इसलिए लकड़ी काटते समय आरी फंसे बिना आसानी से आगे-पीछे चलती रहती है, और लकड़ी दो भागों में कट जाती है। अतः लकड़ी की कठोरता के कारण तेज धारवाले चाकू से लकड़ी को आरी की तरह नहीं काटा जा सकता है।
चींटी अपने वजन से बहुत अधिक भार कैसे ले जाती है। क्यों मनुष्य ऐसा नहीं कर पाता है?
चींटी और आदमी में भार उठाने के लिए आवश्यक स्थितियों के अनुसार अनेक भिन्नताएं होती हैं, जो चींटी को अधिक और मनुष्य भार उठाने के लिए उत्तरदायी है ।
चींटियों में हजारों तरह की पेशियां छोटे-से शरीर में होती हैं; जबकि मनुष्य में ये बहुत कम पाई जाती हैं। चींटियों की पेशियां थकती नहीं हैं, जबकि मनुष्य की पेशियां जल्दी ही थक जाती हैं। चींटियों के तीन जोड़ी टांगें होती हैं, जो उनके शरीर को अधिक भार उठाने हेतु संतुलित बनाए रखने में सहायक होती हैं; जबकि मनुष्य के एक जोड़ी टांगें होती हैं, जिन पर उसका पूरा भार पड़ा रहता है। मनुष्य का बड़ा आकार और चींटी का छोटा होना भी भार उठाने की शक्ति पर प्रभाव डालता है। आकार में बड़े होने के साथ शक्ति में उसी अनुपात में बढ़ोतरी नहीं होती है। आकार बढ़ने पर शरीर भार में भी वृद्धि होती है; जो मनुष्य की शक्ति को सीमित करने का कारण बनती है। यदि चींटी भी बहुत बड़े आकार की होती, तो वह भी अधिक भार उठाने में सक्षम न होती। तभी तो भार उठाने की ऊपर वर्णित सुविधाओं के होने से छोटे आकार की चींटी अपने भार का लगभग 50 गुना भार उठा लेती है; जबकि मनुष्य ऐसा नहीं कर पाता है।
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