ऐसा क्यों और कैसे होता है -13

ऐसा क्यों और कैसे होता है -13

वैक्यूम क्लीनर से सफाई कैसे होती है?
वैक्यूम क्लीनर बिजली से चलने वाली एक ऐसी छोटी-सी मशीन है, जिसके द्वारा कालीनों फर्श पर पड़ी धूल, कागज के छोटे-छोटे टुकड़े, किताबों पर जमी धूल आदि की सफाई आसानी से की जा सकती है। इस मशीन में एक छोटी-सी मोटर होती है, जो तेजी से घूमती है। इस मोटर के साथ एक पंखा लगा होता है, जो एक और से हवा खींचता है और दूसरी ओर बड़ी तेजी से फेंकता है। जहां हवा फेंकी जाती है, उधर धूल एकत्रित करने के लिए एक थैला लगा दिया जाता है। जिस चीज को साफ करना होता है, उस पर लगी धूल और कागज के टुकड़े मशीन द्वारा खिंच कर थैले में इकट्ठे होते रहते हैं। इसके द्वारा चीजों पर जमी धूल को भी भगाया जा सकता है। इस काम के लिए जिधर से मशीन तेज हवा फेंकती है, उस हिस्से को वस्तु के पास लाते हैं। वायु के तेज दबाव से धूल उड़ जाती है। मशीन में लगा पंखा कुछ हद तक निर्वात (वैक्यूम) पैदा करता है, इसलिए इस मशीन को वैक्यूम क्लीनर कहते हैं। मशीन में पंखे द्वारा पैदा की गई वायु से रहित खाली जगह को भरने के लिए बाहर की तेजी से अंदर जाती है और अपने साथ धूल, गंदगी आदि भी ले जाती है।
सिनेमा परदे के पास बैठकर देखने पर आनंद क्यों नहीं आता ?
सिनेमा हाल में हम जो पिक्चर देखते हैं, वह एक प्रोजेक्टर के लेंसों द्वारा सिनेमा के परदे पर पहुंचाई जाती है। ऐसी पिक्चर तब अच्छी दिखाई देती है, जब दर्शक ऐसे स्थान पर बैठा हो, जहां परदे से दिखाई देनेवाले चित्र और दर्शक की आंख का कोण प्रोजेक्टर से परदे पर पहुंचाई गई तस्वीर के कोण के कक्षांतरण के बराबर या लगभग बराबर हो। जब कोई दर्शक सिनेमा के परदे के पास बैठकर सिनेमा देखता है, तो दर्शक की आंख और सिनेमा के परदे के बीच यह कोण बहुत बड़ा हो जाता है। इसलिए परदे के पास बैठे दर्शकों को अपनी आंखें ही नहीं, बल्कि अपने सिर को भी तसवीरों को देखने के लिए उनकी गतियों के साथ बार-बार घुमाना पड़ता है। इस स्थिति में दर्शक ध्यान से शांतिपूर्वक सिनेमा देख पाने के बजाय तनावपूर्ण स्थिति में उलझ जाता है। इसीलिए वह सिनेमा के परदे के पास बैठकर सिनेमा का आनंद नहीं ले पाता है।
ज्वालामुखी क्यों फटते हैं?
ज्वालामुखी एक ऐसी प्राकृतिक घटना है, जो पृथ्वी की आंतरिक उथल-पुथल के कारण होती है। जिस प्रकार सोडा की एक बोतल को जोर से हिलाने के कारण उसमें रासायनिक क्रिया होती है और जैसे ही बोतल खोली जाती है, सोडा तेजी से बाहर की ओर निकलता है। यही बात ज्वालामुखी पर भी लागू होती है। पृथ्वी की भीतरी सतह का तापमान ऊपरी सतह की तुलना में काफी ज्यादा होता है। अधिक तापमान से वहां की चट्टानें पिघलने लगती हैं। पिघली हुई चट्टानों को ‘मैग्मा’ कहते हैं । पृथ्वी के आंतरिक भाग में उपस्थित मैग्मा का घनत्व उसके आसपास मौजूद चट्टानों की तुलना में कम होता है। जिस प्रकार किसी वस्तु का घनत्व पानी से कम होता है, तो वह वस्तु पानी के ऊपर आ जाती है और तैरने लगती है। ऐसा ही मैग्मा के साथ भी होता है। इसके आसपास की चट्टानें मैग्मा को पृथ्वी की ऊपरी सतह पर जाने के लिए प्रेरित करती हैं, क्योंकि मैग्मा का आपेक्षित घनत्व उनसे कम होता है। पृथ्वी की सतह पर यह गैस और भाप आदि के साथ भीषण रूप में निकलता है। मैग्मा को लावा कहते हैं।
कीड़े कांच की खिड़कियों पर कैसे चल लेते हैं ?
बहुत-से कीट दीवारों तथा छतों पर ही नहीं कांच की खिड़की पर भी आसानी से घूम-फिर लेते हैं। इस कार्य में उनके पैरों की विशेष प्रकार की बनावट सहायता करती है। कुछ कीटों के पंजों के सिरे बहुत पैने होते हैं, जो उन्हें चिकनी सतहों के अति सूक्ष्म छिद्रों एवं उठे भागों में फंसाकर चलने में सहायक होते हैं। ऐसे कीटों में कॉकरोच सुपरिचित है। हमारे घरों में पाई जाने वाली मक्खियों के पैरों के सिरे पर चिपकनेवाले पैड होते हैं, जिनकी सहायता से वे सतह पर चिपककर चलती रहती हैं। मधुमक्खी में ये दोनों ही युक्तियां विद्यमान होती हैं। अतः वह इनका यथास्थान, जैसी स्थिति होती है, उपयोग कर लेती हैं। कीटों की टांगों पर सामान्यत: काइटिन जैसे शूक होते हैं, जो बहुत कड़े और खुरदरे होने के कारण कांच जैसी सपाट सतहों पर चलने में सहायता करते हैं। इस तरह कीटों के पैरों की बनावट में परिस्थितियों के अनुसार अनेक प्रकार की युक्तियां होती हैं; जिनकी सहायता से वे कांच की खिड़कियों आदि पर आसानी से चल सकते हैं।
एक्यूपंक्चर- चिकित्सा महत्वपूर्ण क्यों मानी जाती है?
एक्यूपंक्चर चिकित्सा प्रणाली शुरुआत लगभग  2500 वर्ष पहले चीन में हुई थी  इस प्रणाली में किसी रोग का इलाज करने के लिए रोगी के शरीर में विभिन्न भागों में पीतल, स्टेनलेस  स्टील या दूसरी धातु से बनी सुइयां चुभोई जाती हैं। आइए जानें एक्यूपंक्चर चिकित्सा क्यों महत्वपूर्ण है? एक्यूपंक्चर के प्राचीन चीनी विशेषज्ञों के अनुसार हमारे शरीर का स्वास्थ्य दो शक्तियों ‘यिन’ और ‘यांग’ के संतुलन पर निर्भर करता है। ये दोनों शक्तियां व्यक्ति के शरीर में धाराओं के रूप में रहती हैं और शरीर के दोनों ओर 12-12 धाराएं होती हैं। इनमें से दो धाराएं रेन और डू शरीर के मध्य भाग में स्थित होती हैं।
विशेषज्ञों ने हर व्यक्ति के शरीर की त्वचा में 305 ऐसे स्थान बताएं हैं, जहां सुई चुभोकर अनेक रोगों का इलाज किया जा सकता है। अब ऐसे स्थानों की संख्या 2000 तक पहुंच गई है। इस चिकित्सा का महत्व इसलिए भी ज्यादा है क्योंकि इसमें किसी तरह की चीर-फाड़ किए बिना ही रोगों का इलाज किया जाता है। निश्चित स्थान पर हलके से सुई चुभोई जाती है, जिससे दर्द नहीं होता है और रोग का इलाज करने में सिर्फ 10 मिनट का समय लगता है।
सफेद कपड़ों पर नील क्यों लगाया जाता है?
जब हम कपड़ों को साबुन से धोते हैं, तो उन पर साबुन का हलका-सा प्रभाव रह जाता है । यह प्रभाव कपड़ों को बार बार धोने पर बढ़ता रहता है; जिसके परिणामस्वरूप वे कुछ पीलापन धारण कर लेते हैं। इस पीलेपन से सफेद कपड़े साफ होने पर भी अच्छे नहीं लगते हैं। अतः सफेद कपड़ों का पीलापन दूर करने के लिए नील का उपयोग किया जाता है। नील एक तरह का नीला रंग होता है, जो कपड़ों पर चिपक जाता है और उनके पीलेपन को उभरने नहीं देता है। परिणामस्वरूप कपड़े पुनः सफेद होकर जगमगाने लगते हैं।
विज्ञान की जनउपयोगी खोजों के क्षेत्र में साबुन उद्योग में भी नई तकनीक विकसित हुई है। अब कपड़ों में अलग से नील लगाने के बजाय साबुन में ही ऐसी व्यवस्था की गई है, जिससे कपड़ों पर साबुन लगाने के साथ ही नया नील भी लग जाता है और कपड़ों को पानी से धोने पर साबुन तो निकल जाता है; पर नया नील कपड़ों पर ही रह जाता है। इसके लिए प्रदीप्त पदार्थ युक्त ऑप्टीकल सफेदीकारक का उपयोग किया जाता है । यह सफेदीकारक साबुन में ही मिले होते हैं। कपड़े धोने पर यह कपड़ों में अवशोषित हो जाते हैं। इसके कारण कपड़ों से सफेद प्रकाश की अधिक मात्रा परावर्तित होती है; जिससे वे चमकदार सफेद दिखाई देने लगते हैं।
अतः सफेद कपड़ों पर नील अथवा नया नील उनके पीलेपन को दूर कर उन्हें चमकदार एवं सफेद बनाने के लिए उपयोग किया जाता है।
कुछ ही कीड़े दीर्घजीवी क्यों होते हैं?
कीड़े-मकोड़ों का जीवन काल धरती पर रहने वाले दूसरे जीव-जंतुओं की तुलना में बहुत ही कम होता है, लेकिन कुछ कीड़े दीर्घजीवी भी होते हैं। ऐसा ही एक कीड़ा है सााइकेडा, ‘ जो 17 साल तक जिंदा रहता है । यह बहुत विचित्र कीड़ा है। इसका जीवन-क्रम बहुत मनोरंजक है। मादा साइकेडा पेड़ों की टहनियों पर अंडे देती है। अंडों से जो लार्वा निकलते हैं, वे जमीन पर गिर जाते हैं। ये जमीन के अंदर चले जाते हैं और पौधों या पेड़ों की जड़ों पर चिपक जाते हैं। यहां ये 17 वर्षों तक शांति से रहते हैं और अपना भोजन पेड़-पौधों की जड़ों से प्राप्त करते हैं। इस लंबी अवधि के बाद ये धरती से बाहर प्रकाश में निकल आते हैं और पेड़ों के तनों पर चढ़ जाते हैं। तब इनकी खाल फटती है और उसमें से वयस्क साइकेडा बाहर आ जाते हैं। लगभग 5 सप्ताह तक यह धूप की रोशनी में सक्रिय जीवन बिताता है । इसके बाद यह अचानक मर जाता है। साइकेडा की लगभग 8000 किस्में हैं । लेकिन 17 वर्ष जीवित रहने वाला साइकेडा संयुक्त राज्य अमेरिका में ही पाया जाता है। इसकी दूसरी किस्में दो साल ही जीवित रहती हैं ।
बर्फ रखने से खून बहना बंद क्यों हो जाता है ?
हम जानते हैं कि जब रक्त की नलिकाएं और कोशिकाएं कुचल या कट जाती हैं तो रक्त बहने लगता है। यह सामान्य बात है, और सामान्य बात यह भी है कि बहता हुआ रक्त बाहर आते ही जमना प्रारंभ कर देता है; जिससे रक्त का और अधिक बाहर आने का रास्ता बंद हो जाए। लेकिन जब सामान्य से अधिक रक्त निकल रहा होता है उसे रोकना आवश्यक होता है। इस स्थिति में कटे-फटे स्थान अथवा घाव पर बर्फ रखकर रक्त का बहना रोका जाता है। ऐसा इसलिए होता है; क्योंकि जब हम घाव पर बर्फ रखते हैं, तो वहां शरीर को कड़ी ठंडक होने का संकेत मिलता है। इससे रक्त की नलिकाएं और कोशिकाएं संकुचित होना प्रारंभ कर देती हैं, जिससे उस क्षेत्र में रक्त का बहाव कम हो जाता है। अतः बर्फ रखने की क्रिया से खून के बहाव में कमी लाकर खून को सामान्य तरीके से जमकर बंद होने में सहायता मिलती है।
पारा चांदी की तरह क्यों चमकने लगता है ?
सैद्धांतिक रूप से परम शून्य तापमान वह संभावित निम्नतम तापमान है, जिस पर गैस पहुंच सकती है। यह 273.15 डिग्री सेल्सियस होता है। यह संख्या इस तथ्य पर आधारित है कि गैस का आयतन तापमान कम करने के साथ कम होता जाता है। इस सिद्धांत के अनुसार गैस का आयतन समाप्त हो जाएगा, यदि उसका तापमान परम शून्य तक कम कर दिया जाए। इस पर गैस के अणु पूर्ण विश्रामावस्था में आ जाएंगे। वास्तविक प्रयोगों में सभी गैसें पहले द्रवों में बदलती हैं और फिर ठोस में बदलकर परम शून्य तापमान की ओर बढ़ती हैं। वैज्ञानिक आज तक परम शून्य तापमान पर नहीं पहुंच पाए हैं। अब तक निम्नतम तापमान तांबे के नाभिकों को निम्न तापमान पर चुंबकीकरण करके प्राप्त किया गया है। जब विद्युत चुंबक का स्विच बंद किया गया, तो तांबे के नाभिकों का अचुंबकीकरण हो गया, जिससे तापमान काफी नीचे गिर गया। जिन पदार्थों को इस तापमान तक ठंडा कर दिया जाता है, उनकी प्रतिक्रिया कुछ विचित्र होती है। इस तापमान पर ऑक्सीजन नीलापन लिये सफेद ठोस में परिवर्तित हो जाती है। पारा जो सामान्यतः तरल होता है, वह बहुत सख्त हो जाता है और चांदी की तरह चमकने लगता है।
रेलगाड़ी की आवाज पुलों से गुजरने पर बदल क्यों जाती है?
जब रेलगाड़ी रेलपटरी पर चलती है तो उसके पहिए रेलपटरी के जोड़ों पर से गुजरने पर रेलों में कंपन पैदा करते हैं, जिससे रेल के चलने की आवाज होती है। लेकिन रेलपटरियां पत्थर की रोड़ी की सड़क पर होने से यह आवाज कम हो जाती है, क्योंकि पत्थर की रोड़ी कंपन के कुछ भाग को अवशोषित कर लेती हैं। लेकिन जब रेलगाड़ी पुलों से गुजरती है तो यह कंपन कम नहीं होता है। ऐसा खासतौर से तब होता है, जब पुल लोहे और गाटरों से बने होते हैं। इस तरह के पुल अपने आप में भी कंपन करने लगते हैं। अतः कुल मिलाकर इन पुलों पर कंपन में बढ़ोतरी हो जाती है जो रेलगाड़ी की आवाज बदल देती है। इस बदली आवाज से दूर से ही पता चल जाता है कि रेलगाड़ी पुल पर से गुजर रही है। लेकिन जब रेलगाड़ी कंक्रीट के पुलों से गुजरती है तो कंपन में परिवर्तन नहीं होने से उसकी आवाज में भी कोई परिवर्तन नहीं होता है। इसलिए रेलगाड़ी जब लोहे और गाटरों के बने पुलों से गुजरती है, तो उसकी आवाज बदल जाती है।
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