ऐसा क्यों और कैसे होता है -10
ऐसा क्यों और कैसे होता है -10
पतले कांच का गिलास गरम पानी डालने पर आसानी से क्यों चटक जाता है ?
उष्मा से धातुएं आदि फैलने लगती हैं। इसमें इनका उष्मा के प्रति सुचालक होने का अधिक प्रभाव पड़ता है। कांच उष्मा का कमजोर सुचालक होता है। अतः कांच के गिलास में गरम पानी डालने पर गिलास से उष्मा धीरे-धीरे बाहर आती है। पतले कांच के गिलास का कांच पतला होने से जल्दी गरम हो जाता है, जबकि मोटे कांच के गिलास, का कांच मोटा होने से देर से गरम होता है। मोटे कांच के गिलास की भीतरी सतह गरम पानी से गरम हो जाने से बढ़ने लगती है; लेकिन बाहरी परत गरम न हो पाने से बढ़ नहीं पाती। इसलिए गिलास की भीतर और बाहर की परतों के अनियमित बढ़ने से गिलास चटक जाता है और पतले कांच का गिलास एक समान गरम होने से भीतर-बाहर एक समान बढ़ता है, अत: चटकने से बच जाता है।
कुछ तारे अचानक क्यों चमकने लगते हैं?
लगातार सामान्य तारों की तरह चमकने वाले कुछ तारे ऐसे होते हैं, जिनकी चमक अचानक ही आश्चर्यजनक रूप से बढ़ जाती है। कुछ ही घंटों या दिनों में इनकी चमक एक लाख गुना या इससे भी अधिक बढ़ जाती है। एक सामान्य दर्शक को ऐसा अनुभव होता है कि एक नया बेहद चमकदार सितारा आकाश में उग आया है। इन तारों को नवतारा या नोवा कहते हैं । ‘नोवा’ शब्द का अर्थ ‘नया’ होता है। इनकी चमक में बढ़ोतरी इसलिए होती है, क्योंकि तारे में हुआ कोई एक विस्फोट उस तारे के एक लाखवें भाग से भी कम पदार्थ को ऊपर उछाल देता है। यह पदार्थ वास्तव में गैस का एक विशाल गोला होता है, जो अंतरिक्ष में बहुत में तेजी के साथ फैलता है। नोवा अपनी अधिकतम चमक तक कुछ घंटों या दिनों में पहुंच जाता है और फिर धीरे-धीरे अपनी मूल चमक पर वापस आ जाता है। अनुमान है कि हमारी मंदाकिनी में प्रतिवर्ष लगभग 20 से 30 नवतारे बनते हैं। कुछ तारे एक से अधिक बार नवतारों में बदलते हैं, इसलिए इन्हें प्रत्यावर्ती नवतारे कहा जाता है। प्रत्यावर्ती नवतारे काफी दीर्घ अंतराल के बाद चमकते हैं। सामान्य नवतारे की चमक सूर्य की चमक से दस हजार दस लाख गुना तक अधिक होती है।
तरल एवं गैसों की अपेक्षा ठोस पदार्थों में ध्वनि तेज क्यों चलती है?
ध्वनि एक तरह से कंपन ही तो है। इसे एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने के लिए किसी माध्यम की आवश्यकता होती है। कंपन जिस माध्यम में यात्रा करते हैं, उसमें वे एक कण से दूसरे कण में होते हुए आखिरी सिरे पर पहुंच जाते हैं। इसलिए ध्वनि कंपन उस समय तेज गति से चलते हैं, जब कंपन-माध्यम के कण आपस में निकट होते हैं। इसे हम इस तरह भी कह सकते हैं कि ध्वनि – कंपन की रफ्तार माध्यम के घनत्व पर निर्भर करती है। ध्वनि कंपन से माध्यम के कण भी उसी दिशा में चलने लगते हैं, जिस दिशा में ध्वनि चल रही होती है। यदि ये कण कंपन के कारण विस्थापित हो जाते हैं तो बेतरतीब कण ध्वनि को ठीक से चलने नहीं देते हैं। अतः ध्वनि का 1270 माध्यम लचीला होना चाहिए; जिससे कण अपनी मूल स्थिति में आ सकें। हालांकि ध्वनि कंपन कणों को अव्यवस्थित करते ही रहेंगे। अतः हम कह सकते हैं कि ध्वनि की रफ्तार माध्यम की लोच या लचीलेपन पर निर्भर करती है। क्योंकि ठोस तरल एवं गैसों की तुलना में सघन तथा लचीले होते हैं। इसलिए तरल एवं गैसों की तुलना में ठोस पदार्थों में ध्वनि तेज रफ्तार से चलती है।
कार्बन डेटिंग क्यों की जाती है?
सभी वस्तुओं की तरह कार्बन भी अणुओं से बनी होती है। सभी कार्बन अणुओं में कुछ अणु ऐसे होते हैं, जो दूसरों से इस अर्थ में भिन्न होते हैं कि वे रेडियोसक्रिय होते हैं और इसीलिए वे अस्थायी होते हैं। इन अणुओं में 13 से 14 तक बहुत छोटे कण होते हैं, जबकि अधिकांश में 12 छोटे कण होते हैं। कार्बन- 14 रेडियो सक्रिय होता है, क्योंकि यह अस्थायी होता है और बहुत धीरे-धीरे क्षीण होकर दूसरे तत्वों में बदलता है। इन अणुओं के विखंडन के बाद उनमें से न्यूक्लियर विकिरण फूटता है। सभी जीवों द्वारा वातावरण से कार्बन की ताजा पूर्ति की जाती है। इसके साथ ही जब वे सांस बाहर निकालते हैं, तो उसके साथ बहुत सी कार्बन वातावरण में छोड़ देते हैं। लेकिन जब वे मरते हैं, तो कुछ कार्बन उनके अंदर रह जाती है। अंदर रह जाने वाली कुछ कार्बन रेडियो सक्रिय होती है। इनमें से सबसे प्रमुख कार्बन – 14 है। उनके अंदर की यह कार्बन-14 नियमित गति से निरंतर क्षीण होती रहती है। ‘कार्बन डेटिंग’ तकनीक द्वारा इस कार्बन- 14 की मात्रा को नाप लिया जाता है। इस प्रकार कार्बन डेटिंग तकनीक का उपयोग प्राचीन पौधों और पशुओं के जीवाश्मों की निश्चित आयु और काल जानने के लिए किया जाता है।
कागज को फाड़ने पर आवाज क्यों आती है?
हम जानते हैं कि कागज पेड़-पौधों से प्राप्त सेलूलोज़ के तंतुओं से बने होते हैं। आजकल संश्लेषित या मानव निर्मित तंतुओं से भी कागज बनने लगे हैं। ये तंतु सघन जाली की तरह एक-दूसरे से गुंफित रहते हुए हाइड्रोजन के बोंड्स से आपस में जुड़े रहते हैं। जब कागज की शीट को फाड़ा जाता है, तो कागज विपरीत दिशाओं में खींचा जाता है। इस क्रिया से कागज को जोड़े रहने वाले हाइड्रोजन बोंड टूटते हैं और वे मुक्त होने लगते हैं। ऐसा होने पर वृक्षों के तंतु कंपन करते हैं; जिससे आवाज पैदा होती है। यदि कागज गीला हो, तो कागज फाड़ने पर आवाज नहीं होती है। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि कागज गीला होने पर कागज के तंतु पानी को अवशोषित कर फूल जाते हैं और आपस में चिपक जाते हैं। इसलिए गीला कागज फाड़ने पर तंतु कंपन नहीं कर पाते और कंपन न होने से आवाज नहीं होती है। इसलिए गीला कागज फाड़ने पर आवाज न आकर सूखा कागज फाड़ने पर आवाज आती है।
चंद्रमा पर धब्बे क्यों होते हैं?
चंद्रमा को नंगी आंखों से देखने पर उसकी सतह पर कुछ काले धब्बे दिखाई देते हैं। क्या आप जानते हैं कि ये धब्बे क्या हैं? महान वैज्ञानिक गैलिलियो गैलिली ने अपने बनाएं दूरदर्शी से 1609 में चांद के इन काले धब्बों को सपाट सागरों के रूप में देखा था और तब से इनका नाम ‘चंद्रमा के सागर’ पड़ गया था। खगोलशास्त्री इन सागरों को ‘मारिया’ कहते हैं। चंद्रमा के इन सपाट मैदानों या काले धब्बों को दो भागों में बांटा जा सकता है। पहले वर्ग में वे धब्बे या सागर आते हैं, जो लगभग गोलाकार हैं, जबकि दूसरे वर्ग में वे धब्बे आते हैं जिनका कोई नियमित आकार नहीं है । वृत्ताकार धब्बे सामान्यतः पर्वतों से घिरे हैं। ऐसे धब्बों में प्रमुख हैं ‘सी ऑफ शॉवर्स’ और ‘सी में ऑफ क्राइसिस’। चंद्रमा की दूसरी तरफ की सतह पर भी इस तरह के धब्बे हैं और इनमें प्रमुख है ‘सी आफॅ मॉस्को’। अनियमित धब्बों में ‘सी ऑफ ट्रेंक्विलिटी’ और ‘ओशन ऑफ स्टोर्मूस’ आते हैं और इनके किनारों पर पर्वतश्रृंखलाएं नहीं होती हैं। ये धब्बे तांबे की परतों से ढंके हुए हैं। ऐसा माना जाता है कि इनका निर्माण तीव्र वेग से गिरते हुए विशाल क्षुद्रों या उल्कापिंडों के चंद्रमा की सतह से टकराने के कारण हुआ होगा। इस टक्कर से चंद्रमा की सतह फट गई होगी या फिर ज्वालामुखी फूट पड़े होंगे, जिसके कारण आंतरिक भाग से विशाल लावा बहकर सतह पर जम गया होगा, जो धब्बों की तरह प्रतीत होता है ।
कम वोल्टेज पर जब बल्ब का प्रकाश धीमा हो जाता है, तो ट्यूबलाइट बुझ क्यों जाती है?
बल्ब और ट्यूबलाइट के कार्य करने के सिद्धांत अलग-अलग होते हैं, जिन पर बिजली का वोल्टेज कम होने का असर पड़ता है। प्रतिदीप्ति ट्यूब तब प्रकाश देती है, जब इसमें गैस पैदा होती है; जबकि बल्ब तब प्रकाश देता है, जब इसका फिलामेंट गरम होता है। ट्यूब में गैस तब पैदा होती है, जब इसके इलेक्ट्रोडों से अधिक वोल्टेज गुजारा जाता है। इसके कैथोड; अर्थात् ऋणात्मक इलेक्ट्रोड से इलेक्ट्रॉन एनोड, अर्थात् धनात्मक इलेक्ट्रोड की ओर त्वरित होते हैं। जिससे वे कम दाब पर मरकरी वेपर गैस के परमाणुओं से कोलाइड होते हैं और इस प्रक्रिया में अदृश्य अल्ट्रावायलेट किरणें पैदा करते हैं। ट्यूब में फास्फॉर की चढ़ाई गई परत इन अदृश्य अल्ट्रावायलेट किरणों को अवशोषित कर लेती है और चमकता सफेद प्रकाश निकलकर आने लगता है। इसलिए प्रतिदीप्ति ट्यूब में गैस बनाने के लिए अधिक वोल्टेज आवश्यक होती है। यदि ऐसा नहीं होता, अर्थात् वोल्टेज कम हो जाती है, तो गैस न बनने से ट्यूब प्रकाश देने के स्थान पर बंद हो जाती है। इसके विपरीत बल्ब में बिजली के वोल्टेज से फिलामेंट गरम होकर चमकता है और प्रकाश देता है। अतः वोल्टेज के कम हो जाने पर फिलामेंट कम ताप तक गरम हो पाता है, इसलिए कम चमकता है और ट्यूबलाइट की तरह बुझ जाने के बजाय कम प्रकाश देता रहता है ।
छिड़काव करने से ठंडक क्यों हो जाती है ?
किसी भी तरह पदार्थ का वाष्पीकरण अन्य बातों के साथ-साथ इस बात पर भी अधिक निर्भर करता है कि वह तरल कितने क्षेत्र में बाहरी वातावरण के संपर्क में है। यदि तरल का सतही क्षेत्रफल वातावरण के संपर्क में अधिक है, तो वाष्पीकरण अधिक होगा, और कम है, तो कम होगा। काफी उपयोगी हो सकती है। सन् 1800 में इटली के वैज्ञानिकों ने पृथ्वी की आंतरिक ऊर्जा को काम में लाने से संबंधित कई प्रयोग किए। उन्होंने पृथ्वी की सतह में एक गहरा छेद किया, जिसमें से गर्म भाप की धारा और दुर्गध युक्त गैसें बाहर निकलीं। जब हम किसी तरल पदार्थ का छिड़काव करते हैं, तो उसे अधिक क्षेत्रफल पर बिखेर देते हैं। इससे तरल बहुत छोटी बुंदकियों में वातावरण के बहुत बड़े क्षेत्रफल के संपर्क में आ जाता है और उसका स्वयं का फैलाव क्षेत्रफल भी बढ़ जाता है। इससे वाष्पीकरण का क्षेत्र बढ़ जाता है और बुंदकियां बहुत जल्दी वायुमंडल में गायब हो जाती हैं। ऐसा होने पर जहां छिड़काव किया जाता है, उस क्षेत्र की गर्मी वाष्पीकरण के कारण हवा में उड़ने लगती है। अतः वहां गर्मी कम हो जाने से ठंडक आ जाती है। इसीलिए तरल पदार्थों; जैसे पानी आदि का छिड़काव करने से ठंडक आने लगती है।
पृथ्वी की आंतरिक ऊष्मा उपयोगी क्यों होती है?
यह बात सभी जानते हैं कि पृथ्वी संतरे के आकार की है। अगर इसे खोदा जाए तो गहराई के साथ ही इसका तापमान भी बढ़ता जाता है। वास्तव में पृथ्वी के अंदर का तापमान काफी अधिक है, जो इस बात का परिचायक है कि पृथ्वी के गर्भ में अपार ऊष्मा-ऊर्जा छिपी है, जो कई मायनों में काफी उपयोगी हो सकती है। सन् 1800 में इटली के वैज्ञानिकों ने पृथ्वी की आंतरिक ऊर्जा को काम में लाने से संबंधित कई प्रयोग किए। उन्होंने पृथ्वी की सतह में एक गहरा छेद किया, जिसमें से गर्म भाप की धारा और दुर्गंध युक्त गैसें बाहर निकलीं। इन गैसों में बोरिक अम्ल की मात्रा काफी अधिक थी। इसे व्यावसायिक तौर पर निकालने के लिए सन् 1818 में एक कारखाना भी स्थापित किया गया था। भूगर्भीय ऊष्मा का उपयोग चार तरीकों से किया जा सकता है। इसकी शुष्क भाप से टरबाइन चलाकर विद्युत पैदा की जा सकती है। यह इटली के लैंडर एलो नामक स्थान पर किया जा रहा है। पृथ्वी के गर्भ से निकलने वाले गर्म पानी को भवनों को गर्म रखने के लिए उपयोग में लाया जाता है, यह काम आइसलैंड के रेकजाविक शहर में हो रहा है। अवसादी चट्टानों के क्षेत्रों में 40 डिग्री से 100 डिग्री सेल्सियस तापमान का पानी मिलता है, जिसे कृषि के लिए उपयोग में लाया जा सकता है। उच्च दाब के क्षेत्रों का पेट्रोलियम प्राप्त करने के लिए भी इसका उपयोग किया जा सकता है।
बरतन पर कैसे / क्यों चिपकता है टेफ्लॉन?
पहले खाने में चिकनाई का अधिक उपयोग पकाते समय भोजन को बरतन से चिपकने से बचाने के लिए होता था। अब इसके लिए टेफ्लॉन नामक रसायन की कोटिंग वाले बरतनों का उपयोग किया जाता है। किसी भी चीज को चिपकने से बचाने वाला यह पदार्थ आखिर बरतन से कैसे चिपक जाता है? टेफ्लॉन का नाम गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में पृथ्वी के सर्वाधिक चिकने (फिसलने वाले) पदार्थ के रूप में दर्ज है। इसके बाद भी बरतनों पर इसकी कोटिंग हो जाती है। टेफ्लॉन वास्तव में टेट्राफ्लूरोइथाइलिन है। इसकी ? खोज वैज्ञानिक डॉ. रॉय प्लंकेट ने दुर्घटनावश की थी। वे अच्छी कूलेंट गैस बनाने का प्रयास कर रहे थे, भूलवश वह गैसों के मिश्रण को रात भर तो के लिए एक डिब्बे में छोड़ गए। जब वे लौटे, उन्होंने देखा कि गैस तो वाष्पित हो चुकी है, उसकी जगह मोम जैसा द्रव है जो गलाने वाले रसायनों में डालने के बाद भी जस का तस है। इसका उपयोग पेरिस में रहने वाले एक व्यक्ति ने बरतनों पर किया था। उसने इसे सैंडब्लास्ट के जरिये खुरदुरा बनाया और फिर उसमें प्राइमर लगाकर उसे बरतन से जोड़ दिया।
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