एक कहानी यह भी

एक कहानी यह भी

एक कहानी यह भी लेखिका-परिचय

प्रश्न-
मन्नू भंडारी का जीवन-परिचय एवं उनके साहित्य की प्रमुख विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-
1. जीवन-परिचय-श्रीमती मन्नू भंडारी का नाम आधुनिक कथाकारों, उपन्यासकारों एवं नाटककारों में बड़े आदर के साथ लिया जाता है। इन्होंने अनेक कहानी-संग्रह लिखकर कहानी विधा को समृद्ध किया है। श्रीमती मन्नू भंडारी का जन्म 3 अप्रैल, 1931 को जिला मंदसौर (मध्य प्रदेश) के भानपुरा नामक गाँव में हुआ। इनका बचपन अजमेर में व्यतीत हुआ। इनके घर का वातावरण पूर्णतः साहित्यिक था। इनके पिता श्री सुख संपत राय भंडारी साहित्य और कला-प्रेमी थे। पिता के जीवन का प्रभाव इनके व्यक्तित्व पर पड़ना स्वाभाविक था। शिक्षा के विकास के साथ-साथ इनकी साहित्यिक अभिरुचियों का भी विकास होता गया। काशी हिंदू विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त करते समय इनका संपर्क महान साहित्यकारों से हुआ। काशी हिंदू विश्वविद्यालय से इन्होंने एम०ए० (हिंदी) की परीक्षा पास की। तत्पश्चात् इन्होंने अध्यापन को अपनी आजीविका का साधन बना लिया तथा प्राध्यापिका बनकर कलकत्ता विश्वविद्यालय में चली गईं। उन्हीं दिनों मन्नू भंडारी की कहानियाँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं। इनकी कहानियों को पाठक वर्ग ने काफी सम्मान दिया। कलकत्ता रहते हुए ही इनका विवाह सन् 1959 में गद्यकार श्री राजेंद्र यादव से हुआ, किंतु इन्होंने अपने जिस नाम से (मन्नू भंडारी) साहित्य जगत् में प्रसिद्धि प्राप्त की थी, वही नाम बनाए रखा। कलकत्ता से मन्नू भंडारी दिल्ली के ‘मिरांडा हाऊस’ नामक कॉलेज में आकर अध्यापन कार्य करने लगीं तथा सेवा निवृत्ति तक वहीं रहीं। एक सच्ची साधिका की भाँति वे निरंतर साहित्य निर्माण में लगी रहीं। इन्होंने कहानियों के साथ-साथ उपन्यास, नाटक और बाल-साहित्य की भी रचना की। इनके उपन्यास तथा कहानियों पर फिल्में भी बनी हैं और उनका नाट्य रूपांतर भी हुआ है।

2. प्रमुख रचनाएँ श्रीमती मन्नू भंडारी ने विविध विधाओं की रचना पर अपनी लेखनी सफलतापूर्वक चलाई है। उनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं
(i) कहानी संग्रह ‘तीन निगाहों की तस्वीर’, ‘एक प्लेट सैलाब’, ‘त्रिशंकु’, ‘यही सच है’, ‘मैं हार गई’, ‘आँखों देखा झूठ’ आदि।
(ii) उपन्यास ‘महाभोज’, ‘आपका बंटी’, ‘एक इंच मुस्कान’, ‘स्वामी’ आदि।
(iii) नाटक-‘बिना दीवारों के घर’ ।
(iv) बाल-साहित्य-‘आसमाता’ और ‘कलवा’ आदि।

3. साहित्यिक विशेषताएँ श्रीमती मन्नू भंडारी मूलतः कथाकार हैं। वे सर्वप्रथम कहानी-लेखिका के रूप में प्रसिद्ध हुई थीं। कहानी के क्षेत्र में इन्होंने अपनी अलग पहचान बनाई थी। आज भी इन्हें अधिकतर मान्यता कहानी-लेखिका के रूप में प्राप्त है। मन्नू भंडारी आज भी हिंदी कहानी में एक ऐसा विशिष्ट नाम है जिन्होंने हिंदी कहानी को नई दिशा दी है। इन्होंने जीवन से जुड़ी समस्याओं को अपने अनुभव के रंग में रंगकर कहानियों में स्थान दिया है।
इनकी कहानियों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे जिंदगी को सीधे समझने और जाँचने वाली, बेबाक और प्रेरणादायी हैं। श्रीमती मन्नू भंडारी की कहानियों के कथानक रोचक, जिज्ञासा से युक्त, सरल एवं मौलिक हैं। कथानक अत्यंत गतिशील बने रहते हुए अपने लक्ष्य तक पहुंचते हैं।

श्रीमती मन्नू भंडारी की कहानियों में पात्रों की संख्या कम है जिससे पाठक शीघ्र ही उनसे परिचित हो जाता है और उनसे तादात्म्य स्थापित कर लेता है। सभी पात्र सजीव एवं जीवन की विभिन्न समस्याओं से जूझते हुए पाए जाते हैं। वातावरण निर्माण की कला में भी उनका कोई मुकाबला नहीं है। वातावरण की सजीवता ही इनकी कहानियों की मौलिकता एवं विश्वसनीयता बनाए रखती है।

विषय-निरूपण अर्थात् उद्देश्य की दृष्टि से भी श्रीमती मन्नू भंडारी की कहानियाँ सफल सिद्ध हुई हैं। इनकी कहानियों में जीवन की विविध समस्याओं को उद्घाटित किया गया है। कहानी को बदलती हुई परिस्थितियों के साथ जोड़कर कहानी को नया रूप प्रदान किया गया है। स्वतंत्रता के पश्चात् भारतीय जीवन-शैली में आए परिवर्तन से हमारे संस्कारों पर प्रभाव पड़ा है। पुरानी पीढ़ी के लोग पुराने संस्कारों से चिपके हुए हैं और वे उनमें किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं चाहते, जबकि नई पीढ़ी के लोग उन संस्कारों को सहन नहीं करते। इसलिए नए-पुराने संस्कारों की जो टकराहट की स्थिति बनी हुई है, उसका यथार्थ चित्रण श्रीमती भंडारी की कहानियों में देखा जा सकता है।

4. भाषा-संवादों की सफल योजना से श्रीमती मन्नू भंडारी ने पात्रों के चरित्रों के रहस्य उद्घाटन के साथ-साथ, वातावरण निर्माण और कथानक को गतिशील बनाया है। इन्होंने अपनी कहानियों में पात्रानुकूल एवं प्रसंगानुकूल सरल एवं सार्थक भाषा का प्रयोग किया है।
अतः निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि श्रीमती मन्नू भंडारी की कहानियाँ भाव एवं कला दोनों ही दृष्टियों से सफल सिद्ध हुई हैं। उन्होंने अपनी कहानियों के लेखन द्वारा हिंदी कहानी विधा के विकास में जो योगदान दिया है, वह सदा स्मरणीय रहेगा।

एक कहानी यह भी पाठ का सार

प्रश्न-
“एक कहानी यह भी’ शीर्षक पाठ का सार अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर-
यह पाठ सुप्रसिद्ध कहानी लेखिका मन्नू भंडारी द्वारा रचित है। इसमें उन्होंने उन व्यक्तियों और घटनाओं का ओजस्वी भाषा में वर्णन किया है, जिनका संबंध लेखकीय जीवन से रहा है। संकलित अंश में मन्नू भंडारी के किशोर जीवन से जुड़ी घटनाओं के साथ उनके पिता जी और उनकी प्राध्यापिका शीला अग्रवाल का व्यक्तित्व विशेष रूप में उभरकर सामने आया है, जिन्होंने आगे चलकर उनके लेखकीय जीवन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई हैं। यहाँ लेखिका ने अपनी किशोरावस्था में घटित घटनाओं का सजीव चित्रण किया है। साथ ही तत्कालीन वातावरण का भी सजीव चित्रण किया है। सन् 1946-47 के आंदोलनों की गरमाहट इस पाठ में पूर्ण रूप से अनुभव की जा सकती है। पाठ का सार इस प्रकार है

लेखिका का जन्म मध्य प्रदेश के भानपुरा गाँव में हुआ था। किंतु उनका बचपन राजस्थान के अजमेर नगर के एक मुहल्ले में बीता। उनका घर दो-मंजिला था। नीचे पूरा परिवार रहता था, किंतु ऊपर की मंजिल पर उनके पिता का साम्राज्य था। अजमेर आने से पहले वे इंदौर में रहते थे। वहाँ उनके परिवार की गिनती प्रतिष्ठित परिवारों में होती थी। उनके पिता जी शिक्षा में गहन रुचि रखते थे। कमज़ोर छात्रों को तो घर बुलाकर पढ़ाते थे। उनके पढ़ाए हुए छात्र आज बड़े-बड़े पदों पर काम कर रहे हैं। उनके पिता उदार हृदय, कोमल स्वभाव, संवेदनशील होने के साथ-साथ क्रोधी और अहंकारी स्वभाव वाले भी थे। एक बहुत बड़े आर्थिक झटके ने उन्हें अंदर तक हिलाकर रख दिया। इसीलिए वे इंदौर से अजमेर आए थे। यहाँ आकर उन्होंने हिंदी-अंग्रेजी कोश तैयार किया। वह अपनी तरह का पहला शब्द-कोश था। उससे उन्हें ख्याति तो खूब मिली, किंतु धन नहीं। कमजोर आर्थिक स्थितियों के कारण उनका सकारात्मक स्वभाव दबकर रह गया। वे अपनी गिरती आर्थिक स्थिति में अपने बच्चों को भागीदार नहीं बनाना चाहते थे। आरंभ से अच्छा-ही-अच्छा देखने वाले उनके पिता जी के लिए ये दिन देखने बड़े ही कष्टदायक लगते थे। इससे उनका स्वभाव संदेहशील बन गया था। ऐसी मनोदशा में हर किसी को संदेह की दृष्टि से देखते थे।

लेखिका ने अपने पिता की अच्छी और बुरी आर्थिक दशा का उल्लेख करने के साथ-साथ उनके व्यक्तित्व के गुणों और अवगुणों की ओर भी संकेत किया है। नवाबी आदतों, अधूरी महत्त्वाकांक्षाओं और सदा शीर्ष पर रहने के बाद नीचे उतरने की पीड़ा सदा क्रोध के रूप में उनकी पत्नी पर बरसती रहती थी। अपने बहुत निकट के लोगों से विश्वासघात मिलने के कारण वे बड़े शक्की स्वभाव के हो गए थे। उनके उस शक के लपेटे में अकसर लेखिका और उसके भाई-बहिन भी आ जाते थे।

लेखिका ने अपने विषय में कहा है कि वह काली और दुबली-पतली थी। लेखिका की उससे दो वर्ष बड़ी बहिन खूब गोरी, हँसमुख और स्वस्थ थी। पिता की कमज़ोरी गोरा रंग था। अतः हर बात में उसकी प्रशंसा और उससे तुलना ने लेखिका में एक ऐसी हीन-भावना भर दी कि वे आजीवन उससे उभर न सकीं। किंतु माँ का स्वभाव पिता के ठीक विपरीत था। लेखिका ने उनमें धरती से भी कहीं अधिक धैर्य और सहनशक्ति को देखा था। किंतु असहाय और विवशता में लिपटा उनका यह त्याग कभी उनके बच्चों के लिए आदर्श नहीं बन सका।

लेखिका ने अपने से दो वर्ष बड़ी बहिन सुशीला के साथ बचपन में हर प्रकार का खेल खेला था। लेखिका के दो बड़े भाई पढ़ने हेतु बाहर चले गए थे। किंतु बचपन में वह उनके साथ भी खेलती थी। पतंग उड़ाना, मांजा सूतना, यहाँ तक कि गुल्ली डंडा खेलना भी उसके खेलों में सम्मिलित था। किंतु उसकी सीमा अपने घर या फिर मोहल्ले-पड़ोस तक ही होती थी। उन दिनों पड़ोस को तो घर का ही हिस्सा माना जाता था। उन दिनों की तुलना में आज महानगरों के फ्लैटों का जीवन अत्यधिक संकुचित हो गया है। लेखिका की कहानियों के अधिकांश पात्र उनके मुहल्ले से हैं। यहाँ तक कि ‘दा’ साहब भी मौका मिलते ही ‘महाभोज’ नामक उपन्यास में प्रकट हो गए। तब लेखिका को पता चला कि बचपन की याद कितनी गहरी होती है।

सन् 1944 में बड़ी बहिन सुशीला का विवाह हो गया, बड़े भाई पढ़ने के लिए बाहर चले गए। तब उनके पिता जी ने मन्नू की पढ़ाई की ओर ध्यान दिया। पिता जी को यह पसंद नहीं था कि उसे पढ़ाई के साथ-साथ रसोई में भी कुशल बनाया जाए। उनके अनुसार रसोई का काम लड़कियों की प्रतिभा व क्षमता को नष्ट करता है। रसोई का काम उनकी दृष्टि में भटियारखाना था। वे चाहते थे कि लेखिका उनके साथ राजनीतिक बहसों में शामिल हो। उनके घर में आए दिन किसी-न-किसी राजनीतिक पार्टी की मीटिंग होती रहती थी। कभी कांग्रेस, कभी सोशलिस्ट तो कभी कम्युनिस्ट पार्टी और कभी आर.एस.एस. के लोग आते थे। पिता जी चाहते .थे कि वह देश की गतिविधियों के विषय में भी जानकारी रखें। किंतु लेखिका का बालक मन पचड़ों को नहीं समझता था। वह क्रांतिकारियों और उनके महान् बलिदानों से जरूर रोमांचित हो उठती थी।

लेखिका ने दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् कॉलेज में प्रवेश लिया। तभी उनका परिचय कॉलेज की हिंदी विषय की प्राध्यापिका श्रीमती शीला अग्रवाल से हुआ। शीला अग्रवाल ने उन्हें कुछ महान् साहित्यकारों की रचनाएँ पढ़ने के लिए प्रेरित किया। आगे चलकर लेखिका ने शरत्चंद्र, प्रेमचंद, जैनेंद्र, अज्ञेय, यशपाल, भगवतीचरण वर्मा आदि के उपन्यास पढ़े और अपनी प्राध्यापिका से उन पर चर्चा परिचर्चा भी की। लेखिका जैनेंद्र की लेखन-शैली से बहुत प्रभावित हुई। ‘सुनीता’, ‘शेखर : एक जीवन’, ‘नदी के द्वीप’ जैसे उपन्यासों के पढ़ने से लेखिका के दृष्टिकोण में परिवर्तन हुआ। जीवन मूल्य भी बड़ी तेज़ गति से बदल रहे थे। पुरानी मान्यताएँ टूट रही थीं और नई धारणाओं का निर्माण हो रहा था।

उन दिनों स्वतंत्रता आंदोलन अपने पूरे जोरों पर था। सब ओर जलसे जुलूस, प्रभात – फेरी, हड़ताल, भाषण आदि का बोलबाला था। हर युवक इस ओजस्वी माहौल में शामिल था। भला ऐसे में लेखिका कैसे चैन से बैठ सकती थी। शीला अग्रवाल की जोशीली बातों ने लेखिका की रग-रग में लावा भर दिया था। लेखिका सड़कों पर घूम-घूम कर हड़ताल करवाती, भाषण देती। उसने अब सारी वर्जनाओं को तोड़कर खुलेआम भाषण देने आरंभ कर दिए थे। लेखिका और उनके पिता के विचारों में टकराहट उत्पन्न हो गई थी। विवाह के विषय में भी विरोध चलता रहा। एक बार तो कॉलेज की प्राचार्या ने भी उनकी गतिविधियों के सिलसिले में उनके पिता जी को बुला भेजा था।

प्राचार्या ने उनसे कहा, क्यों न आपकी बेटी की गतिविधियों को लेकर उसके विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाए। यह सुनकर वे आग – बबूला हो उठे। बोले, न जाने यह लड़की मुझे कैसे-कैसे दिन दिखलाएगी। गुस्से में भरकर कॉलेज पहुँचे। वापिस आए तो लेखिका डर गई और पड़ोस के घर में छुपकर बैठ गई। सोचा कि जब पिता जी का गुस्सा ठंडा पड़ जाएगा तो घर चली आएगी। किंतु कॉलेज से वे बहुत खुश लौटे। पता चला कि पिता जी उन पर बहुत गर्व कर रहे थे। उन्हें पता चला कि सारा कॉलेज उनकी बेटी के इशारों पर चलता है। प्रिंसिपल के लिए कॉलेज चलाना कठिन हो रहा था। पिता जी ने कहा कि यह आंदोलन तो पूरे देश में चल रहा है। यह समय की पुकार है। भला इसे कौन रोक सकता है?
लेखिका के पिता जी अपनी प्रतिष्ठा के प्रति बहुत ही सावधान रहते थे।

उन दिनों आज़ाद हिंद फौज के मुकद्दमे को लेकर देश भर में हड़तालें चल रही थीं। दिनभर विद्यार्थियों के साथ घूम-घूमकर लेखिका भी हड़ताल करवाती रही और संध्या के समय बाज़ार के चौराहे पर एकत्रित विद्यार्थियों ने भाषण बाज़ी की। लेखिका ने भी जोशीला भाषण दिया जिसे सुनकर लोग बहुत प्रभावित हुए। पिता जी के किसी दकियानूसी मित्र ने लेखिका के प्रति उनके कान भर दिए और फिर क्या था कि उनका क्रोध भड़क उठा। उन्होंने लेखिका को घर से बाहर न निकलने की चेतावनी दे डाली। किंतु तभी नगर के प्रतिष्ठित डॉक्टर श्री अंबालाल ने लेखिका को देखते ही उसके जोशीले भाषण की खूब तारीफ की, जिससे पिता जी की छाती गर्व से फूल उठी। इस प्रकार लेखिका पिता जी के क्रोध से बच गई।

बात यह थी, लेखिका के पिता जी अंतर्विरोधमय जीवन जी रहे थे। वे नगर में विशिष्ट भी बनना चाहते थे और सामाजिक छवि के बारे में भी जागरूक रहते थे। वे दोनों चीजें एक साथ प्राप्त करना चाहते थे।

सन् 1947 में मई मास में कॉलेज प्रबंधक समिति ने प्राध्यापिका अग्रवाल को लड़कियों को भड़काने के आरोप में कॉलेज से नोटिस भेज दिया। उधर थर्ड इयर की कक्षाएँ बंद कर दी गईं। लेखिका और उसकी दो सहेलियों को भी कॉलेज से निकाल दिया गया। किंतु लेखिका ने कॉलेज से बाहर रहकर भी आंदोलन जारी रखा और अंततः कॉलेज को थर्ड इयर खोलना पड़ा। लेखिका को खुशी मिली। किंतु 15 अगस्त, 1947 में इससे भी बड़ी खुशी पूरे देश को मिली जब भारत आज़ाद हुआ।

Hindi एक कहानी यह भी Important Questions and Answers

विषय-वस्तु संबंधी प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
लेखिका के कुंठित होने तथा हीन भावना से ग्रसित होने के क्या कारण थे?
उत्तर-
लेखिका बचपन से ही शारीरिक दृष्टि से कमज़ोर और काले रंग की थी। जबकि लेखिका की बड़ी बहिन, जो उससे दो वर्ष बड़ी थी, स्वस्थ व गोरे रंग की थी। लेखिका के पिता दोनों बहिनों की तुलना करते और उनकी बड़ी बहिन की तारीफ करते। इसका लेखिका के व्यक्तित्व पर बुरा असर पड़ा।
इसी कारण उसके जीवन में हीन भावना की ग्रंथि अथवा कुंठा का समावेश हो गया था जिससे लेखिका आजीवन उभर नहीं सकी थी।

प्रश्न 2.
लेखिका किन साहित्यकारों के साहित्य को पढ़कर उनसे प्रभावित हुई थी?
उत्तर-
लेखिका के कॉलेज की हिंदी प्राध्यापिका शीला अग्रवाल से जब उनका परिचय हुआ और उनके संपर्क में आई तो उन्होंने लेखिका को प्रेमचंद, जैनेंद्र, अज्ञेय, भगवतीचरण वर्मा, यशपाल आदि साहित्यकारों की प्रमुख रचनाएँ पढ़ने को दी। लेखिका इन सब का साहित्य पढ़कर इनसे प्रभावित हुए बिना न रह सकी। किंतु लेखिका जैनेंद्र की लेखन शैली से विशेष रूप से प्रभावित हुई। उनकी छोटे-छोटे वाक्यों से युक्त भाषा-शैली लेखिका को बहुत पंसद आई थी। उनका ‘सुनीता’ उपन्यास भी उन्हें बहुत अच्छा लगा था। अज्ञेय जी का ‘शेखर : एक जीवनी’ और ‘नदी के द्वीप’ उपन्यासों को पढ़कर लेखिका उनकी मनोवैज्ञानिक शैली पर मुग्ध हुई थी। जब लेखिका स्वयं साहित्यकार बनी तो इन सबकी शैलियों का प्रभाव उनकी कथात्मक रचनाओं में किसी-न-किसी रूप में देखा जा सकता है।

प्रश्न 3.
अजमेर में आने से पहले लेखिका का परिवार कहाँ रहता था? उनकी आर्थिक दशा कैसी थी?
उत्तर-
अजमेर में आने से पहले लेखिका का परिवार इंदौर में रहता था। उस समय उनके परिवार की आर्थिक दशा ठीक थी। नगर में उनके परिवार का पूरा सम्मान एवं प्रतिष्ठा थी। लेखिका के पिता समाज-सुधारक थे और कांग्रेस पार्टी के साथ भी जुड़े हुए थे। धन-धान्य से संपन्न होने के कारण इनके पिता जी अत्यंत उदार स्वभाव के व्यक्ति थे। गरीब बच्चों की सहायता करने में वे सबसे आगे रहते थे।

प्रश्न 4.
किस कारण लेखिका के पिता उसे अपने साथ रखने के इच्छुक थे?
उत्तर-
लेखिका की बड़ी बहिन सुशीला का विवाह हो गया था और उसके दोनों बड़े भाई पढ़ने के लिए बाहर चले गए थे। उसके अकेले रह जाने के कारण पिता जी का ध्यान उन पर गया। वे उन्हें घर के कामों में लगाने की अपेक्षा देश व समाज के कार्यों में लगाना चाहते थे। वे औरतों की प्रतिभा को रसोईघर में नष्ट करने के पक्ष में नहीं थे। इसलिए उनके पिता घर में होने वाली राजनैतिक बैठकों व सभाओं में लेखिका को अपने साथ रखते थे ताकि वह देश व समाज की वस्तुस्थिति से अवगत हो सके। यद्यपि उस समय लेखिका बहुत छोटी थी फिर भी उसे देश पर कुर्बान होने वाले लोगों की कहानियाँ और उनके विचार बहुत अच्छे लगते थे।

प्रश्न 5.
लेखिका बचपन में कौन-कौन से खेल खेलती थी?
उत्तर-
लेखिका बचपन में अपनी बड़ी बहिन सुशीला के साथ मिलकर सतेलिया, लंगड़ी-टाँग, पकड़म-पकड़ाई, काली-टीलो आदि खेल-खेलती थी। उसने अपनी अन्य सहेलियों के साथ गुड्डे-गुड़ियों के विवाह रचाने के खेल भी खेले थे। इसके अतिरिक्त भाइयों के साथ मिलकर पतंग भी उड़ाई थी।

प्रश्न 6.
लेखिका के पिताजी की सबसे बड़ी कमजोरी क्या थी?
उत्तर-
यश-लिप्सा लेखिका के पिता जी की सबसे बड़ी कमजोरी थी। वह चाहते थे कि सब लोग उनकी प्रशंसा करें। वह विशिष्ट बनकर जीना चाहते थे। उनका मत था कि मनुष्य को ऐसे काम करने चाहिए कि समाज में उसका नाम हो। उसकी प्रतिष्ठा बढ़े। उसकी एक विशेष पहचान बन जाए।

प्रश्नन 7.
लेखिका के दूसरे बहिन-भाई अपनी माँ के प्रति कैसा व्यवहार करते थे?
उत्तर-
लेखिका और उसके दूसरे बहिन-भाई माँ को अत्यंत सरल एवं भोली मानते थे। वे उसके प्रति सहानुभूति रखते थे, किंतु उससे अपनी उचित-अनुचित हर प्रकार की माँग पूरी करवा लेते थे। वह भी सबकी इच्छाएँ यथाशक्ति पूरी कर देती थी। इसलिए सबका माँ के प्रति गहरा लगाव था। जब माँ पिता के क्रोध का शिकार बनती थी तो सबकी सहानुभूति माँ के प्रति ही रहती थी।

प्रश्न 8.
‘पड़ोस-कल्चर’ समाप्त होने के कारण मनुष्य को क्या-क्या हानियाँ उठानी पड़ रही हैं?
उत्तर-
लेखिका का मत है कि ‘पड़ोस-कल्चर’ से समाज व व्यक्ति दोनों को बहुत लाभ होते हैं। इससे हमें अधिक सुरक्षा, अपनेपन का भाव अथवा आत्मीयता का भाव मिलता है। ‘पड़ोस-कल्चर’ के कारण ही हम पूरे पड़ोस व मोहल्ले को अपना घर समझते हैं तथा बिना हिचक के एक-दूसरे के घर आते-जाते हैं। किंतु आज के भौतिकवादी व प्रतियोगिता के युग में फ्लैट-कल्चर के विकास के कारण ‘पड़ोस-कल्चर’ समाप्त हो गया। इससे हम अकेलेपन, असुरक्षा, असहायता की भावना से ग्रस्त हो गए हैं। ‘पड़ोस-कल्चर’ के अभाव का बच्चों के मन पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है।

प्रश्न 9.
परंपराओं को लेकर लेखिका ने क्या कहा है?
उत्तर-
परंपराओं के विषय में लेखिका ने कहा है कि हमारी परंपराएँ हमारा आसन्न भूतकाल बनकर हमारा पीछा नहीं छोड़तीं। वे हमारे जीवन के साथ-साथ चली आती हैं। उनकी अभिव्यक्ति भी भिन्न रूपों में होती है। समय के बदलने पर परंपरा के प्रति विद्रोह की भावना भी व्यक्त होती है। परंपराएँ समय के अनुकूल घटती व जुड़ती रहती हैं। लेखिका अच्छी परंपराओं का पालन करने के पक्ष में और जीवन के विकास में बाधा बनने वाली परंपरा को छोड़ देने में ही लाभ देखती हैं।

प्रश्न 10.
लेखिका के जीवन में बनी हीन भावना की ग्रंथि का क्या कुप्रभाव पड़ा?
उत्तर-
लेखिका के जीवन में बहिन की अपेक्षा कम सुंदर एवं कमज़ोर होने के कारण हीन-भावना की ग्रंथि ने घर कर लिया था। वे इस भावना से कभी मुक्त नहीं हो सकी। उनका व्यक्तित्व इस भावना से दबकर रह गया था। वह स्वयं को हीन-समझती थी। इसका सबसे बड़ा कुप्रभाव यह पड़ा कि यदि उसने जीवन में कोई उपलब्धि प्राप्त भी की तो वह इसे तुक्का या बाइचांस ही समझती थी। उसे अपनी योग्यता का परिणाम नहीं मानती थी।

प्रश्न 11.
लेखिका के व्यक्तित्व का विकास कब और कैसे हुआ?
उत्तर-
लेखिका की बहिन सुशीला विवाहोपरांत ससुराल चली गई और भाई पढ़ने हेतु बाहर चले गए। तब इनके पिता ने इनकी ओर विशेष ध्यान दिया। इनके व्यक्तित्व के विकास का यही सही अवसर था। इनके पिता इन्हें घर में होने वाली बैठकों में अपने साथ रखते। इससे उन्हें देश और समाज की दशा को समझने का अवसर मिला। इसके कारण ही इनके मन में देश व समाज के प्रति जागरूकता का विकास हुआ। आगे चलकर इनका संपर्क हिंदी की प्राध्यापिका शीला अग्रवाल से हुआ। उन्होंने इन्हें विभिन्न साहित्यकारों की रचनाएँ पढ़ने को दी। इससे उनके मन में साहित्य को समझने व लिखने का उत्साह हुआ। शीला अग्रवाल की जोशीली बातों ने इनके जीवन को क्रांतिकारी बना दिया। अतः स्पष्ट है कि पिता के संपर्क और सहयोग तथा शीला अग्रवाल की संगति और जोशीली बातों से लेखिका के व्यक्तित्व का विकास हुआ।

प्रश्न 12.
डॉ. अंबालाल ने लेखिका की किस रूप में सहायता की थी?
उत्तर-
डॉ. अंबालाल लेखिका के पिता के गहरे मित्र थे। उन्होंने नगर के चौराहे पर लेखिका का भाषण सुना। उससे वे अत्यधिक प्रभावित हुए। उन्होंने लेखिका को ऐसे भाषण के लिए न केवल शाबाशी ही दी अपितु उनके पिता के सामने उसकी खूब जमकर प्रशंसा भी की। बेटी की तारीफ सुनकर पिता का हृदय गर्व से फूला नहीं समाया था। इससे लेखिका पिता की डाँट खाने से बची और पिता ने उन्हें ऐसे कार्यों में भाग लेने के लिए कभी मना नहीं किया।

प्रश्न 13.
कॉलेज की प्रिंसिपल मन्नू से क्यों दुःखी थी?
उत्तर-
उस समय देश में स्वाधीनता आंदोलन पूरे जोरों पर चल रहे थे। संपूर्ण देश जोश और उत्साह से भरा हुआ था। मन्नू भी इन आंदोलनों में पूरे जोश और उत्साहपूर्वक भाग लेती थी। वह प्रभात-फेरियाँ निकालती। जुलूसों व हड़तालों में भी भाग लेती। उसके भाषण बड़े जोशीले होते थे। उसकी एक आवाज़ पर कॉलेज की छात्राएँ कॉलेज से बाहर आकर एकत्रित हो जाती थीं। वह स्वाधीनता के प्रश्न को लेकर कई बार कॉलेज में हड़ताल भी करवा चुकी थी। प्रिंसिपल के लिए कॉलेज चलाना कठिन हो गया था। मन्नू की इन हरकतों के कारण प्रिंसिपल महोदया परेशान थीं। उन्होंने मन्नू के पिता को कॉलेज बुलाया था ताकि उसके विरुद्ध अनुशासनहीनता फैलाने के लिए कार्रवाई की जा सके।

प्रश्न 14.
शीला अग्रवाल और लेखिका के विरुद्ध कॉलेज प्रशासन ने क्या कार्रवाई की और उसका परिणाम क्या निकला?
उत्तर-
शीला अग्रवाल और लेखिका को कॉलेज में अनुशासन-हीनता फैलाने के अपराध हेतु और लड़कियों को भड़काने के अपराध में कॉलेज से निकालने का नोटिस दे दिया था। यह प्रिंसिपल की आंदोलन को दबाने की चाल थी। किंतु लेखिका व अन्य छात्र नेत्रियों ने कॉलेज से बाहर ऐसा आंदोलन चलाया कि कॉलेज में थर्ड इयर की कक्षा चलानी पड़ी और शीला अग्रवाल तथा लेखिका को भी कॉलेज में ले लिया गया।

विचार/संदेश संबंधी प्रश्नोत्तर-

प्रश्न 15.
‘एक कहानी यह भी’ नामक पाठ का मुख्य संदेश क्या है?
उत्तर-
“एक कहानी यह भी’ नामक आत्मकथ्य में लेखिका ने बताया है कि स्वतंत्रता प्राप्त करने का अधिकार केवल पुरुषों का नहीं, अपितु स्त्रियों का भी है और स्त्रियों को अपने इस अधिकार का उपयोग करना चाहिए। इस पाठ को पढ़कर लड़कियों को देश के विकास के कार्य करने की प्रेरणा मिलती है।
इस पाठ से हमें यह संदेश मिलता है कि हमें अपनी यथाशक्ति देश के कार्यों में भाग लेकर देश को उन्नति की डगर पर ले जाना चाहिए। हमें अपने पूर्वजों का आदर करना चाहिए, यदि वे हमारे कार्यों में किसी प्रकार की बाधा बनते हैं तो हमें सीधी टक्कर लेने की अपेक्षा उन्हें समझा-बुझाकर अपना काम करते रहना चाहिए। इस पाठ का यह भी संदेश है कि हमें अच्छी परंपराओं का पालन करना चाहिए और अतीत की भूलों को ध्यान में रखकर वर्तमान व भविष्य को उज्ज्वल बनाना चाहिए।

प्रश्न 16.
लेखिका की माँ कैसी महिला थी? वह लेखिका का आदर्श क्यों नहीं बन सकी?
उत्तर-
लेखिका की माँ एक शांत स्वभाव वाली नारी थी। वह अनपढ़ और घरेलू नारी थी। वह धैर्यशील और सहनशील भी थी। उसका सारा जीवन और सोच अपने पति व बच्चों के इर्द-गिर्द घूमता था। वह हर समय बच्चों और पति की सेवा के लिए तत्पर रहती थी और बिना बात के पति के क्रोध का भाजन बनती थी। उसने कभी किसी के प्रति कोई शिकायत या मन-मुटाव नहीं किया। उनका जीवन घर-रसोई तक सीमित था। उन्होंने आजीवन किसी से कुछ नहीं माँगा और पति के क्रोध के आगे थर-थर काँपती रहती थी। उसने सदा दूसरों को दिया ही है, माँगा कुछ नहीं। इतने उच्च विचार होने पर भी वह लेखिका का आदर्श इसलिए नहीं बन सकी क्योंकि लेखिका का स्वभाव क्रांतिकारी था। वह आंदोलन करके सब कुछ प्राप्त करना चाहती थी। संघर्ष में उसका विश्वास था।

प्रश्न 17.
गरीबी का जीवन पर कुप्रभाव पड़ता है। कैसे?
उत्तर-
गरीबी का मानव-जीवन पर बुरा प्रभाव पड़ता है। गरीबी से मनुष्य के जीवन की खुशियाँ छिन जाती हैं। वह निराशा में डूब जाता है। उसे सदा अपने परिवार के पालन-पोषण की चिंता सताती रहती है। उसकी उदारता, सदाशयता आदि भावनाएँ भी नष्ट हो जाती हैं। वह कंजूस एवं शक्की भी बन जाता है। वह क्षुब्ध एवं कुंठित हो जाता है। उसमें काम करने का साहस भी धीमा पड़ जाता है। कभी-कभी उसका जीवन क्रोध और भय जैसे नकारात्मक भावों से भर जाता है। पठित पाठ में लेखिका के पिता को अमीरी से गरीबी के दिन देखने पड़े थे। वह अपनों के द्वारा धोखा दिए जाने पर गरीब हो गया। उसके जीवन में गरीबी ने नकारात्मक भाव भर दिए थे।

Hindi एक कहानी यह भी Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
लेखिका के व्यक्तित्व पर किन-किन व्यक्तियों का किस रूप में प्रभाव पड़ा?
उत्तर-लेखिका की इस रचना को पढ़कर पता चलता है कि उनके व्यक्तित्व पर उनके पिता जी और प्राध्यापिका शीला अग्रवाल का प्रभाव पड़ा था। लेखिका के व्यक्तित्व में अच्छी-बुरी आदतें उनके पिता जी के जीवन से आई हैं। उन्होंने लेखिका की तुलना उनकी बड़ी बहिन के साथ करके हीन भावना पैदा की जिसकी शिकार वह आज तक है। उन्होंने उन्हें शक्की व विद्रोही बनाया। लेखिका को देश-प्रेमी और समाज के प्रति जागरूक बनाने में भी उनके पिता का सहयोग रहा है। उन्होंने उसे रसोई के कार्यों से दूर रखकर एक प्रबुद्ध एवं निडर व्यक्ति बनाया। अतः लेखिका के व्यक्तित्व पर उनके पिता का प्रभाव स्पष्ट रूप में देखा जा सकता है।

लेखिका अपनी प्राध्यापिका शीला अग्रवाल के जीवन से भी अत्यधिक प्रभावित रही है। लेखिका को अध्ययनशील, क्रांतिकारी व आंदोलनकारी बनाने में शीला अग्रवाल का भी योगदान रहा है। शीला अग्रवाल ने लेखिका को महान साहित्यकारों की रचनाएँ पढ़ने के लिए उपलब्ध करवाईं, जिससे उसके मन में साहित्य के प्रति आकर्षण उत्पन्न हुआ। आगे चलकर वे स्वयं एक महान् लेखिका बनीं। उन्होंने अपनी जोशीली बातों से लेखिका के व्यक्तित्व में जोश और क्रांति के शोले भड़का दिए।

प्रश्न 2.
इस आत्मकथ्य में लेखिका के पिता ने रसोई को ‘भटियारखाना’ कहकर क्यों संबोधित किया है?
उत्तर-
भटियारखाना’ का शाब्दिक अर्थ है वह स्थान जहाँ सदा भट्टी जलती रहती है अथवा जहाँ चूल्हा जलता रहता है। दूसरा अर्थ है भटियारे का घर, जहाँ पर लोग भट्टी पर आकर जमा हो जाते हैं और खूब शोरगुल मचाते हैं। पाठ के संदर्भ में पहला अर्थ अधिक उचित प्रतीत होता है। रसोई घर में हर समय कुछ-न-कुछ पकाया जाता है। लेखिका के पिता स्वयं एक विद्वान, लेखक, समाज-सुधारक और देश-भक्त थे। वे अपने बच्चों को घर-गृहस्थी तक सीमित नहीं रखना चाहते थे, विशेषकर लड़कियों को। वे उन्हें उदार हृदय, विचारवान, जागरूक नागरिक व देश-भक्त बनाना चाहते थे। इसलिए वह रसोईघर के कामों को उपेक्षा व हीनभाव से देखते थे और इसी संदर्भ में उन्होंने रसोई को भटियारखाने की संज्ञा दी है।

प्रश्न 3.
वह कौन-सी घटना थी जिसके बारे में सुनने पर लेखिका को न अपनी आँखों पर विश्वास हो पाया और न अपने कानों पर?
उत्तर-
लेखिका के कॉलेज के प्रिंसिपल ने उनके पिता के नाम पत्र लिखा था कि उन्हें उसके (लेखिका के) विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्रवाई करनी होगी। इस संबंध में उनके पिता जी को कॉलेज बुलाया गया था। पिता जी पत्र देखकर आग-बबूला हो उठे। उन्हें लगा कि पाँच बच्चों में से लेखिका उनका नाम मिट्टी में मिला देगी। उसी भावना से वे कॉलेज पहुँचे। पिता जी के जाने के बाद लगा कि पाँच बच्चों में से लेखिका उनका नाम मिट्टी में मिला देगी। उसी भावना से वे कॉलेज पहुँचे। पिता जी के जाने के बाद लेखिका पड़ोस में जाकर बैठ गई ताकि पिता जी के लौटने पर उनके क्रोध से बचा जा सके। किंतु जब वे कॉलेज से घर लौटे तो बहुत प्रसन्न थे। उनका चेहरा गर्व से चमक रहा था। वे घर आकर बोले कि उसका (लेखिका का) कॉलेज की लड़कियों पर पूरा रोब है। पूरा कॉलेज उसके इशारे पर खाली हो गया था। पिता जी को उस पर गर्व था कि वह समय के अनुसार देश के साथ कदम मिलाकर चल रही है। इसलिए उसे रोकना असंभव है। यह सुनकर लेखिका को न अपने कानों पर विश्वास हुआ न आँखों पर, किंतु यह सच्चाई थी।

प्रश्न 4.
लेखिका की अपने पिता से वैचारिक टकराहट को अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर-
लेखिका के पिता के व्यक्तित्व और विचारधारा में विरोधाभास स्पष्ट रूप में देखा जा सकता था। एक ओर वे आधुनिकता के समर्थक थे। वे औरतों को रसोई तक या घर की चारदीवारी तक सीमित नहीं देखना चाहते थे। उनके अनुसार औरतों को अपनी प्रतिभा और क्षमता का प्रयोग घर के बाहर के कार्यों में भी करना चाहिए। इससे उन्हें यश व सम्मान मिलेगा। किंतु साथ ही वे यह भी सहन नहीं करते थे कि लड़कियाँ लड़कों के साथ मिलकर स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लें। वे नारी की स्वतंत्रता को घर की चारदीवारी से दूर नहीं देखना चाहते थे। किंतु लेखिका के लिए पिता जी की सीमाओं में बँधना बहुत कठिन था। इसलिए लेखिका की अपने पिता जी से वैचारिक टकराहट रहती थी।

प्रश्न 5.
इस आत्मकथ्य के आधार पर स्वाधीनता आंदोलन के परिदृश्य का चित्रण करते हुए उसमें मन्नू जी की भूमिका को रेखांकित कीजिए।
उत्तर-
लेखिका के विद्यार्थी जीवन का समय देश की स्वतंत्रता प्राप्ति के आंदोलनों की प्रगति का समय था। सन् 1946-47 के दिन थे। उस समय किसी के लिए भी घर में चुप बैठना असंभव था। चारों ओर प्रभात – फेरियाँ, हड़तालें, जुलूस, भाषणबाजी हो रही थी। हर युवा, बच्चा और बूढ़ा अपनी क्षमता के अनुसार स्वाधीनता प्राप्ति के आंदोलनों में भाग ले रहा था। लेखिका देश की राजनीति और समाज के प्रति जागरूक थी। कॉलेज की हिंदी प्राध्यापिका शीला अग्रवाल के जोश भरे विचारों से लेखिका के मन में जोश के साथ कार्य करने का उन्माद भर गया था। लेखिका ने राष्ट्रीय स्तर पर होने वाले आंदोलनों व हड़तालों में बढ़-चढ़कर भाग लिया। प्रभात फेरियाँ निकालीं, कॉलेज में हड़ताल करवाई, छात्र/छात्राओं को इकट्ठा करके जुलूस के रूप में सड़कों पर निकलना, भाषणों से भीड़ में जोश भर देना आदि कार्य किए। उस समय उनकी रगों में आज़ादी प्राप्ति का जोश रूपी लावा बह रहा था। इस जोश ने उसके अंदर के डर को समाप्त कर दिया था। अतः स्पष्ट है कि लेखिका ने यथाशक्ति एवं योग्यता के अनुसार स्वाधीनता आंदोलन में अपना योगदान दिया था।

रचना और अभिव्यक्ति

प्रश्न 6.
लेखिका ने बचपन में अपने भाइयों के साथ गिल्ली डंडा तथा पतंग उड़ाने जैसे खेल भी खेले, किंतु लड़की होने के कारण उनका दायरा घर की चारदीवारी तक सीमित था। क्या आज भी लड़कियों के लिए स्थितियाँ ऐसी ही हैं या बदल गई हैं, अपने परिवेश के आधार पर लिखिए।
उत्तर-
लेखिका ने भले ही अपने भाइयों के साथ लड़कों जैसे खेल-खेले हों। किंतु लड़की होने के कारण उसकी सीमाएँ घर की चारदीवारी तक ही थीं। वह लड़कों की भाँति घर के बाहर खेलने नहीं जा सकती थी। किंतु समय के अनुसार लड़कियों की स्थिति भी बदली है। लड़कियों को जीवन में विकास करने के समान अवसर प्रदान किए जाने लगे हैं। लड़कियाँ हर क्षेत्र में लड़कों के समान आगे बढ़ रही हैं। अब उनके कार्य की सीमाएँ घर की चारदीवारी तक ही सीमित नहीं रहीं। अब वे आत्म-निर्भर बन गई हैं और अपनी रक्षा और दूसरों की सहायता करने में भी सक्षम हैं। लड़कियों को जीवन में विकास करने हेतु माता-पिता से भी भरपूर सहयोग दिया जा रहा है। आज के युग में लड़कियाँ हर क्षेत्र में लड़कों से आगे निकल रही हैं। वे समाज व राष्ट्र के प्रति भी जागरूक हैं। अब लड़के व लड़कियों के कार्य क्षेत्र व कार्य क्षेत्र की सीमाओं में भेद नहीं रह गया है।

प्रश्न 7.
मनुष्य के जीवन में आस-पड़ोस का बहुत महत्त्व होता है। परंतु महानगरों में रहने वाले लोग प्रायः ‘पड़ोस-कल्चर’ से वंचित रह जाते हैं। इस बारे में अपने विचार लिखिए। .
उत्तर-
निश्चय ही मनुष्य के जीवन में आस-पड़ोस का अत्यधिक महत्त्व होता है। आस-पड़ोस का मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास में सहयोग रहता है। आस-पड़ोस से बच्चों में निर्भयता, आत्मीयता और अपनेपन के भाव का विकास होता है। किंतु बड़े शहरों में रहने वाले लोग प्रायः ‘पड़ोस-कल्चर’ के इस सुख से वंचित रह जाते हैं। वहाँ यह कल्वर उत्पन्न नहीं हो सकता क्योंकि वहाँ सब लोग अपने तक सीमित रहते हैं। यही कारण है कि वहाँ लोग पड़ोस-कल्चर से अनभिज्ञ रहते हैं। आस-पड़ोस के सहयोग से बच्चों का पालन-पोषण भी समुचित रूप से होता है। बच्चे का समाज से परिचय आस-पड़ोस के माध्यम से ही होता है।

आस-पड़ोस के लोगों से मिलजुल कर रहने की भावना का विकास होता है। आगे चलकर ऐसे बच्चों का समाज में भी समायोजन अच्छी प्रकार हो सकता है। आस-पड़ोस के लोग आपस में सुख – दुःख बाँटते हैं। अच्छे-बुरे की पहचान भी बच्चे आस-पड़ोस से ही करते हैं। आस-पड़ोस के कारण ही व्यक्ति दुःख के समय अपने आपको अकेला अनुभव नहीं करता। किंतु बड़े शहरों में व्यक्ति घर में तो अकेला होता ही है किंतु आस-पड़ोस में भी परिचय न होने के कारण वह बाहर भी अकेला ही अनुभव करता है। सभी लोग अपने जीवन को अपने ढंग से जीना पसंद करते हैं। इसलिए वहाँ के लोग एकाकीपन के कारण असुरक्षा, असहाय और मानसिक तनाव के शिकार हो जाते हैं इसलिए मानव जीवन में आस-पड़ोस का होना अति अनिवार्य है। परंतु महानगरों में रहने वाले लोग प्रायः इस सुख से वंचित रह जाते हैं।

प्रश्न 8.
लेखिका द्वारा पढ़े गए उपन्यासों की सूची बनाइए और उन उपन्यासों को अपने पुस्तकालय में खोजिए।
उत्तर-
लेखिका ने ‘सुनीता’, ‘शेखरः एक जीवनी’, ‘नदी के द्वीप’, ‘त्यागपत्र’ एवं ‘चित्रलेखा’ उपन्यासों के अतिरिक्त शरत्, प्रेमचंद, जैनेंद्र, अज्ञेय, यशपाल, भगवतीचरण वर्मा के अनेक उपन्यास पढ़े थे। विद्यार्थी इन उपन्यासों को अपने पुस्तकालय में देखें।

प्रश्न 9.
आप भी अपने दैनिक अनुभवों को डायरी में लिखिए।
उत्तर-
यह प्रश्न परीक्षोपयोगी नहीं है। छात्र स्वयं करें।

भाषा-अध्ययन-

प्रश्न 10.
इस आत्मकथ्य में मुहावरों का प्रयोग करके लेखिका ने रचना को रोचक बनाया है। रेखांकित मुहावरों को ध्यान में रखकर कुछ और वाक्य बनाएँ
उत्तर-
(क) इस बीच पिता जी के एक निहायत दकियानूसी मित्र ने घर आकर अच्छी तरह पिता जी की लू उतारी।
(ख) वे तो आग लगाकर चले गए और पिता जी सारे दिन भभकते रहे।
(ग) बस अब यही रह गया है कि लोग घर आकर थू-थू करके चले जाएँ।
(घ) पत्र पढ़ते ही पिता जी आग-बबूला।
उत्तर-
लू उतारी-अवसर मिलते ही मैंने अपने घमंडी पड़ोसी की खूब लू उतारी। आग लगाना मेरे स्वार्थी मित्रों ने प्राचार्य के कार्यालय में मेरे विरुद्ध खूब आग लगाई और अपना स्वार्थ सिद्ध किया। थू-थू करना-जब एक चोर अंधी बुढ़िया के पैसे छीनता हुआ पकड़ा गया तो लोगों ने उस पर थू-थू की। आग-बबूला होना-विद्यालय के प्रांगण में शोर मचाते हुए लड़कों को देखकर प्रिंसिपल साहब आग-बबूला हो उठे।

पाठेतर सक्रियता

इस आत्मकथ्य से हमें यह जानकारी मिलती है कि कैसे लेखिका का परिचय साहित्य की अच्छी पुस्तकों से हुआ। आप इस जानकारी का लाभ उठाते हुए अच्छी साहित्यिक पुस्तकें पढ़ने का सिलसिला शुरू कर सकते हैं। कौन जानता है कि आप में से ही कोई अच्छा पाठक बनने के साथ-साथ अच्छा रचनाकार भी बन जाए।
उत्तर-
छात्र स्वयं करें।

लेखिका के बचपन के खेलों में लँगड़ी टाँग, पकड़म-पकड़ाई और काली-टीलो आदि शामिल थे। क्या आप भी यह खेल खेलते हैं। आपके परिवेश में इन खेलों के लिए कौन-से शब्द प्रचलन में हैं। इनके अतिरिक्त आप जो खेल खेलते हैं, उन पर चर्चा कीजिए।
उत्तर-
छात्र स्वयं करें।

स्वतंत्रता आंदोलन में महिलाओं की भी सक्रिय भागीदारी रही है। उनके बारे में जानकारी प्राप्त कीजिए और उनमें से किसी एक पर प्रोजेक्ट तैयार कीजिए।

उत्तर-

छात्र स्वयं करें।

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