उपग्रह रोहिणी-डी-२ अथवा अन्तरिक्ष के क्षेत्र में भारत की दूसरी उपलब्धियाँ

उपग्रह रोहिणी-डी-२ अथवा अन्तरिक्ष के क्षेत्र में भारत की दूसरी उपलब्धियाँ

          विश्व के प्रथम अन्तरिक्ष यात्री रूसी नागरिक यूरी गगारिन ने नवम्बर, १९६३ में अपनी दिल्ली यात्रा के अवसर पर यह भविष्यवाणी की थी कि “मुझे इस बात में जरा भी सन्देह नहीं है कि एक दिन वह आयेगा, जबकि अन्तरिक्ष यात्रियों के परिवार में भारतीय गणतन्त्र का एक यात्री भी शामिल होगा।” यूरी गगारिन की यह भविष्यवाणी २१ वर्ष बाद सन् १९८४ में सत्य प्रकाशित हुई और ३ अप्रैल, १९८४ ई० को रूसी अन्तरिक्ष यान सोयुज टी-११ में बैठकर स्क्वाड्रन लीडर श्री राकेश शर्मा भारत के प्रथम अन्तरिक्ष यात्री बन गये। यह भारत की अन्तरिक्ष के क्षेत्र में सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं गौरवपूर्ण उपलब्धि है।
          अन्तरिक्ष के क्षेत्र में भारतीय अनुसन्धान कार्य प्रारम्भ करने का श्रेय स्वर्गीय पं० जवाहरलाल नेहरू को दिया जा सकता है। उनका कहना था कि “प्राचीन भारतीय ज्ञान को आधुनिक विज्ञान और तकनीक के साथ समावेशित किया जाना चाहिये ।” सन् १९६२ में पं० नेहरू ने अन्तरिक्ष अनुसन्धान परिषद की स्थापना की, परन्तु भारत पर चीन का आक्रमण हो जाने से इस परिषद की गतिविधियाँ अवरुद्ध हो गईं । सन् १९६७ में परमाणु ऊर्जा विभाग के अन्तर्गत अन्तरिक्ष अनुसन्धान परिषद का पुनर्गठन किया गया। सन् १९७२ में अन्तरिक्ष आयोग और अन्तरिक्ष विभाग अलग-अलग स्थापित किये गये और श्री हरिकोटा द्वीप में एक राकेट प्रक्षेपण केन्द्र स्थापित किया गया । वर्तमान में ‘अन्तरिक्ष अनुसन्धान कार्यक्रम के अन्तर्गत निम्न संस्थापन कार्यरत हैं— विक्रम सारा भाई केन्द्र (बी० एस० एस० सी०, थुम्बा, केरल), इण्डियन साईंटीफिक सेटेलाइट प्रोजेक्स (आई० एस० एस० पी० पीन्या, बंगलौर), इण्डियन एप्लीकेशन सेन्टर (अहमदाबाद, गुजरात), फिजीकल रिसर्च लेबोरेटरी (अहमदाबाद, गुजरात), एक्सपेरीमेन्ट कम्यूनिकेशन अर्थ स्टेशन (आर्वी तथा देहरादून ) । भारतीय अन्तरिक्ष विज्ञान तथा अन्तरिक्ष आयोग का मुख्यालय बंगलौर में स्थित है ।
          भारत का वर्तमान अन्तरिक्ष अभियान सन् १९६३ में श्री विक्रम सारा भाई के नेतृत्व में प्रारम्भ हुआ। भारतीय वैज्ञानिकों और इन्जीनियरों के अथक परिश्रम व विलक्षण कार्य-कुशलता के कारण भारत निरन्तर अन्तरिक्ष के क्षेत्र में महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ प्राप्त कर रहा है। भारत ने अब तक आर्य भट्ट (१८ अप्रैल, १९७५), भास्कर प्रथम (७ जून, १९७९), रोहिणी आर० एस० – ११ (१९ जुलाई, १९८०), एप्पल (जून १९८१), भास्कर द्वितीय (२० नवम्बर, १९८१), इन्सेट प्रथम-ए (१० अप्रैल, १९८२), इन्सेट प्रथम-बी (३० अगस्त, १९८३), भारत- सोवियत संयुक्त अन्तरिक्ष उड़ान (३ अप्रैल, १९८४), रोहिणी डी-२ (१७ अप्रैल, १९८३) नामक उपग्रह अन्तरिक्ष में भेजकर अन्तर्राष्ट्रीय सम्मान और गौरव प्राप्त किया ।
          भारत के मूर्धन्य वैज्ञानिकों और दक्ष इंजीनियरों ने १७ अप्रैल, १९८३ ई० को श्री हरिकोटा अन्तरिक्ष अभियान केन्द्र से रोहिणी-डी-२ नामक उपग्रह अन्तरिक्ष में प्रेषक किया और इसे वे पृथ्वी की कक्षा में निश्चित स्थान पर स्थापित करने में पूर्णतया सफल हुये । रोहिणी डी-२ ग्रह भारतीय वैज्ञानिकों ने स्वयं तैयार किया था और ४१.५ किलो वजन के इस उपग्रह को उन्होंने चार खण्डीय एस० एल० बी० ३ राकेट से अन्तरिक्ष में छोड़ा था ।
          इस उपग्रह में भारतीय वैज्ञानिकों ने एक विशिष्ट तकनीक का प्रयोग किया है, जिससे यह उपग्रह एक लम्बे समय तक पृथ्वी की कक्षा में सुचारू रूप से कार्य करता रहेगा। इस उपग्रह की ताप नियन्त्रण प्रणाली विशिष्ट प्रकार की है, जिसकी सहायता से इसके सभी यन्त्र शून्य तापमान के नीचे ४०° सेन्टीग्रेड तक भली प्रकार कार्य करने में समर्थ हैं। इस उपग्रह में चालक शक्ति के हेतु १६ सौर ऊर्जा पैनल लगाये गये हैं और असामान्य स्थिति का सामना करने के लिये एक कैडमियम बैट्री भी लगाई गई है, उपग्रह के ऊपरी भाग में सौर ऊर्जा पैनल और एरियल लगे हुये हैं। मध्य भाग में दूर संवेदन व नियन्त्रण सम्बन्धी यन्त्र तथा निचले भाग में इसे मुख्य राकेट से जोड़ने व उससे पृथक् करने के यन्त्र लगे हुये हैं। इस उपग्रह में दो प्रकार की संचार प्रणाली स्थापित की गई है। संचार प्रणाली का एक पैनल उपग्रह की आन्तरिक दशा की सूचना प्रेषित करेगा और दूसरा पैनल पृथ्वी पर फोटो व प्रतिबिम्ब भेजा करेगा ।
          रोहिणी-डी-२ का निर्माण लगभग आठ सौ वैज्ञानिकों व तकनीशियनों ने सात वर्ष की अवधि में किया है। इस पर लगभग २२ करोड़ रुपया व्यय हुआ है। इसकी कार्यवधि एक वर्ष है और यह उपग्रह ९७ मिनट में पृथ्वी की कक्षा का एक चक्कर पूरा करता है। रोहिणी डी-२ के प्रेषण से भारत को तीन प्रमुख लाभ होंगे— अन्तरिक्ष के गूढ़ रहस्यों की जानकारी, भूमि के प्रतिबिम्बों की जाँच व संचार के क्षेत्र में विस्तारवादी योजनाओं का क्रियान्वयन ।
          रोहिणी डी-२ की सफलता से प्रेरित होकर भयभीत वैज्ञानिकों ने अन्तरिक्ष अभियान का एक विस्तृत कार्यक्रम तैयार कर उसका निम्नांकित क्रियान्वयन किया—
          अन्तरिक्ष कार्यक्रम की ११वीं शृंखला में भारत ने ए० एस० एल० वी० डी० (दो) उपग्रह प्रक्षेपक यान १३ जौलाई, ८८ में २.४८ बजे रोहिणी उपग्रह के साथ श्री हरिकोटा से छोड़ा गया था लेकिन २५ किलोमीटर दूर जाकर इसमें अचानक खराबी आ गई । १५० किलोग्राम के स्रास-२ उपग्रह को लेकर इस यान ने श्री हरिकोटा केन्द्र से अपनी उड़ान सही ढंग से शुरू की थी लेकिन १५० सेकिण्ड के बाद सारा ढाँचा चरमरा कर समुद्र की गोद (बंगाल की खाड़ी) में समा गया । २४ मार्च, १९८७ को भी इसी प्रकार का ए० एस० एल० बी० डी० (एक) की उड़ान असफल सिद्ध हो गई थी। पिछले वर्ष की असफलता के बाद वैज्ञानिकों के अथक प्रयासों से परिष्कृत यह दूसरा प्रयास था ।
          इस हादसे के बाद बुरी तरह हतोत्साहित भारतीय अन्तरिक्ष संगठन के अध्यक्ष यू० आर० राव ने संवाददाताओं को इस असफलता की जानकारी देते हुये बताया कि पाँच चरणों वाले इस राकेट के पहले चरण की मोटर में ही कोई खराबी आ गई थी ।
          वाहन छोड़े जाने से पहले उलटी गिनती करते समय दो बार रुकावट आई, यह वाहन ढाई बजे छोड़ा जाना था लेकिन इसका प्रक्षेपण २.४८ बजे किया जा सका।
          पृथ्वी से प्रक्षेपण के बाद वैज्ञानिकों में हर्ष की लहर दौड़ गई लेकिन ताड़ के पेड़ों से आच्छादित इस सुरम्य द्वीप में पलक झपकते भर में शोक व्याप्त हो गया। बड़ी संख्या में वैज्ञानिकों और तकनीशियनों ने पिछले अनेक सप्ताहों तक अहर्निश काम करते हुये पिछले वर्ष के विफल मिशन की पुनरावृत्ति रोकने के लिये अथक प्रयास किया था । वे सभी इस बार अपनी सफलता के प्रति आशान्वित थे ।
          ४० टन वजन के इस सफेद और हरे रंग के राकेट पर भारतीय वैज्ञानिकों की अनेक आशायें केन्द्रित थीं। यह राकेट पृथ्वी की कक्षा के ४०० किलोमीटर की ऊँचाई पर रोहिणी श्रृंखला का स्रास-दो उपग्रह परिक्रमा के लिये छोड़ने वाला था ।
          उपग्रह में दो भार रखे हुए थे । एक भारत, जर्मन सहयोग से बना इलेक्ट्रो आप्टिक स्टोरियो स्कैनर और दूसरा, गामा किरण प्रयोग उपकरण। दूसरा उपकरण ब्रह्माण्ड में गामा किरणों के स्फुरण का अध्ययन करने वाला था ।
          ए० एस० एल० वी० डी०-२ के डिजाइन तिरुअनंतपुरम् स्थित विक्रम साराभाई अन्तरिक्ष केन्द्र में विकसित किया गया था। इसमें प्रमुख रूप से ५८ उपप्रणालियाँ थीं । इस मिशन में एक हजार से अधिक वैज्ञानिकों और इन्जीनियरों का योगदान था।
          प्रक्षेपण क्षेत्र में रोगों को हटा दिया गया था तथा खतरे के क्षेत्र में पोतों के आवागमन पर रोक लगा दी गई थी।
          गत वर्ष २४ मार्च की अपेक्षा इस वर्ष कम सुरक्षा प्रबन्ध किये गये थे। पिछले वर्ष प्रक्षेपण देखने के लिये प्रधानमन्त्री यहाँ आये थे। प्रो० राव ने कहा कि भारतीय अन्तरिक्ष अनुसन्धान संगठन सभी तथ्यों के विश्लेषण के बाद ही तीसरी ए० एस० एल० वी० उड़ान पर विचार करेगा। मौजूदा जनशक्ति और सुविधाओं को देखते हुये इसमें लगभग एक वर्ष लग सकता है।
          प्रो० राव ने कहा कि आज की विफलता से ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान प्री० एस० एल० वी० कार्यक्रम पर कोई असर नहीं पड़ेगा। यह कार्यक्रम अलग से चल रहा है।
          भारत के अब तक के सबसे शक्तिशाली और वजनी राकेट वर्धित उपग्रह प्रक्षेपण यान ए० एस० एल० वी० का आज असफल प्रक्षेपण भारतीय अन्तरिक्ष के इतिहास में चौथी विफलता है ।
          श्री हरिकोटा से भेजा गया यह भारत का छठा राकेट था । १० अगस्त, १९७९ को रोहिणी उपग्रह के साथ पहला रांकेट एस० एल० वी० -३ छोड़ा गया था जो समुद्र में गिर पड़ा था। एक वर्ष बाद अगस्त, १९८० में छोड़ा गया दूसरा राकेट सफल रहा।
          ३१ मई, १९८१ को रोहिणी उपग्रह के साथ तीसरा राकेट एस० एल० वी – ३ छोड़ा गया था, लेकिन उपग्रह नौ दिन बाद अन्तरिक्ष में जलकर नष्ट हो गया। दो वर्ष बाद १७ अप्रैल, १९८३ को भेजा गया चौथा राकेट सफल रहा ।
          २४ मार्च, १९८७ को त्रास – १ उपग्रह के साथ भेजा गया पाँचवाँ राकेट ए० एस० एल० वी० असफल रहा।
          पन्द्रह महीने की अवधि में दो परीक्षण राकेटों में असफल हो जाने से लगता है कि भारत का २० करोड़ का ए० एस० एल० बी० सम्बन्धित उपग्रह प्रक्षेपण वाहन कार्यक्रम अपशकुन प्रभावित हो गया है ।
          इस कार्यक्रम की लगातार दो असफलताओं ने भारतीय अन्तरिक्ष वैज्ञानिकों को सोच में डाल दिया है और पहली पीढ़ी के एस० एल० वी ३ राकेट की क्षमता में वृद्धि करने की प्रौद्योगिकी को लेकर शंका पैदा हो गयी है । इस प्रौद्योगिकी के जरिये इस राकेट से ५० किलोग्राम भार के बजाय १५० किलोग्राम वजन के उपग्रह को अन्तरिक्ष में स्थापित किया जाना था ।
          ए० एस० एल० वी० की पहली उड़ान पिछले मार्च में हुई थी और उसके पहले चरण की मोटर के काम न कर पाने के कारण वह समुद्र में जा गिरा था। आज छोड़ा गया राकेट १५० सेकिण्ड बाद तीसरे चरण की मोटर के जलने से पूर्व समुद्र में गिरा, जबकि इस राकेट से ४५८ मिनट बाद उपग्रह को पृथ्वी की परिक्रमा में छोड़ा जाना था ।
          एक वर्ष की जाँच के बाद भी वैज्ञानिक ए० एस० एल० वी० की पहली उड़ान की असफलता के निश्चित कारणों का पता नहीं लगा सके थे। दूसरी उड़ान के लिये राकेट में जो भी सुधार किये गये थे सिर्फ सम्भावनाओं पर आधारित थे ।
          १२ जून, १९९० को पूर्वान्ह ११ बजकर २२ मिनट पर एक बार फिर उपग्रह इनसेट- एक (डी) का सफल प्रक्षेपण करके अन्तरिक्ष विज्ञान में आश्चर्यजनक सफलता प्राप्त की । अमेरिका के एक डेल्टा राकेट ने केप केनवरल अपने प्रक्षेपण के करीब एक घण्टे बाद पृथ्वी से २१० किलोमीटर ऊपर एक अस्थायी कक्षा में स्थापित कर दिया। इनसेट- एक (डी) भारतीय राष्ट्रीय उपग्रह कार्यक्रम की पहली शृंखला का चौथा एवं अन्तिम उपग्रह है। इसे पिछले वर्ष (१९८८) राकेट से जोड़ने के दौरान प्रक्षेपण पट्टी पर हुई एक दुर्घटना के पहुँचे नुकसान और फिर उत्तरी केलीफोर्निया में आये के कारण पूर्व निर्धारित समय से एक वर्ष के विलम्ब से अन्तरिक्ष में छोड़ा गया है। यह उपग्रह मध्य जौलाई १९९० में काम करना शुरू कर देगा। यह उपग्रह मौसम सम्बन्धी जानकारियाँ तथा टेलीविजन और रेडियो प्रसारणों के लिए उपयोगी होगा ।
          भारतीय अन्तरिक्ष अनुसन्धान संगठन के वैज्ञानिकों ने इनसेट-एक (डी) की सफलता की खुशी से झूम-झूमकर स्वागत किया। पिछले कुछ वर्षों में दूरस्थ संवेदन उपग्रह आई० आर० एस० को छोड़कर संगठन की कोई परियोजना सफल नहीं हुई । पहिले दो उड़ानें १९७७ और १९८८ में असफल हो गईं। इनसैट एक (सी) उपग्रह के १९८८ में छोड़ने के बाद शार्टसर्किट होने की वजह से दुर्घटनाग्रस्त हो गया था। इस दुर्घटना की वजह से इनसैट एक (डी) को एक वर्ष तक टाल दिया गया था ।
          प्रधानमन्त्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने इनसैट एक-डी के सफल प्रक्षेपण पर देश की जनता और वैज्ञानिकों को बधाई देते हुए इसे देश के वैज्ञानिक और प्रौद्योगिक विकास की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम बताया। अन्तरिक्ष अनुसन्धान की दिशा में निश्चय ही भारत का भविष्य उज्ज्वल है।
          आज विश्व में अन्तरिक्ष विज्ञान अत्यन्त महत्वपूर्ण अनुसन्धान क्षेत्र बन गया है। विश्व की महाशक्तियाँ, जिनमें संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ प्रमुख हैं, अन्तरिक्ष कार्यक्रम के प्रतिपादन से जबरदस्त प्रतिस्पर्धा कर रही है। जासूसी करने और सैनिक भेदों का पता लगाने का काम भी अन्तरिक्ष उपग्रहों की सहायता से किया जा रहा है। इन परिस्थितियों में भारत का अन्तरिक्ष क्षेत्र में अनुसन्धान करना नितान्त आवश्यक और महत्वपूर्ण है। भारत जैसे विकासशील देश को अन्तरिक्ष के अनुसन्धानों से महती सहायता मिल सकती है ।
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