आधुनिक शिक्षा प्रणाली

आधुनिक शिक्षा प्रणाली

          मनुष्य सुख और शान्ति के लिए जन्म से ही प्रयास करता आया है। अपनी उन्नति के लिए सृष्टि के प्रारम्भ से ही वह प्रयत्नशील है। उसे पूर्ण मानसिक शान्ति शिक्षा द्वारा प्राप्त हुई । शिक्षा के अमोध प्रभाव से वह चमत्कृत हो उठा । उसकी सामाजिक तथा नैतिक उन्नति हुई, वह आगे बढ़ने लगा। अब उसे स्पष्ट अनुभव होने लगा कि बिना शिक्षा के मानव जीवन पशु के तुल्य है । वास्तव में बिना शिक्षा के मनुष्य को न अपने कर्त्तव्य का ज्ञान होता है और न उसकी आन्तरिक और बाह्य शक्तियों का विकास ही होता है । अतः मानव वृत्तियों के विकास तथा आत्मिक शान्ति के लिए शिक्षा परमावश्यक है। शिक्षा से मनुष्य की बुद्धि परिष्कृत और परिमार्जित होती है। उसे सत् और असत् का विवेक होता है । भारतीय शिक्षा का एक मात्र उद्देश्य मनुष्य को पूर्ण ज्ञान प्राप्त कराना था, जिससे वह अज्ञानान्धकार से निकल कर ज्ञान के प्रकाश में विचरण करता था।
          प्राचीन काल में यह शिक्षा नगर के कोलाहल और कलरव से दूर सघन वनों में स्थित महर्षियों के गुरुकुलों और आश्रमों में दी जाती थी। छात्र पूरे पच्चीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करता हुआ तथा गुरु के चरणों की सेवा करता हुआ विधिवत् विद्याध्ययन करता था। इन पवित्र आश्रमों में विद्यार्थी की सर्वांगीण उन्नति पर ध्यान दिया जाता था। उसे अपनी बहुमुखी प्रतिभा के विकास का अवसर मिलता था । विज्ञान, चिकित्सा, नीति, युद्ध कला, वेद तथा शास्त्रों का सम्यक् अध्ययन करके विद्यार्थी पूर्णरूप से विद्वान् होकर तथा योग्य नागरिक बनकर अपने घर लौटता. था। उस समय भारतवर्ष समस्त विश्व को ज्ञान वितरण करता था, विश्व का यह सबसे बड़ा शिक्षा-केन्द्र था। राष्ट्रभाषा देववाणी संस्कृत थी । देश देशान्तरों से बहुत से विद्यार्थी यहाँ शिक्षा ग्रहण करने आते थे। तक्षशिला और नालन्दा विश्वविद्यालय उस समय देश के शिक्षा केन्द्रों में प्रमुख थे। शनैः शनैः भारत मुसलमानों से पदाक्रान्त हो गया। देश की प्राचीन शिक्षा-व्यवस्था प्रायः लुप्त सी होती गई। देश की राष्ट्र भाषा का स्थान उर्दू तथा फारसी ने ग्रहण कर लिया । प्रत्येक देश के भावी नागरिक विद्यार्थी ही होते हैं। देश की आशा देश के नवयुवकों पर होती है। नवयुवक की जैसी शिक्षा व्यवस्था होगी, देश का भविष्य भी वैसा ही होगा।
          प्रत्येक देश का उत्थान उसकी शिक्षा और विद्यार्थियों पर आधारित होता है। देश की उन्नति अवनति उसकी शिक्षा-प्रणाली पर निर्भर करती है। यदि किसी देश को युगों के लिए दास बनाना हो, तो उस देश का प्राचीन साहित्य और इतिहास नष्ट कर दीजिये और उसकी शिक्षा प्रणाली को अपने अनुकूल कर दीजिये। अंग्रेजों ने भी अपने शासन को चिरस्थायी बनाने के लिए वही किया। उन्होंने भारतवर्ष की प्राचीन शिक्षा-व्यवस्था को बिल्कुल समाप्त करके अपनी रीति से शिक्षा देने की व्यवस्था की । सन् १८२८ में लार्ड विलियम बैटिंक ने भारतवर्ष में अनेक सुधार किये, तो शिक्षा का भार लॉर्ड मैकाले ने अपने ऊपर लिया। उन्हीं दिनों अंग्रेजी को भारतवर्ष की राष्ट्रभाषा घोषित किया गया था। लॉर्ड मैकॉले ने शिक्षा के उद्देश्यों की घोषणा करते हुए कहा था- “मेरा उद्देश्य इस शिक्षा से केवल यही है कि भारत में अधिक से अधिक क्लर्क पैदा हों और भारत बहुत दिनों तक हमारा गुलाम बना रहे।” लॉर्ड मैकॉले के स्वप्नों के आधार पर निर्मित ब्रिटिश शासनकालीन शिक्षा ने केवल क्लर्क और बाबू ही उत्पन्न किये और उनके मस्तिष्कों को इतना संकुचित बना दिया कि वे शिक्षा का उद्देश्य केवल नौकरी ही समझने लगे। उस समय की शिक्षा केवल परीक्षामात्र उत्तीर्ण करने तक ही सीमित थी । जीवन की समस्याओं को सुलझाने तथा जीवन को सफल बनाने की क्षमता उस शिक्षा में न थी। व्यावहारिक दृष्टि से हमें कोई लाभ न हुआ ।
          शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य को मनुष्य बनाना, उसमें आत्मनिर्भरता की भावना भरना, चरित्र-निर्माण करना तथा मनुष्य को मोक्ष की प्राप्ति कराना है। परन्तु वर्तमान शिक्षा प्रणाली से इस प्रकार का कोई लाभ नहीं होता है, उसे केवल उदरपूर्ति का साधन-मात्र कह सकते हैं। श्रद्धा और भावना जैसी कोई वस्तु उसके निकट नहीं होती। आज उसकी दृष्टि में न अपने गुरुजनों का आदर है और न माता-पिता का सम्मान । विद्यार्थी समाज में एक भयानक अराजकता छाई हुई है। यह सब हमारे नैतिक पतन के कारण हैं। इसीलिए प्रत्येक राज्य में नैतिक शिक्षा विषय का अनेक स्तरों पर पाठ्यक्रम में समावेश किया गया है तथा इसका अध्ययन एक स्वतन्त्र विषय के रूप में किया जा है। रहा है।
          देश के स्वतन्त्र हो जाने पर हमें ऐसी शिक्षा पद्धति की आवश्यकता है, जो देश के लिए अच्छे नागरिक, कुशल कार्यकर्ता एवं भावी सेनानी उत्पन्न कर सके, जो प्रत्येक व्यक्ति की सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक शक्तियों के विकास में पूर्ण योग दे सके। इस दिशा में भारतीय सरकार विशेष प्रयत्नशील है। केन्द्रीय विकास की “वयस्क शिक्षा कमेटी” ने एक विशाल योजना बनाई जो तीन वर्ष के अन्दर पचास प्रतिशत शिक्षा का प्रचार कर देना चाहती थी । एक अन्य समिति ने भारत में सेकेण्डरी शिक्षा की योजना का निर्माण किया था। तीसरी समिति ने विश्वविद्यालय के माध्यम की समस्या को सुलझाया । १९४८ में श्री बी० जी० खेर की अध्यक्षता में बेसिक शिक्षा / समिति का निर्माण हुआ, जिसका उद्देश्य सम्पूर्ण भारत में बेसिक शिक्षा का व्यापक प्रचार करना था । इस योजना के व्यय का भार ७०% प्रत्येक राज्य सरकार को वहन करना था और ३०% संघीय सरकार को । १९४८-४९ में देहली राज्य में पंचवर्षीय बेसिक योजना का कार्य प्रारम्भ हुआ। इस योजना के अन्तर्गत १५० नये प्रारम्भिक विद्यालय खुले । प्रत्यके मील की सीमा में एक प्राइमरी स्कूल बनाने की योजना इसके द्वारा पूरी की गई। सर्वपल्ली डॉ० राधाकृष्णन की अध्यक्षता में नौ व्यक्तियों का एक विश्वविद्यालय कमीशन निर्मित हुआ था, जिसने वर्तमान विश्वविद्यालय शिक्षा पद्धति में सुधार किया | मनोविज्ञान एवं वैज्ञानिक अनुसंधानों के विकास में योग देने के लिये एक अन्य समिति बनाई थी । शरीरिक शिक्षा के पूर्ण विकास के लिये एक संघीय प्रशिक्षण विद्यालय की स्थापना हुई । सन् १९६० ई० में केन्द्रीय सरकार की ओर से संचालित “नेशनल फिजीकल टेस्ट” की समस्त भारत में प्रतियोगितायें हुई थीं। राष्ट्रीय बृहत् पुस्तकालय की स्थापना के लिए भी समिति का निर्माण हुआ । औद्योगिक शिक्षा को भारतीय सरकार पूर्ण रूप से प्रश्रय दे रही है। नवीन-नवीन औद्योगिक प्रशिक्षण केन्द्र प्रत्येक नगर में खोले जा रहे हैं। यह औद्योगिक शिक्षा स्त्री, और पुरुषों को भिन्न-भिन्न संस्थाओं में दी जाती है। परिगणित एवं पिछड़ी हुई जातियों की शिक्षा-दीक्षा के लिये भारत सरकार अनेक छात्रवृत्तियाँ दे रही है। उन्हें  सब प्रकार से प्रोत्साहित किया जा रहा है, जिससे वे भी अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकें । पुरातत्व विभाग की भी स्थापना की गई है, जो इसके द्वारा अपनी भारत की प्राचीन वस्तुओं की खोज एवं संरक्षण में व्यस्त है। प्राचीन संस्कृति एवं सभ्यता की गौरवपूर्ण खोज की जा रही है। अखिल भारतीय शिक्षा समिति की सिफारिश से ६ वर्ष से ११ वर्ष की आयु वाले बच्चों के लिये बेसिक शिक्षा को अनिवार्य कर दिया गया है ।
          उत्तर प्रदेश सरकार ने बालकों के लिए कक्षा ७ तक निःशुल्क शिक्षा कर दी है । १९६५ से समस्त उत्तर प्रदेश में कन्याओं के लिये निःशुल्क शिक्षा का प्रबन्ध कर दिया गया है। प्रशिक्षित अध्यापकों की व्यवस्था की जा रही है। केन्द्रीय सरकार की आर्थिक सहायता से उत्तर प्रदेश सरकार ने १९६० में ४८ नार्मल स्कूल खोले जिनमें अध्यापकों को समुचित प्रशिक्षण दिया जा रहा था परन्तु ९५ में आकर वे फिर बन्द कर दिये गये क्योंकि प्रशिक्षतों की बाढ़ आ गई थी। प्रौढ़ों की शिक्षा का भी प्रबन्ध किया गया है, उनके लिए पुस्तकालय तथा वाचनालय स्थापित किये गये हैं। रेडियो, फिल्म प्रदर्शन एवम् अन्य उपायों से सुदूर ग्रामों में शिक्षा का प्रचार हो रहा है। शिक्षा के विकास को तेज करने और उसकी गतिविधियों में सफल परिवर्तन लाने के लिये सन् १९७३ में . उत्तर प्रदेश में शिक्षा निदेशालय को तीन भागों में बाँटकर तीन शिक्षा निदेशक बना दिये हैं। एक उच्च शिक्षा के लिये, दूसरे माध्यमिक शिक्षा के लिए और तीसरे बेसिक शिक्षा के लिये। विज्ञान की प्रगति देखने के लिये विज्ञान प्रगति अधिकारी और प्रारम्भिक शिक्षा की देख-रेख के लिये बेसिक शिक्षाधिकारी नियुक्त किये गये हैं।
          सारांश यह है कि मनुष्य के सर्वांगीण विकास के लिये ऐसी शिक्षा की आवश्यकता है, जिससे मनुष्य का हृदय और बुद्धि दोनों समान रूप से विकसित होकर मानव की कल्याणमयी वृत्तियों का विकास कर सकें। इन्हीं कल्याणमयी वृत्तियों के विकास की ओर संकेत करते हुये ५ सितम्बर, १९७१ को अध्यापक दिवस के उपलक्ष में प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने अपने सन्देश में कहा था कि अध्यापकों को विद्यार्थियों के लिये ऐसी शिक्षा देनी चाहिये जिससे वे हिंसा और साम्प्रदायिकता की भावना से दूर रहें ।
          आज का प्रबुद्ध छात्र वर्ग इस घिसी-पिटी शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन के लिये स्वयं जाग उठा है, वह चाहता है कि उसे बेरोजगारी का शिकार न बनना पड़े। वह चाहता है कि उसकी शिक्षा व्यावहारिक और रचनात्मक हो । शिक्षा के क्षेत्र में क्रान्ति लाने के लिये उसे नई रचनात्मक शिक्षा देने के लिये स्वर्गीय श्री जयप्रकाश नारायण ने छात्र- समुदाय को एक स्नेह सूत्र में संगठित होने का आह्वान करते हुए १७ फरवरी, १९७९ को पटना (बिहार) में छात्रों के एक विशाल समारोह में छात्र मशाल ज्योति प्रज्ज्वलित की जो सारे देश में घूमती हुई ६ मार्च, १९७९ को राजघाट नई दिल्ली में महात्मा गांधी की समाधि पर पहुँची। राष्ट्रपिता की समाधि पर फूल चढ़ाकर शिक्षा में क्रान्तिकारी परिवर्तन के लिये निरन्तर प्रयास करने का संकल्प लिया। बाद में लाखों छात्र “बरबाद किया जिसने भारत को उस शिक्षा को खत्म करो।” “छात्र उठे हैं फिर ललकार शिक्षा बदले यह सरकार” आदि नारे लगाते हुए दस लाख छात्रों के हस्ताक्षरों से युक्त एक याचिका संसद के दोनों सदनों को दी गई जिसमें शिक्षा पद्धति में आमूल परिवर्तन की माँग की गई थी ।
          छात्रों द्वारा प्रारम्भ किये गये उस अभियान की सफलता की कामना करते लोकनायक ने अपने सन्देश में कहा कि “देश का राजनैतिक चेहरा तो बदल गया है परन्तु छात्र समस्या वैसी ही है। उनके मन में असन्तोष की जो चिनगारियाँ विद्यमान हैं वे अब प्रगट हो रही हैं। यदि इस असन्तोष को रचनात्मक दिशा न दी गई तो अराजकता पैदा होगी और देश का भविष्य अस्थिर हो जायेगा । इसी सन्दर्भ में शैक्षिक क्रान्ति की ज्योति जलाकर छात्र-मानस को स्वस्थ दिशा में मोड़ने का प्रयास किया गया है। शैक्षिक क्रान्ति सम्पूर्ण क्रान्ति का एक अंग है।”
          भारत के प्रधानमन्त्री श्री राजीव गाँधी १९८६-८७ के सत्र से भारत में नई शिक्षा नीति लागू करने के लिये प्रयत्नशील थे। परन्तु ढाक के तीन पात ९६ तक शिक्षा जहाँ की तहाँ है । १९८५-८६ का पूरा सत्र इस नई शिक्षा नीति के सन्दर्भ में विद्वानों के विचार मन्थन में बीता था । जनपद स्तर से लेकर प्रान्तीय एवं अखिल भारतीय स्तर तक नई शिक्षा नीति पर गोष्ठियाँ आयोजित की गई हैं। नवोदय स्कूलों की स्थापना की गई, निष्कर्ष निकले हैं। भारत सरकार को प्रत्येक प्रदेश ने अपनी-अपनी संस्तुतियाँ भेजी हैं। आशा है परिणाम अच्छे ही होंगे।
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