आधुनिक विदेह – राजेन्द्र बाबू
आधुनिक विदेह – राजेन्द्र बाबू
राजेन्द्र बाबू का नाम लेते ही ऐसा अनुभव होने लगता है मानो किसी वीतराग, शान्त एवम् सरल संन्यासी का नाम लिया जा रहा हो और सहसा एक भोली-भाली निश्छल, निष्कपट, निर्दोष, सौम्य मूर्ति सामने आती है। भागीरथी के पवित्र जल के समान उनका पुनीत एवम् अकृत्रिम आचरण आज भी मनुष्यों के हृदयों को पवित्र बना रहा है। वह उन यौगिराजों में थे, जो वैभव एवं विलासिता में रहते हुए भी पूर्ण विरक्त होते हैं, राष्ट्रपति के सर्वोच्च गौरव एवं गरिमा के पद पर आसीन होते हुए भी गर्व रहित थे | गीता में वर्णित अनासक्त कर्मयोग की साक्षात् प्रतिमूर्ति थे और आधुनिक युग के विदेह थे। जब राजेन्द्र बाबू स्वतन्त्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति बने, तो गाँधी जी की यह भविष्यवाणी अक्षरक्षः सत्य हो गई कि “भारत का राष्ट्रपति किसान का बेटा नहीं, किसान ही होगा।”
३ दिसम्बर, १८८४ ई० को राजेन्द्र बाबू के जन्म से बिहार प्रान्त की भूमि गौरवान्वित हुई थी और सारन जिले का एक सम्भ्रांत कायस्थ परिवार जगमगा उठा था इस अभूतपूर्व शिशु को गोद में लेकर। इनके परिवार का सामाजिक और आर्थिक स्तर पर्याप्त अच्छा था, इनके पूर्वज हथुआ राज्य के दीवान थे। राजेन्द्र बाबू की प्रारम्भिक शिक्षा उर्दू के माध्यम से प्रारम्भ हुई थी, कलकत्ते में उन्होंने उच्च शिक्षा प्राप्त की । “होनहार विरवान के होत चीकने पात” वाली कहावत के अनुसार ये प्रारम्भ से ही प्रबुद्ध और मेधावी छात्र थे । हाई स्कूल से एम. ए. तक सभी परीक्षायें इन्होंने प्रथम श्रेणी उत्तीर्ण की थीं, एल. एल. बी. और एल. एल. एम. (L.L.M.) परीक्षाओं में भी वे प्रथम ही रहे थे अध्ययन के पश्चात् इन्होंने वकालत प्रारम्भ की और थोड़े ही दिनों में उसमें अपना महत्वपूर्ण स्थान बना लिया था, चोटी के वकीलों में आपकी गणना थी। धन, पद, प्रतिष्ठा विद्या, बुद्धि, सभी राजेन्द्र बाबू का स्थान प्रथम था।
रोलेट एक्ट बनने के पश्चात् आपने वकालत को तिलांजलि दे दी और गाँधी जी के असहयोग आन्दोलन में सम्मिलित हो गये। प्रारम्भ में राजेन्द्र बाबू का जीवन गोपाल कृष्ण गोखले से प्रभावित था । गोखले की देश भक्ति में केवल राजनीति ही नहीं थी, अपितु उच्च कोटि की विद्वत्ता, राजनैतिक योग्यता, समाज सेवा, आदि सभी कुछ निहित था और राजेन्द्र बाबू में ये सभी गुण विद्यमान थे । गोखले के पश्चात् इनके जीवन पर गाँधी जी का प्रभाव पड़ा और वह प्रभाव ऐसा था, जिसमें वे अन्त तक डूबे रहे। गोखले इन्हें “सर्वेन्ट्स ऑफ इण्डियन सोसायटी” का सदस्य बनाना चाहते थे जो उन्होंने १९०५ ई० में पूना में स्थापित की थी। गाँधी जी के आदर्श और सिद्धान्तों से आकर्षित होकर राजेन्द्र बाबू तन, मन, धन से उनके अनुयायी हो गये और देश-सेवा का व्रत लिया। इनमें विनम्रता और विद्वत्ता के साथ-साथ अपूर्व संगठन शक्ति, अद्वितीय राजनैतिक सूझ-बूझ और अलौकिक समाज सेवाओं की भावना थी। यही कारण था कि राजेन्द्र बाबू स्वाधीनता संग्राम के गिने-चुने महारथियों में से तथा गाँधी जी के परम प्रिय पात्रों में से थे ।
असहयोग आन्दोलन में भाग लेने के बाद इन्होंने बिहार में किसानों को तथा बिहार की जनता को सफल नेतृत्व प्रदान किया। १९३४ में बिहार में एक भयानक भूकम्प आया, जिसमें धन-जन की अपार क्षति हुई । राजेन्द्र बाबू ने पीड़ितों की सहायता के लिए सेवायें समर्पित कीं, जिनके आगे जनता सदैव- सदैव के लिए नत मस्तक हो गई । शनैः शनैः राजेन्द्र बाबू की गणना भारत के उच्च कोटि के कांग्रेसी नेताओं में होने लगी ।
राजेन्द्र बाबू हिन्दी के कट्टर समर्थक थे। पर जब गाँधी जी ने हिन्दी के स्थान पर हिन्दुस्तानी का प्रचार किया तो यह निष्ठावान् अनुयायी होने के नाते हिन्दुस्तानी के प्रचार में ही लग गये । वह अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन भी सभापति रहे । एक बार इसी हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सभापति का निर्वाचन होना था । हिन्दी पक्ष के उम्मीदवार डॉ० अमरनाथ झा थे और हिन्दुस्तानी पक्ष के राजेन्द्र बाबू उम्मीदवार थे । चुनाव हुआ तो हिन्दी पक्ष के डॉ० झा विजयी घोषित किये गये, परन्तु राजेन्द्र बाबू के मन में थोड़ी सी भी मलिनता नहीं आने पाई, बल्कि उन्होंने डॉ० झा के प्रति अधिक सम्मान प्रकट किया ।
देश-सेवा के लिये राजेन्द्र बाबू ने अनेक बार जेल यात्रायें की थीं और गौरांग महाप्रभुओं की अमानवीय यातनायें सही थीं । वे अपने जीवन काल में दो बार अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष निर्वाचित हुये, अपने अध्यक्षीय काल में उन्होंने कांग्रेस की अनेकों उलझी हुईथयों को सुलझाया तथा समस्त भारत में कांग्रेस के प्रति सौहार्दपूर्ण वातावरण स्थापित किया ।
१५ अगस्त, १९४७ को भारतवर्ष के स्वतन्त्र हो जाने पर देश के लिये नवीन विधान बनाने के लिये “विधान निर्माण सभा” बनाई गई, राजेन्द्र बाबू उसके अध्यक्ष नियुक्त किये गए । इस विधान के बनाने में लगभग तीन वर्ष का समय लगा । इस विधान के अनुसार २६ जनवरी, १९५० से भारत एक स्वतन्त्र प्रजातन्त्र राज्य घोषित किया गया तथा डॉ० राजेन्द्र प्रसाद को भारत रिपब्लिकन का प्रथम प्रधान नियुक्त किया गया । १९५२ में सामान्य निर्वाचन के पश्चात् राजेन्द्र बाबू भारत के प्रथम राष्ट्रपति निर्वाचित किए गए तथा १९५७ में दूसरी बार पुनः आप भारत के राष्ट्रपति निर्वाचित किए गए।
राजनैतिक वयस्तताओं तथा अत्यन्त गरिमामय पद को अनेक दैनिक औपचारिकताओं में घोर व्यस्त रहते हुये भी वे सदैव प्रातः उठते और स्नानादि से निवृत्त हो भगवद्भजन पर बैठ जाते । दो-तीन घण्टे की उनकी दैनिक पूजा थी, जिसे उन्होंने अन्तिम क्षणों तक नहीं छोड़ा। राष्ट्रपति भवन की विलासिता उनके लिए नगण्य थी, ऐहिक वैभव तुच्छ थे, यही कारण था कि जब वह निर्लिप्त योगी दिल्ली का राष्ट्रपति भवन छोड़कर बिहार के सदाकत आश्रम में पहुँचा, तो उसे न कोई क्षोभ हुआ और न विषाद । राम के आदर्श की प्रतिच्छाया हमें राजेन्द्र बाबू के चरित्र में मिलती है। राम भी इसी तरह अयोध्या छोड़कर चल दिए थे –
“राजीवलोचन राम चले, तजि बाप को राज, बटाऊ की नाँई।”
दिल्ली ने शायद ही किसी को इतनी भाव भरी विदाई दी हो, जितनी राजेन्द्र बाबू को दी थी। सड़कों के दोनों किनारे, राष्ट्रपति भवन से नई दिल्ली के स्टेशन तक अपने प्रिय राष्ट्रपति को विदाई देने के लिए, लोगों से खचाखच भरे हुये थे। प्लेट फार्म पर तिल रखने तक को जगह न थी। आँख में आँसू सँजोये दिल्लीवासी अपने राष्ट्रपति को दिल्ली से विदाई दे रहे थे। उधर दोनों हाथ जोड़े हुए, मुख पर हल्की सी मुस्कान लिए हुए थे राजेन्द्र बाबू ।
१९६२ में जब चीन ने भारत पर आक्रमण किया, राजेन्द्र बाबू अपने सदाकत आश्रम में बीमार पड़े थे। आक्रमण सुनकर आत्मा तिलमिला उठी। पौरुष फिर से हुँकार भरने लगा। रोग शैय्या छोड़ी और पटना के गाँधी मैदान में वह ओजस्वी भाषण दिया कि जनता अपना सर्वस्व बलिदान करने के लिये आज्ञा की प्रतीक्षा करने लगी। राजेन्द्र बाबू ने कहा था-
“अहिंसा हो या हिंसा, चीनी आक्रमण का सामना हमें करना है।”
सहसा कुछ दिनों बाद समाचार पत्रों के काले हाशिये में छपा “भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ० राजेन्द्र प्रसाद का स्वर्ग प्रयाण ।” गाँधी जी की मृत्यु के बाद यह दूसरा अवसर था, जब जनता को यह अनुभव हुआ कि उसका कुछ लुट गया। सारा भारत शोक संतप्त, सूखी हुई पलकें सहसा गीली हो उठी थीं, सारे भारत ने नतमस्तक होकर श्रद्धांजलि समर्पित करते हुए अपनी कृतज्ञता प्रकट की थी ।
निःसन्देह उनका अस्तित्व और व्यक्तित्व, दोनों महान् थे और उनका चरित्र अनुकरणीय है।
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