आधुनिक युग में भारतीय नारी का आदर्श

आधुनिक युग में भारतीय नारी का आदर्श

          भारतीय नारी सृष्टि के आरम्भ में अनन्त गुणों की आगार रही है। पृथ्वी की सी क्षमता, सूर्य जैसा तेज, समुद्र की-सी गम्भीरता, चन्द्रमा की-सी शीतलता, पर्वतों की-सी मानसिक उच्चता हमें एक साथ नारी के हृदय में दृष्टिगोचर होती है। वह दया, करुणा, ममता और प्रेम की पवित्र मूर्ति है और समय पड़ने पर प्रचण्ड-चण्डी भी। वह मनुष्य के जीवन की जन्मदात्री है। नर और नारी एक-दूसरे के पूरक हैं। वह माता के समान हमारी रक्षा करती है, मित्र और गु के समान हमें शुभ कार्यों के लिये प्रेरित करती है, बाल्यावस्था से लेकर मृत्युपर्यन्त वह हमारी संरक्षिका बनी रहती है। नारी का त्याग और बलिदान भारतीय संस्कृति की अमूल्य निधि है। इस श्रद्धामयी नारी के विषय में प्रसाद जी लिखते हैं –
“नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत पग-पग तल में ।
पीयूष स्रोत-सी बहा करो, जीवन के सुन्दर समतल में।”
          पुरातनकालीन भारत में नारियों को उच्च स्थान प्राप्त था । वे केवल सन्तान की जन्मदात्री एवं भोजनालय की प्रबन्धकारिणी के रूप में ही प्रतिष्ठित नहीं थी, अपितु पुरुषों के समान ही उन्हें सामाजिक, राजनैतकि एवं धार्मिक कृत्यों में भाग लेने का अधिकार था। याज्ञवल्क्य की सहधर्मिणी गार्गी ने “आध्यात्मिक धन के समक्ष सांसारिक धन तुच्छ है” सिद्ध करके समाज में अपना आदरणीय स्थान प्राप्त किया था। मनु महाराज ने मनुस्मृति में स्त्रियों का विवेचन करते हुए स्पष्ट लिखा है कि “जो पति है, वही अभिन्न रूप से पत्नी है जहाँ पतन । स्वतन्त्र भारत में स्त्रियों का स्थान  स्वतन्त्र भारत में स्त्रियों के कर्त्तव्य । स्त्रियों की पूजा होती है, वहाँ देवता निवास करते हैं, जहाँ उनकी प्रतिष्ठा नहीं होती वहाँ सब क्रियाएँ निष्फल हो जाती हैं अनेक कल्याणों की भाजन स्त्रियाँ पूजनीय हैं, ये वह ज्योति हैं, जिनकी प्रजापति ने प्रजा की उत्पत्ति एवं विस्तार के लिये इनकी सृष्टि की है, वे ग्रह लक्ष्मी के रूप में मान्य हैं, इत्यादि ।” संस्कृत में भी कहा गया है –
“यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते, रमन्ते तत्र देवताः ।”
          प्राचीन काल में कोई भी धार्मिक कृत्य बिना पत्नी के सहयोग के पूर्ण नहीं होता था । धार्मिक कार्यों में ही नहीं वे रणक्षेत्र में भी पति को सहयोग देती थीं । देवासुर संग्राम में कैकयी ने अपने अद्वितीय कौशल से महाराज दशरथ को चकित कर दिया था। निश्चित ही प्राचीन काल में नारियों का व्यक्तित्व पूर्णरूप से सुरक्षित था । वे अपना जीवन साथी अपनी इच्छा से चुनती थीं, उनमें इतनी योग्यता थी कि वे अपना हानि-लाभ उचित प्रकार से समझ सकें । अपनी योग्यता, विद्वता और विवेक – पूर्ण बुद्धि के बल से द्रोपदी की भाँति अपने पतियों को भी सत्परामर्श एवं शिक्षा देने को प्रस्तुत रहती थीं। गृहस्थाश्रम का सम्पूर्ण अस्तित्व नारी के बलिष्ठ कंधों पर आधारित था। न उन्हें आर्थिक परतन्त्रता थी, न दासता । पुरुषोपार्जित द्रव्य और संचय की वह स्वामिनी थी । बिना ग्रहिणी के ग्रह की कल्पना भी नहीं की जाती थी । कहा गया है –
“न गृहं ग्रहमित्याहुः ग्रहिणी ग्रहमुच्यते ।
गृहं हि ग्रहिणीहीनम् अरण्यसदृशं मतम् ॥”
          भारत की परतन्त्रता के साथ-साथ स्त्रियों की परतन्त्रता का भी श्रीगणेश हुआ । प्रेम और बलिदान की भावना कालान्तर में विष बन गई । उनका पुरातन सेवा भाव उन्हीं के लिये घातक बन गया। उसने प्रेमवश अपने को समर्पित किया था, परन्तु निर्दयी पुरुष ने उसे बन्धनों में जकड़ दिया। तिरस्कार और उपेक्षा उत्तरोत्तर बढ़ती गई। वही नारी, जिसने मण्डन मिश्र की अर्धांगिनी के रूप में अपने पति की पराजय से क्षुब्ध होकर शंकराचार्य जी से कामशास्त्रों के तत्वों पर शास्त्रार्थ किया था, शनैः शनैः समय और विचारधाराओं में परिवर्तन हुआ । ज्ञात और अज्ञात कारणों से भारत – की वीरांगनायें और विदुषियाँ घर की ऊँची-ऊँची चारदीवारियों में बन्द होकर अविद्य होकर अज्ञान के गहन गर्त में डुबकियाँ लगाने लगीं । उनका पग-पग पर अपमान होता, ठुकराई जातीं, परन्तु वे मृत्युपर्यन्त इन सामाजिक असह्य यातनाओं को मौन होकर मूक पशु की तरह सहतीं। छोटी-छोटी सुकुमार बालिकाओं को पत्नी का स्वरूप दिया जाता था । बेमेल विवाह होते थे । परिणामस्वरूप देश में वैधव्य और भ्रष्टाचार बढ़ने लगा । विधुर हो जाने पर पुरुषों को अधिकार था दूसरा विवाह करने का, परन्तु विधवा जीवन भर रोती रहे, तरसती रहे, इसके अतिरिक्त कोई चारा नहीं था। स्त्रियों का जीवन पुरुषों की दया पर निर्भर रहने लगा । पर्दा प्रथा विधवाओं की हीन दशा, कन्या पक्ष का नीचा समझा जाना, उच्च शिक्षा का बहिष्कार, अनमेल विवाह, उत्तराधिकार से वंचित होना तथा आर्थिक परतन्त्रता, आदि सामाजिक कुरीतियों ने पराधीन भारत में नारियों को इतना निम्न बना दिया कि वे अभी तक बार-बार चेताए जाने पर भी पूर्ण रूप से जागृत नहीं हो सकीं ।
           देश में राष्ट्रीयता की भावना के उत्थान के साथ-साथ भारतीय नेताओं का ध्यान सामाजिक कुरीतियों की ओर गया। राजा राममोहनराय ने सती प्रथा को बन्द कराने का प्रयत्न किया। इस प्रथा के अनुसार मन से न चाहते हुये भी स्त्रियों को पंति के शव के साथ चिता में जलकर भस्म होना पड़ता था। महर्षि दयानन्द ने शिक्षा और समानाधिकार के द्वार महिलाओं के लिये खोल दिया। उनके सत्प्रयत्नों से कन्या- गुरुकुलों की स्थापना की गई । पर्दा तथा बाल विवाह को रोकने तथा स्त्रियों में सामाजिक चेतना फैलाने में दयानन्द जी ने देश की अनुपम सेवा की । इसके पश्चात् महात्मा गाँधी ने स्त्रियों के उत्थान लिये आजीवन प्रयत्न किया। उनके सतत् प्रयत्नों के परिणामस्वरूप ही आज के स्वतन्त्र भारत में स्त्रियों को पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त करने की व्यवस्था संविधान में की गई है। केवल स्त्री होने के कारण ही नारी किसी पद से वंचित नहीं की जा सकती। आज उन्हें पुरुषों के समान आर्थिक स्वतन्त्रता दी जा रही है । पिता की सम्पत्ति में लड़कों की तरह कन्याओं के भाग की व्यवस्था की गई है। भारतीय महिलाओं की अग्रगण्य श्रीमती सरोजनी नायडू ने उत्तर प्रदेश के गर्वनर पद पर, श्रीमती विजय लक्ष्मी पण्डित ने विदेश राजदूत के पद पर आसीन होकर तथा श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने प्रधानमन्त्री पद को सुशोभित करके स्त्री-जगत को पर्याप्त सम्मानित किया है। आज के स्वतन्त्र भारत में स्त्रियों की शिक्षा की सुव्यवस्था पर भी भारतीय सरकार पूर्ण ध्यान दे रही है। उनकी शिक्षा के लिये बड़े-बड़े विद्यालयों की स्थापना की जा रही है। उनकी शिक्षा में पाकशास्त्र, गृह विज्ञान, शरीर- विज्ञान, स्वास्थ्य – रक्षा, गृह-परिचर्या आदि विषयों को प्रधानता दी जा रही है। आज की स्त्रियाँ घर के सीमित क्षेत्र को छोड़कर समाज सेवा की ओर बढ़ रही हैं। उनके हृदयों में सामाजिक चेतना जाग्रत हो चुकी है। भारतीय स्वतन्त्रता-संग्राम में पुरुषों के सहयोग में उन्होंने त्याग, बलिदान और देश सेवा का परिचय दिया। आज भी भारतीय विदुषी नारियाँ गृहस्थी का कार्यभार संभालते हुये सार्वजनिक कार्यों में भी सराहनीय योगदान कर रही हैं। आज उन्होंने मैथिलीशरण जी की निम्नलिखित पंक्तियों को चुनौती दी है। वे कहती हैं कि आँचल में दूध अवश्य है पर अब आँखों में पानी नहीं । गुप्त जी लिखते हैं—
“अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी ।
आँचल में है दूध और आँखों में पानी।”
          भारतीय सभ्यता का मूलमन्त्र “सादा जीवन उच्च विचार” था परन्तु आज की नारियाँ सादे जीवन से बहुत दूर हैं। आज के संक्रान्ति काल में जब देश में हजारों व्यक्तियों के पास खाने को न अन्न है और न पहनने को कपड़ा, अर्थ संकट के भयानक रोग से देश ग्रस्त है, ऐसे संकट के क्षणों में राष्ट्र की सम्पत्ति का बहुत बड़ा भाग शृंगार के साधनों पर लुटा दिया जाता है, जिसका कोई भी रचनात्मक मूल्य नहीं। आज की नारी तितलियों की तरह अपने पंख रंग कर, कपोलों में मेंहदी का त्योहार रचाए, शारीरिक बाह्य सौन्दर्य को सुरक्षित रखने में संलग्न है। पुरुषों को मोहने के लिए अपने आपको सजाने और संवारने की पुरातन प्रवृत्ति को वह आज भी नहीं छोड़ सकी । नारी समस्याओं की प्रमुख लेखिका श्रीमती प्रेमकुमारी दिवाकर का कथन है, “आधुनिक नारी ने निःसन्देह बहुत कुछ प्राप्त किया है पर सब कुछ पाकर भी उसके भीतर का परम्परा से चला आया हुआ कुसंस्कार नहीं बदल रहा है। वह चाहती है कि रंगीनियों से सज जाए और पुरुष उसे रंगीन खिलौना समझकर उससे खेले, वह अभी भी अपने अंग को रंग-बिरंगी तितली बनाये रखना चाहती है। कहने की आवश्यकता नहीं कि जब तक उसकी यह आन्तरिक दुर्बलता दूर न होगी, उसके व्यक्तित्व का नव-संस्कार न होगा, उसका भीतरी व्यक्तित्व न बदलेगा, तब तक नारीत्व की पराधीनता व दासता के विष-वृक्ष की जड़ पर कुठाराघात न हो सकेगा और सच्चे अर्थों में नारी महत्व, शालीनता, प्रतिष्ठित न हो सकेगी।” स्वतन्त्र भारत में स्त्रियों का यह भी कर्त्तव्य है कि देश की सामाजिक कुरीतियों का बहिष्कार करें। दहेज प्रथा, बाल-विवाह, विधवा-विवाह, अनमेल-विवाह, आदि कुछ ऐसी भयानक कुरीतियाँ समाज में चल रहीं हैं। यदि स्त्रियाँ चाहें तो अपने प्रयत्नों से इन्हें दूर कर सकती हैं ।
          तात्पर्य यह है कि स्वतन्त्र भारत की नारियों में आज नव-चेतना है, नव-जागृति है। वह अपने अधिकारों के प्रति जागरूक है, परन्तु इसके साथ ही साथ कर्त्तव्य के प्रति भी ध्यान देना चाहिये । देश के उत्थान में उन्हें हाथ बँटाना चाहिये । वह समय निकट ही है जबकि वे जीवन के प्रत्येक कार्य-क्षेत्र में पुरुष के समान समझी जायेंगी और अपनी प्रतिभा से देश को समृद्धशाली बना सकेंगी।
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