आदर्श मित्र

आदर्श मित्र

“एकाकी बादलं रो देते, एकाकी रवि जलते रहते। “
          वास्तव में जीवन में अकेलापन विधाता का एक अभिशाप है। इस अभिशाप से विवश होकर मनुष्य कभी-कभी आत्महत्या करने को भी उतारू हो जाता है। सामाजिक प्राणी के नाते वह समाज में रहना चाहता है, भावनाओं का आदान-प्रदान करना चाहता है, अपने सुख-दुःख का साथीबनाना चाहता है। परिवार में सभी सम्बन्धी होने पर भी उसे एक ऐसे व्यक्ति की आवश्यकताहोती है, जिससे दिल खोलकर वह सब बातें कर सके। परिवार के सदस्यों की भी कुछ सीमायें होती हैं। कुछ बातें ऐसी होती हैं, जो केवल पिताजी से कही जा सकती हैं, कुछ ऐसी होती हैं, जिन्हें केवल माता जी से ही कह सकते हैं, कुछ बातें भाई-बहनों को भी बताई जाती हैं, कुछ बातों में पत्नी से परामर्श लिया जाता है, और कुछ बातों में घर के अन्य वयोवृद्ध सदस्यों से । परन्तु वे सभी बातें चाहे अच्छी हों या बुरी, गुण की हों या अवगुण की, हित की हों या अहित की, कल्याण की हों या विनाश की, उत्थान की हों या पतन की, उत्कर्ष की हों या अपकर्ष की, यदि किसी से जी खोलकर कही जा सकती हैं तो केवल मित्र से । मित्र के अभाव में मनुष्य कुछ खोया खोया सा अनुभव करता है, किससे अपने सुख-दुःख की कहे, किसके सामने वह अपने हृदय की गठरी को खोले ? अपने मनोविनोद और हास-परिहास के समय को वह किसके साथ बिताए, विपत्ति के समय वह किसकी सहायता ले? सत्यपरामर्श ले और सहानुभूति प्राप्त करे ? अपनी रक्षा का भार वह किसे सौंपे ? क्योंकि मित्र की रक्षा, उन्नति, उत्थान सभी कुछ एक सन्मित्र पर आधारित होते हैं –
“कराविव शरीरस्य नेत्रयोरिव पक्षमणि ।
अविचार्य प्रियं कुर्यात् तन्मित्रं मित्रमुच्यते || ” 
          अर्थात् जिस प्रकार मनुष्य के दोनों हाथ शरीर की अनवरत रक्षा करते हैं, उन्हें कहने की आवश्यकता नहीं होती और न कभी शरीर ही कहता है कि जब मैं पृथ्वी पर गिरूँ तब तुम आगे आ जाना और बचा लेना; परन्तु वे एक सच्चे मित्र की भाँति सदैव शरीर की रक्षा में संलग्न रहते हैं। इसी प्रकार आप पलकों को भी देखिए, नेत्रों में एक भी धूलि का कण चला जाए, पलकें तुरन्त बन्द हो जाती हैं। हर विपत्ति से अपने नेत्रों को बचाती हैं। इसी प्रकार एक सच्चा मित्र भी बिना कुछ कहे-सुने मित्र का सदैव हित-चिन्तन किया करता है ।
          मित्र के अनेक कर्त्तव्य होते हैं जिनमें से केवल कुछ प्रमुख कर्त्तव्यों पर नीचे विचार किया जायेगा। एक सच्चा मित्र सदैव अपने साथी को सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है वह कभी नहीं देख सकता कि उसकी आँखों के सामने ही उसके मित्र का घर बर्बाद होता रहे, उसका साथी पतन के पथ पर अग्रसर होता रहे, कुवासनायें और दुर्व्यसन उसे अपना शिकार बनाते रहें, कुरीतियाँ उसका शोषण करती रहें, कुविचार उसे कुमार्गगामी बनाते रहे । वह उसे समझा-बुझाकर, लाड़ से, प्यार से और फिर, प्यार से और मार से किसी न किसी तरह उसे उस मार्ग को छोड़ने के लिये विवश कर देगा। तुलसीदास ने मित्र की जहाँ और पहचान बताई है वहाँ एक यह भी है
“कुपंथ निवारि सुपन्थ चलावा । 
गुण प्रगटहि अवगुणहिं दुरावा ॥ “
          तात्पर्य यह है कि यदि हम झूठ बोलते हैं, चोरी करते हैं, धोखा देते हैं या हममें इसी प्रकार की और बुरी आदतें हैं, तो एक श्रेष्ठ मित्र का कर्त्तव्य है कि वह हमें सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा दे, हमें अपने दोषों के प्रति जागरूक कर दे, तथा उनके दूर करने का निरन्तर प्रयास करता रहे ।
          जब मनुष्य के ऊपर विपत्ति के काले बादल घनीभूत अन्धकार के समान छा जाते हैं और चारों दिशाओं में निराशा के अन्धकार के अतिरिक्त और कुछ दिखाई नहीं पड़ता, तब केवल सच्चा मित्र ही एक आशा की किरण के रूप में सामने आता है। तन से, मन से, धन से वह मित्र की सहायता करता है और विपत्ति के गहन गर्त में डूबते हुए अपने मित्र को निकाल कर बाहर ले आता है। रहीम ने लिखा है –
“रहिमन सोई मीत हैं, भीर परे ठहराई ।
मथत मथत माखन रहे, दही मही बिलगाई ॥”
          मित्रता होनी चाहिये मीन और नीर जैसी । सरोवर में जब तक जल रहा; मछलियाँ भी क्रीड़ा तथा मनोविनोद करती रहीं । परन्तु जैसे-जैसे तालाब के पानी पर विपत्ति आनी आरम्भ हुई; मछलियाँ उदास रहने लगीं, जल का अन्त तक साथ दिया उसके साथ संघर्ष में रत रहीं, परन्तु जब मित्र न रहा, तो स्वयं भी अपने प्राण त्याग दिये, परन्तु अपने साथी जल का अन्त तक विपत्ति में भी साथ न छोड़ा । मित्रता दूध और जल की-सी नहीं होनी चाहिये कि जब दूध पर विपत्ति आई और वह जलने लगा तो पानी अपना एक ओर को किनारा कर गया, अर्थात् भाप बनकर भाग गया, बेचारा अकेला दूध अन्तिम क्षण तक जलता रहा । स्वार्थी मित्र सदैव विश्वासघात करता है; उसकी मित्रता सदैव पुष्प और भ्रमर जैसी होती है। भंवरा जिस तरह रस रहते हुये फूल का साथी बना रहता है और इसके अभाव में उसकी बात भी नहीं पूछता । इसी प्रकार स्वार्थी मित्र भी विपत्ति के क्षणों में मित्र का सहायक सिद्ध नहीं होता। इसलिये तुलसीदास जी ने अच्छे मित्र की कसौटी विपत्ति ही बताई है –
“धीरज धर्म मित्र अरु नारी। आपत्ति काल परखिए चारी ।।
जेन मित्र दुख होंहि दुखारी। तिनहिं विलोकत पातक भारी ॥”
          इसीलिये संस्कृत में कहा गया है कि “आपदगतं च न जहाति ददाति काले” अर्थात् विपत्ति के समय सच्चा मित्र साथ नहीं छोड़ता, अपितु सहायता के रूप में कुछ देता ही है। जिस प्रकार स्वर्ण की परीक्षा सर्वप्रथम कसौटी पर घिसने से होती है, उसी प्रकार मित्र की विपत्ति के समय त्याग से होती है। इतिहास साक्षी है कि ऐसे मित्र हुये हैं, जिन्होंने अपने मित्र की रक्षा में अपने प्राणों की भी आहुति दे दी।
          मित्र का कर्त्तव्य है कि वह अपने मित्र के गुणों को प्रकाशित करे जिससे कि मित्र का समाज में मान और प्रतिष्ठा बढ़े। सच्चा मित्र अपने मित्र के मान को अपना ही मान समझता है, उसकी प्रतिष्ठा और ख्याति को अपनी प्रतिष्ठा और ख्याति समझता है। इसीलिये वह अपने मित्र के गुणों को नगाड़े की चोट पर गान करता है और अवगुणों को छुपाने का प्रयत्न करता है। साथ-साथ उन अवगुणों को दूर करने का भी प्रयास करता है। उसकी “छिद्रान्वेषण-प्रकृति” नहीं होती, अर्थात् वह अपने मित्र की कमियों को ढूंढकर प्रकाश में लाने का दुस्साहस नहीं करता । वह जानता है कि इससे मेरे मित्र का समाज में अपमान और अपयश होगा । तुलसीदास जी कहते हैं –
“गुण प्रकटहिं अवगुणहिं दुरावा”
अथवा
“गुह्यानि गूहाति गुणान् प्रकटीकरोति ।”
          जीवन का कोई भी क्षेत्र हो, कोई भी कार्य या व्यापार हो, किसी भी प्रकार की सम या विषम परिस्थिति हो,मित्र को अपने मित्र के साथ सहानुभूति रखनी चाहिये और उसके साथ सहयोग भी बनाये रखना चाहिये। भले ही मित्र न कुछ दे और न ले, परन्तु सहानुभूति एक ऐसी वस्तु है, जिससे मनुष्य बड़ी से बड़ी कठिन परिस्थितियों को भी हँसते-हँसते झेल लेता है, विपत्तियों में भी मुस्करा देता है। सहानुभूति और संवेदना के अभाव में मानव का जीवन एक नैराश्यपूर्ण नारकीय जीवन बन जाता है, और जीवन भार मालूम पड़ने लगता है। गुप्त जी ने लिखा है –
“सहानुभूति चाहिए महा विभूति है यही ।।”
          निःस्वार्थ हित-चिन्तन करना कोई साधारण बात नहीं है । पत्नी पति का, माता पुत्र का, पिता पुत्र का हित-चिन्तन करते हैं परन्तु उस हित चिन्तन में स्वार्थ की कोई न कोई कोर हृदय के किसी न किसी कोने में छिपी पड़ी रहती है। प्रत्येक सम्बन्धी प्रत्येक परिवार का सदस्य आपका हित-चिन्तन अवश्य करेगा, परन्तु बदले में अवश्य कुछ चाहेगा, लेकिन सच्चा मित्र जो कुछ करेगा उसका बदला नहीं चाहेगा। वह तो यही कहेगा- मैंने ऐसा किया, क्यों किया? क्योंकि मेरा कर्त्तव्य था ।
          आज के मित्रों को मित्र कहने की अपेक्षा यदि शत्रु कहा जाये तो अधिक उचित होगा । साधारणत: आज का मित्र स्वार्थी है, वह आपके सामने मीठा बना रहकर आपका जितना भी अहित चिन्तन कर सकता है, करता है। जब तक उसकी स्वार्थ सिद्धि, उसकी वासनाओं की शान्ति, उसकी तृष्णा की पूर्ति, आपके द्वारा होती है, तब तक वह आपके साथ आपका सहयोगी है, आपसे सहानुभूति रखता है, आपका प्रशसंक है और जहाँ उसकी स्वार्थपूर्ति हुई या उस पूर्ति में कोई विघ्न दिखाई पड़ा, वह आपके पास भी नहीं आ सकता। ऐसे मित्रों को यदि “चापलूस शत्रु” की संज्ञा दी जाये, तो कहीं अच्छा होगा। ऐसे भी प्रमाण हैं कि आज तक यदि किसी वीर की मृत्यु हुई या वह बन्धन में फैसा, तो वह मित्र के ही द्वारा। बड़े-बड़े क्रान्तिकारी विदेशियों की पकड़ में आये, परन्तु केवल अपने मित्रों की कृपा के फलस्वरूप ही। उर्दू का एक शेर है, जो इसी प्रसंग पर प्रकाश डालता है –
“खाके जो तीर देखा कमीगाह की तरफ।
अपने ही दोस्तों से मुलाकात हो गई ॥”
          कमीगाह उस स्थान को कहते हैं जहाँ से छुपकर तीर चलाया जाता है। पीछे से किसी ने तीर चलाया, पीठ में आकर लगा भी, दर्द हुआ, पीछे मुड़कर कमीगाह की तरफ जब देखा, तो वहाँ कोई अपना ही दोस्त बैठा हुआ यह तीरन्दाजी करते दिखाई पड़ा। आज के मित्रों का चित्रण इस उर्दू के शेर से अधिक और क्या सकता है। कृष्ण और सुदामा की मित्रता का उदाहरण आज के युग में देखना एक काल्पनिक चित्र मात्र है । आज तो ऐसे मित्र हैं कि मुख पर कहेंगे कि आप अच्छे आदमी हैं, आप जैसे मित्र को पाकर मैं सौभाग्यशाली हूँ और जहाँ पीठ मुड़ी और कोई दूसरा मिला तो कहने लगे, देखो – एक नम्बर बदमाश है, पचासों बदमाशियाँ तो इसकी मेरी डायरी में नोट हो रही हैं, आने दो कभी मौका, ऐसे हाथ लगाऊँगा कि याद रखे। इसलिये संस्कृत में एक विद्वान् ने लिखा है –
“परोक्षे कार्यहन्तारं, सन्मुखे प्रियवादिनम् । 
वर्जयेत् तादृशं मित्रं, विषकुम्भं पयोमुखम् ॥”
          अर्थात् जो सामने मीठा बोलता है और पीछे काम बिगाड़ता है, ऐसे मित्र को छोड़ देना चाहिये। वह मित्र इस प्रकार है, जैसे विष से भरा हुआ घड़ा हो और उस घड़े के मुख पर दूध लगा दिया गया हो। गोस्वामी जी के शब्दों में –
“विषरस भरा कनक घट जैसे ।”
          मित्र को सहानुभूतिपूर्ण, संवेदनशील और सहनशील होना चाहिये। यदि दो मित्रों में सहनशीलता नहीं है, तो मित्रता अधिक समय तक नहीं चल सकती । इसलिये चिरस्थायी मैत्री के लिये सहनशीलता परम आवश्यक है। श्रेष्ठ मित्र के क्या लक्षण हैं इसको भर्तृहरि ने एक श्लोक में लिख दिया है—
“पापन्निवारयति योजयते हिताय, 
गुह्यानि गूहति गुणान् प्रगटीकरोति । 
आपद्गतं च न जहाति, ददाति काले,
सन्मित्रलक्षणमिदम् प्रवदन्ति सन्तः ॥”
          अर्थात् जो बुरे मार्ग पर चलने से रोकता है, हितकारी कामों में लगाता है, गुप्त बातों को छिपाता है तथा गुणों को प्रकट करता है, आपत्ति के समय साथ नहीं छोड़ता तथा समय पड़ने पर कुछ देता है, विद्वान् इन्हीं गुणों को श्रेष्ठ मित्र के लक्षण बताते हैं। हमारी दृष्टि में इस श्लोक में भर्तृहरि जी ने मित्र के कर्त्तव्यों के विषय में सब कुछ कह दिया है ।
          मित्र को, यदि वह मैत्री सम्बन्धों में स्थायित्व चाहता है, ध्यान रखना चाहिये कि वह मित्र से कभी वाणी का विवाद न करे, पैसे का सम्बन्ध भी अधिक न करे तथा मित्र की पत्नी से कभी परोक्ष में सम्भाषण न करे, अन्यथा मैत्री सम्बन्ध चिरस्थायी नहीं रह सकते, जैसा कि इस श्लोक में कहा गया है—
“यदीच्छेत् विपुलां प्रीति त्रीणि तत्र न कारयेत् ।
बाग्विवादोऽर्थ सम्बन्धः एकान्ते दारभाषणम् ॥” 
          इस सन्दर्भ मे महाकवि बिहारी की उक्ति भी प्रशंसनीय है –
“जो चाहो चटक न घटै मैलो होय न मित्त ।
रज राजसु न छुवाइए, नेह चीकने चित्त ॥”
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