आदर्श गृहणी
आदर्श गृहणी
किसी विद्वान् कवि ने कहा कि “गृहणी गृहमित्याहु न गृह गृहमुक्यते” अर्थात् गृहणी से ही घर है बिना गृहणी के घर को घर नहीं कहा जा सकता । गृह की यह परिभाषा अपने में नितान्त परिपूर्ण है। बिना गृहणी के घर नहीं है और यदि घर हो भी तो उस घर में जाने को मन नहीं करता। गृहिणी गृहस्थ जीवन रूपी नौका का पतवार है, वह अपने बुद्धि-बल, चरित्र-बल, अपने त्यागमय जीवन से इस नौका को थपेड़ों और भंवरों से बचाती हुई किनारे तक पहुँचने का सफल प्रयास करती है। गृहस्थी की सुख शान्ति, आनन्द और उत्थान इसके सबल कन्धों पर आधारित रहते हैं। यदि गृहणी चाहे तो, गृहस्थ जीवन को स्वर्ग बना सकती है और यदि वह चाहे तो इस घर को नरक का रूप भी प्रदान कर सकती है। भारतीय गृहिणी का एक स्वरूप गृहलक्ष्मी का है और दूसरा विनाशकारी काली का । दूसरे शब्दों में, हम यह कह सकते हैं कि गृहस्थ जीवन रूपी गाड़ी के पति-पत्नी के दो आधार भूत पहिए हैं। इस गाड़ी को सुचारू रूप से अग्रसर करने के लिये दोनों ही पहियों को स्वस्थ और स्निग्ध होना चाहिये। यदि दोनों में से किसी एक पहिये में भी सूखापन या दरार आ गई तो निश्चय है कि वह पहिया चूँ चूँ करने लगेगा और वह कर्ण कटुध्वनि शनैः शनैः इतनी बढ़ जायेगी कि उसी मार्ग पर चलने वाले अन्य यात्रियों को अखरने लगेगी और स्वयं चलना तथा भार वहन करना तो नितान्त दूभर हो जायेगा । कौन जानता है कि वह पहिया किस समय गाड़ी में से निकलकर सड़क पर दूर जा पड़े और गाड़ी रेतीले मार्ग में जमकर बैठ जाये। जीवन को समृद्धिमय बनाने का पूर्ण श्रेय आदर्श गृहिणी को ही प्राप्त है।
आदर्श गृहिणी से केवल घर का ही उद्धार और कल्याण नहीं होता है, वरन् वह समाज और देश की भी कल्याणकारिणी होती है । वह वीरप्रसव जननी के रूप में देश रक्षक वीर पुत्रों को जन्म देती है जो रणक्षेत्र में शत्रु के दांत खट्टे कर देते हैं और विजयी होकर घर लौटते हैं । वह भक्त माता के रूप में ऐसी ज्ञानमयी सन्तान उत्पन्न करती है जो उस अगोचर और अगम्यं ब्रह्म का साक्षात्कार करते हुए भवसागर में डूबे हुए असंख्य प्राणियों का अपने ज्ञान और भक्ति के उद्देश्यों से उद्धार कर देते हैं । विदुषी माता उन मेधावी पुत्रों को जन्म देती है, जो अपनी अकाट्य विद्वता के (सीना, समक्ष दूसरों को खड़ा नहीं होने देते हैं । त्यागी जननी भोजनादि की ऐसे दानी पुत्रों को जन्म देती है, जो अपना सर्वस्व देश, व्यवस्था तथा शिशुपालन : जाति और समाज के अभ्युदय के लिए दान कर देते आदि । काढ़ना, हैं और प्रतिफल में कुछ भी नहीं चाहते। देश के नागरिकों का सभ्य होना, सुशिक्षित होना, अनुशासनप्रिय आदर्श गृहिणी प्रस्तावना – समाज में गृहिणी का महत्व । होना, यह सब आदर्श गृहिणी पर आधारित है। बच्चे के लिये शिक्षा, सभ्यता, अनुशासन, शिष्टता आदि सभी विषयों की प्राथमिक पाठशाला घर ही है, जिसकी प्रधानाचार्य माता ही है, वह जो चाहे, अपने बालक को बना सकती है। भारत में जितने भी महापुरुष हुए हैं, इतिहास साक्षी है कि उनके जीवन पर उनकी माताओं के उज्ज्वल चरित्र की स्पष्ट छाप अंकित हुई है। सत्याभाषिणी धर्मशीला पुतलीबाई के शुभ संस्कार ज्यों के त्यों उनके पुत्र मोहनदास में बचपन से ही दृष्टिगोचर होने लगे थे । भविष्य में वह बालक सत्य और अहिंसा का अनन्य उपासक हुआ जिसे आज भी समस्त विश्व मानवता का अमर पुजारी कहकर श्रद्धा से नतमस्तक होता है। इसी प्रकार छत्रपति शिवाजी की माता जीजाबाई ने घर की प्राथमिक पाठशाला में जो शिक्षा उन्हें दे दी वही जीवन के अन्तिम क्षणों तक सबल बनकर उनके साथ रही। महादेवी वर्मा के बाल्यकाल में कबीर और मीरा के जो मधुर गीत उनकी IIT ने धीरे-धीर उनके कर्णकुहरों में गुनगुनाये थे, वे गीत आज उनकी विरह के पीर बनकर सहसा फूट निकले हैं। इस प्रकार के दो नहीं असंख्य उदाहरण दिये जा सकते है : जिनके जीवन के उत्थान का श्रेय आदर्श गृहलक्ष्मियों पर आधारित रहा है। समाज और देश के उत्थान और भावी समृद्धि के लिये एक गृहिणी जितना उपकार कर सकती है, उतना कोई दूसरा व्यक्ति नहीं।
आदर्श गृहिणी के लिए सर्वप्रथम शिक्षा की आवश्यकता है। शिक्षा से मनुष्य की बुद्धि का परिमार्जन होता है, उसे अपने कर्त्तव्य अकर्त्तव्य का ज्ञान होता है। गुण और अवगुणों की पहचान होती है, जीवन का वास्तविक मूल्य समझ में आता है । मस्तिष्क की ग्रन्थियाँ खुल जाती हैं। अतः यदि गृहस्थी के इतने बड़े भार को वहन करने वाला आधार स्तम्भ ही अशिक्षित है, तो फिर गृहस्थी सुचारुतापूर्वक नहीं चल सकती । वैसे तो कुत्ता भी घर-घर की फटकार खाता हुआ अपना जीवन व्यतीत करता है, परन्तु जीवन, जीवन के लिए है, इसको अच्छे रूप में व्यतीत करना है, इसलिए यह परमावश्यक है कि गृह- लक्ष्मी सुशिक्षित हो, शास्त्रों में गृहिणी के कई स्वरूप बताये गए हैं । वह विपत्ति के समय सत्परामर्श से मित्र का कर्त्तव्य-पालन करती है, माता के समान स्वार्थ रहित साधन और सेवा में तल्लीन रहती है। सुख के समय वह पत्नी के रूप में अपने पति को पूर्ण सुख प्रदान करती है। गुरु की भाँति बुरे मार्ग पर चलने से अपने पति और अपने बच्चों को रोकती है। बताइये, जिसके इतने महान् कर्त्तव्य हों और वही अशिक्षित हो तो फिर कैसे काम चल सकता है ? अतः आदर्श गृहिणी के लिए शिक्षा की परम आवश्यकता है, परन्तु ध्यान रखिए कि आजकल जैसी दूषित शिक्षा की आवश्यकता नहीं है।
गृह-कार्य-दक्षता आदर्श गृहिणी के लिए नितान्त आवश्यक है । यदि वह गृहकार्यों में कुशल नहीं है, तो वह घर को नहीं चला सकती । भिन्न-भिन्न प्रकार के स्वादिष्ट भोजन बनाकर अपने गृहस्वामी तथा परिवार के अन्य सदस्यों को खिलाकर आदर्श गृहिणी एक असीम आह्लाद का अनुभव करती है। लक्ष्मण जब राम के साथ वन चले गए तब उर्मिला को केवल यही दुःख़ था कि –
“बनाती रसोई सभी को खिलाती, इसी काम में आज मैं मोद पाती ।
“रहा आज मेरे लिए एक रोना, खिलाऊँ किसे मैं अलोना-सलोना ।”
भोजनादि की व्यवस्था करने में आदर्श गृहिणी को कभी कोई संकोच या लज्जा नहीं होती । यह तो आज की शिक्षा और स्वतन्त्रता का दुष्प्रभाव है कि स्त्रियाँ भोजन बनाने में अपमान समझती हैं। भोजन की व्यवस्था के साथ, आय और व्यय का हिसाब भी गृहिणी को रखना चाहिए । आदर्श गृहिणियाँ सदैव अपने पति की आय से कम ही खर्च करती हैं और कुछ थोड़ा बहुत अपने विपत्ति के क्षणों के लिए आर्थिक, संकट में अपने पति की सहायता करने के लिए अवश्य बचाकर रखती हैं। काढ़ने, सीने और पिरोने में गृहिणी की अभिरुचि आवश्यक है । इससे स्वावलम्बन और आनन्द की भावना का उदय होता है । आत्म-निर्भरता मनुष्य में सर्वश्रेष्ठ गुण है। आदर्श गृहिणियों को गृह-कार्य में आत्म-निर्भर बनाने के लिए वे सभी गुण आवश्यक हैं, जो गृह की उन्नति में सहायक हों। पशु-पालन की बात पुरानी है, वह तो समय के साथ जाती रही, परन्तु शिशुपालन तो कभी नहीं जा सकता, इसलिए शिशु-परिचर्या तथा शिशु कल्याण का ज्ञान आदर्श गृहिणी को पूर्ण रूपेण होना चाहिए, यह तभी हो सकता है, जब वह शिक्षित हो ।
प्रारम्भिक चिकित्सा का भी ज्ञान होना आदर्श गृहिणी के लिए आवश्यक है। पुराने समय में छोटे-छोटे रोगों का इलाज स्त्रियाँ घर में कर लिया करती थीं । पति महाशयों को इसकी सूचना तक नहीं होती, परन्तु आज देखिए कि बच्चों को बगल में दबाया और चल दिए डॉक्टर के यहाँ । रास्ते में सहेली ने पूछा- कहाँ चल दी सुबह ही सुबह ? उत्तर मिला-पप्पू को कल से सर्दी लग गई, उसी से थोड़ी खाँसी भी आ जाती है, डॉक्टर के यहाँ जा रही हूँ । अब बताइए इन छोटे-छोटे रोगों का इलाज तो आसानी से घर बैठे भी हो सकता है, आने-जाने की परेशानी से बचा जा सकता है। आदर्श गृहिणी को ध्यान में रखना चाहिए कि हमारे पति ने खून और पसीना एक करके, सुबह से शाम तक परिश्रम करके यह पैसा पैदा किया है, इसलिए मैं इसे पानी की तरह न बहाऊँ । घर में बच्चे को कोई न कोई रोग होता रहता है। कभी खाँसी है, तो कभी जुकाम, कभी दस्त, तो कभी बुखार, कभी पेचिस है तो कभी आँव। कभी-कभी बच्चे आपस में खेलते-खेलते ही चोट मार लिया करते हैं, एक-दूसरे को नोंच-खरोंच लेते हैं और खून निकलने लगता है। इन सभी बातों के लिए आदर्श गृहिणी को घर में ही थोड़ा-थोड़ा दवा इत्यादि का प्रबन्ध रखना चाहिये। दवा लगाना, पट्टी बाँधना, फोड़े-फुन्सी धोना आदि सभी छोटे-छोटे रोगों की चिकित्सा के लिए आदर्श गृहिणी को प्रारम्भिक चिकित्सा का ज्ञान होना चाहिए।
स्वास्थ्य के लिए स्वच्छता अत्यन्त आवश्यक है। गृहिणी को स्वच्छता का भी ध्यान रखना चाहिए। घर की स्वच्छता, बच्चों की स्वच्छता और अपनी स्वच्छता । पहले स्वयं स्वच्छ रहना चाहिए। यदि गृहिणी गन्दी है, मैले-कुचैले कपड़े पहने रहती है, तो बच्चे भी वैसे ही रहेंगे। देखने वाले घृणा करेंगे, इसके साथ-साथ जहाँ गन्दगी होती है, वहाँ रोग आसानी से आ जाते हैं। घर भी साफ रखना चाहिए और उसे यथा शक्ति सजा भी लेना चाहिए, जिससे स्वयं को भी अच्छा लगे और दूसरे व्यक्ति, जो आयें उनको भी अच्छा लगे । कुत्ता भी जहाँ बैठता है पूँछ से जगह साफ करके ही बैठता है। इस पर हम तो मनुष्य हैं, बुद्धिजीवी हैं ।
आदर्श गृहिणी का आराध्य देव पति है, पति ही उसके लिए ब्रह्मा है, पति ही उसके लिये विष्णु है और पति ही उसके लिए महेश | वह समस्त देवताओं और तीर्थों का दर्शन पति में करती है। पति-सेवा ही उसके लिए भजन है, वृत है, यज्ञ है, दान है, और ज्ञान है । भारतीय पत्नि सदैव से पतिपरायणा रही है। पतिपरमेश्वर की भावना ही उसे अन्धकार में आशादीप बनकर प्रकाश प्रदान करती रही है। पतिव्रत धर्म ही उसके जीवन का सच्चा स्रोत रहा है। इसी धर्म-बल परं सावित्री ने यमराज से भी सत्यवान के प्राणों की रक्षा की थी । इसी भावना से प्रेरित होकर सीता राजसी उपभोगों का परित्याग कर राम के साथ वनवास के लिए चल पड़ी थी और कहा था—
“जिय बिनु देह नदी बिनु वारी । तैसेई नाथ पुरुष बिनु नारी ।”
भारतीय गृहिणी सदैव अपने पति के सुख में सुखी और दुख में दुखी रहती आई है। उसकी दूसरी महान् विशेषता “सहनशीलता” है। यह एक ऐसा गुण है, जो उसे श्रद्धा के चरम शिखर पर आसीन कर देता है। घर में सभी प्रकार के व्यक्ति होते हैं, यह तो आवश्यक नहीं कि सभी एक स्वभाव के ही हों। कोई कटुभाषी होगा, कोई मधुर भाषी होगा। कोई उदासीन होगा और कोई झगड़ालू होगा। आदर्श गृहिणी को सहनशील होना चाहिए । यदि सहनशीलता में थोड़ा-सा भी अन्तर आ गया तो समझ लीजिए कि घर कलह का अड्डा बन जायेगा । अतः गृहिणी को सदैव शान्तं और सहनशील होना चाहिये ।
मितव्ययिता आदर्श गृहिणी के लिए अत्यन्त आवश्यक है। यदि पतिदेव महीने में पचास रुपये पैदा करते हैं और उनमें से तीस रुपये की साड़ी खरीद लेती है तो घर का खर्च कैसे चल सकता है ? एक तो आज के युग में स्त्रियाँ वैसे भी अधिक शौकीन हो गयी हैं। आज की स्त्रियों का जितना पैसा सौन्दर्य प्रसाधनों पर व्यय होता है, उतना यदि पौष्टिक पदार्थों पर खानों पर व्यय हो, तो फिर बनावटी सुर्खी लगाने की कोई आवश्यकता न होगी। मुख का पीलापन दूर हो जायेगा, फिर पाउडर की आवश्यकता न होगी। आँखों के गड्ढे स्वयं भर जायेंगे । अतः आदर्श गृहिणी को अपने घर को स्वर्ग बनाने का प्रयत्न करना चाहिए, न कि फिजूल खर्ची करके घर को नरक बनाने का। आदर्श गृहिणी के लिये दूसरा गुण मधुर भाषण है। मधुर भाषण से श्रोता और वक्ता दोनों को ही सुख होता है, गृहिणी के मधुर भाषण से घर के सभी सदस्य सुखी रहते हैं, कलह आगे बढ़ने नहीं पाती । मधुर-भाषी के विषय में तुलसी ने लिखा है –
“कागा काको धन हरै, कोयल काकू देय ।
तुलसी मीठे बचन तें, जग अपनै कर लेय ।”
एक दूसरा भी दोहा है –
” ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोय ।
औरन को सीतल करै, आपौ सीतल होय ।”
आदर्श गृहिणी को मधुर-भाषण का यह वशीकरण मन्त्र अवश्य याद रखना चाहिये । इससे परिवार में उसका मान और आदर बढ़ेगा, सभी व्यक्ति श्रद्धा और प्रेम का व्यवहार करेंगे ।
चरित्र किसी एक विशेष गुण का नाम नहीं है। सभी गुणों के समन्वय को चरित्र की संज्ञा दी जाती है, जिसमें नम्रता, सत्यता, मृदुता, सदाचारिता तथा जितेन्द्रियता आदि गुणों का समावेश होता है। आदर्श गृहिणी का चरित्र भगीरथी के पवित्र जल की भाँति उज्ज्वल होना चाहिए। जो स्त्री अपने पति से भेद-भाव, छुपाव, छल-कपट, मिथ्या भाषण और दुर्व्यवहार रखती है, वह कभी आदर्श गृहिणी नहीं बन सकती । गृहलक्ष्मी का चरित्र अत्यन्त उज्ज्वल होता है । चरित्र-बल से ही मनुष्य समाज में उन्नत और समादृत होता है।
आज की आदर्श गृहिणियाँ उपरिलिखित आदर्श गृहिणियों के कर्तव्यों से कोसों दूर हैं। आज उन्हें शिक्षा की इसलिए आवश्यकता है कि “फिल्मफेयर” पढ़कर नए फैशन बनाना सीख सकें और आकर्षक मुद्रा में सड़कों पर घूम सकें । आज उन्हें शिक्षा की इसलिए आवश्यकता है कि वे क्लबों में या पार्टियों में जाकर अपने मित्रों का मनोरंजन कर सकें । शिक्षा से मानसिक और आध्यात्मिक उन्नति वाली बात ‘पुरानी पचड़े’, कह कर छोड़ दी जाती है। आज भी गृह-कार्य-दक्षता केवल गाने-नाचने तथा अपने फैशन बनाने तक ही सीमित है। बड़े-बड़े पढ़े-लिखे जब अपने लड़के के लिये लड़की देखने जाते हैं, तो वे केवल गाना और डांस ही देखते हैं। वैसे लड़की देखने के लिए माँ-बाप के जाने वाली प्रथा अब समाप्त-सी ही है। आज की आदर्श गृहिणी दाल-रोटी बनाने में अपनी ‘हेठी’, समझती है। प्राथमिक चिकित्सा घरेलू इलाज में तो वैसे भी हाथ गन्दे होते हैं । हैं अगर बच्चे के फोड़े में मवाद निकल रहा है, तो डॉक्टर के यहाँ भागी जाती है कि डाक्टर साहब जरा इसे साफ कर दीजिए यह कोई सफेद मोटा कीड़ा-सा इसमें बैठा है । वे स्वच्छता और सजावट में अपनी जगह पर जरूर बरकरार हैं वह भी केवल अपने तक ही । पतिदेव चाहे गन्दे चीथड़ों में चौराहे पर सब्जी बेच रहें हों पर शाम को, वह आदर्श गृहिणी, जब घूमने जायेगी तो फिर स्वच्छता और बनावट का कहना ही क्या । “पति सेवा और सहनशीलता” जैसी कोई वस्तु कभी रही होंगी, सुनने में तो आता है, पर आज के युग में तो इसे “स्त्रियों का गुलाम या दासी बनाना” कहा जाता है। ‘मितव्ययिता’ के स्थान पर आज अतिव्ययिता आ गई और मधुर भाषण अपने और पराए में से पराए के जुड़ गया है उज्ज्वल चरित्र तो गधे के सिर पर सींग जैसा है। भारतवर्ष का भविष्य इस विषय में अन्धकारपूर्ण है और यही विदेशी नकाब सामाजिक अवनति का मूल कारण है। यदि यही दशा रही तो निःसन्देह देश एक दिन गर्त में जा गिरेगा । देश के सामाजिक एवं सांस्कृतिक उत्थान के लिए महिलाओं की शोचनीय दशा में सुधार अत्यन्त आवश्यक है ।
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