“अब पछिताये होत का, जब चिड़िया चुग गई खेत” अथवा पश्चात्ताप

“अब पछिताये होत का, जब चिड़िया चुग गई खेत” अथवा पश्चात्ताप

          परमेश्वर की सृष्टि में मानव चेतना-युक्त प्राणी है। उसके पास बुद्धि का अक्षय कोष है। बुद्धि का सफल प्रयोग ही मानव को पशु-वर्ग से अलग करने वाली सफल रेखा है। अपने बुद्धि बल के सहारे ही वर्तमान में रहता हुआ मनुष्य, भूत और भविष्य में विचरण करता है। क्या हो चुका है और क्या होगा इस पर शान्तिपूर्वक विचार करता है तथा अपने लिए एक निरापद मार्ग | खोज निकालता है। कभी-कभी ऐसे भी क्षण आते हैं, जब उसे अपने किये हुए कार्य पर पछताना और दुःखी होना पड़ता है। इस दुःख की अग्नि की जलन से वह अपने वर्तमान स्वर्णिम क्षणों को भी दुःखद बना लेता है । जब समय था, शान्ति थी, बुद्धि थी तब तो विचार नहीं किया, उस समय तो मद के उन्माद में आँखें बन्द रहीं, लेकिन जब हाथ से सब कुछ निकल गया तब आँखें भी खुली विवेक भी आया, परन्तु अब कुछ होने अब तो केवल पश्चात्ताप की अग्नि ही अवशिष्ट है, जिसमें जीवन भर जलना पड़ता है। परन्तु इस पश्चात्ताप से क्या लाभ ? जो कुछ होना था सो हो चुका | क्या लाभ थोड़े से बचे-बचाये को भी मिट्टी में मिलाने से । इस आशय की द्योतक ये पंक्तियाँ हैं–
” अब पछितयो होत का , जब चिड़िया चुग गई खेत।”
          “जब चिड़िया चुग गईं खेत ।” “जब चिड़ियों ने खेत को चुग लिया, फिर पश्चात्ताप करने से क्या लाभ ?” तात्पर्य यह है । कि काल रूपी चिड़िया जीवन के स्वर्णिम क्षणों रूपी कणों को खाती रहती है, उस समय तो मनुष्य कुछ विचार नहीं करता, न उसकी रक्षा का कोई प्रयत्न ही करता है। परन्तु जब कुछ भी पास नहीं रहता, चलने का समय निकट आ जाता है, तब वह चैतन्य होता है और पश्चात्ताप करता है । जब खेत हरा-भरा था, उस समय ही उसकी रक्षा नहीं की तो फिर बाद में आठ-आठ आँसू बहाने से क्या लाभ ? मनुष्य का कर्त्तव्य है कि वह अच्छी प्रकार, सोच-समझकर कार्य करे, जिससे कि उसे अन्त में हाथ न मलना पड़े। गिरधर कवि कहते हैं–
“बिना विचारे जो करे, सो पाछे पछताय । 
काम बिगारे आपनौ, जग में होत हँसाय ॥” 
          संस्कृत की भी एक उक्ति है–
“सहसा विवधीत न क्रियाम्, अविवेका परमापदासम् पदम् ।”
          अर्थात् मनुष्य को कोई भी काम बिना सोचे-समझे नहीं करना चाहिये क्योंकि अविवेक हजारों आपत्तियों की जड़ होता है। पहले कार्य और अकार्य पर उसकी सार्थकता और निरर्थकता पर अच्छी तरह विचार करना चाहिये, क्योंकि कार्य समाप्त होने पर कुछ नहीं हो सकता, केवल पछतावामात्र रह जाता है।
“अरविन्द को मार तुषार गया, मुस्कराते हुए रवि आये तो क्या । ” 
          जब कमलों को पाला मार जाये, प्रातः काल के समय कितनी ही मुस्कराहट बिखराते हुए सूर्य आये, कोई लाभ नहीं होता। अपने काम बिगड़ जाने पर रोने-धोने से न कुछ होता है और न पश्चात्ताप की अग्नि में स्वयं को जला डालने से ही कुछ बनता है। एक स्थल पर तुलसीदास ने लिखा है–
“का वरषा जब कृषि सुखाने समय चूकि पुनि का पछिताने ।”
          एक बार जब समय चूक गया फिर आप कितना ही पश्चात्ताप कीजिये कोई लाभ नहीं हो सकता। समय की गति पहचानकर तदनुकूल आचरण करना तथा अपने अभीप्सित कार्य क्षेत्र में विचारपूर्वक आगे बढ़ना ही सफलता का मन्त्र है। पश्चात्ताप करना तो एक गलती के ऊपर दूसरी गलती करना है। हमने पहली गलती तो यह की कि सोचा-समझा नहीं, दूसरी गलती यह करते हैं कि अपने शरीर और मन को पश्चात्ताप की अग्नि में जलाये डालते हैं, थोड़े बचे हुए जीवन के आनन्द को भी जान-बूझकर खोये दे रहे हैं। किसी विद्वान् ने कहा है –
“गर्तं न शोचामि कृतम् न मन्ये ।”
          अर्थात् जो बात हो चुकी उस पर चिन्ता करना, खेद करना, व्यर्थ है। हाँ जब थोड़ा-सा भी, समय बाकी था उस समय का थोड़ा-सा भी प्रयास, उस समय की थोड़ी-सी सावधानी हमारा बहुत कुछ कल्याण कर सकती थी, परन्तु समय समाप्त हो जाने पर आप कितना ही पश्चात्ताप कीजिये, कोई लाभ नहीं । रहीम ने भी इसी बात की पुष्टि की है कि समय रहते हुये ही मनुष्य को सावधान हो जाना चाहिये । जब तक दूध, दूध है तब तक ही उसको मथकर मक्खन निकालने में बुद्धिमत्ता है, जब बिगड़ जाता है तब आप कितना भी परिश्रम करें, दूध में से मक्खन नहीं निकाला जा सकता, दूध फट जाने पर मक्खन निकालने का प्रयास शक्ति का अपव्ययमात्र ही होगा। रहीम कहते हैं—
“ रहिमन बिगरे दूध को, मथे न माखन होय | “
          इतिहास साक्षी है कि पृथ्वीराज चौहान ने मुहम्मद गौरी को १७ बार हराया, परन्तु इस आक्रान्ता के विषैले दाँत न तोड़े, जिसके परिणामस्वरूप भारत शताब्दियों तक विदेशियों से पदाक्रान्त रहा। आज भी भारतवासी पृथ्वीराज चौहान की बुद्धि पर पश्चात्ताप करते हैं, पर क्या लाभ ? यदि चौहान ने पहले ही सोच-समझकर इस समस्या को सुलझा दिया होता तो भारत को इतने दुर्दिनन देखने पड़ते।
          इतिहास साक्षी है कि जितने भी महापुरुष हुये उन्होंने समय की गति को पहचाना। जो समय जिस कार्य के लिये उपयुक्त था वह उसी समय किया तभी उन्हें निश्चित सफलता प्राप्त हुई, इसीलिये आज भी उनका नाम और उनकी कीर्ति अक्षुण्ण है । लोहे को तभी पीटना चाहिये जब वह गरम हो, तभी आप उससे अपने मनोनुकूल वस्तुएँ बना सकते हैं । यदि लोहा ठण्डा पड़ गया तो आप कितना ही पीटिये, उससे आप कोई वस्तु नहीं बना सकते, आपका हथौड़ा और छैनी भले ही टूट जायें। अंग्रेजी की एक कहावत भी है ।
“Strike the iron while it is hot.”
          प्रत्येक बुद्धिमान व्यक्ति को समय रहते ही सावधान हो जाना चाहिये । प्यास से व्याकुल होने पर जो व्यक्ति कुआँ खोदना प्रारम्भ करता है, वह प्यासा ही मर जाता है। जो विद्यार्थी परीक्षा के दिनों में तो सोता है, मौज उड़ाता है परन्तु, बाद में पश्चात्ताप करता है, तो उसका पश्चात्ताप करना व्यर्थ है। समय पर कार्य न करने वाले और समय पर न बोलने वाले को शंकराचार्य ने मूक और बधिर की उपाधि दी है –
“मूकस्तु को वा बधिरस्तु को वा वक्तुं न शक्तुं समये समर्थ: ” 
          अर्थात् जो व्यक्ति यथासमय न कार्य कर सकता है, न बोल सकता है, वह बहरा और गूंगा । अतः अपने को मनस्ताप और खेद से बचाने के लिये यह आवश्यक है कि हम समय पर ही सावधान हो जायें अन्यथा केवल हाथ मलना ही हमारे हाथ रह जायेगा और कुछ नहीं ।
          इसीलिये परिस्थिति को पहचानने वाले तथा समय पर कार्य करने वाले व्यक्तियों का ही सफलता सर्वदा वरण करती है ।
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