अन्तर्राष्ट्रीय विकलांग वर्ष, १९८१

अन्तर्राष्ट्रीय विकलांग वर्ष, १९८१

          विश्व का प्रबुद्ध बौद्धिक वर्ग १९७५ में नारी जाति के प्रति पुरुष के भेदभावों, असमानताओं और सहिष्णुताओं के प्रति खिन्न हो उठा था तब विश्व संगठनों ने एक स्वर से महिला वर्ष मनाने की आवाज उठाई थी। उसका परिणाम भी सुखद हुआ था, महिलायें जागी थीं, आगे बढ़ी थीं, विश्व की सरकारों ने महिलाओं के उत्थान के लिए नये-नये कानून बनाये थे। उसी प्रकार विश्व के मानवता उपासकों ने, अनेक विश्व संगठनों ने और अनेकों राष्ट्राध्यक्षों ने १९८० में निर्णय लिया कि १९८१ को विकलांग वर्ष मनाया जाये तथा उनके उत्थान के लिये सामूहिक प्रयास किये जायें क्योंकि वे भी मनुष्य हैं और उसी ईश्वर की सन्तान हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा इसकी विधिवत् घोषणा कर दी गई और समस्त विश्व में १९८१ अन्तर्राष्ट्रीय विकलांग वर्ष के रूप में मनाया जाने. लगा।
          विकलांग का अर्थ है कि जिसके शरीर के अंगों में कोई कमी हो, पाँच कर्मेन्द्रियों में से किसी एक की छिन्न-भिन्नता हो । विकलांगों की श्रेणी में लूले-लंगड़े, अन्धे-बहिरे आदि सभी प्रकार के विकृत अंग वाले व्यक्ति आ जाते हैं। विकलांगों के तीन भेद हैं- (१) शारीरिक विकलांग, (२) मानसिक विकलांग, (३) आध्यात्मिक विकलांग । शारीरिक विकलांगों की श्रेणी में वे व्यक्ति आते हैं जिनके शरीर के अंगों में या अवयवों में कोई कमी होती है जैसे अन्धे, बहिरे, लंगड़े एक हाथ और एक आँख वाले या इसी प्रकार के शरीर के अन्य अंगों से रहित व्यक्ति । मानसिक विकलांगों की श्रेणी में वे व्यक्ति आते हैं, जिनका मस्तिष्क और मन संसार की अनेक सघन चिन्ताओं से जूझता रहता है और मानसिक तनाव के शिकार होते हैं और रक्तचाप के बीमार होते हैं या फिर इस कोटि में वे दयनीय व्यक्ति आते हैं जिनके मन को दुर्दिनों ने और संसार की आपदाओं ने मार दिया होता है। आध्यात्मिक विकलांगों की श्रेणी में वे व्यक्ति आते हैं जो “खाओ, पीओ और मौज उड़ाओ” के सिद्धान्त में विश्वास रखते हैं। उन्हें न अपने धर्म कर्म से मतलब और न राम रहीम से सम्बन्ध । आत्मा और परमात्मा तो उनके लिए प्रहसन की वस्तु होता है।
          विश्व की सरकारों का लक्ष्य १९८१ में चूंकि केवल शारीरिक विकलांगों के उत्थान और उन्नयन से है इसलिये इस निबन्ध में अब केवल शारीरिक विकलांगों तक ही चर्चा होगी । शारीरिक विकलांगता के दो कारण होते हैं पहला – प्राकृतिक, दूसरा — अप्राकृतिक । प्राकृतिक विकलांगों में वे व्यक्ति आते हैं जिनके शरीर में माता के गर्भ में से ही कोई कमी आती है, बहुत से बच्चे जन्मान्ध पैदा होते हैं, बहुत से दो सिर वाले पैदा होते हैं, आदि-आदि । प्राकृतिक विकलांगता बहुत कुछ माता के आचार-विचार, आहार-विहार, रहन-सहन आदि पर निर्भर करती है। पहिले, गर्भ रक्षा और गर्भ पोषण के अनेक अचार-विचार थे इसलिये बालक स्वस्थ और सकलांग पैदा होता था। आज की नई रोशनी में वे सब नियम और परम्परायें ताक पर उठाकर रख दिए गए । इसीलिए जन्मजात विकलांगों की संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि होती जा रही है। उन प्राचीन नियमों और परम्पराओं का निर्वाह्न करना मनुष्य ने छोड़ दिया परन्तु पशुओं और पक्षियों ने नहीं छोड़ा इसीलिए पशु-पक्षियों में जन्मजात विकलांग आपको नहीं मिलेंगे ।
          अप्राकृतिक कारण चार प्रकार के हो सकते हैं – (१) रोग, (२) दुर्घटना, (३) युद्ध (४) वैज्ञानिक परीक्षण | विकलांगता का प्रथम कारण रोग है । औषधि विज्ञान की नई-नई खोजों ने यद्यपि इस दिशा में पर्याप्त रोकथाम की है फिर भी रोगों की भयानकता गरीबों के लिये आज भी कम नहीं हुई है। अनेक चिकित्सा सुविधाओं के बाद भी ग्रामीण जनता रोगों के प्रभाव से विकलांगता से बच नहीं पाती, जिनमें लकवा और नेत्रहीनता मानव के ये दो प्रमुख शत्रु हैं। पहिले चेचक में जिसे माता कहते थे बहुत से बच्चों की नेत्र ज्योति नष्ट हो जाती थी और लकवे (पक्षाघात) में एक तरफ के हाथ और पैर जाते थे। विकलांगता का दूसरा कारण दुर्घटनायें हैं। आजकल आये दिन रेलें और मोटर ट्रक और तांगे आपस में टकरा रहे हैं जिनके फलस्वरूप किसी यात्री का हाथ कट जाता है और किसी का पैर, किसी की आँखें ही निकल पड़ती हैं। विकलांगता का तीसरा भयानक कारण युद्ध है। युद्ध से विकलांगतो असीमित बढ़ जाती है। शत्रु की गोलियों से हजारों सैनिक विकलांग हो जाते हैं, हालांकि अब नये युग में वैज्ञानिक उपकरणों से सैनिकों के हाथ टांग कृत्रिम लगा दिये जाते हैं नेत्र अब भी नहीं लग पाते। युद्ध में केवल सैनिक ही विकलांग नहीं होते अपितु जनता भी विकलांगता का शिकार हो जाती है। हिरोशिमा और नागासाकी पर छोड़े गये बमों के कुप्रभाव और दुष्परिणामों से वहाँ की जनता तक मुक्त नहीं हो सकी। विकलांगता का चौथा कारण वैज्ञानिक परीक्षण है। वैज्ञानिक परीक्षणों और विस्फोटों से जो विषैली धूलि और गैस उड़ती है उससे मानव मात्र रोगों से पीड़ित रहने लगता है। उस धूलि का प्रभाव शनैः शनैः मानव के विभिन्न अंगों को निर्जीव बना देता है। १९८१ के जौलाई और अगस्त के महीनों में भारत में आई फ्लू फैला, उसमें बहुत से लोगों की नेत्र ज्योति पर प्रभाव पड़ा । कहते हैं कि यह भी वैज्ञानिक परीक्षण की गैसों और धूलि का ही परिणाम था।
          किसी भी राष्ट्र की सरकार यदि अपनी जनता के सुख दुखों के प्रति सजग और जागरूक है तो ईमानदारी से जनता के प्रति अपने कर्त्तव्यों को पालन करती है तो विकलांगता दूर हो सकती है । यदि सरकार अपनी जनता के स्वास्थ्य और कल्याण के प्रति सजग है तो वह रोगों से रक्षा कर सकती है, युद्ध को टाल सकती है, वैज्ञानिक परीक्षणों पर प्रतिबन्ध लगा सकती है, आये दिन अनेक दुर्घटनाओं को सशक्त प्रशासन के द्वारा रोक सकती है। कुछ स्तरों पर जन सामान्य को भी सजग रहना होगा जैसे आहार-विहार, खान-पान, स्वास्थ्य निर्देशक नियमों के प्रति निष्ठा । तभी विकलांगता किसी भी देश में से कम हो सकती है ।
          सकलांग समाज को दायित्व हो जाता है कि वह अपने विकलांग बन्धुओं की शिक्षा-दीक्षा, रहन-सहन एवं जीवन निर्वाह के साधनों को प्रोन्नत करके सहयोग दें। वे भी हमारे समाजरूपी शरीर के अभिन्न अंग हैं । शरीर के एक अंग में तकलीफ हो जाने से सारा शरीर प्रसन्न कैसे रह सकता है। अन्तर्राष्ट्रीय विकलांग वर्ष १९८१ के संदर्भ में १० अगस्त, १९८१ को विज्ञान भवन दिल्ली में आयोजित संगोष्ठी का उद्घाटन करते हुए भारत के उपराष्ट्रपति श्री एम० हिदायतुल्ला ने कहा कि – “सामाजिक तथा शारीरिक कारणों से समाज के कटे वर्गों के लिए हमने गत वर्षों में काफी कुछ किया है पर जब मैं इस समस्या पर दृष्टिपात करता हूँ तब मैं यह देखकर चिन्तित हो जाता हूँ कि आज भी देश के एक तिहाई बच्चे सौ रुपये की मासिक पारिवारिक आय पर जीने को मजबूर हैं।” उन्होंने कहा कि — “इनमें से अधिकांश संख्या कमजोर वर्ग के बच्चों की है अध्ययन से पता चलता है कि २० प्रतिशत बच्चों को बीच में ही पढ़ाई छोड़ देनी पड़ती है और जब कभी मैं यह सोचता हूँ कि अगले कुछ साल में ही ऐसे ३० करोड़ बच्चों की समस्या और हमारे सामने आने वाली है तब मैं चिन्तित हो जाता हूँ। सरकार से इस दिशा में जो हो पाता है, . करती है लेकिन इस समस्या को बिना स्वैच्छिक संस्थाओं की सहायता के हल नहीं किया जा सकता। मैं समझता हूँ कि हमारे देश में कुछ लोग ऐसे हैं जो इसके लिये काफी योगदान कर सकते हैं । ”
          इस आयोजन की अध्यक्षता करते हुए केन्द्रीय उद्योग मन्त्री श्री नारायण दत्त तिवारी ने बताया कि अनुमानतः विश्व में ५० करोड़ बच्चे किसी न किसी तरह की विकलांगता से प्रसित हैं। हमारे देश में ही कोई १ करोड़ २० लाख बच्चे तो दृष्टिहीन हैं। इनमें से काफी ऐसे हैं जिनको ज्योति मिल सकती है। बधिरता दूसरा बड़ा रोग है, यह ऐसा रोग है, जिसके कारण व्यक्ति समाज से पूर्णतः विच्छिन्न हो जाता है। लेकिन गरीबी के कारण इन लोगों का ठीक उपचार नहीं होता। श्री तिवारी ने कहा – “हमारे संविधान निर्माताओं ने शारीरिक तथा सामाजिक रूप से अक्षम व्यक्तियों के बारे में गम्भीरता से सोचा था तभी तो उन्होंने संविधान में यह लिखा था कि ऐसे लोगों के कल्याण की जिम्मेदारी राज्यों को निभानी होगी।”
          अगस्त १९८१ में अफ्रीका के सिनेकिन नगर में अपंगों के उत्थान के विषय पर आयोजित २८वीं वर्ल्ड स्काउट कांग्रेस में निश्चय किया गया कि स्काउटिंग के माध्यम से अपंगों के दिलो-दिमाग को इस प्रकार से तैयार किया जायेगा कि वे समाज में अपने को निम्न श्रेणी का न समझें। स्काउट्स की ओर से लन्दन में एक कार्यालय बनाया गया है जो समस्त देशों को उनकी आवश्यकतानुसार अपंगों के लिए सामान देगा। उन्हें स्काउटिंग स्तर पर जानकारी दी जा रही है कि प्रत्येक गाँव, कस्बे और नगर में कितने अपंग हैं। भारत की ओर से पंचमणी में एक कैम्प लगाया जायेगा जिसमें ५० स्काउट व गाइड भाग लेंगे, उनके लिए आवश्यक होगा कि वे अपने साथ एक-एक अपंग बच्चे को लायें जहाँ उसका मानसिक विकास इस प्रकार से हो कि वह अपने को समाज का ही एक अंग समझे ।
          अन्तर्राष्ट्रीय विकलांग वर्ष १९८१ के उपलक्ष्य में भारत सरकार ने सरकारी नौकरियों, प्रशिक्षण संस्थाओं एवं अन्य अधिष्ठानों में विकलांगों का आरक्षण कर दिया है। विकलांगों की शिक्षा दीक्षा के लिए भारत सरकार पहिले ही जागरूक है। सरकार से पोषित अनेकों शिक्षा संस्थायें इस दिशा में महत्वपूर्ण कार्य कर रही हैं। सरकार इस ओर पूर्ण प्रयत्नशील है । १९८८ तक हजारा विकलांगों को भारत सरकार ने उनके शरीर के अभाव अंग प्रदान किये हैं। प्रत्येक प्रदेश में सरकार की ओर से विकलांग सहायता शिविर आयोजित किये जा रहे हैं। जिला मजिस्ट्रेटों की देख-रेख में उनकी आर्थिक एवं आंगिक सहायता की जा रही है। विकलांगों को बैंकों से भी चलने-फिरने एवं जीविकोपार्जन के साधन उपलब्ध कराये जा रहे हैं। यदि समाज का प्रत्येक नागरिक इस ओर सहानुभूतिपूर्ण और रचनात्मक सहयोग की ओर अग्रसर हो उठे तो सोने में सुहागे का कार्य होगा।
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