अन्तर्राष्ट्रीय बाल वर्ष १९७९

अन्तर्राष्ट्रीय बाल वर्ष १९७९

          संसार का प्राणि मात्र माया रूपी• ठगिनी से सदैव ठगा जाता रहा है। इसके मोहक रूप जाल में मानव अपना सब कुछ ‘शुभ’ भूल जाता है और जीवनपर्यन्त वही राग अलापता है जिसकी यह आज्ञा देती है, वही करता है, जिसकी आज्ञा इस ठगिनी से प्राप्त हो जाती है। परिणामस्वरूप दुःख सागर में डूबता-उतरता किसी तरह रो-धोकर मृत्यु रूपी शान्त-सरिता के किनारे पर जाकर लगता है, जहाँ पहुँच कर वह एक बार फिर अपनी प्राकृतिक निर्लिप्ता, निर्विकारिता, निस्पृहता और निर्वेदता को प्राप्त हो जाता है ।
          इस निर्लिप्तता और निर्विकारिता का अबाध साम्राज्य यदि आप देखना चाहते हैं तो किसी भोले-भाले बच्चे के मुँह पर देखिये जिस पर न काम की काली छाया है और न क्रोध की गहरी पर्तें। लोभ और मोह के नाम से अभी परिचय नहीं हुआ, मद और मात्सर्य को अभी वे आँखें पहिचानती भी नहीं | वहाँ न अधिनायकवाद है और न सामंतवाद, वहाँ शुद्ध साम्यवाद है, सौम्यता है, सरलता है, सहज आत्मीयता है सभी के प्रति चाहे परिचित हो या अपरिचित । इसलिए श्रीदामा ने कृष्ण से कह दिया था –
“खेलन में को काको गुसइयाँ” 
          इसी निर्लिप्तता के कारण बच्चों को परमहंस की उपाधि दी जाती है और उन्हें साक्षात् ब्रह्म-स्वरूप माना जाता है। जितने भी महापुरुष हुए हैं उन्होंने सदैव बच्चों को अपने हृदय किया है। पं० जवाहरलाल नेहरू जहाँ कहीं भी जाते बच्चों को देखकर आत्मविभोर हो जाते और उन्हें बड़े प्रेम से माला और गुलदस्ता देते, पुचकारते और गोदी में उठा लेते, यहाँ तक कि पं० नेहरू ने तो अपने जन्म दिवस को ही बाल-दिवस के रूप में परिवर्तित कर दिया था । वे कहा करते थे कि देश की असली निधि और वास्तविक समृद्धि तो देश के बच्चे हैं, ये वे कली हैं जो कल विकसित होकर अपने सौरभ से अपने मुल्क को तथा दूसरे मुल्कों को सौरभान्वित कर देंगे।
          किसी भी देश या किसी भी राष्ट्र की भावी समृद्धि उस देश के बच्चों पर अवलम्बित होती है। यदि किसी देश के बच्चे भूखे हैं, नंगे है, बीमारियों से घिरे हैं, अशिक्षा के वातावरण में पल रहे हैं, तो वह देश निश्चित ही पतन के कगार पर है। विजेता देश विजित देश और जाति पर इसी प्रकार के हथकण्डे काम में लाता है जैसा कि अंग्रेजों ने भारत में किया था । दिनकर जी ने स्पष्ट लिखा है –
श्वानों को मिलता दूध यहाँ,
बच्चे भूखे बिलखते हैं ।
          भारत में लाखों बच्चे हैजा, प्लेग, चेचक आदि महामारियों एवं तथाकथित भीषण अकालों से काल कवलित हो जाते थे । भूकम्प और बाढ़ों की चपेटों में उन्हें अपनी जीवन लीला समाप्त करनी पड़ती थी । न उनके लिये शिक्षा थी और न चिकित्सा, न पौष्टिक आहार था न स्वच्छ विहार ।
          विश्व के बालकों की उभरती हुई दुर्दशा को देखकर मानव-कल्याण से सम्बन्धित यू० एन० ओ० की शाखा, उपशाखाओं ने इस ओर सराहनीय कार्य किया । देश-विदेशों के बच्चों के लिये पौष्टिक आहार की योजना क्रियान्वित की गई। उन्हें साक्षर और स्वस्थ रखने के लिए अनेक उपाय किये गये हैं । तरह-तरह की बीमारियों से उन्हें बचाने के लिये विश्व स्वास्थ्य संगठन अनेक प्रकार की औषधियाँ विश्व के सभी देशों को भेजता था ।
          मानव कल्याण में रत विश्व के अनेक संगठनों एवं यू० एन० ओ० के विश्व कल्याण संगठनों के सत्प्रयासों एवं प्रेरणाओं से सन् १९७९, अन्तर्राष्ट्रीय बाल वर्ष के रूप में मनाया गया। विश्व के सभी देशों में बाल कल्याणकारी योजनायें प्रारम्भ की गई । भारतवर्ष के सभी प्रान्तों में राजकीय स्तर पर मेलों और उत्सवों का आयोजन किया गया। शहर शहर में विद्यालयों के छात्रों ने सामूहिक जुलूस निकाले, बालकल्याण से सम्बन्धित गोष्ठी और प्रदर्शनियों का आयोजन किया गया। लाखों बच्चों को रोग निरोधक टीके लगाये गये । प्रान्तों के शिक्षा विभागों ने बाल-शिक्षा की प्रोन्नति के लिये अपने-अपने सक्रिय पग आगे बढ़ाये। मध्यावकाश में पौष्टिक अल्पाहार प्रदान किया जाने लगा तथा उनकी स्वास्थ्य परीक्षा करके अच्छे स्वास्थ्य के लिये उपाय किये गये । भारत के अन्तर्राष्ट्रीय बाल-वर्ष के उपलक्ष में ५ मार्च, १९७९ को चार नये सिक्के भी जारी किये । भारत के उपराष्ट्रपति श्री जत्ती ने एक विशेष समारोह में इन सिक्कों को जारी किया, इनमें से दो पचास रुपये और दस रुपये के और दस पैसे और पाँच पैसे के थे। भारत ने बाल वर्ष के उपलक्ष में १४ वर्ष तक के अकिंचन, गरीब, बेसहारा तथा कमजोर वर्गों के बच्चों के लिए विशेष योजनायें बनाईं। उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्य भारत आदि राज्य सरकारों ने अपने-अपने राज्यों में शिशु सदनों, बाल सदनों, निकेतनों को स्थापित करने की घोषणायें कीं। शारीरिक रूप से विकलांग बच्चों पर विशेष ध्यान देने की व्यवस्था की गई। सभी विकलांग बच्चों को कृत्रिम अंग तथा शिक्षा एवं प्रशिक्षण के लिए आर्थिक सहायता और छात्र-वृत्ति सुलभ करने की भी व्यवस्थाएँ की की गईं। बाल अपराधियों के सुधार एवं पुनर्वास पर भी विशेष ध्यान देने की व्यवस्था की गई। प्रान्तीय सरकारों ने इस वर्ष बच्चों को रोग मुक्त कराने के लिए व्यापक स्तर पर अभियान चलाया।
          क्या अन्तर्राष्ट्रीय बाल वर्ष मनाने से बालकों की समस्याओं का समाधान सम्भव है ? क्या विभिन्न देशों में बड़े-बड़े समारोह मना लेने से या सम्पन्न घरानों के कुछ सजे-धजे बच्चों को पुरस्कार देने से या नेताओं द्वारा बड़े-बड़े वक्तव्य देने से अथवा अन्तर्राष्ट्रीय बाल वर्ष के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के विशेषांक निकाल देने से बच्चों का कल्याण हो सकेगा ? इन प्रश्नों का • उत्तर शून्य में आता है। आजकल विश्व में कितने बाल समुदाय भिन्न-भिन्न अभावों से ग्रसित हैं, कहा नहीं जा सकता है। अकेले भारत में ही साढ़े तीन करोड़ बच्चे अपने मौलिक अधिकारों से वंचित हैं तथा नियमित या अनियमित अथवा वैध या अवैध कामों में लगे हुए हैं। १९७१ की जनगणना के अनुसार सबसे अधिक बाल मजदूर (१६ २७ लाख) आन्ध्र प्रदेश में थे, उसके बाद उत्तर प्रदेश में (१३ ·२७ लाख) । इन पर कितने अत्याचार होते हैं और कैसा अमानुषिक व्यवहार किया जाता है यह कोई पूछने वाला नहीं है । वयस्क श्रमिक अन्याय के विरुद्ध अदालतों में जा सकता है परन्तु बाल श्रमिक तो यह भी नहीं कर पाता । बच्चों के संरक्षकों को भी इस व्यवस्था में कोई आपत्ति नहीं होती क्योंकि वे भी भविष्य के आर्थिक दायित्व से मुक्ति पा जाते हैं। यह स्थिति केवल भारत में ही नहीं अपितु विश्व के सभी देशों में समान है ।
          १९७९ से २ वर्ष पहिले संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपने घोषणा पत्र में बालकों के मौलिक अधिकारों की घोषणा की थी। इनमें प्रमुख अधिकार इस प्रकार हैं- स्नेह, प्रेम और सद्भावना पाने का, पर्याप्त पोषण का, डॉक्टरी देख-भाल का, निःशुल्क शिक्षा का, खेल और मनोरंजन का, समाज के उपयोगी सदस्य बनाने का, व्यक्तिगत क्षमताओं के विकास का, आदि । विश्व के बहुसंख्यक बच्चों के लिए ये अधिकार आज भी कल्पना की चीज बने हुए हैं ।
          आवश्यकता इस बात की है कि समाज के उस वर्ग को जगाया जाए तो अपने बच्चों को उनके मौलिक अधिकारों से वंचित रखता है। समझदार, समाज सेवी और बुद्धिजीवी व्यक्तियों का यह कर्त्तव्य है कि वे अधिक से अधिक यह प्रचार करें कि प्रत्येक बच्चे के कुछ मौलिक अधिकार होते हैं और अगर कोई माता-पिता वे मौलिक अधिकार अपने बच्चों को नहीं दे सकते तो वे अपने बच्चों के साथ अन्याय करते हैं। जन साधारण के मन में यह बात अच्छी तरह बैठा देनी चाहिए कि यह उनका अतिरिक्त दायित्व है जो उन्हें स्वीकारने से पहिले अपनी सामर्थ्य पर भली-भाँति विचार कर लेना चाहिये। यह प्रचार केवल शहरों तक ही सीमित न रह कर शहरों और गाँवों में समान रूप से होना चाहिये। माता-पिताओं में जब तक यह जागृति उत्पन्न नहीं होगी तब तक बाल कल्याण कैसे सम्भव हो सकता है ।
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