‘अग्नि’ तथा अन्य प्रक्षेपास्त्र, १९८९

‘अग्नि’ तथा अन्य प्रक्षेपास्त्र, १९८९

          पं० जवाहर लाल नेहरू के संजोये हुये स्वप्न कुछ तो उनके जीवन काल में ही साकार हो उठे थे । अवशेष वैज्ञानिक उपलब्धियाँ उनकी सुपुत्री, जिन पर भारत को सदैव गर्व रहेगा, श्रीमती इन्दिरा गाँधी के प्रधानमन्त्रित्व काल में एक-एक करके सफल और साकार हो उठी थीं। भारत को गौरव और गरिमा के शिखर पर पहुँचाने में इन्दिरा जी ने अपनी शक्ति और सामर्थ्य से अधिक प्रयास किया चाहे वह युद्धक्षेत्र हो या सामाजिक क्रान्ति का क्षेत्र हो। उन्होंने अन्तरिक्ष और परमाणु कार्यक्रमों को अद्वितीय प्रेरणा और प्रोत्साहन किया। वैज्ञानिक और सेनानायक सम्मानित करते हुए उन्होंने अपने रक्त की अन्तिम और पुरस्कृत हुए। देश की अखण्डता की समर्पित कर दी ।
          अमरीका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस और चीन इन पाँच राष्ट्रों के एकाधिकार को करते हुए १८ मई, १९७४ को प्रातः ८ बजे को समाप्त भारत ने जब अपना प्रथम परमाणु विस्फोटक किया था तब देश का कण-कण हर्षोल्लास से नाच उठा था । श्रीमती गाँधी ने कहा था “भारत के वैज्ञानिकों ने अच्छा और व्यवस्थित काम कर दिखाया है। हमें और सारे देश को इन पर गर्व है।” निर्भीक सिंहनी की भाँति गर्जना करते हुये और उन्हें फटकार बताते हुये उन्होंने कहा था कि ‘शान्तिपूर्ण उद्देश्यों के लिये भारत के अणु परीक्षण पर नाक-भौं सिकोड़ने वाले क्या यह मानते हैं कि बड़े देशों को विध्वंस के लिये अणु बम बनाने का अधिकार है और भारत जैसे विकासोन्मुख देश अपनी जनता की गरीबी तथा दूसरी मुश्किलों को हल करने के लिये भी अणु शक्ति का विकास नहीं कर सकते ।”
          १९ अप्रैल, १९७५ को मध्यान्ह १ बजे भारत ने अपना पहिला उपग्रह ‘आर्यभट्ट’ अन्तरिक्ष कक्ष में स्थापित किया। अन्तरिक्ष में सफलता से कृत्रिम उपग्रह वह छोड़ने वाला भारत ग्यारहवाँ देश था। जब तक अमेरिका, रूस, पश्चिमी जर्मनी, फ्राँस, ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया, कनाडा, जापान और इटली इस विषय में सफलता प्राप्त कर चुके थे । श्रीमती गाँधी ने इस अन्तरिक्ष अनु महान् उपलब्धि पर असीम प्रसन्नता व्यक्त करते हुये कहा था “हमारा यह उपग्रह भारतीय वैज्ञानिकों की योग्यता तथा परिश्रम का प्रतीक है। आर्यभट्ट की प्रतिभा इतनी व्यापक थी कि हम पाँचवीं शताब्दी के इस खगोलशास्त्री को बीसवीं सदी का अर्थशास्त्री कह सकते हैं।”
        १९७९ में भारत ने ‘भास्कर – प्रथम उपग्रह अन्तरिक्ष कक्ष में स्थापित किया। परन्तु भारतीय वैज्ञानिक भीतर ही भीतर इस बात पर घुटन महसूस कर रहे थे कि ये उपग्रह रूस की धरती से छोड़े गये थे । १८ जौलाई,१९८० को भारतीय वैज्ञानिकों ने मद्रास से सौ किलोमीटर दूर श्रीहरिकोटा से प्रात: आठ बजकर चार मिनट पर ‘रोहिणी’ उपग्रह छोड़ा। इसी प्रकार भास्कर—दो, २० नवम्बर, १९८१ को छोड़ा गया। इसी क्रम में भारत ने अनेक उपग्रह अन्तरिक्ष में भेजकर अन्तर्राष्ट्रीय सम्मान एवं गौरव प्राप्त किया । ३ अप्रैल, १९८४ को भारत के श्री राकेश शर्मा ने रूसी अन्तरिक्ष यात्रियों के साथ अन्तरिक्ष की यात्रा की। श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने राकेश शर्मा से बातचीत करते हुये पूछा कि आपको वहाँ से भारत कैसा लग रहा है ? राकेश शर्मा ने उत्तर दिया था – “सारे जहाँ से अच्छा।” श्रीमती इन्दिरा गाँधी भारत की इस अभूतपूर्व सफलता पर फूली न समाई थीं।
          प्रधानमन्त्री श्री राजीव गाँधी की साहसी प्रेरणाओं ने इसी शृंखला में अपने कार्य-काल के स्वर्णिम इतिहास में कम दूरी पर मार करने वाले मिसाइल ‘पृथ्वी’ ( २५ फरवरी, ८८) का तथा सतह से हवा में मार करने वाली मिसाइल ‘त्रिशूल’ के सफल परीक्षणों के बाद लम्बी दूरी के बैलिस्टिक प्रक्षेपास्त्र ‘अग्नि’ के अभूतपूर्व निर्माण और उसके छोड़ने में अद्वितीय सफलता प्राप्त की। लम्बी दूरी का भारत का यह पहला प्रक्षेपास्त्र है। इसके साथ ही स्वदेशी स्तर पर प्रक्षेपास्त्र विकास में आत्म-निर्भरता के एक नये अध्याय के प्रारम्भ के साथ ही भारत विश्व का ऐसा छठवाँ देश हो गया जिनके पास मध्यम दूरी के बैलिस्टिक प्रक्षेपास्त्र छोड़ने की क्षमता है। इससे पहले अमेरिका, सोवियत संघ, फ्रांस, चीन और इजरायल इस प्रक्षेपास्त्र का सफल प्रक्षेपण कर चुके हैं। अब भारत भी इन देशों में सम्मिलित हो गया है। यह प्रक्षेपण २२ मई, १९८९ को प्रातः उड़ीसा के चाँदीपुर तट पर सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ।
          इसके पूर्व २० अप्रैल, १९८९ को ‘अग्नि’ का परीक्षण किया जाना था लेकिन उसके दागे जाने से कुछ सेकण्ड पूर्व ही कम्प्यूटर पर किसी त्रुटि का पता लगने के बाद इसे स्थगित कर देना पड़ा था। फिर इसके लिये १ मई, ८९ निश्चित की गई । परन्तु स्वचालित विलोम गणना के अन्तिम चरणों में कम्प्यूटर ने ‘अग्नि’ की एक उप-प्रणाली में आँकड़े से सम्बन्धित गलती पकड़ी । इसके बाद ‘अग्नि’ प्रक्षेपण मिशन के अधिकारियों ने गलती को ठीक करने के लिये परीक्षण प्रक्षेपण स्थगित करने का निर्णय लिया ।
          सतह से सतह पर मार करने वाले इस प्रक्षेपास्त्र का परीक्षण और प्रक्षेपण दो हफ्तों में दूसरी बार स्थगित करना पड़ा । ‘अग्नि’ के पृथ्वी के वायुमण्डल में पुनः प्रवेश करने के बाद इसका चौथा हिस्सा समुद्र में एक निश्चित इलाके में गिरने वाला था । इस हिस्से को खोज निकालने के लिये नौ सेना के युद्ध पोत तथा हैलीकोप्टर बंगाल की खाड़ी में तैनात किये गये थे। ‘अग्नि’ के निर्माण में देश के लगभग ४०० रक्षा वैज्ञानिक लगे हुये थे । ‘अग्नि’ की रेंज १६०० से लेकर २५०० किलोमीटर है और इसमें नवीनतम तकनीक तथा परिष्कृत प्रणाली का प्रयोग किया गया है। पुनः २२ मई, १९८९ के प्रातः तीसरी बार भारत ने भूमि से भूमि पर ढाई हजार किलोमीटर की दूरी तक मार कर सकने की क्षमता रखने वाले इस पहिले प्रक्षेपास्त्र का ७ बजकर १७ मिनट पर सफल प्रक्षेपण किया। जैसे ही ‘अग्नि’ को प्रक्षेपण बोर्ड से छोड़ा गया, अपने पीछे आग की लपटें और धुएँ का गुब्बार छोड़ता हुआ यह प्रक्षेपास्त्र नीले आकाश की ओर उड़ गया, इसके साथ ही रात-दिन इस कार्य में लगे ४०० से अधिक वैज्ञानिकों के चेहरे एकदम खिल उठे ।
          तत्कालीन रक्षा मन्त्री श्री के० सी० पन्त, रक्षा राज्य मन्त्री श्री चिन्तामणि पाणिग्रही और वरिष्ठ रक्षा अधिकारियों ने आई० टी० आर० नियन्त्रण कक्ष से इस ऐतिहासिक दृश्य को देखा। रक्षा मन्त्री ने इस प्रक्षेपण को भारत के विज्ञान और प्रौद्योगिक की प्रगति में मील का पत्थर करार दिया। वैज्ञानिकों ने बताया कि ‘अग्नि’ में चार चरण के राकेट हैं जिनके लिये ठोस तथा तरल ईंधन का उपयोग किया गया है, ‘अग्नि’ में चौथे चरण की समाप्ति पर धरती के वातावरण में वापस लौटने पर उसे बंगाल की खाड़ी में प्राप्त करने के लिये भारतीय नौ सेना के जहाज तथा हैलीकाप्टर खड़े हैं। इसके समुद्र में पूर्व निर्धारित स्थान पर ही गिरने की आशा है ।
          इस अवसर पर भारत के राष्ट्रपति श्री आर० वैंकटारमन ने भारत के रक्षा वैज्ञानिकों को बधाई देते हुए कहा कि यह सफलता उनकी कड़ी मेहनत और समर्पण की भावना से काम करने का परिणाम है । उन्होंने इसे विज्ञान के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता हासिल करने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि बताया। उपराष्ट्रपति डॉ० शंकर दयाल शर्मा ने कहा कि यह सफलता इस बात का प्रमाण है कि विज्ञान और प्रौद्योगिक के क्षेत्र में भारत किसी से पीछे नहीं रहेगा। रक्षा मन्त्री श्री कृष्णपन्त ने वैज्ञानिकों को उनकी सफलता पर पुनः बधाई देते हुये इस प्रक्षेपण को भारतीय विज्ञान विशेषतः
रक्षा विज्ञान के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण उपलब्धि बताया और कहा कि प्रक्षेपण के बाद जो आँकड़े मिले हैं उससे पता चला कि ‘अग्नि’ परियोजना पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार पूर्णतः सफल रही।
          भारत के इस भूतपूर्व सफल परीक्षण से अमेरिका चिंतित हो उठा। अमेरिका के सैन्य मामलों के सहायक विदेश मन्त्री एलन होम्स ने कहा कि प्रक्षेपास्त्र ‘अग्नि’ के सिलसिले में उन्होंने भारत से उच्चस्तरीय विचार-विमर्श करके अपनी बेहद चिन्ता से अवगत करा दिया है। उपसमिति के अध्यक्ष बैंगमैन ने अमेरिकी सीनेट की एक बैठक में बोलते हुए आशंका व्यक्त की कि भारत के मध्यम दूरी के बैलिस्टिक प्रक्षेपास्त्र ‘अग्नि’ के परीक्षण से भारत-पाकिस्तान सम्बन्धों के सामान्यीकरण की प्रक्रिया पर बुरा असर पड़ेगा । अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति प्रतिष्ठान से सम्बद्ध ज्योफरी केंप ने कहा कि भारत विश्व ताकत बनने पर आमादा है, उन्होंने कहा कि भारत ने इतिहास की अपनी अनुभूतियों से शक्ति अर्जित की है तथा उसका इरादा वर्तमान परमाणु ताकतों खासतौर पर अमेरिका और सोवियत संघ से दबकर नहीं रहना है इसके उत्तर में अमेरिका स्थित तत्कालीन भारतीय राजदूत पी० के० कौल ने बुश प्रशासन से कहा है कि भारत का प्रक्षेपास्त्र कार्यक्रम पूरी तरह स्वदेश प्रयासों पर आधारित है और यह देश के विकास को समर्पित है। परमाणु कार्यक्रम की भाँति मिसाइल कार्यक्रम भी सैनिक उद्देश्यों के लिए नहीं है। भारत की आलोचना किसी तरह वाजिब नहीं है क्योंकि कुछ देश तो दूसरे देशों को भी प्रक्षेपास्त्र बेच रहे हैं। भारत की आलोचना करना अनुचित और अन्यायपूर्ण है। प्रधानमन्त्री राजीव गाँधी ने १५ जून, १९८९ को आन्ध्र प्रदेश में एक जनसभा में स्पष्ट घोषणा की कि –
          “भारत ने कभी किसी भी देश के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं किया है और वह यह भी नहीं चाहता कि कोई अन्य देश उसके आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप करे। उन्होंने कहा कि कई देशों ने भारत को सतह से सतह पर मार करने वाले प्रक्षेपास्त्र ‘अग्नि’ के प्रक्षेपण के खिलाफ चेतावनी दी थी, लेकिन भारत अपने निश्चय पर दृढ़ रहा और ‘अग्नि’ का सफल परीक्षण किया। उन्होंने कहा कि इस परीक्षण से भारत सुरक्षा की दृष्टि से मजबूत तथा आत्म-निर्भर हुआ है, उन्होंने कहा कि हमारा देश अब ऐसे कुछ चुनीदा देशों में शामिल हो गया है, जिनके पास प्रक्षेपास्त्र हैं।” प्रधानमन्त्री ने २९ जून, ८९ को इन्दौर में यह रहस्योद्घाटन किया कि “कुछ बड़ी शक्तियों के राजदूतों ने उनसे मिलकर धमकी दी कि यदि ‘अग्नि’ प्रक्षेपास्त्र परीक्षण किया गया तो भारत के विरुद्ध कार्यवाही की जायेगी। श्री गाँधी ने कहा कि लेकिन मैंने उन्हें स्पष्ट शब्दों में उत्तर दिया कि भारत ‘अग्नि’ का परीक्षण करेगा और कोई दबाव हमारे निर्णय को नहीं बदल सकता।”
          बड़े हर्ष की बात है कि रक्षा विभाग द्वारा १९८३ को प्रारम्भ किये गये नियन्त्रित प्रक्षेपास्त्रों के विकास से समन्वित कार्यक्रम का यह तीसरा परीक्षण सफलतापूर्वक सम्पन्न हो गया जिससे विश्व के बड़े-बड़े राष्ट्र भी आश्चर्यचकित रह गये। इससे पहले जमीन से हवा में मार करने वाले प्रक्षेपास्त्र ‘त्रिशूल’ तथा जमीन से जमीन पर मार करने वाली ‘पृथ्वी’ का परीक्षण किया गया था (भारत ने ‘आकाश’ और ‘नाज’ दो अन्य प्रक्षेपास्त्रों का भी विकास किया है लेकिन उनका प्रयोगशाला के बाहर परीक्षण नहीं किया गया है) लेकिन अग्नि की सफलता के बाद तो भारत ने विशेष अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा अर्जित कर ली है क्योंकि ‘बैलिस्टिक मिसाइल’ तकनीक अभी तक दुनिया के केवल ७ देशों के पास है।
          ‘अग्नि’ के लिए रक्षा विभाग के वैज्ञानिक विशेष रूप से बधाई के पात्र हैं क्योंकि इसके विकास में किसी स्तर पर कहीं से कोई बाहरी सहायता नहीं प्राप्त की गई है। इसकी तकनीक, डिजाइनिंग तथा निर्माण सब कुछ भारतीय हैं। दर असल दुनिया का कोई भी देश यह तकनीक भारत को देने के लिये तैयार नहीं हुआ, इसलिये इसका विकास भारत के लिये एक चुनौती था। खुले विज्ञान के जगत में भी इसकी बहुत व्यावहारिक जानकारी नहीं है। इसलिये भारत को सब कुछ स्वयं करना पड़ा। इस तरह के प्रक्षेपास्त्रों से लैस पश्चिमी देशों ने जब देखा कि भारत इस दिशा में तेजी से प्रगति कर रहा है तो उन्होंने इसमें अवरोध उत्पन्न करने की पूरी कोशिश की । “त्रिशूल” परीक्षण की घोषणा जब लोक सभा में की गयी तो उसके छह महीने के अन्दर ही पश्चिम के सात विकसित देशों की बैठक हुई और उसमें परमाणु अप्रसार सन्धि की तरह का एक प्रस्ताव ‘प्रक्षेपास्त्र अप्रसार लाया गया। इन देशों ने तय किया कि वे किसी भी कीमत पर किसी देश को इसकी तकनीक नहीं देंगे और दूसरे इन लोगों ने दुनिया भर के देशों को आगाह किया कि वे इन प्रक्षेपास्त्रों का निर्माण न करें। इस तरह के प्रस्ताव केवल भारत के ‘मिसाइल प्रोजेक्ट को हतोत्साहित करने के लिये लाये गये, क्योंकि तब भारत के अलावा और कोई देश इस तरह की योजना पर कार्य नहीं कर रहा था। खुशी की बात है कि भारत इसके दबाव में नहीं आया और यहाँ के वैज्ञानिकों ने न केवल बिना किसी की मदद के इस कार्यक्रम को पूरा कर लिया बल्कि दूसरों को समानान्तर अत्याधुनिक तकनीक इस्तेमाल करके यह भी सिद्ध कर दिया कि भारतीय प्रतिभाएँ किसी तरह दूसरों से कम नहीं हैं।
          इस प्रक्षेपास्त्र विकास कार्यक्रम से यदि कोई देश सर्वाधिक क्षुब्ध है तो वह है अमेरिका । उसने निरन्तर कोशिश की कि भारत यह अभियान छोड़ दे। उसने सम्बन्धों में बिगाड़ आने की खुली धमकी दी लेकिन भारत सरकर ने इसकी ओर ध्यान नहीं दिया। आश्चर्य की बात है कि पाकिस्तान ने इस पर कोई तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की बल्कि उसके प्रतिरक्षा मन्त्री ने कहा कि ‘अग्नि’ से पाकिस्तान को कोई खतरा नहीं है क्योंकि इसका रेंज पाकिस्तान के बाहर है। इसकी मारक दूरी १६०० से २५०० किमी है इसलिए इसके क्षेत्र में तिब्बत, सोवियत संघ, ईरान, इराक आदि देश आयेंगे। भारत ने भी एक से अधिक बार यह वक्तव्य दिया है कि उसका प्रक्षेपास्त्र कार्यक्रम किसी देश के लिए या किसी अन्य के विरुद्ध नहीं है। यह केवल तकनीकी क्षमता प्राप्त करने के लिए शुरू किया गया है।
          ७ अगस्त, १९९१ को भारत ने श्री हरि कोटा में जमीन से हवा में मार करने वाले ‘पृथ्वी ३’ प्रक्षेपास्त्र का परीक्षण किया। रक्षामन्त्री श्री शरद पँवार ने इस अवसर पर यहाँ घोषणा की कि ” पृथ्वी के सफल परीक्षण के साथ ही भारत उन गिने-चुने पाँच देशों में शामिल हो गया है जो इस तरह की क्षमता रखते हैं। इस शृंखला के प्रक्षेपास्त्रों की तीसरी कड़ी के रूप में जमीन से हवा में मार करने वाले प्रक्षेपास्त्र का १० बजकर ५८ मिनट पर प्रक्षेपण किया गया। श्री पँवार ने कहा कि भारत बहुत उम्दा किस्म के हथियार बनाने में सक्षम है और अन्तर्राष्ट्रीय शस्त्र बाजार में प्रवेश पा सकता है । “
          भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान के दीक्षान्त समारोह में रक्षा अनुसंधान एवं विकास प्रयोगशाला हैदराबाद के निदेशक डा० ए० पी० जे० अब्दुल कलाम ने ९ अगस्त, १९९१ को कहा था कि प्रक्षेपास्त्र कार्यक्रम के तहत ‘पृथ्वी’, ‘नाग’, ‘आकाश’, ‘अग्नि’ और ‘त्रिशूल’ जैसे बहुउद्देश्यीय प्रक्षेपास्त्र भारत ने बनाये हैं। देश में ही बने प्रक्षेपास्त्र ‘पृथ्वी’ और ‘त्रिशूल’ को अगले वर्ष १९९२ में सेना को सौंप दिया जायेगा।
          कुल मिलाकर इस कार्यक्रम को यदि सर्वांगीण परिप्रेक्ष्य में देखें तो मानना पड़ेगा कि यह भारत की वैज्ञानिक और तकनीकी क्षमता का एक अद्वितीय उदाहरण है जिस पर हम सभी को गर्व हो सकता है I
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