हिन्दी में महिला साहित्यकार और उनकी काव्य प्रतिभा
हिन्दी में महिला साहित्यकार और उनकी काव्य प्रतिभा
जीवन के सभी क्षेत्रों में स्त्री ने पुरुष का साथ दिया है। वह उसकी सहधर्मिणी है, अर्धांगिनी है। वह उससे पीछे कैसे रह सकती है। वीर क्षत्राणियों ने तो युद्ध-भूमि में भी पुरुषों का साथ नहीं छोड़ा, यहाँ तक कि उन्होंने स्वयम् युद्ध संचालन किये। साहित्य के क्षेत्र में, जहाँ महाकवियों ने साहित्य को एक नवीन दिशा प्रदान की वहाँ महिलाओं ने भी अपनी अमूल्य कृतियों से साहित्य के इतिहास में एक नवीन पृष्ठ जोड़ दिया, परन्तु वह भारत माँ का दुर्भाग्य था, कि यहाँ पुरुषों की भाँति स्त्रियों की शिक्षा-दीक्षा का अभाव रहा अन्यथा जहाँ जितने पुरुष साहित्यकार हुए उनसे अधिक महिला साहित्यकार होतीं ।
हिन्दी साहित्य का आदिकाल वीरगाथा काल कहा जाता है। यह एक प्रकार से राजनैतिक आँधी और तूफान का युग था । राजपूत राजे-महाराजे अपने-अपने अस्तित्व की रक्षा में लगे हुए थे। मुसलमानों के भयानक आक्रमण भारतवर्ष पर हो रहे थे और वे शनैः शनैः अपना अधिकार जमाते आ रहे थे । वह समय महिलाओं की कोमल भावनाओं के अनुकूल भी नहीं था । अत: हिन्दी साहित्य के आदिकाल में तो कोई महिला साहित्यकार प्रकाश में नहीं आई। परन्तु उसके पश्चात् अन्य सभी कालों में महिलाओं ने साहित्य की वृद्धि में यथाशक्ति योगदान दिया ।
भक्तिकाल की मधुर एवम् कोमल साहित्यक प्रवृत्तियाँ महिलाओं की रुचि के अनुकूल थीं । इस काल में कई उच्च कोटि की महिला कवियित्रियों के दर्शन होते हैं। इन्होंने निराकार ब्रह्म और साकार ब्रह्म श्रीकृष्ण को पति के रूप में स्वीकार करके अपने अन्तर्तम की भावनाओं को कोमलकान्त पदावंली द्वारा व्यक्त किया । भक्तिकालीन महिला काव्यकारों में सहजोबाई, दयाबाई और मीराबाई का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है । सहजोबाई चरणदास की शिष्या थीं। उन्होंने निराकार प्रियतम के प्रति अनूठी उक्तियाँ कही हैं। प्रियतम की भक्ति माधुरी में प्रेमोन्मत्त होकर सहजो कहने लगतीं—
बाबा नगरु बसाओ ।
ज्ञान दृष्टि सूँ घट में देखौ, सुरति निरति लौ लावो II
पाँच मारि मन बसकर अपने, तीनों ताप नसावौ ॥
दयाबाई भी चरणदास की शिष्या थीं । उनका विषय वर्णन भी सहजोबाई की भाँति अपने निराकार प्रियतम का आह्वान और विरह निवेदन ही है । मृतप्राय हिन्दू जाति पर इन कवियित्रियों ने अपनी रसमयी काव्य धारा द्वारा यह पीयूष वर्षा की कि वह आज तक सानन्द जीवित है। इसके पश्चात् मीरा का नाम आता है । मीरा भक्ति साहित्य की सर्वश्रेष्ठ कवियित्री थीं । मीरा की कोमल वाणी ने भारतीय साहित्य में प्रेम और आशा से भरी हुई वह पावन सरिता प्रभावित की जिसकी वेगवती धारा आज भी भारतीय अन्तरात्माओं में ज्यों की त्यों अबाध गति से बह रही है । मीरा ने अपने अनुभूत प्रेम और विरह वेदना को साहित्य में स्थान दिया। कितना लालित्य और माधुर्य है इनके पदों में, सभी जानते हैं। आज भारत के घर-घर में इनके पदों का आदर है। स्त्री-पुरुष सभी इन पदों को समान भाव से गाकर आज भी आनन्द -विभोर हो उठते हैं। श्रीकृष्ण के साथ मीरा का प्रेम दाम्पत्य – भाव का प्रेम था, श्रीकृष्ण उनके प्रियतम थे, जन्म-जन्म के साथी थे और वह उनकी विरहिणी प्रेयसी थी । यह स्पष्ट घोषणा करते हुए मीरा को न कोई संकोच था और न कोई लोक लाज –
मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई,
जाके सिरे मोर मुकुट मेरो पति सोई ।
सन्तन ढिंग बैठि-बैठि, लोक लाज खोई,
अब तो बेलि फैलि गई, अमृतफल होई ।
मीरा की-सी वेदना, टीस और कसक सम्भवतः हिन्दी की किसी अन्य कवियित्री में नहीं मिल सकती। मीरा के पद हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि हैं। एक दूसरा पद देखिए –
हे री मैं तो प्रेम दीवानी, मेरा दरद न जाने कोय,
दरद की मारी बन-बन डोलूँ वैद मिला नहि कोय ।
सूली ऊपर सेज पिया की किस विधि मिलना होय,
मीरा की प्रभु पीर मिटै जब वैद सँवरिया होय ।
मीरा के अनन्तर हिन्दी साहित्य में छत्र कुँवरि, विष्णु कुँवरि, राय प्रवीण तथा ब्रजवासी अनेक महिला कवियित्रियों के दर्शन होते हैं। इन सभी महिलाओं ने अपनी पुनीत मधुर भावनाओं द्वारा हिन्दी साहित्य को समृद्धिशाली बनाने में पूर्ण योगदान दिया । विष्णु कुँवरि का सुन्दर पद उदाहरणार्थ प्रस्तुत किया जा रहा है। इस पद में वे अपने प्रियतम भगवान श्रीकृष्ण के विरह की व्याकुलता में विकल हैं
निरमोही कैसो हियौ तरसावै ।
पहिले झलक दिखाय कै हमकूँ, अब क्यों देगि न आवै II
कब सौं तड़फत तेरी सजनी, वाको दरद न जावै ।
विष्णु कुँवरि उर में आ करके, ऐसी पीर मिटावै ॥
अकबर के शासनकाल में ‘राय प्रवीण’ एक वैश्या थी । नृत्य और गीत के साथ वह सुन्दर कविता भी करती थी । वह महाकवि केशव की शिष्या थी । केशवदास जी ने ‘कविप्रिया’ में इसका वर्णन भी किया है। अकबर इसके रूप-लावण्य पर मुग्ध था। उसने एक दिन इनसे भरी सभा में गाने को कहा। पहले तो इसने मना किया, परन्तु बाद में विवश होकर इन्हें गाना पड़ा। इसके तत्काल निम्नलिखित दोहा बनाकर सुनाया, जिससे अकबर बहुत लज्जित हुआ—
विनती राय प्रवीण की सुनिए शाह सुजान ।
जूठी पातर चखत है, बारी बायस स्वान ||
इनके बाद ‘ताज’ का नाम आता है । यद्यपि ये मुसलमान थीं फिर भी इन्हें श्रीकृष्ण से प्रेम हो गया था। इनकी कविता भक्ति रस से ओत-प्रोत है। ताज श्रीकृष्ण के चरणार्विन्दों में अपना तन, मन, धन समर्पित करने को उत्सुक है –
सुनो दिलजानी मेरे दिल की कहानी तुम,
दस्त हौं बिकानी, बदनामी भी सहँगी मैं।
देव पूजा हों नमाज हूँ भुलानी,
तज कलमा कुरान, सारे गुनन कहूँगी मैं ।
साँवला सलोना सरताज सिर कुल्लेदार,
तेरे नेह दाग में निदाग है दहूँगी मैं ।
नन्द के कुमार, कुरबान तेरी सूरत पै,
हों तो मुसलमानी, हिन्दुवानी है रहूँगी मैं ।
ताज के पश्चात् शेख का नाम आता है। ये रंगरेजिन महिला थीं, इन्होंने एक ब्राह्मण कवि से विवाह कर लिया था और उसका नाम आलम रक्खा था। दोनों पति-पत्नी आनन्द से कविता किया करते थे। शेख की कविता शृंगार रस में अद्वितीय हैं। निम्नलिखित उदाहरण पति-पत्नी के प्रश्नोत्तर रूप में। प्रथम पंक्ति में पति प्रश्न करते हैं, दूसरी पंक्ति से शेख उसका उत्तर देती हैं-
कनक छरी सी कामिनी, काँहे को कटि छीन ।
कटि को कंचन कोटि कै, कुचन मध्य धरि दीन II
हिन्दी के प्रसिद्ध ‘कुण्डलियाँ’ लेखक गिरधर कविराय की पत्नी का नाम ‘साँई’ था। अपने पति की भाँति वे भी नीतिपूर्ण छन्दों में रचना किया करती थीं । उदाहरण देखिए–
साँई अवसर के परै, को न सह्रै दुख द्वन्द्व ।
जाय बिकाने डोम घर, वे राजा हरिचन्द II
आधुनिक काल में नव-जागृति और नव-चेतना का उदय हुआ। महिलाओं की शिक्षा-दीक्षा प्रारम्भ हुई, उनके हृदय में नवीन भावनाओं ने जन्म लिया । साहित्य की सभी विधाओं पर महिलाओं ने लेखनी चलाई । आधुनिक युग की महिला कवियित्रियों में प्रथम नाम श्रीमती सुभद्राकुमारी चौहान का आता है। इन्होंने देश भक्ति पूर्ण रचनाएँ कीं। ‘झाँसी की रानी’ तथा ‘वीरों का कैसा हो बसन्त’ इनकी अत्यन्त प्रसिद्ध रचनाएँ हैं। इनकी रचना का एक उदाहरण देखिए –
सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी ।
बूढ़े भारत में भी आई, फिर से नई जवानी थी II
गुमी हुई आजादी की, कीमत सबने पहचानी थी।
दूर फिरंगी को करने की, सबने मन में ठानी थी II
बुन्देले हरबोलों के मुख हमने सुनी कहानी थी ।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी ॥
इसके अनन्तर छायावादी युग की प्रमुख कवियित्री महादेवी वर्मा का नाम आता है। महादेवी जी के गीत अपनी सहज सहशीलता, भावविद्ग्धता के कारण सजीव हैं। विरह की आग में अनजान कविता उनके हृदय से बह निकलती है। देखिए उनकी करुणातुर प्रार्थना कितनी नारी सुलभ है –
जो तुम आ जाते एक बार !
कितनी करुणा कितने सन्देश, पथ में बिछ जाते बन पराग ।
गाता प्राणों का तार – तर अनुराग भरा उन्माद राग ।
आँसू लेते वे पद पखार, जो तुम आ जाते एक बार।।
महादेवी जी के गीत लोकप्रिय एवम् हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि हैं। उनकी अपनी शैली है, अपनी प्रवृत्ति है । इस करुणा के अनन्त, असीम सागर में वे केवल नीर भरी दुःख की क्षणिक बदली ही हैं –
मैं नीर भरी दुख की बदली !
विस्तृत नभ का कोना-कोना मेरा न कभी अपना होना ।
परिचय इतना, इतिहास यही, उमड़ी कल थी मिट आज चली ॥
वे जीवन के शून्य क्षणों में विकल होकर गा उठती हैं –
अलि ! कैसे उनको पाऊँ ।
ये आँसू बनकर भी मेरे इस कारण ढल-ढल जाते,
इन पलकों के बन्धन में मैं बाँध बाँध पछताऊँ ।
आधुनिक युग में महिला साहित्यकारों ने साहित्य की सभी विधाओं पर लिखना प्रारम्भ किया । कोई भी विधा – क्या कहानी, क्या उपन्यास, क्या आलोचना, ऐसी नहीं है, जिस पर महिला ने लेखनी न चंलाई हो । इन महिला साहित्यकारों में श्रीमती विद्यावती कोकिला, तारा पाण्डेय, सुमित्रा कुमारी सिन्हा, राजेश्वरी देवी, रजनी पणिक्कर, कंचनलता, सब्बरवाल तथा शची रानी गुर्टू आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं । कविता के क्षेत्र में श्रीमती सुमित्रा कुमारी सिन्हा अधिक ख्याति प्राप्त करती जा रही हैं। इनकी रचना का एक उदाहरण देखिए –
क्या तुम अकेले मन !
देखो जल रेती साथ रहे हैं भिन्न, किन्तु कस हाथ गहे ।
वे तो जड़ हैं, पर तुम चेतन, क्या तुम्हीं अकेले हो, ओ मन ।।
आधुनिक युग में महिला साहित्यकारों की उत्तरोत्तर वृद्धि होती जा रही है। आशा है कि निकट भविष्य में हिन्दी साहित्य को इनकी नवीन साहित्य कृतियाँ और भी अधिक समृद्धिशाली बनायेंगी ।
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