सूर्योपासना का पुरातन केन्द्र रहा है विदेह, मगध से पुराना है मिथिला का साहित्यिक प्रमाण

Chhath: पटना. मगध क्षेत्र में प्रचलित सूर्योपासना से बहुत पहले उत्तर बिहार के विदेह में सूर्योपासना प्रचलित रही है. सूर्योपासना के साक्ष्य के संबंध में मगध क्षेत्र में मिले पुरातात्विक प्रमाण से पूर्व मिथिला क्षेत्र में साहित्यिक प्रमाण मिले हैं. मूर्ति कला पर शोध करनेवाले बिहार के प्रसिद्ध शोधार्थी डॉ सुशांत भास्कर कहते हैं कि प्राचीन काल में मिथिला विदेह जनपद की राजधानी थी. विदेह जनपद लिच्छवी संघ में शामिल था, इसकी सांस्कृतिक और धार्मिक विरासत काफी समृद्ध थी. वैदिक कालीन विदेह में राजा जनक के दरबार में याज्ञवल्क्य शास्त्रार्थ और दर्शन की परंपरा में एक महत्त्वपूर्ण ऋषि तथा दार्शनिक थे. अपने गुरू से वैदिक विषय में मतभेद हो जाने के कारण याज्ञवल्क्य ने सूर्य की उपासना कर शुक्ल यजुर्वेद की रचना कर और मिथिला सूर्योपासना का एक महत्वपूर्ण केन्द्र बन गया.

मिस्र और ईरान से है सूर्य उपासना का कनेक्शन

प्राचीन भारत में मिथिला की तरह प्राचीन मिस्र भी सूर्योपासना के लिए प्रसिद्ध रहा है. इस संबंध में कहा जाता है कि मिथिला के किसी राजकुमारी का विवाह मिस्र के राजकुमार से हुआ और उसके पुत्र ने प्राचीन मिस्र में सूर्योपासना का विकास किया. ऐसी स्थिति में यह कह सकते हैं कि मिस्र में विकसित सूर्योपासना की नवीन पद्धति सूर्य की प्रकृति पूजा से अलग सूर्य की मूर्ति पूजा फैली और सूर्योपासना में सूर्य की मूर्ति पूजा मग ब्राह्मणों के साथ भारत आया. कुछ साहित्यिक और अभिलेखीय प्रमाणों से ज्ञात होता है कि सौर सम्प्रदाय के विकास में ईरान के सूर्य उपासक मार्गों का विशेष योगदान था और इन मार्गों के द्वारा ईरानी सूर्य अथवा मिहिर की पूजा भारत आई थी. वैसे भारत में सूर्योपासना का आरम्भ प्राचीन काल से है. वैदिक काल में सूर्य तथा उनके विविध रूपों में सविता, पूषन्, भग, विवस्वत्, मित्र, अर्यमन् आदि का वर्णन मिलता है, जबकि उत्तर वैदिक काल में द्वादशादित्यों के निश्चित सन्दर्भ उपलब्ध हो जाते हैं.

मूर्तिकला में सूर्य की प्रतिमा का दो रूपों में प्रदर्शन

सूर्य प्रतिमाओं के इतिहास पर डॉ भास्कर कहते हैं कि सूर्य प्रतिमा के निर्माण के विधान का उल्लेख प्राचीन काल में वाराहमिहिर ने वृहत्संहिता में किया और मध्यकाल तक आते-आते अन्य देवताओं के समान सूर्य के प्रतिमा लक्षण पूर्णतया निर्धारित हो चुके थे. मूर्तिकला में सूर्य की प्रतिमा का प्रदर्शन हमें दो रूपों में मिलता है – पहली- सूर्य पृथक रूप में और सूर्य द्वादश आदित्य के रूप में या नवग्रह के सामूहिक चित्रण के रूप में. भारतीय मूर्ति कला के विकास में सूर्य का अंकन ई. पू. से ही प्रतीक और मानव दोनों ही रूपों में निरूपित किया गया. चक्र, पद्म और रश्मि-मण्डल जैसे प्रतीकों का अंकन आहत मुद्राओं के अतिरिक्त पांचाल एवं मित्रवंशी मुद्राओं पर भी देखा जा सकता है. दूसरी-पहली शताब्दी ई. पू. से मुद्राओं तथा स्वतंत्र मूर्तियों के रूप में सूर्य के निरूपण के उदाहरण मिलते हैं.

सूर्य उपासना का महत्वपूर्ण केंद्र रहा है बिहार

डॉ भास्कर कहते हैं कि आधुनिक बिहार प्राचीन काल में साम्राज्य विस्तार के दौरान तीन अलग-अलग भौगोलिक और राजनीतिक क्षेत्र अंग, मगध और लिच्छवी संघ के रूप में संगठित हो चुका था. लिच्छवी संघ में विदेह जनपद शामिल था, जिसकी सांस्कृतिक और धार्मिक विरासत काफी समृद्ध थी. सूर्य की प्रारंभिक मूर्तियां बोधगया (बिहार, पहली शताब्दी ई. पू.), भाजा (पूना, महाराष्ट्र, दूसरी-पहली शताब्दी ई. पू.), अनन्त गुम्फा (खण्डगिरि, उड़ीसा, पहली शताब्दी ई.) तथा लाला भगत (कानपुर, उ. प्र. दूसरी शताब्दी ई.) जैसे स्थलों से मिली हैं. सारण, मुंगेर, नवादा, नालन्दा, गया आदि जिला सूर्य पूजा का महत्वपूर्ण केन्द्र रहा है. नवादा जिले के गोविन्दपुर से प्राप्त शक संवत 1059 के अभिलेख में साम्ब द्वारा मगों के भारत लाये जाने का वर्णन मिलता है. साम्ब द्वारा भारत में मग ब्राह्मण लाने की प्राचीन अनुश्रति 12वीं सदी के पूर्वार्द्ध तक प्रचलित थी. गया तथा आसपास के क्षेत्रों से सूर्य की पालकालीन अनेक प्रतिमा प्रकाश में आयी हैं, जो बोधगया, गया तथा पटना के संग्रहालय में देखी जा सकती हैं. ये सभी आधुनिक इलाके प्राचीन काल में मगध क्षेत्र में स्थित रहे हैं.

कुष्ठ रोग से मुक्ति के लिए साम्ब ने की थी सूर्य की उपासना

विभिन्न पुराणों यथा स्कन्ध पुराण, श्रीविष्णुपुराण, भविष्य पुराण, श्रीवराहपुराण में श्रीकृष्ण के पुत्र साम्ब के सम्बन्ध में जानकारी मिलती है. ऐसी मान्यता है कि श्रापित होने के कारण साम्ब को कुष्ठ रोग हो गया था. रोग से मुक्ति के लिए उन्होंने सूर्य की उपासना की थी और 12 स्थानों पर सूर्य मंदिर का निर्माण कराया था. इन मंदिरों के साथ भी अर्क जुड़ा है. अर्क का अर्थ सूर्य होता है. डॉ भास्कर कहते हैं कि आज देश में सूर्य के 100 से अधिक प्राचीन मंदिर हैं. इनमें स्थापित मूर्तियां दो हजार साल तक पुरानी हैं. उसमें से दो दर्जन मंदिर ऐसे हैं, जिनके साथ अर्क जुड़ा हुआ है. इनमें से 12 अर्क स्थान लोकप्रिय हैं, जिनमें से आधे बिहार में है, जहां काफी धूमधाम से छठ मनाया जाता है. गीताप्रेस से प्रकाशित सूर्यांक और अन्य कई पुस्तकों में अर्क स्थलों के बारे में जानकारी मिलती है. कुछ अर्क स्थलों के नाम देवार्क, लोलार्क, पूण्यार्क, औंगार्क, कोणार्क, चाणार्क आदि मिलते हैं. अन्य अर्क स्थल के रूप में देवार्क (औरंगाबाद), औंगार्क (नालंदा), बड़ार्क (नालंदा), उलार्क (उलार, पटना), पुण्यार्क (पटना), मार्कण्डेयार्क (सहरसा), लोलार्क (काशी), कोणार्क (ओड़िशा), कटलार्क ( कटारमल, उत्तराखंड), आदित्यार्क (चिनाब नदी के किनारे, पंजाब प्रांत, पाकिस्तान), मोढ़ेरार्क (पुष्पावती नदी के किनारे, गुजरात), चानार्क या देव वरुणार्क भोजपुर या दक्षिणार्क आदि मिलते हैं.

भारत में कई जगहों पर देव मंदिर मिलने की जिक्र

फाह्यान के यात्रा विवरणों में धार्मिक एवं सामाजिक स्थिति का वर्णन नहीं मिलता है, बल्कि ह्वेन त्सांग के यात्रा विवरणों में भारत में कई जगहों पर देव मंदिर (हिंदू) मिलने की जानकारी मिलती है. मिथिला क्षेत्र में सहरसा जिले के कनदाहा ग्राम से विग्रहपाल तृतीय का एक ताम्रपत्र मिला है. इसमें सूर्य मन्दिर होने का उल्लेख मिलता है, जो आज भी उपलब्ध है. इस मन्दिर से स्पष्ट होता है कि यह क्षेत्र सूर्य पूजा के लिए प्रसिद्ध था. डॉ भास्कर का कहना है कि मिथिला की सूर्योपासना में कन्दाहा (सहरसा) सूर्य मन्दिर बहुत प्रसिद्ध है. कन्दाहा (सहरसा) सूर्य मन्दिर के संबंध में कहा जाता है कि द्वापर युग में भगवान श्री कृष्ण के बेटे साम्ब ने बारह राशियों में सूर्य के प्रतिमा की स्थापना की थी, उसी में यह भी है. कन्दाहा सूर्य मन्दिर कितनी बार मन्दिर बना और टूटा, इसकी कोई जानकारी नहीं है लेकिन स्थानीय लोगों ने बताया कि 1334 ईस्वी में मिथिला के ओइनवार वंश के राजा भवदेव सिंह द्वारा वर्तमान मन्दिर का जीर्णोद्धार किया गया था. सहरसा ज़िले का सूर्य मन्दिर मार्कण्डेयार्क (सहरसा) के रूप में जाना जाने लगा है. यह गांव आज भले ही कन्दाहा के रूप में विख्यात है, लेकिन इस संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता कि कन्दाहा कभी किसी ज़माने में अपने पूर्व नाम कन्दार्क के रूप में विख्यात रहा होगा.

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अधिकांश सूर्य प्रतिमा पाल काल के बाद निर्मित

मूर्ति पर शोध करनेवाले डॉ भास्कर ने कहा कि मिथिला की अधिकांश सूर्य प्रतिमाएँ सहरसा जिला से सटे हुए मधुबनी-दरभंगा जिले के पूर्वी हिस्सा झंझारपुर, मधेपुर इलाके में पुराने कमला बलान नदी के बहाव के किनारे, एक खास और सीमित क्षेत्र से प्राप्त होती रही है, जिनमें नाहर भगवतीपुर, भीठ भगवानपुर, राजनगर, रखवारीगोट, पस्टन, जगदीशपुर, मनीगाछी, परसा आदि जगह महत्वपूर्ण हैं. मिथिला के इस क्षेत्र से प्राप्त अधिकांश सूर्य प्रतिमा पाल काल के बाद निर्मित प्रतीत हुई मालूम होती है. सूर्य की उपलब्ध प्रतिमाओं में प्रारम्भिक पालकालीन सूर्य की प्रतिमा का नहीं दिखना इस सम्भावना को व्यक्त करता है कि वैष्णव, शैव और शाक्त प्रतिमाओं से इतर सूर्य पूजा का प्रचलन मिथिला में अपेक्षाकृत विलम्ब से हुआ. इन जगहों से अलग छर्रापट्टी, हावीडीह, भैरववलिया, डिलाही, रतनपुर, पोखराम, भोज पण्डौल, अरई, वरूआर, अंधराठाढ़ी (कमलादिल स्थान), सवास, रघैपुरा, रखवारी, परसा, देवपुरा, जगदीशपुर (मनीगाछी), राजनगर, देकुली, घनश्यामपुर, गोढोल, गंगेश्वरस्थान, भोज पंडोल, परसा, बरुआर, बनकटा, सलेमपुर, वीरपुर, वरैपुरा आदि विभिन्न स्थलों, विभिन्न देवालयों और संग्रहालयों में सूर्य प्रतिमा रखी हुई है.

बेगूसराय से मिले सूर्य प्रतिमाओं के स्टेला में कीर्तिमुख

बेगूसराय ज़िले में बरौनी, वीरपुर, वरैपुरा से सूर्य प्रतिमा की प्राप्ति हुई है, जो गणेश दत्त (जी. डी.) कॉलेज, बेगूसराय के काशी प्रसाद जायसवाल संग्रहालय और ज़िला संग्रहालय, बेगूसराय में संग्रहित है. डॉ भास्कर कहते हैं कि बेगूसराय ज़िले से मिलने वाली अधिकांश सूर्य प्रतिमाओं के स्टेला में कीर्तिमुख बना हुआ है. प्रतिमाओं के स्टेला में कीर्तिमुख का निर्माण मिथिला के प्रतिमा निर्माण की एक खास विशेषता है जो सम्पूर्ण मिथिला क्षेत्र और इस विशेषता से प्रभावित होकर आस पास के इलाके में बारहवीं – तेरहवीं शताब्दी में दिखाई देती है. पाल शैली की प्रतिमा में स्टेला अक्सर गोल और बिना कीर्तिमुख का बना हुआ मिलता है, जबकि कर्णाट शैली की प्रतिमा में स्टेला कोणीय और कीर्तिमुख से युक्त मिलता है. किसी मन्दिर या किसी क्षेत्र में पेड़ के नीचे सूर्य की मूर्ति को स्थापित कर की जाने लगी पूजा और प्रकृति में स्थित सूर्य की छठ पूजा, सूर्य पूजा के ये दोनों दो रूप दो अलग-अलग स्थिति में देखने को मिलता है.

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