सिनेमा और समाज

सिनेमा और समाज

          आज के भौतिकवादी युग में विज्ञान की सर्वांगीण उन्नति अपना एक विशेष महत्त्व रखती है। प्रकृति के अनेकानेक गूढ़तम रहस्यों का उद्घाटन आज के विज्ञान की प्रमुख विशेषता है। विज्ञान ने जितने भी नवीन आविष्कारों को जन्म दिया है, चलचित्र उनमें सर्वाधिक लोकप्रिय साधन है। यदि आपको वास्तविक साम्यवाद के दर्शन करने हैं तो आप चलचित्र के भवन में कीजिये । उसके हृदय में साम्ब और अभेद है। चाहे निर्धन हो या धनवान, राजा हो या प्रजा, किसान हो या जमींदार, पिता हो पुत्र, शत्रु हो या मित्र, सभी का समान रूप से स्वागत करने के लिए उसकी 16 * भुजाएँ फैली हुई हैं। सर्वव्यापकत्व की दृष्टि से अब वह ईश्वर की कोटि में भी आने लगा है। छोटा नगर हो या बड़ा, आपको चलचित्र का भव्य प्रासाद वहाँ अवश्य ही दृष्टिगोचर होगा। इतनी सर्वप्रियता सम्भवतः मनोरंजन के अन्य किसी साधन को प्राप्त नहीं हुई है।
          भारतीय जनता के लिए चलचित्र कोई नवीन वस्तु नहीं। भारतवर्ष में सहस्रों वर्षों से नाटक परम्परा चली आ रही है और अन्य देशों में भी जनता के मनोरंजन होते थे, मण्डलियाँ होती थीं, सारी-सारी रात नाटक खेले जाते थे। प्रीस और रोम इन नाटकों के प्रसिद्ध रंगस्थली थे, परन्तु उनमें सर्वसाधारण का प्रवेश इतना सुलभ नहीं था जितना कि आधुनिक युग के चलचित्रों में। उन नाटक मण्डलियों में और भी बहुत सी न्यूनताएँ थीं- सर्वप्रथम प्रेक्षागार सीमित होते थे, रंगमंच की असुविधा के कारण नाटक वास्तविकता के अधिक निकट नहीं आ पाते थे, अभिनेता भी इतने कुशल कलाकार नहीं होते थे, जो अपनी कला से प्रेक्षकों का हृदय स्पर्श कर सकें । शनैः शनैः नाटकों में छाया चित्रों का प्रवेश हुआ। परन्तु इन छाया चित्रों की आकृति धुंधली होती थी। इनमें वह आकर्षण और सजीवता नहीं होती थी। कालान्तर में छायाचित्र भी विलुप्त हो गए और उनका नवीन रूप आधुनिक चित्रपट के रूप में आरम्भ हुआ ।
          चलचित्रों का आविष्कार अमेरिका निवासी मिस्टर एडीसन ने सन् १८९० में किया था। अनेक स्थिर चित्रों को एक निश्चित गति से तीव्र प्रकाश द्वारा श्वेत पट पर प्रक्षिप्त कर इसकी सृष्टि की जाती थी। भारतवर्ष में सर्व प्रथम सन् १९१३ में हरिश्चन्द्र नामक फिल्म बनी थी, परन्तु ये चलचित्र मूक और अवाक् (न बोलने वाले) थे, किन्तु उनमें गतिशीलता मनुष्य के समान होती थी । सन् १९२८ में सवाक् (बोलने वाले) चलचित्र का श्रीगणेश हुआ और इस परम्परा की सबसे पहली फिल्म ‘आलमआरा” थी, जो सन् १९३१ में बम्बई की इम्पीरियल फिल्म कम्पनी ने बनाई थी। सहसा जनता का ध्यान इस ओर अधिक आकृष्ट हुआ । सवाक् चलचित्रों ने प्रारम्भ में अच्छे नायकों व वादकों को अपनी ओर आकृष्ट किया । परिणामस्वरूप सुप्रसिद्ध गायक और वादक चलचित्रों में कार्य करने लगे और चलचित्रों की प्रतिष्ठा बढ़ी, जिससे यह व्यवसाय और भी अधिक उन्नति की ओर अग्रसर हुआ । पारिश्रमिक के आधिक्य के कारण प्रतिभा सम्पन्न संचालकों तथा कुशल कलाकारों का सहयोग मिलने लगा। कई प्रसिद्ध कम्पनियाँ खुलीं, जिनमें इम्पीरियल, न्यू थ्येटर, रणजीत और प्रभात कम्पनियों ने जनता को अत्यधिक मुग्ध किया। निर्देशक व्ही शान्ताराम तथा अभिनेता चन्द्रमोहन ने अपनी कुशल कलाओं से चलचित्र-प्रेमियों को बहुत प्रभावित किया ।
          देश में जिस तीव्रगति से चलचित्रों का प्रचार हुआ, इससे उनकी सर्वप्रियता स्पष्ट है । इस व्यवसाय में अमेरिका का प्रथम स्थान है, तो भारतवर्ष का द्वितीय | प्रेक्षकों की संख्या वृद्धि के साथ-साथ सिनेमा-गृहों का निर्माण कार्य भी उत्तरोत्तर वृद्धिशील है। इसका मुख्य कारण है भारतवर्ष में मनोविनोद के साधनों का अभाव तथा शिक्षा की न्यूनता के कारण रुचि – वैभिन्नय की कमी । परन्तु इतना अवश्य है कि कम व्यय और कम श्रम से मानव अपने जीवन के संघर्षमय क्षणों में से कुछ क्षण प्रेक्षक गृह में बैठकर बिता देता है और आत्मानुभूति में हँस और रो भी देता है।
          इन चलचित्रों की उपयोगिता जहाँ मनोरंजन के लिए है वहाँ दूसरी ओर ज्ञान-संवर्धन के लिए भी इनका महत्त्व कम नहीं है। जिन देशों की सामाजिक प्रथाओं और भौगोलिक परिस्थितियों को हमने केवल पुस्तकों में ही पढ़ा है और अध्यापकों से सुना है, उन्हें हम प्रत्यक्ष रूप से चलचित्रों में देखकर ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। महत्त्वपूर्ण घटनाओं की फिल्में तैयार की जाती हैं, जैसे-नेहरू जी की रूस तथा अमेरिका यात्रा गाँधी जी की प्रार्थना सभाओं के दृश्य, इन चलचित्रों द्वारा वे मनुष्य भी जो उन घटनास्थलों पर उपस्थित नहीं थे आनन्द ले सकते हैं। गाँधी जी की फिल्म को देखकर आज से सौ वर्ष पश्चात् भी लोग गाँधी जी के साक्षात् दर्शन कर सकेंगे।
          दिन भर का थका-माँदा मजदूर भी शाम को अपना जी बहलाना चाहता है। उस समय एक-दो रुपया खर्च करके वह तीन घण्टे तक सुखद मनोरंजन प्राप्त करता है। सिनेमा के आविष्कार से पूर्व निर्धनों और गरीबों को ऐसा मनोरंजन अप्राप्य न सही पर दुष्प्राप्य अवश्य था। परन्तु आज के युग में यह सभी वर्गों के लिए मनोरंजन का सुलभ साधन है।
          सुना जाता है कि ब्रह्मा चतुर्मुख थे अर्थात् उनके चार मुख थे और प्रत्येक मुख से उन्होंने एक- एक वेद की रचना की, इस प्रकार वेद भी चार हो गये। ब्रह्मा की भाँति चलचित्र भी चतुर्मुख हैं और वे हैं—काव्य, चित्र, संगीत और अभिनय । इन्हीं के समन्वय से वे सृष्टि का निरूपण करने में समर्थ होते हैं। प्रेक्षक बड़ी सुगमता से इन जीवनोपयोगी ललित कलाओं को सिनेमा के माध्यम से आत्मसात् कर सकता है और कला के प्रति उसकी अभिरुचि जाग्रत हो सकती है। परन्तु इन सब बातों के लिए बुद्धिमान और विवेकी दर्शकों की आवश्यकता है ।
          शिक्षा के क्षेत्र में भी चलचित्रों की उपयोगिता बढ़ती जा रही है। प्रौढ़ और अल्पवयस्क छात्रों की शिक्षा के लिए चलचित्रों का माध्यम अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। जिन विषयों को बच्चे पुस्तकों या अध्यापकों की वाणी से ग्रहण नहीं कर पाते उन विषयों को चलचित्र में देखकर आसानी से हृदयंगम कर लेते हैं। इतिहास, भूगोल, विज्ञान आदि विषयों में मौलिक शिक्षा कोमलमति बालकों के लिए बड़ी जटिल होती है, परन्तु फिल्मों द्वारा उनके हृदय पर उनके विषयों का प्रत्यक्ष तथा चिरस्थायी प्रभाव पड़ता है। प्रौढ़ पुरुषों पर खेती के नए साधनों, नवीन उद्योगों तथा स्वास्थ्य रक्षा के सम्बन्ध में चलचित्रों द्वारा चिरस्थायी प्रभाव डाला जा सकता है। विदेशों में इस पद्धति पर विशेष बल दिया जाता है
          सामूहिक सुधार की दृष्टि से भी इन चलचित्रों का विशेष महत्त्व है। समाज की अनेक कुरीतियों तथा निन्द्य कृत्यों की आलोचना ही नहीं अपितु कटु आलोचना द्वारा उन्हें कम करने में चलचित्रों ने पर्याप्त योगदान दिया है। कई फिल्में ऐसी बनीं जिनमें दहेज प्रथा का नग्न नृत्य प्रस्तुत किया गया, दहेज प्रथा की कहानियाँ तथा उसके दुष्परिणामों को देखकर प्रेक्षक, प्रेक्षक-ग्रहों में ही आँसू बहाने लगते थे। अछूतोद्धार की भावना को लेकर भी कई फिल्में तैयार हुईं। इस प्रकार बाल विवाह, बेमेल विवाह आदि समाज की कुरीतियों के बहिष्कार में चलचित्रों ने पर्याप्त सहायता प्रदान की है। शिक्षा और उपदेश की दृष्टि से धार्मिक फिल्मों का अपना एक अलग स्थान है।
          जहाँ एक वस्तु में गुण हैं, वहाँ अवगुण भी हैं, जहाँ पुण्य हैं वहाँ पाप भी हैं। जो वस्तु वरदान है, वह अभिशाप भी है। यही बात हमारे चलचित्रों की है। जहाँ इनसे समाज को इतने लाभ हैं वहाँ इनसे अधिक हानियाँ भी हैं, परन्तु आजकल कुछ ऐसा वातावरण चल रहा है कि इन चलचित्रों से हानि की ही अधिक सम्भावना की जा रही है क्योंकि अधिकांश फिल्म ऐसी बनाई जाती हैं, जिनमें जनता का सस्ता मनोरंजन होता है। कामोत्तेजक दृश्यों के बिना तो सम्भवतः कोई चित्र बनता ही नहीं, नग्न शरीर, वे ही आकर्षक हाव-भाव, कटाक्षपूर्ण नृत्य की मुद्राएँ और वे ही रोमांचकारी चुम्बन | इन कुवासनापूर्ण चित्रों को देखकर हमारे कोमल बुद्धि नवयुवक पथ भ्रष्ट कैसे न होंगे। सिनेमा के संगीत ने जनता के हृदय पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया है। उनमें सभी गाने बुरे हों ऐसी भी बात नहीं है। किसी-किसी पद्य-पंक्ति में साहित्य कूट-कूट कर भरा होता है और कहीं तो अद्वैत और अभेद के दर्शन होते हैं। परन्तु सड़कों पर गाने वाले, ताँगे और रिक्शा वाले, गलियों में गाने वाले छोटे-छोटे बच्चे उन्हीं पंक्तियों को पकड़ते हैं, जिनसे कुवासना की गन्ध आती है। माता-पिता की आँखों से बचकर प्रेम का बिरवा लगाने वाले युवक और युवतियाँ, बिना सोचे-समझे वैसा ही करने लगते हैं जैसा उन्होंने सिनेमा में देखा था। आए दिन हम लोग ऐसी दुःखद घटनाओं के समाचार अखबारों में पढ़ते हैं। चलचित्रों द्वारा भारतीय नवयुवकों का इस प्रकार का संस्खलन बड़ी लज्जा की बात है। इस देश का और देश की भोली जनता का दुर्भाग्य है ।
          इसके अतिरिक्त मनुष्य इस व्यसन में फंसकर परिश्रम से कमाए हुए धन का अपव्यय भी करता है। बहुत से लोगों की रोजाना या सप्ताह में तीन-चार दिन सिनेमा जाने की आदत पड़ जाती है, इससे पैसे का दुरुपयोग होता है। समय की दृष्टि से भी यह एक समय-विनाशक दुर्व्यसन है। जितना समय हम सिनेमा देखने में खर्च करते हैं, यदि इतना समय हम पढ़ने-लिखने में बिताएँ तो विद्या के क्षेत्र में बहुत उन्नति कर सकते हैं। स्वास्थ्य की दृष्टि से भी चलचित्र का पीछे से आने वाला तीव्र प्रकाश नेत्रों को हानि पहुँचाता है। सिनेमा प्रेमियों की नेत्र ज्योति बहुत जल्दी क्षीण हो जाती है। उनका स्वास्थ्य भी खराब हो जाता है । इस प्रकार सिनेमा का धन, समय स्वास्थ्य, तीनों पर ही बुरा प्रभाव पड़ता है । ।
          भारतवर्ष को स्वतन्त्र हुए अड़तालीस वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। देश के उत्थान और उन्नति के लिए शासन की ओर से बहुत से ठोस कदम उठाए गए, परन्तु फिर भी चरित्र – हीनता अपनी चरम सीमा तक बढ़ती जा रही है । इसका बहुत कुछ दायित्वं आधुनिक चलचित्रों पर ही है। जब तक फिल्म निर्माताओं पर कठोर प्रतिबन्ध नहीं लगाया जाएगा तब तक वे सुधरने के नहीं, क्योंकि उनका व्यवसाय और उनकी सर्वप्रियता इन्हीं कुवासनापूर्ण चित्रों पर आधारित है। बीच में एक दो बार गम्भीर चलचित्र भी जनता के सामने आए, परन्तु अश्लील फिल्मों को देखते-देखते जनरुचि इतनी भ्रष्ट हो गई है कि उन चित्रों को किसी ने पसन्द तक नहीं किया। देश के नैतिक एवं चारित्रिक उत्थान के लिए यह आवश्यक है कि फिल्म संसार पर कठोर नियन्त्रण लगाएँ जाएँ। कुछ दिनों से एक नया तमाशा और शुरू हो गया है कि फिल्म वाले अपने अलग-अलग अखबार भी निकालने लगे हैं जिनमें वे ही सर्वांग सुन्दरियों के भद्दे एवं अर्द्धनग्न चित्र और वैसी ही प्रेम गाथाएँ भी – होती हैं। आज का नवयुवक पाठक ‘सरस्वती’ और ‘साहित्य सन्देश’ पढ़ना पसन्द नहीं करता, परन्तु फिल्म इण्डिया और फिल्मिस्तान अवश्य खरीद लेता है और जब तक आँखों में आकर नींद समा नहीं जाती तब तक उन्हें चाटता रहता है। कौन जाने भारतवर्ष के भाग्य में क्या लिखा है और चारों ओर जहाँ दूषित शक्तियाँ भारतवर्ष को पतन के गर्त में गिराने के लिए तैयार खड़ी हैं वहाँ यह चलचित्र जगत् भी कम नहीं ।
          फिल्म-निर्माताओं को देश के प्रति अपने उत्तरदायित्व को समझना चाहिये । देश के नव-निर्माण में अगर ये लोग अपना पूर्ण सहयोग दें तो सोने में सुगन्ध का काम हो सकता है। फिल्म निर्माताओं के सत्य प्रयासों से देश में नव-चेतना, नव जागृति एवम् चरित्र निर्माण, आदि बहुत कुछ सुधार भी सम्भव हो सकता है।
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