व्यायाम और स्वास्थ्य
व्यायाम और स्वास्थ्य
“धर्मार्थकाममोक्षाणाम् आरोग्यं मूलमुत्तमम्”
महर्षि चरक ने लिखा है कि धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चारों का मूल आधार स्वास्थ्य ही है। यह बात अपने में नितान्त सत्य । मानव जीवन की सफलता धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्त करने में ही निहित है, परन्तु सबकी आधारशिला मनुष्य का स्वास्थ्य है, उसका निरोग जीवन है। रुग्ण और अस्वस्थ मनुष्य न धर्मचिन्तन कर सकता है, न अर्थोपार्जन कर सकता है, न काम प्राप्ति कर सकता है, और न मानव-जीवन के सबसे बड़े स्वार्थ मोक्ष की ही उपलब्धि कर सकता है क्योंकि इन सबका मूल आधार शरीर है, इसलिये कहा गया है कि
“शरीरमाद्यम् खलु धर्मसाधनम् ।”
अस्वस्थ व्यक्ति न अपना कल्याण कर सकता है, न अपने परिवार का, न अपने समाज की उन्नति कर सकता है और न देश की । जिस देश के व्यक्ति अस्वस्थ और अशक्त होते हैं, वह देश न आर्थिक उन्नति कर सकता है और न सामाजिक | देश का निर्माण, देश की उन्नति, बाह्य और आन्तरिक शत्रुओं से रक्षा, देश का समृद्धिशाली होना वहाँ के नागरिकों पर आधारित होता है । सभ्य और अच्छा नागरिक वही हो सकता है जो तन, मन, धन से देश-भक्त हो और मानसिक और आत्मिक स्थिति में उन्नत हो । इन दोनों ही क्रमों में शरीर का स्थान प्रथम है। बिना शारीरिक उन्नति के मनुष्य-न देश की रक्षा कर सकता है और न अपनी मानसिक और आध्यात्मिक उन्नति कर सकता है। अस्वस्थ विद्यार्थी कभी श्रेष्ठ विद्यार्थी नहीं हो सकता, अस्वस्थ अध्यापक कभी आदर्श अध्यापक नहीं हो सकता, अस्वस्थ व्यापारी का व्यापार कभी समुन्नत नहीं हो सकता, अस्वस्थ वकील भी अच्छी बहस नहीं कर सकता, अस्वस्थ नौकर कभी यथोचित स्वामी सेवा नहीं कर सकता, अस्वस्थ स्त्री कभी आदर्श गृहिणी नहीं हो सकती, अस्वस्थ संन्यासी कभी समाज का कल्याण नहीं कर सकता, अस्वस्थ नेता कभी देश की बागडोर मजबूती से अपने हाथ में नहीं पकड़ सकता। अतः स्वास्थ्य प्रत्येक दृष्टि से प्रत्येक सामाजिक प्राणी के लिये, महत्त्वपूर्ण वस्तु है। अंग्रेजी में कहावत है—“Health is Wealth” अर्थात् स्वास्थ्य ही धन है।
स्वास्थ्य रक्षा के लिये विद्वानों ने, वैद्यों ने और शारीरिक विज्ञान-वेत्ताओं ने अनेक साधन बताये हैं, जैसे—सन्तुलित भोजन, पौष्टिक पदार्थों का सेवन शुद्ध जलवायु का सेवन, परिभ्रमण, संयम-नियम पूर्ण जीवन, स्वच्छता, विवेकशीलता, पवित्र भाषण, व्यायाम, निश्चिन्तता इत्यादि। इसमें कोई सन्देह नहीं कि ये साधन स्वास्थ्य को समुन्नत करने के लिए रामबाण की तरह अमोध हैं परन्तु इन सब का ‘गुरु’ व्यायाम है। व्यायाम के अभाव में स्वास्थ्यवर्धक पौष्टिक पदार्थ विष का काम करते हैं। व्यायाम के अभाव में केवल पवित्र आचरण या विवेक-शीलता भी अपना कोई प्रभाव नहीं दिखा सकती, क्योंकि जब आपके शरीर में शक्ति नहीं है, तब आप विवेकशील हो ही नहीं सकते। ज्ञान, बुद्धि, विवेक, परिमार्जित मस्तिष्क, ये सब स्वास्थ्य की ही देन होती हैं। क्योंकि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ विचार रहा करते हैं, जैसा किसी विद्वान् अंग्रेज ने कहा है—“A sound rmind in a sound body” | स्वास्थ्यहीन .. व्यक्ति अविवेकी, विचारशून्य, मूर्ख, आलसी, अकर्मण्य, हठी, क्रोधी, झगड़ालू आदि सभी दुर्गुणों का भण्डार होता है। स्वास्थ्य का मूल मन्त्र व्यायाम है –
“व्यायामान्पुष्ट गात्राणी”
अपने अध्ययन कक्ष में बैठा हुआ तथा शास्त्रीय गहन विचारों में उलझा हुआ प्रोफेरार, मैं आपसे पूछता हूँ कि वह क्या कर रहा है। आप कहेंगे कि वह पढ़ाने के लिये पढ़ रहा है या भाषण देने के लिये पढ़ रहा है या अपने ज्ञान-वर्धन के लिये पढ़ रहा है । परन्तु आप समझ लीजिये कि वह व्यायाम भी कर रहा है। व्यायाम केवल दण्ड-बैठक करना ही नहीं होता, पुस्तक पढ़ना भी व्यायाम होता है। इस व्यायाम को बौद्धिक व्यायाम कहते हैं। इससे मस्तिष्क के पुर्जों में शक्ति आती है और वे पुष्ट हो जाते हैं । इस व्यायाम से मनुष्य महान् विचारक और ज्ञानवान बन जाता है। दूसरा व्यायाम, शारीरिक व्यायाम होता है, जिससे शरीर के अंग, प्रत्यंग पुष्ट होते हैं, शरीर बलवान् बन जाता है और मनुष्य तेजस्वी दिखाई पड़ने लगता है। शारीरिक व्यायाम में वे सभी क्रियायें आ जाती हैं, जिनसे शरीर के अंग पुष्ट होते हैं। कोई प्रातः काल खुली हवा में दौड़ लगाना पसन्द करता है, तो कोई बन्द कमरे में तेल मालिश करके दण्ड और बैठक करना । कोई जीन कसे हुए घोड़े पर सवार होकर सपाटे भरना पसन्द करता है, तो कोई नदी के शीतल जल में हाथ-पैर उछाल कर और श्वांस रोक कर तैरना । कोई अखाड़े में कुश्ती लड़ना पसन्द करता है, तो कोई मुग्दर घुमाकर घर आ जाता है। कोई ऊँची कूद कूदता है, तो कोई लम्बी कूद | कोई लाठी चलाने का अभ्यास करता है, तो कोई तीर चलाकर निशाना मारने का । कहने का तात्पर्य यह है कि इस प्रकार की सभी क्रियायें, जिनमें शरीर के अंग पुष्ट होते हों, व्यायाम के अन्तर्गत आ जाती हैं। भिन्न-भिन्न प्रकार के खेल भी एक प्रकार का व्यायाम ही हैं। उनसे भी खिलाड़ी का शरीर पुष्ट होता है और छाती चौड़ी होती है; कबड्डी, रस्साकशी, मलखम्भ आदि भारतीय खेल हैं इनमें फुटबाल, बालीबॉल, हॉकी, टैनिस, बैडमिन्टन, स्केटिंग आदि पाश्चात्य खेल हों। स्त्रियों के लिये सबसे श्रेष्ठ व्यायाम चक्की चलाना है, जिससे आजकल की स्त्रियाँ कोसों दूर भागती हैं और ऐसी बातों को दकियानूसी ख्याल बताती है । यही कारण है कि आजकल की स्त्रियों का स्वास्थ्य खराब होता है और पीली पड़ी रहती हैं। ।
आज के युग में योगासनों का महत्त्व बढ़ता जा रहा है। यहाँ तक कि भारत के अतिरिक्त विदेशों में भी इन योग मुद्राओं को बड़े चाव से और मन से अपनाया जा रहा है। इनसे दो लाभ होते हैं एक तो शरीर की माँसपेशियाँ पुष्ट होती हैं दूसरे मानव को ध्यानावस्थित होकर मन को एकाग्र करने की शक्ति प्राप्त होती हैं। धनुरासन, हलासन, सर्वांगासन, पद्मासन आदि ऐसे आसन हैं जिनसे शरीर की शक्तियाँ तो पुष्ट होती ही हैं परन्तु शरीर भी पुष्ट होता है। इन सब योगासनों में प्राणायम सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है।
व्यायाम से मनुष्य को असंख्य लाभ हैं। सबसे बड़ा लाभ यह है कि वह कभी भी वृद्ध नहीं होता और दीर्घजीवी होता है। जो व्यक्ति नियमित रूप से व्यायाम करता है उसे बुढ़ापा जल्दी नहीं घेरता, अन्तिम समय तक शरीर में शक्ति बनी रहती है। आजकल तो २०-२२ साल के बाद ही शरीर और मुँह की खाल पर झुर्रियाँ पड़ने लगती हैं और मनुष्य वृद्धावस्था में प्रवेश करने ‘लगता है। व्यायाम करने से हमारे उदर की पाचन क्रिया ठीक रहती है। भोजन पचने के बाद ही वह रक्त, मज्जा माँस आदि में परिवर्तित होता है। शरीर का रक्तसंचार हमारे जीवन के लिये परम आवश्यक है। व्यायाम से शरीर में रक्तसंचार नियमित रहता है। इससे शरीर और मस्तिष्क को वृद्धि होती है। व्यायाम से मनुष्य का शरीर सुगठित और शक्ति सम्पन्न होता है । मनुष्य में आत्म-विश्वास और वीरता, आत्मनिर्भरता और वीरता आदि गुणों का आविर्भाव होता है।
“वीरभोग्या वसुन्धरा “
वसुन्धरा सदा वीर व्यक्तियों द्वारा भोगी जाती है, यह एक प्राचीन सिद्धांत है। जिसमें शक्ति होती है, समाज उसका दास बना रहता है, उसका अनुगमन करता है । यह शक्ति व्यायाम द्वारा ही मनुष्य प्राप्त करता है। हमारे प्राचीन भारतवर्ष में राजपूतों को विद्याध्ययन के लिये गुरुकुल में भेजा जाता था, जहाँ वे महर्षियों द्वारा शास्त्रीय ज्ञान और आचार-विचार की शिक्षा प्राप्त करते थे, राजनीति और समाज-नीति का अध्ययन करते थे, परन्तु इसके पश्चात् उन्हें मल्ल – विद्या का भी अध्ययन कराया जाता था | व्यायाम की विधिवत् शिक्षा दी जाती थी। तभी वे शुत्रओं को मुँह तोड़ उत्त देने में समर्थ होते थे | उस समय भारतवर्ष एक शक्ति सम्पन्न और वीरों का देश समझा जाता था । अन्य देशों के नर-नारी यहाँ के वीर पुरुषों को कीर्तिगान करके अपने बच्चों को भी वैसा ही बनने के लिये प्रेरित करते थे। यह “वीरों का देश” अपनी शक्ति पर गर्व करता था और उस शक्ति का मूल स्रोत था दैनिक व्यायाम |
व्यायाम का उचित समय प्रातः काल और सायंकाल है । प्रायः शौच इत्यादि से निवृत्त होकर, बिना कुछ खाये, शरीर पर थोड़ी तेल मालिश करके व्यायाम करना चाहिये । व्यायाम करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि शरीर के सभी अंग प्रत्यगों का व्यायाम हो, शरीर के कुछ ही अंगों पर जोर पड़ने से वे पुष्ट हो जाते हैं, परन्तु अन्य अंग कमजोर ही बने रहते हैं। इस तरह शरीर बेडौल हो जाता है। व्यायाम करते समय जब श्वास फूलने लगे तो व्यायाम करना बन्द कर देना चाहिये, अन्यथा शरीर की नसें टेढ़ी हो जाती हैं और शरीर बुरा लगने लगता है, जैसा कि अधिकांश पहलवानों को देखा जाता है किसी की टाँगें टेढ़ी तो किसी के कान । व्यायाम करते समय मुँह से श्वास कभी नहीं लेना चाहिये, सदैव नासिका से लेना चाहिये । व्यायाम के लिये उचित स्थान वह है, जहाँ शुद्ध वायु और प्रकाश हो और स्थान खुला हुआ हो, क्योंकि फेफड़ों में शुद्ध वायु आने से उनमें शक्ति आती है, एक नवीन स्फूर्ति आती है और उनकी अशुद्ध वायु बाहर निकलती है। व्यायाम के तुरन्त पश्चात् कभी नहीं नहाना चाहिये, अन्यथा गठिया होने का भय होता है। व्यायाम के पश्चात् फिर थोड़ा तेल मालिश करनी चाहिये, जिससे शरीर की थकान दूर हो जाए। फिर प्रसन्नतापूर्वक शुद्ध वायु में कुछ समय तक विश्राम और विचरण करना चाहिये । जब शरीर का पसीना सूख जाये और शरीर की थकान दूर हो जाए, तब स्नान करना चाहिये। इसके पश्चात् दूध आदि कुछ पौष्टिक पदार्थों का सेवन परम आवश्यक है। बिना पौष्टिक पदार्थों के व्यायाम से भी अधिक लाभ नहीं होता। व्यायाम का अभ्यास धीरे-धीरे बढ़ाना चाहिये। यदि प्रथम दिन ही आपने सौ दण्ड और सौ बैठकें कर लीं तो आप दूसरे दिन खाट से उठ भी नहीं सकते, लाभ के स्थान पर हानि होने की ही सम्भावना अधिक है।
आज देश की वीरता का उत्तरोत्तर ह्रास होता जा रहा है। सन्तान निस्तेज उत्पन्न होती है और जीवन भर निस्तेज ही बनी रहती है। इसका मुख्य कारण बच्चों के माता-पिता की शारीरिक शक्ति की न्यूनता है। आज न इसमें अपने पूर्वजों का-सा पराक्रम है, न शोर्य, न धीरता है और न वीरता। इसका कारण है कि हम पंगु और अकर्मण्य हो गये, शरीर से परिश्रम लेने का काम हमने छोड़ दिया। आज के युग में घी, दूध तो प्रायः समाप्त हो ही गया । इतने पर भी शरीर सुचारु रूप से चलता रहे तथा जीवन यात्रा में कोई भयानक विघ्न उपस्थित न हो, इसलिये थोड़ा-सा व्यायाम कर लेना परम आवश्यक है। जीवन की सफलता स्वास्थ्य पर आधारित है और स्वास्थ्य व्यायाम पर । स्वस्थ व्यक्ति कभी पराश्रित या दुखी नहीं रह सकता, वह जो काम चाहे कर सकता है। अत: हमारा कर्त्तव्य है कि हम इस स्वास्थ्य रूपी धन को व्यर्थ ही नष्ट न करें, जिसमें हमें जीवन भर पश्चात्ताप की अग्नि में न जलना पड़े। प्राण रूपी पक्षी को शरीर रूपी पिंजड़े में सुरक्षित रखने के लिये स्वास्थ्य रूपी मजबूत सींकचों की आवश्यकता है। जीवन में प्रसन्नता के लिये स्वास्थ्य और स्वास्थ्य के लिये व्यायाम नितान्त आवश्यक है ।
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