विश्व हिन्दी सम्मेलन
विश्व हिन्दी सम्मेलन
एक विश्व और एक परिवार की भावना से ओत-प्रोत, अन्तर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में भारतीय सांस्कृतिक परम्परा और जीवन-दर्शन के वाहक के रूप में महाराष्ट्र प्रान्त के नागपुर शहर में जिस उदार, सर्वसंग्राहक और सर्वसमावेश भावना से हिन्दी का जो यह महायज्ञ आयोजित किया गया वह मानवता के हृदयों को परस्पर में जोड़ने वाला, सारे विश्व में शान्ति और मैत्री के वातावरण का निर्माण करने वाला तथा सृष्टि के अन्तर्भूत चैतन्य तत्व की उपासना करने वाला एक अभिनव कार्यक्रम था, जो स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् पहली बार विशुद्ध सांस्कृतिक मूल्यों के आधार पर इतने सुन्दर और विशाल ढंग से आयोजित किया गया था।
दिनांक १० जनवरी, ७५ से १३ जनवरी, ७५ तक नागपुर में तथा १४ जनवरी को वर्धा में विश्व हिन्दी सम्मेलन का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। इसमें मारीशस, फिजी, सोवियत संघ, चैकोस्लोवाकिया,ट्रिनीडाड, कनाडा, जापान, जर्मनी, ब्रिटेन आदि ४० देशों के लगभग ११० प्रतिनिधि तथा पर्यवेक्षक सम्मिलित हुए तथा भारत के कोने-कोने से जो १५ भाषाओं के विद्वान् प्रतिनिधि सम्मिलित हुए उनमें सभी भाषाओं जातियों और धर्मों के २००० व्यक्ति थे, जिनमें चार दक्षिणी राज्यों के ४०० प्रतिनिधि भी थे । विश्व हिन्दी सम्मेलन ने भाषायी सौहार्द्र और राष्ट्रीय एकात्मकता का जो वातावरण प्रस्तुत किया, वह अभूतपूर्व, अद्भुत और कल्पनातीत था। राज्य-राज्य के, देश-देश के वर्ण-वर्ण के और जाति-जाति के लोगों का भाषा के तट पर विश्व वैविध्य जोड़ने का यह एक अद्वितीय संगम था। इनमें विचार वैभिन्य भले ही हो, परन्तु अन्तरात्मा में भावात्मक ऐक्य था। बड़े विशाल मण्डप के बर्हिकक्ष में संसार के अनेक देशों के ध्वज फहरा रहे थे और भीतर हिन्दी का अनुष्ठान सम्पन्न हो रहा था । वही अनुष्ठान जिसे आज से साठ-पैंसठ वर्ष पूर्व राष्ट्र-पुरुष महात्मा गाँधी ने राष्ट्रभाषा के प्रचार के रूप में प्रारम्भ किया था।
विदेशों के सभी प्रतिनिधि सम्मेलन की भिन्न-भिन्न गोष्ठियों और परिसंवादों में सक्रिय और महत्त्वपूर्ण योगदान करते और अपनी विशुद्ध हिन्दी वाणी से श्रोताओं को अभिभूत और मन्त्रमुग्ध कर देते । सम्मेलन के विभिन्न अधिवेशनों और कार्यक्रमों के प्रारम्भ में वैदिक मन्त्रों, भजनों एवम् अभंगों को संगीतबद्ध करके, स्वरांजलि का अद्भुत कार्यक्रम महिलाओं के चिन्तन और संगीत साधनाओं का ही स्वरूप था ।
पाँच दिवसीय इस महान् अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन का उद्घाटन १० जनवरी, ७५ को भारत की प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने किया । इस ऐतिहासिक सम्मेलन के उद्घाटन भाषण में श्रीमती गाँधी ने कहा कि — “हिन्दी के विद्वान् और लेखक भाषा की सरलता पर ध्यान दें जिससे वह जनता की भाषा का स्थान ले सके व दैनिक जीवन का अंग बन सके। यह तभी सम्भव है, जब हिन्दी ‘के द्वार सभी भाषाओं के लिए खुले होगें और वह उनके शब्द भाव आदि खपा सकने में समर्थ होगी। भारत की तथा विश्व की भाषा बनने के लिए इस ग्राह्यता शक्ति में संकोच नहीं करना चाहिए।” प्रधानमन्त्री ने कहा कि हिन्दी का विकास कभी राजदरबार में नहीं हुआ है, यह सूर और कबीर की भाषा है, उन्हें किसने राज्याश्रय दिया था ? उन्होंने कहा- हम ऐसे भारत की कल्पना नहीं कर सकते जिसमें एक भाषा या एक धर्म हो, हम अनेकता में एकता की नीति में विश्वास रखते हैं। महात्मा गाँधी का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि उन्होंने सभी भारतीयों को स्वभावतः दुभाषी कहा था, यह सही है।
विश्व हिन्दी सम्मेलन के अध्यक्ष पद पर मारीशस के प्रधानमन्त्री श्री शिवसागर रामगुलाम को आसीन कराया गया था। अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने कहा – “मुझे इस बात की खुशी है कि अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में विश्व एकता और भाई-चारे के आदर्श को सामने रखा गया है। आज दुनिया के सब देश यह अनुभव कर रहे हैं कि जब तक लोग वर्ग, जाति, रंग के भेदभावों को नहीं भूलेंगे, तब तक विश्व का कल्याण नहीं हो सकता। विश्व की सारी भाषाएँ एक बहुत विशाल वृक्ष की डालियाँ हैं। हमें सब भाषाओं को अपने निकट लाना है और इसी प्रयास से ही हिन्दी को आगे बढ़ाने की योजना बनानी है। उन्होंने कहा कि इस महान् सम्मेलन का अध्यक्ष बनाकर आपने मेरे देश मारीशस और मेरे देशवासियों का जो सम्मान किया है, उसके लिए मारीशस की जनता और मेरे साथी आपके अत्यन्त आभारी हैं। मारीशसवासी हिन्दी की महानता से भली-भाँति परिचित हैं । यही एक भाषा है जिसे लेकर पिछले १५० वर्षों में हमने अपने बाप-दादा की परम्पराओं को जिन्दा रखा है। हिन्दी भारत के चिन्तन और दर्शन का मूल स्रोत है, इसी के द्वारा भारत की आत्मा को पहचाना जा सकता है। यही कारण है कि दुनिया भर में कई बड़े-बड़े स्कूलों, कॉलिजों व विश्वविद्यालयों में हिन्दी को प्रोत्साहन दिया जा रहा है।” महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमन्त्री श्री बी० पी० नाइक ने जो इस सम्मेलन की स्वागत समिति के अध्यक्ष थे, कहा कि “महाराष्ट्र में दा ही हिन्दी के अनुकूल वातावरण रहा है। देवनागरी लिपि अपनाने से मराठी भाषा हिन्दी के निकट हो गई है।” चिश्व हिन्दी सम्मेलन के महासचिव श्री अनन्त गोपाल शेवड़े ने कनाड़ा से जापान और ट्रिनीडाड से फिजी तक चारों महाद्वीपों के विभिन्न देशों और भारत से आये प्रतिनिधियों का स्वागत किया ।
इस अधिवेशन की महत्त्वपूर्ण बात यह रही कि आचार्य काका कालेलकर ने राष्ट्रसंघ में हिन्दी की मान्यता का आह्वान किया और कहा कि सम्पूर्ण संसार में स्वाधीनता का सन्देश पहुँचाने के लिये राष्ट्र संघ में हिन्दी का प्रयोग किया जाना चाहिये ताकि दुनिया में कहीं भी मानवाधिकारों के दमन के खिलाफ जोरदार आवाज उठायी जा सके। इस तरह मानव द्वारा मानव के शोषण से हटकर यह दुनिया निश्चित् रूप से शान्तिपूर्ण एवं अहिंसावादी समाज की रचना करने में समर्थ होगी। आचार्य कालेलकर ने कहा कि हिन्दी भारत में ३६ करोड़ लोगों की भाषा है और विदेशों में ६ करोड़ लोग हिन्दी बोलते हैं। इस प्रकार ४२ करोड़ लोगों की यह भाषा मानव के शोषण के विरुद्ध प्रभावशाली अभियान का माध्यम बन सकती है और सारी मानव जाति को सेवा का सन्देश दे सकती है।
विश्व हिन्दी सम्मेलन के दूसरे दिन ११ जनवरी को सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित किया गया, जिसमें हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ तथा सम्बद्ध एजेन्सियों की सरकारी भाषाओं में सम्मिलित करने की माँग की गई। सुप्रसिद्ध गाँधीवादी लेखक आचार्य काका कालेलकर तथा तत्कालीन केन्द्रीय स्वास्थ्य मन्त्री डॉ॰ कर्णसिंह द्वारा मूल प्रस्ताव प्रस्तुत किया गया, जिसका पश्चिमी यूरोप, सोवियत संघ और अन्य देशों से आये प्रतिनिधियों ने जोरदार समर्थन किया । “हिन्दी की अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति” पर विचारगोष्ठी का शुभारम्भ मारीशस के युवा क्रीड़ा मन्त्री श्री दयानन्द व सन्तराम ने किया । तत्कालीन विदेशी मंत्री श्री यशवन्तराव चह्वाण इस विचारगोष्ठी के मुख्य अतिथि थे । श्री चह्लाण ने कहा कि किसी भाषा को अन्तर्राष्ट्रीय मान्यता मिलना उस भाषा के बोलने वालों की “सांस्कृतिक क्षमता” पर निर्भर करता है। आज विश्व के ९० विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई जा रही है। यह इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि विश्व के लोगों में भारत के विषय में जानने और उसकी राष्ट्रीय भाषा को सीखने की कितनी लालसा है। हिन्दी धीरे-धीरे अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में अपना स्थान बनाती जा रही है। उन्होंने विदेश जाने वाले सभी भारतीयों से चाहे वे महाराष्ट्रियन, गुजराती, केरलवासी अथवा अन्य किसी राज्य के हों, विदेश में हिन्दी बोलने का प्रयास करने की अपील की। मारीशस के प्रधानमन्त्री श्री शिवसागर रामगुलाम, सोवियत प्रतिनिधि मण्डल के नेता प्रो० चेलीशेव, पश्चिमी जर्मनी के डॉ० लोथार लिक्वन्जे, ट्रिनीडाड के श्री शम्भुनाथ, चेकोस्लोवाकिया के डॉ० लाडोलेन स्नेकन आदि ने विचारगोष्ठी में अपने विचार प्रकट करते हुए प्रस्ताव का पूर्ण एवं दृढ़ समर्थन किया।
विश्व हिन्दी सम्मेलन के तीसरे दिन १२ जनवरी को आयोजित “विश्व मानव चेतना जाग्रत करने में जनसंचार साधन की भूमिका” विषयक गोष्ठी के संयोजक प्रसिद्ध पत्रकार श्री महावीर अधिकारी ने कहा कि विदेशों में गये भारतीयों ने संचार साधनों के अभाव के बावूजद भारतीय संस्कृति तथा हिन्दी का जिस प्रकार प्रचार व प्रसार किया, वह इतिहास में सदैव अविस्मरणीय रहेगा। विचारगोष्ठी के अध्यक्ष कांग्रेस के महामन्त्री श्री पी० वी० नरसिंहराव ने विश्वास व्यक्त किया कि “सजीवता तथा संघर्ष को साथ लेकर हिन्दी विश्वभाषा के रूप में प्रतिष्ठित होगी। हिन्दी, वर्तमान को पूर्णतया प्रतिबिम्बित कर रही है, वह आज नई परिस्थितियों, अराजकता तथा कल्लोल को भी प्रतिबिम्बित कर रही है। हिन्दी में संकोच या संकीर्णता का कोई स्थान नहीं है, भारत के सारे गुण और अवगुण हिन्दी में आने स्वाभाविक हैं तथा वे उपस्थित हैं। “
विश्व हिन्दी सम्मेलन द्वारा वर्धा में ‘विश्व हिन्दी विद्यापीठ’ की स्थापना की स्वीकृति पर हर्ष व्यक्त करते हुए गाँधी स्मारक निधि के अध्यक्ष श्री श्रीमन्नारायण ने विश्व हिन्दी विद्यापीठ की स्थापना को विश्व हिन्दी सम्मेलन की सबसे महत्त्वपूर्ण उपलब्धि बताया। उन्होंने कहा कि “पिछले ३९ वर्षों में राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा ने भारत के पूर्वी और पश्चिमी क्षेत्रों में हिन्दी का राष्ट्रभाषा के रूप में प्रचार करने के लिये अथक प्रयत्न किया है। देश के उत्तर और दक्षिण भागों में भी समिति का काम फैलता जा रहा है । इसके अलावा विदेशी में भी हिन्दी के काफी केन्द्र खोले गये हैं। अब समय आ गया है कि राष्ट्रभाषा प्रचार समिति का कार्य अधिक व्यापक बनाया जाये, उसे राष्ट्रीय स्तर से अन्तर्राष्ट्रीय स्तर तक ले जाया जाये । इस दृष्टि से वर्धा में विश्व हिन्दी विद्यापीठ से की परियोजना बहुत महत्त्वपूर्ण सिद्ध होगी।”
१३ जनवरी को चार दिवसीय विश्व हिन्दी सम्मेलन ज्ञानेश्वर के अभंग (मराठी भजन) के साथ सौहार्द्रपूर्ण वातावरण में समाप्त हुआ। समापन समारोह की अध्यक्षता तत्कालीन केन्द्रीय जहाजरानी मन्त्री पं० कमलापति त्रिपाठी ने की । श्री त्रिपाठी ने कहा कि “विश्व हिन्दी सम्मेलन विश्व स्तर पर हिन्दी को प्रतिष्ठित करने में सफल रहा । हिन्दी निश्चित ही अन्तर्राष्ट्रीय भाषा का स्थान प्राप्त करके रहेगी, पचास करोड़ लोगों की भाषा की विश्व उपेक्षा नहीं करता, आवश्यकता इस बात की है कि इस लक्ष्य के लिये निरन्तर प्रयास हों ।” भारत के उपराष्ट्रपति श्री जत्ती ने सम्मेलन की ओर से १५ भारतीय साहित्यकारों को सम्मानित किया, जिनमें हिन्दी महादेवी वर्मा तथा १४ गैर हिन्दी लेखक थे । सम्मेलन के महासचिव श्री अनन्तगोपाल शेवड़े द्वारा सम्मेलन समापन की औपचारिक घोषणा के साथ ही सम्मेलन स्थल से ३५ राष्ट्रों के ध्वज उतर गये। आज की अन्तिम विचारगोष्ठी का विषय था – “आधुनिक युग और हिन्दी की आवश्यकतायें और उपलब्धियाँ।” श्री शेवड़े ने घोषणा की कि अगले विश्व हिन्दी सम्मेलन के स्थान और समय के बारे में बाद में घोषणा की जाये, वैसे फिजी ने इसके लिये निमन्त्रण दिया है।
१४ जनवरी को वर्धा में अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी अध्ययन संस्थान ( विश्व हिन्दी विद्यापीठ) का शिलान्यास किया गया, जिसमें देश-विदेश से आये हुए सभी प्रतिनिधियों ने भाग लिया। विद्यापीठ की आधारशिला रखते हुए तत्कालीन केन्द्रीय कृषि मन्त्री श्री जगजीवनराम ने कहा कि “यह अकादमी केवल हिन्दी का अध्ययन केन्द्र ही नहीं बल्कि भारत की मिली-जुली संस्कृति के अध्ययन का केन्द्र होना चाहिए।” आचार्य विनोबा भावे ने अपने आश्रम पवनार में आये हुए विश्व हिन्दी सम्मेलन के प्रतिनिधियों को श्रीमन्नारायण के माध्यम से सन्देश दिया कि यदि विश्व की सभी भाषाएँ देवनागरी लिपि में लिखी जायें तो विश्व की एकता का स्वप्न पूरा हो जायेगा। आचार्य भावे ने आश्चर्य प्रकट किया कि “केवल १६ करोड़ लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा स्पेनिश को संयुक्त राष्ट्र संघ ने मान्यता दी है परन्तु ३६ करोड़ लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा हिन्दी को मान्यता नहीं दी है।”
युगान्तरकारी विश्व का यह विराट आयोजन कवीन्द्र रवीन्द्र की उस कल्पना को साकार रूप प्रदान कर देता है, जिसमें उन्होंने कहा था-“भारत महामानव सागरेर तीरे”। विश्व हिन्दी सम्मेलन की सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि उसने हिन्दी के भारतीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय रूप एवं महत्त्व के प्रति प्रभावात्मक ढंग से सबका ध्यान आकृष्ट किया और इस देश से दूर विशाल भारत के प्रवासी हमारे भाई एक बार फिर अपने घर के वातावरण में आकर इकट्ठे हो गये। विश्व सम्मेलन में हिन्दी को अन्तर्राष्ट्रीय पद प्राप्त कराने के लिए जो प्रस्ताव पारित हुआ, वह स्तुत्य है। हिन्दी, संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा होने की अधिकारिणी बहुत पहले से है, परन्तु विचारणीय यह है कि अपने ही घर में उसका उचित स्थान दिलाने के लिए हम क्या कर रहे हैं। विदेशी विद्वानों श्री कामिल बुल्के, लौहार लुत्से तथा श्रीमती कात्सलाफ आदि ने यही बात निर्भीकतापूर्वक कही कि जब तक स्वयं भारत में हिन्दी का प्रयोग नहीं होता और अंग्रेजी का दबदबा बना रहता है, हिन्दी को अन्तर्राष्ट्रीय भाषा बनाने की वकालत करना हास्यास्पद हैं ।
द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन मारीशस राष्ट्र में पोर्ट लुई के निकट मोका नगर में २८ अगस्त, १९७६ से ३० अगस्त,१९७६ तक सम्पन्न हुआ, जिसमें भारतवर्ष को सादर आमन्त्रित किया था। इस सम्मेलन में भारत के अनेक विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभागाध्यक्षों, भारतीय संसद् सदस्यों तथा भारतीय रिजर्व बैंक के हिन्दी विभाग के निदेशक डॉ० पी० जयरमन ने भाग लिया । श्री जयरमन ने कहा कि — “हिन्दी केवल भाषा का ही प्रचार नहीं करती वरन् संस्कृति, सभ्यता और भारतीयता का भी प्रचार करती है। संस्थाओं द्वारा किया गया प्रचार भारत की भावनाओं का प्रचार है और यह प्रचार चारों दिशाओं में फैलाया जाना चाहिये।” द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन के अवसर पर मारीशस की १७५ पृष्ठ की एक हिन्दी स्मारिका प्रकाशित की गई, जिसमें “अन्तर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में हिन्दी” विषय प्रथम लेख भारत के तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मन्त्री श्री विद्याचरण शुक्ल का है। स्मारिका में भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति स्वर्गीय श्री फखरुद्दीन अली अहमद तथा तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती गाँधी एवं मारीशस के प्रधानमन्त्री डॉ० शिवसागर रामगुलाम तथा अन्य भारतीय केन्द्रीय मन्त्रियों के शुभ संदेश हैं । इस स्मारिका में विश्व में हिन्दी की स्थिति पर सामान्य रूप से एवं मारीशस में विशेष रूप से प्रकाश डाला गया है । आशा है कि भविष्य में विश्व हिन्दी सम्मेलनों की सबल शृंखला हिन्दी को अन्तर्राष्ट्रीय भाषां एवं संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा के सिंहासन पर आसीन कराने में समर्थ सिद्ध हो सकेगी। ।
हिन्दी विश्व सम्मेलनों के आयोजनों से हिन्दी के अस्तित्व और व्यक्तित्व को बल मिलता है यह निःसन्देह सत्य है। तृतीय विश्व हिन्दी सम्मेलन से हिन्दी को जो शक्ति प्राप्त हुई है उसका प्रदर्शन १९९६ के अन्तिम चरणों में ट्रिनिडाड में सम्पन्न हुए चतुर्थ विश्व सम्मेलन में देखने को मिला। विश्व के अधिकांश हिन्दी प्रतिनिधियों ने इसमें भाग लेकर और अपने अद्वितीय तर्कों से यह सिद्ध कर दिया कि हिन्दी भी विश्व की उन भाषाओं में से एक है जिनकी तूती आज संयुक्त महा राष्ट्र संघ में बोल रही है और हिन्दी की उपेक्षा की जा रही है। यह विश्व के मनीषियों के लिये निःसन्देह लज्जाजनक है।
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