विद्यार्थी – जीवन
विद्यार्थी – जीवन
‘विद्यार्थी’ शब्द अपने आप में एक महत्वपूर्ण और व्यापक अर्थ वाला शब्द है । यह शब्द दो शब्दों के योग से बना है – विद्या + अर्थी । इसका अर्थ यह हुआ जो विद्या को प्रयोजन के रूप में ग्रहण करता है, वही विद्यार्थी है। इस प्रकार विद्यार्थी का एकमात्र उद्देश्य विद्या की प्राप्ति ही है ।
आदि पुरुष मनु ने हमारे जीवन को चार भागों में विभाजित किया है – ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, संन्यास और वानप्रस्थ । इनमें ब्रह्मचर्य अर्थात् विद्यार्थी जीवन सबसे सुनहरा, सुखद, प्रभावशाली और विशिष्ट होता है। ऐसा इसलिए कि इस काल में भविष्य की बुनियाद तैयार होती है । यह काल भविष्य का ताना-बाना बुन करके उसे सदा के लिए पुष्ट और टिकाऊ बना देता है। इस काल में न केवल शरीर शुद्ध, तेजस्वी और शक्ति सम्पन्न होता, अपितु बुद्धि-विवेक का भण्डार पूरा भरा होता है, वह सुरक्षित होकर बहुत ही प्रभावशाली और आकर्षक दिखाई देता है। इसे ही ब्रह्मतेज या ब्रह्मस्वरूप कहा जाता है । यह सम्पूर्ण रूप से तेजवान् और चैतन्य पूर्ण होकर प्रेरणादायक रूप में होता है । इस प्रकार यह सजग रहकर किसी प्रकार के आलस्य और सुस्ती से कोसों दूर रहता है । यह सचमुच में मानव जीवन का स्वर्णिम काल होता है I
किसी ने विद्यार्थी के स्वरूप लक्षण को इस प्रकार बतलाया है –
“काक चेष्टा, बको ध्यानं
श्वान निद्रा तथैव च ।
अल्पाहारी, गृहत्यागी,
पंच विद्यार्थी लक्षणम् ।।”
अर्थात् एक सच्चे और आदर्श विद्यार्थी के पाँच प्रमुख लक्षण होते हैं। वे इस प्रकार हैं-कौए की चेष्टा करना, बगुले की तरह ध्यान देना, कुत्ते की तरह नींद लेना, अल्पाहारी और गृहत्यागी ही विद्यार्थी के पाँच प्रमुख लक्षण हैं। इस प्रकार एक वास्तविक विद्यार्थी के गुण और स्वरूप सचमुच में अद्भुत और बेमिसाल होते हैं। वह चुन-चुनकर अपने अंदर अति सुन्दर, रोचक और लाभदायक संस्कारों (गुणों) को ग्रहण करके उन्हें अपनाता है।
एक अन्य स्थल पर विद्यार्थी को सावधान करते हुए कहा गया है –
“सुखार्थिनः कुतो विद्या,
विद्यार्थिनः कुतो सुखम् ।
सुखार्थिनः त्यजेत् विद्या,
विद्यार्थिनः सुखं त्यजेत् ।।”
अर्थात् सुख चाहने वालों को विद्या कहाँ है और विद्या चाहने वालों को सुख कहाँ है ? अर्थात् नहीं है। इसलिए सुख चाहने वालों को विद्या प्राप्ति की आशा छोड़ देनी चाहिए और विद्या चाहने वालों को सुख की आशा नहीं करनी चाहिए । इस दृष्टि से यदि देखा जाए तो दुःखी मनुष्य अपनी कड़ी मेहनत और सुख की आशा को छोड़कर के विद्या को प्राप्त कर लेते हैं जबकि सुखी मनुष्य अपने सुख और आनंद के ध्यान में होने के कारण विद्या को नहीं प्राप्त कर पाते हैं । इस आधार पर विद्या की प्राप्ति बड़ी कठिनाई, मेहनत और त्याग से होती है; केवल कल्पना और सुख-सुविधाओं के संसार फैलाने से नहीं।
विद्यार्थी जीवन स्वतंत्र जीवन होता है । वह स्वाभिमानपूर्ण जीवन होता है । उसमें किसी प्रकार की दब्बू मनोवृत्ति नहीं होती है। वह किसी प्रकार के दबाव – झुकाव से कोसों दूर रहता है । वह आत्मविवेक से निर्णय लेने वाला निडर और निःशंकपूर्ण जीवन होता है । वह आत्मचेतना, आत्मशक्ति, आत्मबल और आत्मनिश्चय का विश्वस्त और दृढ़ निश्चयी होता है । अतः वह पत्थर की लीक के समान अटल, अविचल और स्थिर गति से आगे बढ़ता जाता है। उसका इस तरह आगे बढ़ना काल से महाकाल, साधारण से असाधारण और अद्भुत से महा अद्भुत स्वरूप वाला होता है । इस प्रकार विद्यार्थी जीवन ही ऐसा जीवन होता है, जिसमें सभी प्रकार की संभावनाएं छिपी रहती हैं ।
विद्या प्राप्त कर लेने के परिणामस्वरूप कई अच्छे गुण स्वयं ही उनमें प्रवेश कर जाते हैं–
“विद्या ददाति विनयं,
विनयादयाति पात्रताम् ।
पात्रत्वाद् धनमाप्नोति,
धनाद्धर्मं ततः सुखम् ।।”
विद्या से विनय, विनय से योग्यता, योग्यता से धन, धन से धर्म तथा धर्म से सुखों की प्राप्ति होती है। विद्या-व्यसनी नम्रता के गुण से युक्त हो जाते हैं । नम्रता तथा सदाशयता आदि अच्छे गुण विद्यार्थी के जीवन में सफलता प्राप्ति के सोपान हैं। एक विद्वान के अनुसार –
“विद्या राजसु पूज्यते न तु धनम् । “
राजदरबारों में भी विद्या की पूजा होती है। दूसरे शब्दों में विद्वान वर्ग ही समादर का पात्र होता है। ऐसा इसलिए कि धन की कमी तो राजाओं के पास भी नहीं होती। और भी ।
“विद्वत्वंचनृपत्वंच नैव तुल्य कदाचन् । “
अर्थात् विद्वान, नृपत्व इन दोनों में कभी समानता नहीं हो सकती । सुस्पष्ट है कि विद्वता नृपत्व से भी बढ़कर है; क्योंकि –
“स्वदेशे पूज्यते राजा, विद्वान् सर्वत्र पूज्यते ।”
अर्थात् विद्वान का आदर तो सर्वत्र होता है, उसे किसी स्थान या क्षेत्र विशेष की सीमा में नहीं बाँधा जा सकता । राजा का तो शासन् – क्षेत्र सीमित होता है । उसी परिधि में उसका सम्मान विशेष रूपेण होता है। विद्यार्थी को अपने जीवन में नियमों का कड़ाई से पालन करना पड़ता है ।
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