राष्ट्रपिता-महात्मा गाँधी
राष्ट्रपिता-महात्मा गाँधी
अंग्रेजों की शोषण नीति और असहा परतन्त्रता से भारतवर्ष को मुक्त कराने में अनेक महापुरुषों ने अपनी शक्ति और सामर्थ्य के अनुसार योगदान दिया। आदरणीय लोकमान्य तिलक, श्रद्धेय मालवीय जी, पूज्य बापू, क्रान्ति दूत सुभाष, आदि स्वतन्त्रता संग्राम के सेनानायक थे, जिन्होंने देश की स्वतन्त्रता के लिए अपना सब कुछ बलिदान कर दिया। कांग्रेस के बाल्यकाल में ही आपस में फूट पड़ी, दो दल बन गये, एक नरम दल और दूसरा गरम दल । नरम दल की बागडोर गाँधी जी के हाथ में आई । भारतवर्ष की स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए गाँधी जी ने भर प्रयत्न किये, और उन्होंने भारतवर्ष को स्वतन्त्र कराया I
गाँधी जी का । नाम मोहनदास करमचंद गाँधी था। इनके पिता करमचन्द किसी समय पोरबन्दर के दीवान थे, फिर बाद में राजकोट के दीवान रहे। इनकी माता का नाम पुतलीबाई था, जो स्त्री थी। सदैव पूजा-पाठ में व्यस्त रहती थीं। वर्षा ऋतु के चार महीनों में वे चातुर्मास्य व्रत रखतीं, अस्वस्थ होने पर भी व्रत नहीं छोड़ती थीं। २ अक्टूबर, सन् १८६९ ई० को पोरबन्दर में बालक मोहनदास का इसी परिवार में जन्म हुआ । इनका बाल्यकाल पोरबन्दर में ही व्यतीत हुआ । सात वर्ष की अवस्था में इन्हें राजकोट की देहाती पाठशाला में दाखिल कराया गया, पाँच वर्ष तक ये वहीं पढ़ते रहे। जैसा कि गाँधी जी ने स्वयं लिखा है । बालक मोहनदास में बचपन में कुछ दुर्गुण भी थे, बुद्धि भी इतनी तीव्र न थी । कौन जानता था कि यह भोला-भाला बालक एक दिन राष्ट्र को इतना सम्मान प्रदान कराएगा कि जनता उसे बापू कहने लगेगी। वे माता-पिता के भक्त थे । १८८५ में आपके पिताजी का स्वर्गवास हो गया। सन् १८८७ में आपने मैट्रिक की परीक्षा पास की। सन् १८८८ में बैरिस्ट्री पढ़ने आप विलायत चले गए और १८९१ में.. आप बैरिस्ट्री पास करके भारत लौट आए।
आपने बम्बई में वकालत प्रारम्भ क की परन्तु विशेष सफलता न मिली। पोरबन्दर की एक फर्म का अफ्रीका में मुकदमा चल रहा था। उसकी चालीस हजार पौण्ड की नालिश थी, उसमें वकील होकर आप अफ्रीका गए। सिर पर पगड़ी रखकर आप अदालत में गए, वहाँ आपसे पगड़ी उतारने को कहा, सच्चे भारतीय की भाँति आपने अपनी पगड़ी की रक्षा की आप बाहर आ गए। रेल, घोड़ा-गाड़ी, होटल सभी जगह आपका अपमान किया गया, किन्तु आप अपने मिशन में लगे रहे। इसी प्रकार वहाँ रहने वाले भारतीयों के साथ भी होता था। अफ्रीका में रहने वाले भारतीयों का पक्ष लेकर आपने आन्दोलन चलाया, आन्दोलन में आपको सफलता मिली और गाँधी जी को ही यह श्रेय प्राप्त हुआ कि वहाँ भारतीयों के सम्मान की रक्षाह होने लगी I
भारतवर्ष लौटकर यहाँ की राजनीति में गाँधी जी ने भाग लेना आरम्भ किया। १९१४ में प्रथम युद्ध में गाँधी ने अंग्रेजों की सहायता की क्योंकि अंग्रेजों ने वचन दिया था कि युद्ध में विजयी Augus area युद्ध रौलट एक्ट तथा पंजाब की रोमांचकारी जलियाँवाला बाग काण्ड की घटना पुरस्कार के रूप में प्रदान की।
इसके पश्चात् १९१९ और १९२० में गांधी जी ने आन्दोलन आरम्भ किया परिणामस्वरूप वे जेल भेजे गए । १९३० में देशव्यापी नमक आन्दोलन का संचालन किया। १९३१ में आपको किया गया। में पक्ष का समर्थन किया। १९३८ में भारत सरकार ने कांग्रेसियों को अपने-अपने प्रान्तों में मन्त्रिमण्डल बनाने की आज्ञा दे दी। गाँधी जी की सहमति से सभी प्रान्तों में मन्त्रिमण्डल बने। १९३९ में अंग्रेजों ने भारतीयों की बिना राय लिए हुए ही भारत को महायुद्ध में सम्मिलित राष्ट्र घोषित कर दिया। प्रथम महायुद्ध में गाँधी जी ने अंग्रेजों की दिल खोलकर सहायता की थी इस आश्वासन के ऊपर कि भारत को स्वतन्त्र कर देंगे, परन्तु तु उसका प्रतिफल बड़ा भयानक हुआ था। अतः इस बार गाँधी जी ने सहायता के विषय में स्पष्ट मना कर दिया कि तब तक आपकी सहायता न करेंगे, जब तक कि आप हमें पूर्ण स्वतन्त्र न कर दें, इस प्रकार महायुद्ध में अंग्रेजों की कोई सहायता नही की गई ।
द्वितीय महायुद्ध की समाप्ति पर विश्व की राजनैतिक स्थिति बहुत बदल गई थी। युद्ध से पूर्व ब्रिटेन को संसार की सबसे बड़ी शक्ति समझा जाता था, परन्तु अब उसकी स्थिति दूसरी थी। वह पहले नम्बर से अब तीसरे नम्बर पर आ चुका था। भारतवर्ष में १९४२ के ‘भारत छोड़ो” आन्दोलन तथा आजाद हिन्द के बलिदान के कारण प्रबल राजनैतिक जागृति हो गई थी। १९४२ का आन्दोलन साधारण आन्दोलन नहीं था। गाँधी जी तथा समस्त नेताओं को जेल में बन्दी बना देने के फलस्वरूप देश की समस्त जनता ने भयंकर रूप धारण कर लिया। अंग्रेजी शासन की नींव डगमगा उठी। किसी-किसी स्थान पर तो ऐसा लगता था मानो अंग्रेजी सरकार रही ही नहीं । विदेशी समझ गये कि अब भारतीयों पर शासन करना आसान खेल नहीं। उन्होंने भारत को छोड़ जाने में ही अपना कल्याण समझा । १५ अगस्त, १९४७ को भारतवर्ष स्वाधीन राष्ट्र घोषित कर दिया गया। भारतवर्ष दो टुकड़ों में विभक्त कर दिया गया। गाँधी जी का सम्पूर्ण जीवन देश हित में ही लगा। उन्होंने अपना समस्त सुख देश के लिये बलिदान कर दिया था। एक साधारण सी लंगोटी धारण कर वे अपना जीवन बिताते थे । उनका रहन-सहन बहुत ही साधारण था। देश में फैले साम्प्रदायिक विष को शान्त करने के लिये उन्होंने नोआखाली की यात्रा की तथा दिल्ली में उपद्रव रोकने के लिए आमरण अनशन तक की घोषणा कर दी । ३० जनवरी, १९४८ की शाम को ६ बजे जब गाँधी जी अपनी प्रार्थना सभा में जा रहे थे तब नाथूराम गोडसे नामक व्यक्ति ने पिस्तौल की ३ गोलियाँ चलाकर उनकी हत्या कर दी। सारा देश शोकाकुल हो उठा। जिधर देखिये उधर लोग रेडियो पर कान लगाए बैठे थे और आँखों से आँसू बहा रहे थे। लोगों ने ऐसा अनुभव किया कि मानो उनके घर के किसी मनुष्य की मृत्यु हो गई हो। मृत्यु के कुछ ही क्षणों के बाद रेडियो पर पण्डित नेहरू ने बड़े दुःख से भरे गद्गद् कण्ठ से भाषण दिया। जनता के आँसू और भी अधिक बहने लगे। पं० नेहरू का स्वयम् का हृदय भी भरा हुआ था। संसार के समस्त झण्डे झुका दिये गये। श्रद्धांजलियाँ अर्पित की गई। लाखों व्यक्ति शमशान यात्रा में सम्मिलित हुए। गाँधी जी के अन्तिम दर्शन के लिए देश के सभी भागों से जो जैसा बैठा था वैसे ही दिल्ली के लिये चल दिया।
गाँधी जी भारतवर्ष के महान् नेता थे, स्वतन्त्रता संग्राम में उन्होंने भारतीय जनता का नेतृत्व किया। भारत माता की परतन्त्रता की बेड़ियों को काटने के लिये उन्होंने जीवन भर यातनायें सहीं, परन्तु पग पीछे न हटाये । साथ ही साथ वे उत्तम विचारक और श्रेष्ठ समाज सुधारक भी थे। वे समाज की बहुत-सी छिपी हुई कमियों को समाज के सामने लाये तथा उन्हें दूर करने का पूर्ण प्रयत्न किया। महात्मा बुद्ध की दया और अहिंसा, दयानन्द के सत्य और अछूतोद्धार के पवित्र नियमों पर वे स्वयम् चले और दूसरों को भी चलाया । गाँधी जी ने समाज की बहुमुखी सेवा की । निःसन्देह भारतवर्ष उनका ऋणी है और चिर ऋणी रहेगा ।
२ अक्टूबर, १९६९ तक गाँधी जी के आविर्भाव काल को सौ वर्ष व्यतीत हो चुके थे । अतः समस्त विश्व में गाँधी शताब्दी समारोहों का आयोजन किया गया था। भारतवर्ष में वह समारोह पूरे एक वर्ष तक मनाया गया । २ अक्टूबर, १९६९ से पूरे वर्ष सरकारी स्तर पर तथा निजी स्तर पर विभिन्न आयोजन किए गए थे । गाँधी विचारधारा पर नवीन मौलिक ग्रन्थों का प्रकाशन हुआ तथा देश-विदेशों में गाँधी साहित्य का प्रचार एवं प्रसार किया गया। गाँधी जी की अमृतमयी वाणी को प्रतिदिन आकाशवाणी से भारतीयों के कर्ण कुहरों में उड़ेला गया, जिससे कि देशवासी कुछ ग्रहण कर सकें पर खेद है कि हम तब भी और अब भी ज्यों के त्यों हैं, हम वही ग्रहण करते हैं जिससे हमारा कुछ उल्लू सीधा होता है।
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