राजनीतिक दल Political Parties

राजनीतिक दल     Political Parties

 

राजनीतिक दल
♦ राजनीतिक दल को लोगों के एक ऐसे संगठित समूह के रूप में समझा जा सकता है जो चुनाव लड़ने और सरकार में राजनीतिक सत्ता हासिल करने के उद्देश्य से काम करता है। समाज के सामूहिक हित को ध्यान में रखकर यह समूह कुछ नीतियाँ और कार्यक्रम तय करता है।
♦ राजनीतिक दल लोगों को यह समझाने का प्रयास करते हैं कि उनकी नीतियाँ औरों से बेहतर हैं। वे लोगों का समर्थन पाकर चुनाव जीतने के बाद उन नीतियों को लागू करने का प्रयास करते हैं।
♦ राजनीतिक पार्टी समाज के किसी एक हिस्से से सम्बन्धित होती है। इसलिए उसका नजरिया समाज के उस वर्ग/समुदाय विशेष की तरफ झुका होता है। किसी दल की पहचान उसकी नीतियों और उसके सामाजिक आधार से तय होती है।
राजनीतिक दल के तीन प्रमुख हिस्से हैं
1. नेता
2. सक्रिय सदस्य
3. अनुयायी या समर्थक
राजनीतिक दल के कार्य
♦ मूलत: राजनीतिक दल राजनीतिक पदों को भरते हैं और राजनीतिक सत्ता का इस्तेमाल करते हैं। दल इस काम को कई तरह से करते हैं
1. दल चुनाव लड़ते हैं। अधिकांश लोकतान्त्रिक देशों में चुनाव राजनीतिक दलों द्वारा खड़े किए गए उम्मीदवारों के बीच लड़ा जाता है। राजनीतिक दल उम्मीदवारों का चुनाव कई तरीकों से करते हैं। अमेरिका जैसे कुछ देशों में उम्मीदवार का चुनाव दल के सदस्य और समर्थक करते हैं। अब इस तरह से उम्मीदवार चुनने वाले देशों की संख्या बढ़ती जा रही है। अन्य देशों, जैसे भारत में, दलों के नेता ही उम्मीदवार चुनते हैं।
2. दल अलग-अलग नीतियों और कार्यक्रमों को मतदाताओं के सामने रखते हैं और मतदाता अपनी पसन्द की नीतियाँ और कार्यक्रम चुनते हैं।
3. पार्टियाँ देश के कानून निर्माण में निर्णायक भूमिका निभाती हैं। कानूनों पर औपचारिक बहस होती है और उन्हें विधायिका में पास करवाना पड़ता है लेकिन विधायिका के अधिकतर सदस्य किसी न किसी दल के सदस्य होते हैं। इस कारण वे अपने दल के नेता के निर्देश पर फैसला करते हैं।
4. राजनीतिक दल ही सरकार बनाते और चलाते हैं। नीतियों और बड़े फैसलों के मामले में निर्णय राजनेता ही लेते हैं और ये नेता विभिन्न दलों के होते हैं। पार्टियाँ नेता चुनती हैं, उनको प्रशिक्षित करती हैं और फिर पार्टी के सिद्धान्तों और कार्यक्रम के अनुसार फैसले करने के लिए उन्हें मन्त्री बनाती हैं ताकि वे पार्टी की इच्छा के अनुसार सरकार चला सकें।
5. चुनाव हारने वाले दल शासक दल के विरोधी पक्ष की भूमिका निभाते हैं। सरकार की गलत नीतियों और असफलताओं की आलोचना करने के साथ वह अपनी अलग राय भी रखते हैं। विपक्षी दल सरकार के खिलाफ आम जनता को भी गोलबन्द करते हैं।
6. जनमत-निर्माण में दल महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे मुद्दों को उठाते और उन पर बहस करते हैं। विभिन्न दलों के लाखों कार्यकर्ता देश भर में बिखरे होते हैं। समाज के विभिन्न वर्गों में उनके मित्र संगठन या दबाव समूह भी काम करते रहते हैं। दल कई बार लोगों की समस्याओं को लेकर आन्दोलन भी करते हैं। अक्सर विभिन्न दलों द्वारा रखी जाने वाली राय के इर्द-गिर्द ही समाज के लोगों की राय बनती जाती है।
7. दल ही सरकारी मशीनरी और सरकार द्वारा चलाए जाने वाले कल्याण कार्यक्रमों तक लोगों की पहुँच बनाते हैं। एक साधारण नागरिक के लिए किसी सरकारी अधिकारी की तुलना में किसी राजनीतिक कार्यकर्ता से जान-पहचान बनाना, उससे सम्पर्क साधना आसान होता है। इसी कारण लोग दलों पर पूरा विश्वास न करते हुए भी उन्हें अपने करीब मानते हैं। दलों को भी हर साल में लोगों की माँगों और जरूरतों पर ध्यान देना होता है अन्यथा अगले चुनाव में लोग उन्हें धूल चटा सकते हैं।
राजनीतिक दल की जरूरत
♦ राजनीतिक दलों के उपरोक्त कार्यों हेतु इनकी जरूरत होती है।
♦ अगर दल न हों तो सारे उम्मीदवार स्वतन्त्र या निर्दलीय होंगे, तब इनमें से कोई भी बड़े नीतिगत बदलाव के बारे में लोगों से चुनावी वायदे करने की स्थिति में नहीं होगा। सरकार बन जाएगी पर उसकी उपयोगिता संदिग्ध होगी। निर्वाचित प्रतिनिधि सिर्फ अपने निर्वाचन क्षेत्रों में किए गए कामों के लिए जवाबदेह होंगे, लेकिन देश कैसे चले इसके लिए कोई उत्तरदायी नहीं होगा।
♦ राजनीतिक दलों का उदय प्रतिनिधित्व पर आधारित लोकतान्त्रिक व्यवस्था के उभार के साथ जुड़ा है।
♦ बड़े समाजों के लिए प्रतिनिधित्व आधारित लोकतन्त्र की जरूरत होती है। जब समाज बड़े और जटिल हो जाते हैं तब उन्हें विभिन्न मुद्दों पर अलग-अलग विचारों को समेटने और सरकार की नजर में लाने के लिए किसी माध्यम या एजेन्सी की जरूरत होती है। विभिन्न जगहों से आए प्रतिनिधियों को साथ करने की जरूरत होती है ताकि एक जिम्मेदार सरकार का गठन हो सके। उन्हें सरकार का समर्थन करने या उस पर अंकुश रखने, नीतियाँ बनवाने और नीतियों का समर्थन अथवा विरोध करने के लिए उपकरणों की जरूरत होती है। प्रत्येक प्रतिनिध- सरकार की ऐसी जो भी जरूरतें होती हैं, राजनीतिक दल उनको पूरा करते हैं। इस तरह हम कह सकते हैं कि राजनीतिक दल लोकतन्त्र की एक अनिवार्य शर्त है।
कितने राजनीतिक दल?
♦ लोकतन्त्र में नागरिकों का कोई भी समूह राजनीतिक दल बना सकता है। इस औपचारिक अर्थ में सभी देशों में बहुत से राजनीतिक दल हैं।
♦ भारत में ही चुनाव आयोग में नाम पंजीकृत कराने वाले दलों की संख्या 750 से ज्यादा है। लेकिन, हर दल चुनाव में गम्भीर चुनौती देने की स्थिति में नहीं होता है।
♦ चुनाव जीतने और सरकार बनाने की होड़ में आमतौर पर कुछेक पार्टियाँ ही सक्रिय होती हैं।
♦ कई देशों में सिर्फ एक ही दल को सरकार बनाने और चलाने की अनुमति है। इस कारण उन्हें एकदलीय शासन-व्यवस्था कहा जाता है।
♦ एकदलीय व्यवस्था को अच्छा विकल्प नहीं माना जा सकता क्योंकि यह लोकतान्त्रिक विकल्प नहीं है। किसी भी लोकतान्त्रिक व्यवस्था में कम से कम दो दलों को राजनीतिक सत्ता के लिए चुनाव में प्रतिद्वन्द्विता करने की अनुमति तो होनी ही चाहिए। साथ ही उन्हें सत्ता में आ सकने का पर्याप्त अवसर भी रहना चाहिए।
♦ कुछ देशों में सत्ता आमतौर पर दो मुख्य दलों के बीच ही बदलती रहती है। वहाँ अनेक दूसरी पार्टियाँ हो सकती हैं, वे भी चुनाव लड़कर कुछ सीटें जीत सकती हैं पर सिर्फ दो ही दल बहुमत पाने और सरकार बनाने के प्रबल दावेदार होते हैं। अमेरिका और ब्रिटेन में ऐसी ही दो दलीय व्यवस्था है।
♦ जब अनेक दल सत्ता के लिए होड़ में हों और दो दलों से ज्यादा के लिए अपने दम पर या दूसरों से गठबन्धन करके सत्ता में आने का ठीक-ठाक अवसर हो तो इसे बहुदलीय व्यवस्था कहते हैं। भारत में भी ऐसी ही बहुदलीय व्यवस्था है। इस व्यवस्था में कई दल गठबन्धन बनाकर भी सरकार बना सकते हैं। जब किसी बहुदलीय व्यवस्था में अनेक पार्टियाँ चुनाव लड़ने और सत्ता में आने के लिए आपस में हाथ मिला लेती हैं तो इसे गठबन्धन या मोर्चा कहा जाता है।
♦ अकसर बहुदलीय व्यवस्था बहुत घालमेल वाली लगती है और देश को राजनीतिक अस्थिरता की तरफ ले जाती है पर इसके साथ ही इस प्रणाली में विभिन्न हितों और विचारों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व मिल जाता है।
♦ दलीय व्यवस्था का चुनाव करना किसी मुल्क के हाथ में नहीं है। यह एक लम्बे दौर के कामकाज के बाद खुद विकसित होती है और इसमें समाज की प्रकृति, इसके राजनीतिक विभाजन, राजनीति का इतिहास और इसकी चुनाव प्रणाली सभी चीजें अपनी भूमिका निभाती हैं। इसे बहुत जल्दी बदला नहीं जा सकता है।
♦ हर देश अपनी विशेष परिस्थितियों के अनुरूप दलीय व्यवस्था विकसित करता है। जैसे, अगर भारत में बहुदलीय व्यवस्था है तो उसका कारण यह है कि दो-तीन पार्टियाँ इतने बड़े मुल्क की सारी सामाजिक और भौगोलिक विविधताओं को समेट पाने में अक्षम हैं।
राजनीतिक दलों में जन भागीदारी
♦ अकसर कहा जाता है कि राजनीतिक दल संकट से गुजर रहे हैं क्योंकि जनता उन्हें सम्मान की नजर से नहीं देखती है। उपलब्ध प्रमाण बताते हैं कि यह बात आंशिक रूप से ही सही है। बड़े नमूनों पर आधारित और कई देशों तक चले सर्वेक्षण के तथ्य बताते हैं कि
♦ दक्षिण एशिया की जनता राजनीतिक दलों पर बहुत भरोसा नहीं करती। जो लोग दलों पर ‘एकदम भरोसा नहीं’ ‘बहुत भरोसा नहीं’ के पक्ष में बोले उनका अनुपात ‘कुछ भरोसा’ या पूरा भरोसा’ बताने वालों से काफी ज्यादा था।
♦ यही बात ज्यादातर लोकतन्त्रों पर लागू होती है। पूरी दुनिया में राजनीतिक दल ही एक ऐसी संस्था है जिस पर लोग सबसे कम भरोसा करते हैं।
खुद को किसी राजनीतिक दल का सदस्य बताने वाले भारतीयों का अनुपात कनाडा, जापान, स्पेन और दक्षिण कोरिया जैसे विकसित देशों से भी ज्यादा है।
♦ पिछले तीन दशकों के दौरान भारत में राजनीतिक दलों की सदस्यता का अनुपात धीरे-धीरे बढ़ता गया है। खुद को किसी राजनीतिक दल का करीबी बताने वालों का अनुपात भी इस अवधि में बढ़ता गया है।
♦ थोड़े से उतार-चढ़ाव के बावजूद भारत में लोगों के दलगत जुड़ाव में बढ़ोतरी हुई है।
♦ विभिन्न दलों की सदस्य संख्या दक्षिण एशिया में शेष विश्व की अपेक्षा कहीं ज्यादा है।
राजनीतिक दलों के प्रकार
♦ विश्व के संघीय व्यवस्था वाले लोकतन्त्रों में दो तरह के राजनीतिक दल हैं— संघीय इकाइयों में से सिर्फ एक इकाई में अस्तित्व रखने वाले दल और अनेक या संघ की सभी इकाइयों में अस्तित्व वाले दल। भारत में भी यही स्थिति है। कई पार्टियाँ पूरे देश में फैली हुई हैं और उन्हें राष्ट्रीय पार्टी कहा जाता है। इन दलों की विभिन्न राज्यों में इकाइयाँ हैं। पर कुल मिलाकर देखें तो ये सारी इकाइयाँ राष्ट्रीय स्तर पर तय होने वाली नीतियों, कार्यक्रमों और रणनीतियों को ही मानती हैं।
♦ देश की हर पार्टी को चुनाव आयोग में अपना पंजीकरण कराना पड़ता है। आयोग सभी दलों को समान मानता है पर यह बड़े और स्थापित दलों को कुछ विशेष सुविधाएँ देता है। इन्हें अलग चुनाव चिह्न दिया जाता है। जिसका प्रयोग पार्टी का अधिकृत उम्मीदवार ही कर सकता है। इस विशेषाधिकार और कुछ अन्य लाभ पाने वाली पार्टियों को ‘मान्यता प्राप्त दल कहते हैं।
♦ चुनाव आयोग ने स्पष्ट नियम बनाए हैं कि कोई दल कितने प्रतिशत वोट और सीट जीतकर ‘मान्यता प्राप्त दल बन सकता है।
♦ जब कोई पार्टी राज्य विधानसभा के चुनाव में पड़े कुल मतों का 6% या उससे अधिक हासिल करती है और कम से कम दो सीटों पर जीत दर्ज करती है तो उसे अपने राज्य के राजनीतिक दल के रूप में मान्यता मिल जाती है।
♦ अगर कोई दल लोकसभा चुनाव में पड़े कुल वोट का अथवा चार राज्यों के विधानसभा के चुनाव में पड़े कुल वोटों का 6% हासिल करता है और लोकसभा के चुनाव में कम से कम चार सीटों पर जीत दर्ज करता है तो उसे राष्ट्रीय दल की मान्यता मिलती है।
उपरोक्त वर्गीकरण के हिसाब से इस समय देश में सात दल राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त हैं
1. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस
2. भारतीय जनता पार्टी
3. बहुजन समाज पार्टी
4. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी – मार्क्सवादी (सीपीआई-एम)
5. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई)
6. राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी
7. अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस
प्रान्तीय दल उपरोक्त छह पार्टियों के अलावा अन्य सभी प्रमुख दलों को चुनाव आयोग ने ‘प्रान्तीय दल’ के रूप में मान्यता दी है। आमतौर पर इन्हें क्षेत्रीय दल कहा जाता है पर यह जरूरी नहीं है कि अपनी विचारधारा या नजरिए में ये पार्टियाँ क्षेत्रीय ही हों । इनमें से कुछ अखिल भारतीय दल हैं पर उन्हें कुछ प्रान्तों में ही सफलता मिल पाई है। समाजवादी पार्टी, समता पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल का राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक संगठन है और इनकी कई राज्यों में इकाइयाँ है।
♦ पिछले तीन दशकों में प्रान्तीय दलों की संख्या और ताकत में वृद्धि हुई है। इससे भारतीय संसद विविधताओं से और भी ज्यादा सम्पन्न
♦ सन् 1996 के बाद से लगभग प्रत्येक प्रान्तीय दल को एक या दूसरी राष्ट्रीय स्तर की गठबन्धन सरकार का हिस्सा बनने का अवसर मिला है। इससे हमारे देश में संघवाद और लोकतन्त्र मजबूत हुए हैं।
राजनीतिक दलों के लिए चुनौतियाँ
♦ पूरी दुनिया में लोग इस बात से नाराज रहते हैं कि राजनीतिक दल अपना काम ठीक ढंग से नहीं करते हैं। हमारे लोकतन्त्र के साथ भी यह बात लागू होती है।
♦ लोकतन्त्र का प्रभावी उपकरण बने रहने के लिए राजनीतिक दलों को इन चुनौतियों का सामना करना चाहिए और इन पर जीत हासिल करनी चाहिए।
♦ राजनीतिक दलों के सामने चुनौती है पार्टी के भीतर आन्तरिक लोकतन्त्र का न होना। सारी दुनिया में यह प्रवृत्ति बन गई है कि सारी ताकत एक या कुछेक नेताओं के हाथ में सिमट जाती है। पार्टियों के पास न सदस्यों की खुली सूची होती है, न नियमित रूप से सांगठनिक बैठकें होती हैं। इनके आन्तरिक चुनाव भी नहीं होते हैं। कार्यकर्ताओं से वे सूचनाओं का साझा भी नहीं करते। सामान्य कार्यकर्ता अनजान ही रहता है कि पार्टी के अन्दर क्या चला रहा है परिणामस्वरूप पार्टी के नाम पर सारे फैसले लेने का अधिकार उस पार्टी के नेता हथिया लेते हैं।
♦ चूँकि कुछ नेताओं के पास ही असली ताकत होती है इसलिए जो उनसे असहमत होते हैं उनका पार्टी में टिके रहे पाना मुश्किल हो जाता है।
♦ दूसरी चुनौती पहली चुनौती से ही जुड़ी है यह है वंशवाद की चुनौती । चूँकि अधिकांश दल अपना कामकाज पारदर्शी तरीके से नहीं करते इसलिए सामान्य कार्यकर्ता के नेता बनने और ऊपर आने की गुंजाइश काफी कम होती है। जो लोग नेता होते हैं वे अनुचित लाभ लेते हुए अपने नजदीकी लोगों और यहाँ तक कि अपने ही परिवार के लोगों को आगे बढ़ाते हैं। अनेक दलों में शीर्ष पद में हमेशा एक ही परिवार के लोग आते हैं। यह दल के अन्य सदस्यों के साथ अन्याय है। यह बात लोकतन्त्र के लिए भी अच्छी नहीं है क्योंकि इससे अनुभवहीन और बिना जनाधार वाले लोग ताकत वाले पदों पर पहुँच जाते हैं।
♦ तीसरी चुनौती दलों में (खासकर चुनाव के समय) पैसा और अपराधी तत्त्वों की बढ़ती घुसपैठ की है। चूँकि पार्टियों की सारी चिन्ता चुनाव जीतने की होती है अतः इसके लिए कोई भी जायज-नाजायज तरीका अपनाने से वे परहेज नहीं करतीं। वे ऐसे ही उम्मीदवार उतारती हैं जिनके पास काफी पैसा हो या जो पैसे जुटा सकें। किसी पार्टी को ज्यादा धन देने वाली कम्पनियाँ और अमीर लोग उस पार्टी की नीतियों और फैसलों को भी प्रभावित करते हैं। कई बार पार्टियाँ चुनाव जीत सकने वाले अपराधियों का समर्थन करती हैं। यह उनकी मदद लेती हैं। दुनिया भर में लोकतन्त्र के समर्थक लोकतान्त्रिक राजनीतिक में अमीर लोग और बड़ी कम्पनियों की बढ़ती भूमिका को लेकर चिन्तित हैं।
♦ चौथी चुनौती पार्टियों के बीच विकल्पहीनता की स्थिति की है। सार्थक विकल्प का मतलब होता है कि विभिन्न पार्टियों की नीतियों और कार्यक्रमों में महत्त्वपूर्ण अन्तर हो। हाल के वर्षों में दलों के बीच वैचारिक अन्तर कम होता गया है और यह प्रवृत्ति दुनिया भर में दिखती है। भारत में सभी बड़ी पार्टियों के बीच आर्थिक मसलों पर बड़ा कम अन्तर रह गया है। जो लोग इससे अलग नीतियाँ चाहते हैं उनके लिए कोई विकल्प उपलब्ध नहीं है। कई बार लोगों के पास एकदम नया नेता चुनने का विकल्प भी नहीं होता क्योंकि वही थोड़े से नेता हर दल में आते जाते हैं।
दलों को कैसे सुधारा जा सकता है?
♦ उपरोक्त इन चुनौतियों का सामना करने के लिए जरूरी है कि राजनीतिक दलों में सुधार हो।
♦ भारत में राजनीतिक दलों और इसके नेताओं को सुधारने के लिए हाल में जो प्रयास किए गए हैं या जो सुझाव दिए गए हैं, वे इस प्रकार है
♦ विधायकों और सांसदों को दल-बदल करने से रोकने के लिए संविधान में संशोधन किया गया। निर्वाचित प्रतिनिधियों के मन्त्री पद या पैसे के लोभ में दल-बदल करने में आई तेजी को देखते हुए ऐसा किया गया। नये कानून के अनुसार अपना दल बदलने वाले सांसद या विधायक को अपनी सीट भी गँवानी होगी। इस नये कानून से दल-बदल में कमी आई है।
♦ उच्चतम न्यायालय ने पैसे और अपराधियों का प्रभाव कम करने के लिए एक आदेश जारी किया है। इस आदेश के द्वारा चुनाव लड़ने वाले हर उम्मीदवार को अपनी सम्पत्ति का और अपने खिलाफ चल रहे आपराधिक मामलों का ब्यौरा एक शपथ-पत्र के माध्यम से देना अनिवार्य कर दिया गया है। इस नयी व्यवस्था से लोगों के अपने उम्मीदवारों के बारे में बहुत-सी पक्की सूचनाएँ उपलब्ध होने लगी हैं, पर उम्मीदवार द्वारा दी गई सूचनाएँ सहीं हैं या नहीं, यह जाँच करने की कोई व्यवस्था नहीं है।
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