महाकवि तुलसीदास अथवा “तुलसी असाधारण शक्तिशाली कवि, लोकनायक और महात्मा थे” अथवा तुलसी अपने युग के प्रतिनिधि कवि थे
महाकवि तुलसीदास अथवा “तुलसी असाधारण शक्तिशाली कवि, लोकनायक और महात्मा थे” अथवा तुलसी अपने युग के प्रतिनिधि कवि थे
तुलसीदास जी के आविर्भाव के समय भारतवर्ष विदेशी शासकों से आक्रान्त था । वह समय तो विरोधी संस्कृतियों, साधनाओं, जातियों का सन्धिकाल था । देश की सामाजिक, राजनीतिक एवं धार्मिक स्थिति विशृंखलित-सी हो रही थी । उचित नेतृत्व के अभाव में जनता के समक्ष न कोई आदर्श था और न उद्देश्य । विदेशियों के सम्पर्क से भारतीयों में विलासप्रियता घर कर चुकी थी । निम्न वर्ग वालों में अशिक्षा और निर्धनता पर्याप्त मात्रा में थी। लोग अकर्मण्य होते जा रहे थे । साधु-संन्यासी हो जाना साधारण बात बन गई थी, जैसा गोस्वामी जी ने स्वयं लिखा है—
नारि मुई घर सम्पत्ति नासी, मँड मुँडाय भए संन्यासी ।
मूर्ख ब्रह्मज्ञानी बनने का दावा करते थे | निम्न वर्ग के व्यक्ति भी ब्राह्मणों, पण्डितों और से वाद-विवाद करने तथा आलोचना करने में आत्मतुष्टि का अनुभव करते थे ।
ब्रहा ज्ञान बिन नारि नर,
कहिं न दूसरि बात ।
× × × × × x
बादहिं सूत्र द्विजन्ह संग,
हम तुमसे कछु घाट ||
विद्वानों, पण्डितों और ज्ञानियों का समाज में विशेष आदर नहीं रहा था। इसके अतिरिक्त दुराचारी सम्यक् समादृत होते थे । पण्डित वही माना जाता था जो ज्यादा बोल सकता था— “पण्डित सोई जो गाल बजावा।” स्त्री पुरुषों को इस प्रकार नचाती थीं जैसे बन्दर वाला बन्दर को नचाता है—“नारि नचाइ मर्कट की नाँई ।” धार्मिक क्षेत्र में भी एक सम्प्रदायवादी दूसरे सम्प्रदायवादी से अपने मत के समर्थन में लड़ने मरने को तैयार रहते थे। देश की ऐसी ही कुछ परिस्थितियों में सम्वत् १५९९ के लगभग गोस्वामी तुलसीदास का जन्म हुआ।
इनके जन्म-स्थान, माता-पिता, शिक्षा-दीक्षा आदि सभी विषयों के सम्बन्ध में अभी तक सभी विद्वान् एक मत नहीं हैं, विषय संदिग्ध बना हुआ है, दिन पर दिन नवीन अनुसन्धान हो रहे हैं फिर भी अधिकांश विद्वानों ने इनके पिता का नाम आत्माराम दूबे तथा माता का नाम हुलसी स्वीकार किया है | ये राजापुर जिला बाँदा के निवासी थे, जाति के ब्राह्मण थे, घर की आर्थिक दशा अच्छी नहीं थी। दुर्भाग्यवश बाल्यावस्था में माता-पिता के वात्सल्य और पिता के संरक्षण से ये महापुरुष वंचित रहे, जैसा कि स्वयं कवितावली में उन्होंने लिखा है –
मातु पिता जग ज्याइ तज्यो, विधि हूँ न लिखी कछु भाल भलाई ।
सुना जाता है कि अभुक्त मूल नक्षत्र में जन्म लेने से माता-पिता ने इनका परित्याग कर दिया था। छोटी अवस्था में ही साधु-सन्तों में रहने लगे थे । गुरु नरहरिदास के चरणों में रहकर इन्होंने विद्याध्ययन किया था । वैवाहिक जीवन के कुछ समय बाद ही पत्नी के प्रेम ने इनके जीवन को एक नई दिशा, एक नवीन चेतना प्रदान की, जिससे तुलसी इतने महान् लोकनायक बनने में समर्थ हुए। इनका देहावसान संवत् १६८० में हुआ, जैसा कि इस प्रचलित दोहे से सिद्ध होता है—
संवत सोलह सौ असी, असी गंग के तीर । श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी तज्यौ शरीर ॥
तुलसीदास जी ने अपने जीवनकाल में अगाध पांडित्य से सैतीस ग्रंथों की रचना की परन्तु नागरी प्रचारिणी सभा काशी द्वारा प्रकाशित ग्रन्थावली के अनुसार तुलसी के केवल बारह, ग्रन्थ ही प्रमाणिक माने जाते है, जिनमें रामचरितमानस, कवितावली, गीतावली, दोहावली, विनयपत्रिका, जानकी मंगल, रामलला नहछू, बरवै रामायण तथा हनुमान चालीसा प्रमुख हैं। कवि की दृष्टि से तुलसीदास जी का स्थान हिन्दी साहित्य में सर्वोपरि है । वे उच्च कोटि के कलाकार, प्रकाण्ड पण्डित, दर्शन और धर्म के व्याख्याता थे। उन्होंने राम की लोकपावन कथा द्वारा मानव जीवन की गुत्थियों को बड़ी कुशलता से सुलझाया तथा राजनैतिक, समाजिक एवं धार्मिक क्षेत्रों के समस्त आदर्शों का सर्वांगीण प्रतिपादन किया ।
गोस्वामी तुलसीदास ने एक स्थान पर कहा है कि –
कीरति भनित, भूति भल सोई, सुरसरि सम सब कह हित होई ।
अर्थात् यश, कविता और वैभव वही श्रेष्ठ है, जिससे गंगा के समान सबका कल्याण हो । इस दृष्टिकोण से तुलसी का साहित्य सभी प्रकार के व्यक्तियों के लिए उपयोगी है । ऊँच-नीच, योग्य-अयोग्य सभी उनमें से अपने काम की बातें निकाल सकते हैं। यही कारण है कि तुलसी की रामायण निर्धन की झोंपडी से लेकर राजप्रसाद तक समान रूप से समाहत होती है। साधारण मनुष्यों की दृष्टि में रामायण की महत्ता इसलिये है कि उसमें पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय आदर्शों की स्थापना की गई है। रामकथा में हमारी प्रत्येक परिस्थिति का समावेश है और हमारी समस्याओं का समाधान दिया हुआ है। पिता का पुत्र के प्रति, पुत्र का माता-पिता के प्रति, भाई का भाई के प्रति, राजा का प्रजा के प्रति, सेवक का स्वामी के प्रति, शिष्य का गुरु के प्रति, पत्नी का पति के प्रति क्या कर्त्तव्य है आदि सामाजिक कर्त्तव्यों की झलक रामचरितमानस में पाकर सामान्य जनता हर्ष-विभोर हो जाती है। दूसरी ओर विद्वान् दार्शनिक एवम् आलोचक रामायण को गहन ज्ञान का भण्डार बताते हैं। यह निश्चित है कि तुलसीदास ने कथा शृंखला मिलाने में, धार्मिक समन्वय करने में, दार्शनिक निरूपण में, जो कौशल दिखाया है उसे समझने के लिये पर्याप्त समय और बुद्धि अपेक्षित है। रामचरितमानस और विनय पत्रिका में जो गूढ़ आध्यात्मिक विचार हैं, उनका निर्णय करने में विद्वान् आज तक समर्थ नहीं हो सके। साहित्यिक दृष्टि में विनय-पत्रिका इनकी सर्वश्रेष्ठ रचना है तथापि इनकी ख्याति और लोकप्रियता का आधार रामचरितमानस है ।
तुलसीदास जी का समस्त काव्य समन्वय का महाप्रयास है। भक्ति, नीति, दर्शन, धर्म, कला का इनकी कृतियों में अपूर्व संगम है। तुलसी ने अपने काव्य में आदर्श और व्यवहार का समन्वय, लोक और शास्त्र का समन्वय, गृहस्थ और वैराग्य का समन्वय उपस्थित किया है । तुलसीदास जी ने कभी किसी का खण्डन नहीं किया। जिन विषयों में उनकी आस्था नहीं थी, उनको भी वे आदर्श की दृष्टि से देखते थे।
गोस्वामी जी ने, अपने समय तक जितनी काव्य शैलियाँ प्रचलित हो चुकी थीं, सभी में रामकथा का वर्णन किया । जायसी की चौपाइयों में उन्होंने रामचरितमानस की रचना की, जिसमें बीच-बीच में और भी अनेक प्रकार के छन्दों के दर्शन होते हैं । चन्दबरदाई की छप्पय और कवित्त शैली में कवितावली लिखी। कबीर की दोहा-पद्धति को उन्होंने बरवै रामायण स्वीकार किया । जयदेव, विद्यापति और सूर गीत शैली में उन्होंने गीतावली और विनय-पत्रिका लिखी। ग्रामीण छन्दों में पारिवारिक शुभकार्यों कर गाये जाने के लिये रामलला नहछू, जानकी मंगल, पार्वती मंगल आदि पुस्तकों की रचना की । तुलसी की बहुमुखी प्रतिभा का परिचय इससे अधिक और क्या हो सकता है कि एक कवि अपनी समकालीन समस्त शैलियों में सिद्धहस्त हो ।
काव्य शैलियों की भाँति विभिन्न भाषाओं पर भी गोस्वामी जी का समान अधिकार था । जहाँ उन्होंने ब्रज और अवधी भाषा में अपना पांडित्य प्रदर्शित किया वहाँ उन्होंने संस्कृत भाषा में भी माघ और कालिदास के जैसे सुन्दर श्लोकों की रचना की। उन्हें राजस्थानी, भोजपुरी, बुन्देलखण्डी भाषाओं का भी पूर्ण ज्ञान था । अरबी और प्राकृत भाषाओं के शब्दों का भी उन्होंने अधिकारपूर्वक प्रयोग किया है। भाषा तथा छन्दों की भाँति तुलसीदास जी ने सभी रसों का विधान कि है तुलसी के प्रत्येक पद्य में रस चमत्कार विद्यमान है। तुलसी के काव्य की प्रमुख विशेषता यह है कि यद्यपि उसमें नव-रसों का परिपाक हुआ है फिर भी उन सबके ऊपर भक्ति रस की प्रधानता है । तुलसी का शृंगार-वर्णन अत्यन्त संयत और भारतीय मर्यादा के अनुकूल है । तुलसी की अलंकार योजना अत्यन्त सजीव एवं मनोरम है। उपमा, रूपक और उत्प्रेक्षा तुलसी के प्रिय अलंकार हैं । तुलसी जैसे पांडित्यपूर्ण सांगरूपक हिन्दी के अन्य कवि प्राय: उपस्थित न कर सके । ।
तुलसी ने प्रबन्ध तथा मुक्तक दोनों प्रकार के काव्यों दृष्टि से तुलसी का स्थान साहित्य में सर्वोच्च है। रामचरितमानस उनका प्रबन्ध काव्य है। उनकी अन्य रचनायें मुक्तक-काव्यों में आती हैं। जहाँ शास्त्रीय दृष्टिकोण से रामचरितमानस हिन्दी साहित्य का सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य है वहाँ उनकी गणना विश्व के महाकाव्यों में की जाती है, क्योंकि तुलसी ने मानस में विश्व-धर्म की स्थापना की है। तुलसीदास जी ने अपने काव्य में आदर्श चरित्रों की इतनी सुन्दर कल्पना की है कि ये चरित्र बाद में हिन्दू जीवन के आदर्श बन गये । रामचरितमानस में चरित्र-चित्रण इतना सफल हुआ है कि उनके चरित्र हमारे इतिहास के पात्र बन गये हैं। तुलसीदास जी ने भी सभी प्रकार के पात्रों का चरित्र चित्रण किया है, इसमें अच्छे भी हैं और बुरे भी, पापी भी हैं और धर्मात्मा भी, उच्च भी हैं और नीच भी । तुलसीदास जी आदर्शवादी भविष्य दृष्टा थे, उन्होंने इन आदर्श चरित्रों के आधार पर भारतवर्ष के भावी समाज की कल्पना की है। प्रत्येक चरित्र चित्रण में तुलसी ने मानव वृत्तियों को गम्भीरता से देखा है, इसीलिए पाठक तुलसी द्वारा प्रतिपादित अनुभूतियों को उनके राग – वैराग्य, हास्य और रुदन को अपना ही राग-वैराग्य हास्य, और रुदन समझते हैं। वही कवि की सच्ची कला और महानता है।
वेदान्त के क्षेत्र में तुलसी ने अभूतपूर्व समन्वय उपस्थति किया । स्वयं साकारवादी होते हुए भी निराकार की उपासना का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए, दोनों में अभेद स्थापित किया ।
भक्तिहिं, ज्ञानहिं नहिं कछु भेदा । उभय हरहिं भव सम्भव खेदा ||
इसी प्रकार शक्ति और शैव मत का, वैष्णवोपासना में राम और कृष्ण की उपासना का, वेदान्त में निर्गुण और सगुण पक्ष का, चारों आश्रमों का व्यापक समन्वय उपस्थित किया।
तुलसीदास जी अपनी इन्हीं सब विशेषताओं के कारण हिन्दी साहित्याकाश के सूर्य हैं। हिन्दी साहित्य और हिन्दू समाज गोस्वामी का चिरऋणी है। उनके दिव्य सन्देश ने मृतप्राय हिन्दू जाति के लिये संजीवनी का कार्य किया, जनता में संगठन और सामंजस्य के भक्त, कवि और लोकनायक तीनों मिलकर एकाकार हो गये हैं। इन तीनों रूपों में उनका कोई रूप किसी रूप में कम नहीं। नि:सन्देह तुलसी और उनका काव्य दोनों ही महान् थे । कविता के विषय में तो साहित्यिक विद्वानों की उक्ति प्रसिद्ध है –
कविता करके तुलसी न लसे, कविता लसी पा तुलसी की कला ।
परन्तु धार्मिक पुरुषों का विचार है –
भारी भवसागर सों उतारतौ कवन पारि, जो पै यह रामायण तुलसी न गावतो ।
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