भौतिकी
भौतिकी
भौतिकी प्राकृतिक विज्ञान की वह शाखा है, जिसमें द्रव्य (matter) तथा ऊर्जा (energy) और उसकी परस्पर क्रियाओं का अध्ययन होता है। भौतिकी प्राकृतिक जगत् का मूल विज्ञान है, • क्योंकि विज्ञान की अन्य शाखाओं का विकास भौतिकी के ज्ञान पर बहुत हद तक निर्भर करता है।
1. मात्रक (Unit)
मात्रक (Unit) – किसी राशि के मापन के निर्देश मानक को मात्रक (unit) कहते हैं।
◆ मात्रक दो प्रकार के होते हैं—मूल मात्रक (fundamental unit) एवं व्युत्पन्न मात्रक (derived №unit) ।
◆ S.I. पद्धति में मूल मात्रक सात हैं, जिन्हें नीचे की सारणी में दिया गया है—
◆ वे सभी मात्रक, जो मूल मात्रकों की सहायता से व्यक्त किये जाते हैं, व्युत्पन्न मात्रक कहलाते हैं।
◆ बहुत लम्बी दूरियों को मापने के लिये प्रकाश-वर्ष का प्रयोग किया जाता है अर्थात् प्रकाश वर्ष दूरी का मात्रक है।
1 प्रकाश वर्ष = 9.46 x 1015 मीटर
◆ दूरी मापने की सबसे बड़ी इकाई पारसेक है।
1 पारसेक = 3.26 प्रकाश -वर्ष = 3.08 x 1016 मीटर
◆ बल की C.G.S. पद्धति में मात्रक डाइन है एवं S.I. पद्धति में मात्रक न्यूटन है।
1 न्यूटन = 105 डाइन
◆ कार्य की C.G.S. पद्धति में मात्रक अर्ग है एवं S.I. पद्धति में मात्रक जूल है।
1 जूल = 107 अर्ग
◆ दस की विभिन्न घातों के प्रतीक (Symbols for various powers of 10) — भौतिकी में बहुत छोटी और बहुत बड़ी राशियों के मानों की दस की घात के रूप में व्यक्त किया जाता है। 10 की कुछ बातों को विशेष नाम तथा संकेत दिए गए हैं जिन्हें नीचे दी गई सारणी में दिया गया है –
2. गति (Motion)
◆ अदिश राशि (Scalar Quantity)—वैसी भौतिक राशि, जिनमें केवल परिमाण होता है, दिशा नहीं, उसे अदिश राशि कहा जाता है। जैसे- द्रव्यमान, चाल, आयतन, कार्य, समय, ऊर्जा आदि।
नोट : विद्युत् धारा (Current), ताप (Temperature ), दाब ( Pressure), ये सभी अदिश राशियाँ हैं।
◆ सदिश राशि (Vector Quantity)—वैसी भौतिक राशि, जिनमें परिमाण के साथ-साथ दिशा भी रहती है और जो योग के निश्चित नियमों के अनुसार जोड़ी जाती है उन्हें सदिश राशि कहते हैं, जैसे—वेग, विस्थापन, बल, त्वरण आदि ।
◆ दूरी (Distance)—किसी दिए गए समयान्तराल में वस्तु द्वारा तय किए गए मार्ग की लम्बाई को दूरी कहते हैं। यह एक अदिश राशि है। यह सदैव धनात्मक (+ ve) होती है।
◆ विस्थापन (Displacement)-एक निश्चित दिशा में दो बिन्दुओं के बीच की लम्बवत् ( न्यूनतम ) दूरी को विस्थापन कहते हैं। यह सदिश राशि है। इसका S.I. मात्रक मीटर है। विस्थापन धनात्मक, ऋणात्मक और शून्य कुछ भी हो सकता है।
◆ चाल (Speed) किसी वस्तु द्वारा प्रति सेकेण्ड तय की गई दूरी को चाल कहते हैं ।
अर्थात चाल = दूरी / समय यह एक अदिश राशि है I इसका S.I. मात्रक मि०/से० है I
◆ वेग (Velocity)– किसी वस्तु के विस्थापन की दर को या एक निश्चित दिशा में प्रति सेकेण्ड वस्तु द्वारा तय की गयी दूरी को वेग कहते हैं। यह एक सदिश राशि है। इसका S. I. मात्रक मी० / से ० है ।
◆ त्वरण (Acceleration)-किसी वस्तु के वेग में परिवर्तन की दर को ‘त्वरण’ कहते हैं। यह एक सदिश राशि है। इसका S.I. मात्रक मी० / से०2 है। यदि समय के साथ वस्तु का वेग घटता है तो त्वरण ऋणात्मक होता है, जिसे मंदन (retardation) कहते हैं।
◆ वृत्तीय गति (Circular Motion)- जब कोई वस्तु किसी वृत्ताकार मार्ग पर गति करती है, तो उसकी गति को ‘वृत्तीय गति’ कहते हैं। यदि वह एक समान चाल से गति करती है, तो उसकी गति को ‘एक समान वृत्तीय गति’ कहते हैं ।
◆ समरूप वृत्तीय गति एक त्वरित गति होती है, क्योंकि वेग की दिशा प्रत्येक बिन्दु पर बदल जाती है।
◆ कोणीय वेग (Angular Velocity)– वृत्ताकार मार्ग पर गतिशील कण को वृत्त के केन्द्र से मिलाने वाली रेखा एक सेकण्ड में जितने कोण में घूम जाती है, उसे उस कण का कोणीय वेग कहते हैं। इसे प्राय: w (ओमेगा) से प्रकट किया जाता है अर्थात् w = θ/t यदि कण 1 सेकेण्ड में n चक्कर लगाता है तो तो उसके द्वारा एक सेकण्ड में चली गयी त्रिज्या r है और कण 1 सेकेण्ड में चक्कर लगाता है, तो उसके द्वारा एक सेकण्ड में चली गयी दूरी = वृत्त की परिधि x n = 2πrn यही उसकी रेखीय चाल (Linear Speed) होगी।
◆ न्यूटन गति-नियम (Newton’s laws of motion) -भौतिकी के पिता न्यूटन ने सन् 1687 ई० में अपनी पुस्तक ‘प्रिंसिपिया’ में सबसे पहले गति के नियम को प्रतिपादित किया था।
◆ न्यूटन का प्रथम गति-नियम (Newton’s first law of motion)–यदि कोई वस्तु विराम अवस्था में है, तो वैसी ही चलती रहेगी, जब तक कि उस पर कोई बाह्य बल लगाकर उसकी वर्तमान अवस्था में परिवर्तन न किया जाए।
◆ प्रथम नियम को गैलिलियो का नियम या जड़त्व का नियम भी कहते हैं।
◆ बाह्य बल के अभाव में किसी वस्तु की अपनी विरामावस्था या समान गति की अवस्था को बनाए रखने की प्रवृत्ति को जड़त्व कहते हैं।
◆ बल की परिभाषा बल वह बाह्य कारक है जो किसी वस्तु की प्रारंभिक अवस्था में परिवर्तन करता है या परिवर्तन करने की चेष्टा करता है। बल एक सदिश राशि है। इसका S.I. मात्रक न्यूटन है।
◆ जड़त्व के कुछ उदाहरण(i) ठहरी हुई मोटर या रेलगाड़ी के अचानक चल पड़ने पर उसमें बैठे यात्री पीछे की ओर झुक जाते हैं। (ii) चलती हुई मोटरकार के अचानक रुकने पर उसमें बैठे यात्री आगे की ओर झुक जाते हैं। (iii) कम्बल को हाथ से पकड़कर डण्डे से पीटने पर धूल के कण झड़कर गिर पड़ते हैं।
◆ संवेग ( Momentum)- किसी वस्तु के द्रव्यमान तथा वेग के गुणनफल को उस वस्तु का के संवेग कहते हैं। अर्थात् संवेग = वेग x द्रव्यमान
यह एक सदिश राशि है, इसका S.I. मात्रक किग्रा० मी./से. है।
◆ न्यूटन का द्वितीय गति-नियम (Newton’s second law of motion) – किसी वस्तु के संवेग में परिवर्तन की दर उस वस्तु पर आरोपित बल के समानुपाती होता है, तथा संवेग परिवर्तन वल की दिशा का द्रव्यमान m हो, तो न्यूटन के गति के दूसरे नियम से F = ma अर्थात् न्यूटन के दूसरे नियम का ही अंग है।
नोट : प्रथम नियम दूसरे नियम का ही अंग है।
◆ न्यूटन का तृतीय गति-नियम (Newton’s third law of motion) – प्रत्येक क्रिया के बराबर, परन्तु विपरीत दिशा में प्रतिक्रिया होती है। उदाहरण – (i) बन्दूक से गोली चलाने पर, चलाने वाले को पीछे की ओर धक्का लगना । (ii) नाव से किनारे पर कूदने पर नाव को पीछे की ओर हट जाना (iii) रॉकेट को उड़ाने में।
◆ संवेग संरक्षण का सिद्धांत-यदि कणों के किसी समूह या निकाय पर कोई बाह्य बल नहीं लग रहा हो, तो उस निकाय का कुछ संवेग नियत रहता है। अर्थात् टक्कर के पहले और बाद का संवंग बराबर होता है।
◆ आवेग ( Impulse) — जब कोई बड़ा बल किसी वस्तु पर थोड़े समय के लिए कार्य करता है, तो बल तथा समय-अन्तराल के गुणनफल को उस बल का आवेग कहते हैं।
आवेग = बल x समय अन्तराल = संवेग में परिवर्तन
आवेग एक सदिश राशि हैं, जिसका मात्रक न्यूटन सेकण्ड (Ns) है तथा इसकी दिशा वही होती है, जो बल की होती है।
◆ अभिकेन्द्रीय बल (Centripetal Force) – जब कोई वस्तु किसी वृत्ताकार मार्ग पर चलती है, तो उस पर एक बल वृत्त के केन्द्र की ओर कार्य करता है। इस बल को ही अभिकेन्द्रीय बल कहते हैं। इस बल के अभाव में वस्तु वृत्ताकार मार्ग पर नहीं चल सकती। यदि कोई m द्रव्यमान का पिंड v चाल से r त्रिज्या के वृत्तीय मार्ग पर चल रहा है, तो उस पर कार्यकारी वृत्त के केंद्र की ओर आवश्यक अभिकेन्द्रीय बल F = mv2 /r होता है I
◆ अपकेन्द्रीय बल (Centrifugal Force) — अजड़त्वीय फ्रेम (Non- inertial frame) में न्यूटन के नियमों को लागू करने के लिए कुछ ऐसे बलों की कल्पना करनी होती है, जिन्हें परिवेश में किसी पिण्ड से संबंधित नहीं किया जा सकता है। ये बल छद्म बल या जड़त्वीय बल कहलाते हैं। अपकेन्द्रीय बल एक ऐसा ही जड़त्वीय बल या छद्म बल है। इसकी दिशा अभिकेन्द्री बल के विपरीत दिशा में होती है। कपड़ा सुखाने की मशीन, दूध से मक्खन : निकालने की मशीन आदि अपकेन्द्रीय बल के सिद्धांत पर कार्य करती है। नोट : वृत्तीय पथ पर गतिमानवस्तु पर कार्य करने वाले अभिकेन्द्री बल की प्रतिक्रिया होती
है, जैसे ‘मौत के कुएँ’ में कुएँ की दीवार मोटर साइकिल पर अन्दर की ओर क्रिया बल लगाती है, जबकि इसका प्रतिक्रिया बल मोटर साइकिल द्वारा कुएँ की दीवार पर बाहर की ओर कार्य करता है। कभी-कभी बाहर की ओर कार्य करने वाले इस प्रतिक्रिया बल को भ्रमवश अपकेन्द्रीय बल कह दिया जाता है, जो कि बिस्कुल गलत है।
◆ बल आघूर्ण (Moment of Force) – बल द्वारा एक पिण्ड को एक अक्ष के परितः घुमाने की प्रवृत्ति को बल आघूर्ण कहते हैं। किसी अक्ष के परितः एक बल का बल आघूर्ण उस बल के परिमाण तथा अक्ष के बल की क्रिया-रेखा के बीच की लम्बवत् दूरी के गुणनफल के बराबर होता है। अर्थात् बल-आघूर्ण (T) = बल x आघूर्ण भुजा । यह एक सदिश राशि है। इसका मात्रक न्यूटन मी० होता है।
◆ सरल मशीन (Simple Machines ) — यह बल आघूर्ण के सिद्धांत पर कार्य करती है। सरल मशीन एक ऐसी युक्ति है, जिसमें किसी सुविधाजनक बिन्दु पर बल लगाकर, किसी अन्य बिन्दु पर रखे हुए भार को उठाया जाता है; जैसे— उत्तालक, घिरनी, आनत तल, आदि ।
◆ उत्तोलक (Lever) – जिस निश्चित बिन्दु के चारों ओर उत्तोलक की छड़ स्वतंत्रतापूर्वक घूम सकती है, उसे आलंब कहते हैं।
1. आलंब (Fulcrum) – जिस निश्चित बिन्दु के चारों ओर उत्तोलक की छड़ स्वतंत्रतापूर्वक घूम सकती है, उसे आलंब कहते हैं।
2. आयास (Effort) — उत्तोलक को उपयोग में लाने के लिए उस पर जो बल लगाया जाता है, उसे आयास कहते हैं।
3. भार (Load) – उत्तोलक के द्वारा जो बोझ उठाया जाता है, अथवा रुकावट हटायी जाती है, उसे भार कहते हैं।
◆ उत्तोलक के प्रकार — उत्तोलक तीन प्रकार के होते हैं –
(i) प्रथम श्रेणी का उत्तोलक – इस वर्ग के उत्तोलकों में आलंब F, आयास तथा भार W के बीच में स्थित होता है। इस प्रकार के उत्तोलकों में यांत्रिक लाभ 1 से अधिक, 1 के बराबर तथा 1 से कम भी हो सकता है। इसके उदाहरण हैं— कैंची, पिलाश, सिंडासी, कील उखाड़ने की मशीन, शीश झूला, साइकिल का ब्रेक, हैंड पम्प ।
(ii) द्वितीय श्रेणी का उत्तोलक – इस वर्ग के उत्तोलक में आलंब F तथा आयास E के – बीच भार W होता है। इस प्रकार के उत्तोलकों में यांत्रिक लाभ सदैव एक से अधिक होता है। इसके उदाहरण हैं—सरौता, नींबू निचोड़ने की मशीन, एक पहिए की कूड़ा ढोने की गाड़ी आदि ।
(iii) तृतीय श्रेणी का उत्तोलक में इस आलंब F भार W के बीच में आयास E होता है । उदाहरण–चिमटा । > Gravity)– किसी वस्तु का गुरुत्व केन्द्र, वह बिन्दु है जहाँ वस्तु
◆ गुरुत्वकेन्द्र (Centre of का समस्त भार कार्य करता है, अतः गुरुत्व केन्द्र पर वस्तु के भार के बराबर उपरिमुखी बल लगाकर हम वस्तु को संतुलित रख सकते हैं।
◆ संतुलन के प्रकार – संतुलन तीन प्रकार के होते हैं— स्थायी, अस्थायी तथा उदासीन।
1. स्थायी संतुलन (Stable Equilibrium) — यदि किसी वस्तु को उसकी संतुलन स्थिति से थोड़ा विस्थापित किया जाय और बल हटाते ही पुनः वह पूर्व स्थिति में आ जाए तो ऐसी संतुलन को स्थायी संतुलन कहते हैं।
2. अस्थायी संतुलन (Unstable Equilibrium) — यदि किसी वस्तु को उसकी संतुलनावस्था से थोड़ा-सा विस्थापित करके छोड़ने पर वह पुनः संतुलन की अवस्था में न आए तो इसे अस्थायी संतुलन कहते हैं।
3. उदासीन संतुलन (Neutral Equilibrium) — यदि वस्तु को संतुलन की स्थिति से थोड़ा-सा विस्थापित करने पर उसका गुरुत्व केन्द्र (G) उसी ऊँचाई पर बना रहता है तथा छोड़ देने पर वस्तु अपनी नई स्थिति में संतुलित हो जाती है, तो उसका संतुलन उदासीन कहलाता है।
◆ स्थायी संतुलन की शर्तें – किसी वस्तु के स्थायी संतुलन के लिए दो शर्तों का पूरा होना आवश्यक है
(1) वस्तु का गुरुत्व – केन्द्र अधिकाधिक नीचे होना चाहिए।
(ii) गुरुत्व केन्द्र से होकर जाने वाली ऊर्ध्वाधर रेखा वस्तु के आधार से गुजरनी चाहिए।
(ii) ‘g’ का मान महत्तम पृथ्वी के ध्रुव (pole) पर होता है।
(iii) ‘g’ का मान न्यूनतम विषुवत् रेखा (equator) पर होता है।
(iv) पृथ्वी २ घूर्णन गति बढ़ने पर ‘g’ का मान कम हो जाता है।
(v) पृथ्वी के घूर्णन गति घटने पर ‘g’ का मान बढ़ जाता है।
नोट : यदि पृथ्वी अपनी वर्तमान कोणीय चाल से 17 गुनी अधिक चाल से घूमने लगे तो से भूमध्य रेखा पर रखी वस्तु का भार शून्य हो जाएगा।
◆ लिफ्ट में पिण्ड का भार (Weight of a body in lift) :
(i) जब लिफ्ट ऊपर की ओर जाती है तो लिफ्ट में स्थित पिण्ड का भार बढ़ा हुआ प्रतीत होता है।
(ii) जब लिफ्ट नीचे की ओर जाती है तो लिफ्ट में स्थित पिण्ड का भार घटा हुआ प्रतीत होता है।
(iii) जब लिफ्ट एक समान वंग से ऊपर या नीचे गति करती है तो लिफ्ट में स्थित पिण्ड के भार में कोई परिवर्तन नहीं प्रतीत होता है।
(iv) यदि नीचे उतरते समय लिफ्ट की डोरी टूट जाए तो वह मुक्त पिण्ड की भांति नीचे गिरती है।
(v) यदि लिफ्ट के नीचे उतरते समय लिफ्ट का त्वरण गुरुत्वीय त्वरण से अधिक हो तो लिफ्ट में स्थित पिण्ड उसकी फर्श से उठकर उसकी छत से जा लगेगा।
◆ ग्रहों की गति से संबंधित केप्लर का नियम –
(i) प्रत्येक ग्रह सूर्य के चारों ओर दीर्घवृत्ताकार (elliptical) कक्षा में परिक्रमा करता है तथा सूर्य ग्रह की कक्षा के एक फोकस बिन्दु पर स्थित होता है ।
(ii) प्रत्येक ग्रह की क्षेत्रीय वेग (areal velocity) नियत रहता है। इसका प्रभाव यह होता है कि जब ग्रह सूर्य के निकट होता है, तो उसका वेग बढ़ जाता है और जब वह दूर होता है, तो उसका वेग कम हो जाता है।
(iii) सूर्य के चारों ओर गृह एक चक्कर जितने समय में लगता है, उसे उसका परिक्रमण काल (T) कहते हैं, परिक्रमण काल का वर्ग (T2) ग्रह की सूर्य से औसत दूरी (r) के घन (r3) के अनुक्रमानुपाती होता है, अर्थात T2 ∝ r3
अर्थात् सूर्य से अधिक दूर से ग्रहों का परिक्रमण काल भी अधिक होता है। उदाहरणसूर्य के निकटतम ग्रह बुध का परिक्रमण काल 88 दिन है, जबकि दूरस्थ ग्रह वरुण (Neptune) का परिक्रमण काल 165 वर्ष है।
नोट: आईएयु (I.A.U.) ने यम (Pluto) को ग्रह की श्रेणी से निकाल दिया है इसीलिए अब दूरस्थ ग्रह वरुण (Neptune) है।
◆ उपग्रह (Satellite)– किसी ग्रह के चारों ओर परिक्रमा करने वाले पिंड को उस ग्रह का उपग्रह कहते हैं। जैसे— चन्द्रमा पृथ्वी का एक उपग्रह है।
◆ उपग्रह का कक्षीय चाल (Orbital Speed of a Satellite)
(i) उपग्रह की कक्षीय चाल उसकी पृथ्वी तल से ऊँचाई पर निर्भर करती है। उपग्रह पृथ्वी तल से जितना अधिक दूर होगा, उतनी ही उसकी चाल कम होगी।
(ii) उपग्रह की कक्षीय चाल उसके द्रव्यमान पर निर्भर करती है। एक ही त्रिज्या के कक्षा में भिन्न-भिन्न द्रव्यमानों के उपग्रहों की चाल समान होगी।
नोट : पृथ्वी तल के अति निकट चक्कर लगाने वाले उपग्रह की कक्षीय चाल लगभग 8 किमी / सेकण्ड होता है।
◆ वायुमंडलीय दाब 105 न्यूटन/मीटर? अर्थात् एक बार के बराबर होता है।
◆ पृथ्वी की सतह से ऊपर जाने पर वायुमंडलीय दाब कम होता जाता है, जिसके कारण
(i) पहाड़ों पर खाना बनाने में कठिनाई होती है, (ii) वायुयान में बैठे यात्री के फाउण्टेन पेन से स्याही रिस जाती है ।
◆ वायुमंडलीय दाब को बैरोमीटर से मापा जाता है। इसकी सहायता से मौसम संबंधी पूर्वानुमान से भी लगाया जा सकता है।
◆ बैरोमीटर का पाठ्यांक जब एकाएक नीचे गिरता है, तो आँधी आने की संभावना होती है।
◆ बैरोमीटर का पाठ्यांक जव धीरे-धीरे नीचे गिरता है, तो वर्षा होने की संभावना होती है।
◆ बैरोमीटर का पाठ्यांक जब धीरे-धीरे चढ़ता है, तो दिन साफ रहने की संभावना होती है।
◆ द्रव में दाब ( Pressure of Liquid) — द्रव के अणुओं के द्वारा बर्तन की दीवार अथवा तली के प्रति एकांक क्षेत्रफल पर लगने वाले बल को द्रव का दाब कहते हैं । द्रव के अन्दर किसी बिन्दु पर द्रव के कारण दाव द्रव की सतह से उस बिन्दु की गहराई (h) द्रव के घनत्व (d) तथा गुरुत्वीय त्वरण (g) के गुणनफल के बराबर होता है। अर्थात्
p ( दाब ) = h x d x g
◆ द्रवों में दाब के नियम –
(i) स्थिर द्रव में एक ही क्षैतिज तल में स्थित सभी बिन्दुओं पर दाब समान होता है।
(ii) स्थिर द्रव के भीतर किसी बिन्दु पर दाब प्रत्येक दिशा में बराबर होता है।
(iii) द्रव के भीतर किसी विन्दु पर दाब स्वतंत्र तल से बिन्दु की गहराई के अनुक्रमानुपाती होता है। .
(iv) किसी विन्दु पर द्रव का दाब द्रव के घनत्व पर निर्भर करता है। घनत्व अधिक होने पर दाब भी अधिक होता है।
द्रव-दाब सम्बन्धी पास्कल का नियम
◆ पास्कल के नियम का प्रथम कथन – यदि गुरुत्वीय प्रभाव को नगण्य माना जाय तो संतुलन की अवस्था में द्रव के भीतर प्रत्येक बिन्दु पर दबाव समान होता है।
◆ पास्कल के नियम का द्वितीय कथन—किसी बर्तन में बंद द्रव के किसी भाग पर आरोपित बल, द्रव द्वारा सभी दिशाओं में समान परिमाणं में संचरित कर दिया जाता है।
◆ पास्कल के नियम पर आधारित कुछ यंत्र हैं— हाइड्रोलिक लिफ्ट, हाइड्रोलिक प्रेस, हाइड्रोलिक ब्रेक आदि।
◆ द्रव का दाब उस पात्र के आकार या आकृति पर निर्भर नहीं करता जिसमें द्रव रखा जाता है।
◆ गलनांक तथा क्वथनांक पर दाब का प्रभाव (Effect of Pressure on Melting Point) –
गलनांक पर प्रभाव – (i) गरम करने पर जिन पदार्थों का आयतन बढ़ता है, दाब बढ़ाने पर उनका गलनांक भी बढ़ जाता है, जैसे—मोम, घी, आदि ।
(ii) गरम करने पर जिन पदार्थो का आयतन घट जाता है, दाब बढ़ाने पर उनका गलनांक भी कम हो जाता है; जैसे—बर्फ।
क्वथनांक पर प्रभाव – सभी द्रवों का क्वथनांक दाब बढ़ाने पर बढ़ जाता है।
6. प्लवन (Floatation)
◆ उत्प्लावक बल (Buoyant Force)– द्रव का वह गुण जिसके कारण वह वस्तुओं पर ऊपर की ओर एक बल लगाता है, उसे उत्क्षेप या उत्प्लावक बल कहते हैं। यह बल वस्तुओं द्वारा हटाए गए द्रव के गुरुत्व केन्द्र पर कार्य करता है जिसे उत्प्लावन केन्द्र (centre of buoyancy) कहते हैं। इसका अध्ययन सर्वप्रथम आर्कमिडीज ने किया था।
◆ आर्कमिडीज का सिद्धांत – जब कोई वस्तु किसी द्रव में पूरी अथवा आंशिक रूप से डुबोई जाती है, तो उसके भार में कमी का आभास होता है। भार में यह आभासी कमी वस्तु द्वारा हटाए गए द्रव के भार के बराबर होती है ।
◆ प्लवन का नियम –
(i) संतुलित अवस्था में तैरने पर वस्तु अपने भार के बराबर द्रव विस्थापित करती है।
(ii) ठोस का गुरुत्व केन्द्र तथा हटाए गए द्रव का गुरुत्व केन्द्र दोनों एक ही उर्ध्वाधर रेखा में होने चाहिए।
◆ आपेक्षिक घनत्व एक अनुपात है । अतः इसका कोई मात्रक नहीं होता है।
◆ आपेक्षिक घनत्व को हाइड्रोमीटर से मापा जाता है।
◆ सामान्य जल की अपेक्षा समुद्री जल का घनत्व अधिक होता है, इसलिए उसमें तैरना आसान होता है।
◆ जब बर्फ पानी में तैरती है, तो उसके आयतन का 1/10 भाग पानी के ऊपर रहता है।
◆ किसी बर्तन में पानी भरा है और उस पर बर्फ तैर रही है; जब बर्फ पूरी तरह पिघल जाएगी तो पात्र में पानी का तल बढ़ता नहीं है, पहले के समान ही रहता है।
◆ दूध की शुद्धता दुग्धमापी (lactometer) से मापी जाती है।
◆ मित केन्द्र (Meta Centre) — तैरती हुई वस्तु द्वारा विस्थापित द्रव के गुरुत्व केन्द्र को उल्प्लावन केन्द्र से जानेवाली ऊर्ध्व रेखा जिस बिन्दु पर वस्तु के गुरुत्व केन्द्र से जाने वाली प्रारंभिक ऊर्ध्व रेखा को काटती है उसे मित केन्द्र कहते हैं।
तैरने वाली वस्तु के स्थायी संतुलन के लिए शर्तें
(i) मित केन्द्र गुरुत्व केन्द्र के ऊपर होना चाहिए।
(ii) वस्तु का गुरुत्व केन्द्र तथा हटाए गए द्रव का गुरुत्व केन्द्र अर्थात् उत्प्लावन केन्द्र दोनों को एक ही ऊर्ध्वाधर रेखा में होना चाहिए।
7. पृष्ठ तनाव (Surface Tension)
◆ संसंजक बल (Cohesive Force) – एक ही पदार्थ के अणुओं के मध्य लगने वाले आकर्षण बल को संसंजक बल कहते हैं। ठोसों में संसंजक बल का मान अधिक होता है, फलस्वरूप उनके आकार निश्चित होते हैं। गैसों में संसंजक बल का मान नगण्य होता है।
◆ आसंजक बल (Adhesive Force)—दो भिन्न पदार्थों के अणुओं के बीच लगने वाले आकर्षण बल को आसंजक बल कहते हैं। आसंजक बल के कारण ही एक वस्तु दूसरी वस्तु से चिपकती है।
◆ पृष्ठ तनाव (Surface tension) – द्रव के स्वतंत्र पृष्ठ में कम-से-कम क्षेत्रफल प्राप्त करने की प्रवृत्ति होती है, जिसके कारण उसका पृष्ठ सदैव तनाव की स्थिति में रहती है। इसे ही पृष्ठ तनाव कहते हैं। किसी द्रव का पृष्ठ तनाव वह बल है, जो द्रव के पृष्ठ पर खींची गयी काल्पनिक रेखा की इकाई लम्बाई पर रेखा के लम्बवत् कार्य करता है। यदि रेखा की लम्बाई
(l) पर F बल कार्य करता है, तो पृष्ठ तनाव, T = F/l
पृष्ठ तनाव का SI मात्रक न्यूटन / मी० होता है।
◆ द्रव के पृष्ठ के क्षेत्रफल में एकांक वृद्धि करने के लिए किया गया कार्य द्रव के पृष्ठ तनाव के बराबर होता है। इसके अनुसार पृष्ठ तनाव का मात्रक जूल/मीटर2 होगा।
◆ द्रव का ताप बढ़ाने पर पृष्ठ तनाव कम हो जाता है और क्रांतिक ताप (critical temp) पर वह यह शून्य हो जाता है।
केशिकत्व (Capillarity) :
◆ केशनली (Capillary tube) – एक ऐसी खोखली नली, जिसकी त्रिज्या बहुत कम तथा एक समान होती है, केशनली कहलाता है।
◆ केशनली में द्रव के ऊपर चढ़ने या नीचे दबने की घटना को कोशिकत्व (Capillarity) कहते हैं ।
◆ किस सीमा तक द्रव केशनली में चढ़ता या उतरता है, यह कंशनली की त्रिज्या पर निर्भर करता है । संकीर्ण नली में द्रव का चढ़ाव अधिक तथा चौड़ी नली में द्रव का चढ़ाव कम होता है
◆ सामान्यतः जो द्रव काँच को भिंगोता है, वह केशनली में ऊपर चढ़ जाता है और द्रव काँच को नहीं भिंगोता है वह नीचे दब जाता है; जैसे— जब केशनली को पानी में डुबाया जाता है, तो पानी ऊपर चढ़ जाता है और पानी की सतह केशनली के अन्दर धँसा हुआ रहता है । इसके विपरीत जब केशनली को पारे में डुबाया जाता है, तो पारा केशनली में बर्तन में रखे पारे की सतह से नीचे ही रहता है और केशनली में पारा की सतह उभरा हुआ रहता है ।
◆ केशिकत्व का उदाहरण -(i) ब्लॉटिंग पेपर- स्याही को शीघ्र सोख लेता है, क्योंकि इसमें बने छोटे-छोटे छिद्र केशनली की तरह कार्य करती हैं ।
(ii) लालटेन या लैम्प की बत्ती में केशिकत्व के कारण ही तेल ऊपर चढ़ता है ।
(iii) पेड़-पौधों की शाखाओं, तनों एवं पत्तियों तक जल और आवश्यक लवण केशिकत्व की क्रिया के द्वारा ही पहुँचते हैं।
(iv) कृत्रिक उपग्रह के अन्दर (भारहीनता की अवस्था) यदि किसी केशनली को जल में खड़ा किया जाए तो नली में चढ़ने वाले जल स्तम्भ का प्रभावी भार शून्य होने के कारण जल नली के दूसरे सिरे तक पहुँच जाएगा चाहे कंशनली कितनी भी लम्बी क्यों न हो ।
(v) वर्षा के बाद किसान अपने खेतों की जुताई कर देते हैं, ताकि मिट्टी में बनी कंशनलियों टूट जाएँ और पानी ऊपर न आ सके व मिट्टी में नमी बनी रहे ।
◆ पतली सूई पृष्ठ तनाव के कारण ही पानी पर तैराई जा सकती है ।
◆ साबुन, डिटर्जेण्ट आदि जल का पृष्ठ तनाव कम कर देते हैं, अतः वे मैल में गहराई तक चले जाते हैं जिससे कपड़ा ज्यादा साफ होता है ।
◆ साबुन के घोल के बुलबुले बड़े इसलिए बनते हैं कि जल में साबुन घोलने पर उसका पृष्ठ तनाव कम हो जाता है ।
◆ पानी पर मच्छरों के लार्वा तैरते रहते हैं, परन्तु पानी में मिट्टी का तेल छिड़क देने पर उसका पृष्ठ तनाव कम हो जाता है, जिससे लार्वा पानी में डूबकर मर जाते हैं ।
◆ गरम सूप स्वादिष्ट लगता है, क्योंकि गरम द्रव का पृष्ठ तनाव कम होता है, अतः वह जीभ के ऊपर सभी भागों में अच्छी तरह फैल जाता है।
8. श्यानता (Viscosity)
◆ श्यान बल (Viscous Force)—किसी द्रव या गैस की दो क्रमागत परतों के बीच उनकी आपेक्षिक गति का विरोध करने वाले घर्षण बल को श्यान बल कहते हैं ।
◆ श्यानता (Viscosity) — तरल का वह गुण जिसके कारण तरल की विभिन्न परतों के मध्य आपेक्षिक गति का विरोध होता है, श्यानता कहलाता है ।
◆ श्यानता केवल द्रवों तथा गैसों का गुण हैं ।
◆ द्रवों में श्यानता, अणुओं के मध्य लगने वाले संजक बलों के कारण होती है।
◆ गैसों में श्यानता इसकी परत एक परत से दूसरी तरह में अणुओं के स्थानान्तरण के कारण होती है।
◆ गैसों में श्यानता द्रवों की तुलना में बहुत कम होती है। ठोसों में श्यानता नहीं होती है।
◆ एक आदर्श तरल की श्यानता शून्य होती है ।
◆ ताप बढ़ने पर द्रवों की श्यानता घट जाती है, परन्तु गैसों की बढ़ जाती है ।
◆ किसी तरल की श्यानता को श्यानता गुणांक (coefficient of viscosity) द्वारा मापी जाती है । इसका S.I. मात्रक डेकाप्वॉइज या प्वॉजली (PI) या पास्कल सेकेण्ड (Pas) है । इसे प्राय: (η) (ईंटा) द्वारा सूचित किया जाता है।
◆ सीमान्त वेग– जब कोई वस्तु किसी श्यान द्रव में गिरती है, तो प्रारंभ में उसका वेग बढ़ता जाता है, किन्तु कुछ समय के पश्चात् वह नियत वेग से गिरने लगती है । इस नियत वेग की ही वस्तु का सीमान्त वेग कहते हैं। इस अवस्था में वस्तु का भार, श्यान बल और उत्प्लावन बल, के योग बराबर होते हैं। अर्थात् वस्तु पर कार्य करने वाले सभी का योग शून्य होता है ।
◆ सीमान्त वेग वस्तु की त्रिज्या के वर्ग के अनुक्रमानुपाती होता है । अर्थात् बड़ी वस्तु अधिक वेग से और छोटी वस्तु कम वेग से गिरती है ।
◆ धारा रेखीय प्रवाह (Steam Line Flow) — द्रव का ऐसा प्रवाह जिसमें द्रव का प्रत्येक कण उसी बिन्दु से गुजरता है, जिससे पहले उससे पहले वाला कण गुजरा था, धारा रेखीय प्रवाह कहलाता है। इसमें किसी नियत बिन्दु पर प्रवाह की चाल व उसकी दिशा निश्चित बनी रहती है ।
◆ क्रांतिक वेग (Critical Velocity) — धारा रेखीय प्रवाह के महत्तम वेग को क्रांतिक वेग कहते हैं। अर्थात् धारा रेखीय प्रवाह की वह उच्च सीमा जिसके बाद द्रव का प्रवाह धारा रेखीय न होकर विक्षुब्ध हो जाए, वह वेग क्रांतिक वेग कहलाता है ।
◆ यदि द्रव प्रवाह का वेग क्रांतिक वेग से कम होता है, तो उसका प्रवाह उसकी श्यानता पर निर्भर करता है, यदि द्रव प्रवाह का वेग उसके क्रांतिक वेग से अधिक होता है, तो उसका प्रवाह मुख्यतः उसके घनत्व पर निर्भर करता है, जैसे— ज्वालामुखी से निकलने वाला लावा बहुत अधिक गाढ़ा होने पर भी तेजी से बहता है, क्योंकि उसका घनत्व अपेक्षाकृत कम होता है और घनत्व ही उसके वेग को निर्धारित करता है ।
◆ बरनौली का प्रमेय (Bernoulli’s Theorem ) – जब कोई आदर्श द्रव किसी नली में धारारेखीय प्रवाह में बहता है, तो उसके मार्ग के प्रत्येक बिन्दु पर उसके एकांक आयतन की कुल ऊर्जा (दाब ऊर्जा, गतिज ऊर्जा एवं स्थितिज ऊर्जा) का योग नियत होता है । इस प्रमेय पर आधारित वेण्टुरीमीटर (Venturimeter) से नली में द्रव के प्रवाह की दर ज्ञात की जाती है 1
10. सरल आवर्त्त (Simple Harmonic Motion)
◆ आवर्त गति (Periodic Motion)–एक निश्चित पथ पर गति करती वस्तु जब एक निश्चितं समय-अन्तराल के पश्चात् बार-बार अपनी पूर्व गति को दोहराती है, तो इस प्रकार की गति को आवर्त गति कहते हैं ।
◆ दोलन गति (Oscillatory Motion)– किसी पिंड की साम्यस्थिति के इधर-उधर गति करने को दोलन अथवा काम्पनिक गति कहते हैं ।
◆ एक दोलन या एक कम्पन—दोलन करने वाले कण का अपनी साम्य स्थिति के एक ओर जाना फिर साम्य स्थिति में आकर दूसरी ओर जाना और पुनः साम्य स्थिति में वापस लौटना, एक दोलन या कम्पन कहलाता है।
◆ आवर्तकाल (Time Period) एक दोलन पूरा करने के समय को आवर्तकाल कहते हैं ।
◆ आवृत्ति (Frequency)–कम्पन करनेवाली वस्तु एक सेकेण्ड में जितना कम्पन करती है, उसे उसकी आवृत्ति कहते हैं । इसका S.I. मात्रक हर्ट्ज (Hertz) होता है। यदि आवृति n तथा आवर्तकाल T हो तो n = 1/T होता है I
◆ सरल आवर्त गति (Simple Harmonic Motion) — यदि कोई वस्तु एक सरल रेखा पर मध्यमान स्थिति (Mean Position) के इधर-उधर इस प्रकार की गति करे कि वस्तु का त्वरण मध्यमान स्थिति से वस्तु के विस्थापन के अनुक्रमानुपाती हो तथा त्वरण की दिशा मध्यमान स्थितिकी आर हो, तो उसकी गति सरल आवर्त गति कहलाती है ।
सरल आवर्तगति की विशेषताएँ
◆ सरल आवर्त गति करने वाला कण जब अपनी मध्यमान स्थिति से गुजरता है, तो (i) उस पर कोई बल कार्य नहीं करता है। (ii) उसका त्वरण शून्य होता है। (iii) वेग अधिकतम होता है । (iv) गतिज ऊर्जा अधिकतम होती है । (v) स्थितिज ऊर्जा शून्य होती है ।
◆ सरल आवर्त गति करने वाला कण जब अपनी गति के अन्त बिन्दुओं से गुजरता है, तो(i) उसका त्वरण अधिकतम होता है । (ii) उस पर कार्य करने वाला प्रत्यानयन बल अधिकतम होता है । (iii) गतिज ऊर्जा शून्य होती है। (iv) स्थितिज ऊर्जा अधिकतम होती है । (v) वेग शून्य होत है।
◆ सरल लोलक (simple Pendulum) — यदि एक भारहीन व लम्बाई में न बढ़ने वाली डोरी के निचले सिर से पदार्थ के किसी गोल परन्तु भार कण को लटकाकर डोरी को किसी दृढ़ आधार से लटका दें तो इस समायोजन को ‘सरल लोलक’ कहते हैं। यदि लोलक (bob) को साम्य स्थिति से थोड़ा विस्थापित करके छोड़ दें तो इसकी गति सरल आवर्त. गति होती है। यदि डोरी की प्रभावी लम्बाई / एवं गुरुत्वीय त्वरण g हो, तो सरल लोलक
◆ गर्मियों में लोलक की लम्बाई (l) बढ़ जाएगी तो उसका आवर्तकाल T भी बढ़ जाएगा। अतः घड़ी सुस्त हो जाएगी। सर्दियों में (l) कम हो जाने पर T भी कम हो जाएगा और लोलक घड़ी तेज चलने लगेगी ।
◆ चन्द्रमा पर लोलक घड़ी को ले जाने पर उसका आवर्तकाल बढ़ जाएगा, क्योंकि चन्द्रमा परg का मान पृथ्वी के g के मान का 1/6 गुना है ।
11. तरंग (Wave)
◆ तरंगों की मुख्यतः दो भागों में बाँटा जा सकता है –
(i) यांत्रिक तरंग (Mechanical Wave)
(ii) अयांत्रिक तरंग (Non-mechanical Wave)
◆ यांत्रिक तरंग–वे तरंगें जो किसी पदार्थिक माध्यम (ठोस, द्रव अथवा गैस) में संचरित होती है—” यांत्रिक तरंगें कहलाती हैं । “
यांत्रिक तरंगों को मुख्यतः दो भागों में बाँटा गया है-
(i) अनुदैर्घ्य तरंग (Longitudinal Waves)
(ii) अनुप्रस्थ तरंग (Transverse Waves)
◆ अनुदैर्ध्य तरंग- जब तरंग गति की दिशा माध्यम के कणों के कम्पन करने की दिशा के अनुदिश (या समांतर) होती है, तो ऐसी तरंग को अनुदैर्ध्य तरंग कहते हैं। ध्वनि अनुदैर्घ्य तरंग का उदाहरण है।
◆ अनुप्रस्थ तरंग-जब तरंग गतिकी दिशा माध्यम के कणों के कम्पन करने को दिशा के लम्बवत् होती है, तो इस प्रकार की तरंगों को ‘अनुप्रस्थ तरंग’ कहते हैं ।
◆ अयांत्रिक तरंग या विद्युत् चुम्बकीय तरंग (Electromagnetic Waves) – वैसी तरंगें जिसके संचरण के लिए किसी माध्यम की आवश्यकता नहीं होती है, अर्थात् तरंगें निर्वात में भी संचरित हो सकती हैं, उन्हें विद्युत् चुम्बकीय या अयात्रिक तरंग कहते हैं- सभी विद्युत् चुम्बकीय तरंगें एक ही चाल से चलती हैं, जो प्रकाश की चाल के बराबर होती है।
◆ सभी विद्युत् चुम्बकीय तरंगें फोटॉन की बनी होती हैं।
◆ विद्युत् चुम्बकीय तरंगों का तरंगदैर्घ्य परिसर 10-14 से लेकर 104 मीटर तक होता है।
◆ विद्युत् चुम्बकीय तरंगों के गुण –
(i) यह उदासीन होती है।
(ii) यह अनुप्रस्थ होती है।
(iii) यह प्रकाश के वेग से गमन करती है।
(iv) इसके पास ऊर्जा एवं संवेग होती है।
(v) इसकी अवधारणा मैक्सवेल (Maxwell) के द्वारा प्रतिपादित किया गया ।
निम्न तरंगें विद्युत्चुम्बकीय नहीं है
(i) कैथोड किरणें
(ii) केनाल किरणें
(iii) α- किरणें
(iv) β- किरणें
(v) ध्वनि तरंगें
(vi) पराश्रवय
◆ आयाम (Amplitude) —दोलन करने वाली वस्तु अपनी साम्य स्थिति की किसी भी ओर जितनी अधिक-से-अधिक दूरी तक जाती है, उस दूरी को दोलन का आयाम कहते हैं ।
◆ तरंगदैर्घ्य (Wave-Length)—तरंग गति में समान कला में कम्पन करने वाले दो क्रमागत कणों के बीच की दूरी को तरंगदैर्घ्य कहते हैं। इसे ग्रीक अक्षर ^ (लैम्डा) से व्यक्त किया जाता है | अनुप्रस्थ तरंगों में दो पास-पास के श्रृंगों अथवा गर्तों के बीच की दूरी तथा अनुदैर्घ्य तरंगों में क्रमागत दो संपीडनों या विरलनों के बीच की दूरी तरंगदैर्घ्य कहलाती है ।
◆ सभी प्रकार की तरंगों में तरंग की चाल, तरंगदैर्घ्य एवं आवृत्ति के बीच निम्न संबंध होता है—
तरंग चाल = आवृति x तरंगदैर्घ्य या , u = nl
12. ध्वनि तरंग (Sound Waves)
◆ ध्वनि तरंग अनुदैर्घ्य यांत्रिक तरंगें होती हैं ।
◆ जिन यांत्रिक तरंगों की आवृत्ति 20 Hz से 20000 Hz के बीच होती है, उनकी अनुभूति हमें अने कानों के द्वारा होती है, और इन्हें हम ध्वनि के नाम से पुकारते हैं ।
◆ ध्वनि तरंगों का आवृत्ति परिसर –
1. अवश्रव्य तरंगें (infrasonic Waves) – 20 Hz से नीचे की आवृत्ति वाली ध्वनि तरंगों को ‘अवश्रव्य तरंगें’ कहते हैं । इसे हमारा कान सुन नहीं सकता है । इस प्रकार की तरंगों को बहुत बड़े आकार के स्रोतों से उत्पन्न किया जा सकता है ।
2. श्रव्य तरंगें (Audible Waves) — 20Hz से 20,000 Hz के बीच की आवृत्ति वाली तरंगोंको ‘श्रव्य तरंग’ कहते हैं । इन तरंगों को हमारा कान सुन सकता है ।
3. पराश्रव्य तरंगें (Ultrasonic Wave ) – 20,000 Hz से ऊपर की तरंगों को पराश्रव्य तरंगें कहा जाता है। मनुष्य के कान इसे नहीं सुन सकता है। परन्तु कुछ जानवर जैसेकुत्ता, बिल्ली, चमगादड़ आदि इसे सुन सकते हैं । इन तरंगों को गाल्टन की सीटी के द्वारा तथा दाब वैद्युत् प्रभाव की विधि द्वारा क्वार्ट्ज के क्रिस्टल के कम्पनों से उत्पन्न करते हैं । इन तरंगों की आवृत्ति बहुत ऊँची होने के कारण इसमें बहुत अधिक ऊर्जा होती है। साथ ही इनका तरंगदैर्घ्य छोटी होने के कारण इन्हें एक पतले किरण-पुंज के रूप में बहुत दूर तक भेजा सकता है।
◆ पराश्रव्य तरंगों के उपयोग – (i) संकेत भेजने में (ii) समुद्र की गहराई का पता लगाने में (iii) कीमती कपड़ों, वायुयान तथा घड़ियों के पुर्जों को साफ करने में (iv) कल-कारखानों की चिमनियों से कालिख हटाने में (v) दूध के अन्दर के हानिकारक जीवाणुओं को नष्ट करने में (iv) गठिया रोग के उपचार एवं मस्तिष्क के ट्यूमर का पता लगाने में । –
ध्वनि की चाल (Speed of Sound)
◆ विभिन्न माध्यमों में ध्वनि की चाल भिन्न-भिन्न होती है। किसी माध्यम में ध्वनि की चाल मुख्यतः माध्यम की प्रत्यास्थता तथा घनत्व पर निर्भर करती है ।
◆ ध्वनि की चाल सबसे अधिक ठोस में, उसके बाद द्रव में और उसके बाद गैस में होती है ।
◆ वायु में ध्वनि की चाल 332 m/s, जल में ध्वनि की चाल 1483 m/s और लोहे में ध्वनि की चाल 5130m/s होती है ।
◆ जब ध्वनि एक माध्यम से दूसरे माध्यम में जाती है, तो ध्वनि की चाल एवं तरंगदैर्घ्य बदल जाती है, जबकि आवृत्ति नहीं बदलती है ।
◆ किसी माध्यम में ध्वनि की चाल आवृत्ति पर निर्भर नहीं करती है ।
◆ ध्वनि की चाल पर दाब का प्रभाव – ध्वनि की चाल पर दाब का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है । अर्थात् दाब घटाने या बढ़ाने पर ध्वनि की चाल अपरिवर्तित रहती है ।
◆ ध्वनि की चाल पर ताप का प्रभाव – माध्यम को ताप बढ़ाने पर उसमें ध्वनि की चाल बढ़ जाती है । वायु में प्रति 1°C ताप बढ़ाने पर ध्वनि की चाल 0.61m/s बढ़ जाती है ।
◆ ध्वनि की चाल पर आर्द्रता का प्रभाव – नमी-युक्त वायु का घनत्व, शुष्क वायु के घनत्व में कम होता है; अतः शुष्क वायु की अपेक्षा नमी-युक्त वायु में ध्वनि की चाल अधिक होती है ।
◆ ध्वनि के लक्षण (Characteristics of Sound) – ध्वनि के मुख्यतः तीन लक्षण होते हैं――(i) तीव्रता (ii) तारत्व और (iii) गुणता ।
(i) तीव्रता (Intensity) — तीव्रता ध्वनि का वह लक्षण है, जिसके कारण ध्वनि धीमी या तेज सुनाई पड़ती है। माध्यम के किसी बिन्दु पर ध्वनि की तीव्रता, उस बिन्दु पर एकांक क्षेत्रफल से प्रति सेकण्ड तल के लम्वत् गुजरने वाली ऊर्जा के बराबर होती है। ध्वनि की तीव्रता व्यक्त करने का मात्रक बेल (Bel) है। ध्वनि की निरपेक्ष तीव्रता को वाट मीटर 2 (wm-2) में व्यक्त किया जाता है। बेल एक बड़ा मात्रक है, अतः व्यवहार में इससे छोटा मात्रक डेसीबल (dB) प्रयुक्त होता है जो बेल का दसवाँ भाग है। ध्वनि की तीव्रता स्रोत से दूरी के वर्ग के व्युत्क्रमानुपाती, आयाम के वर्ग के अनुक्रमानुपांती आवृत्ति के वर्ग के अनुक्रमानुपाती तथा माध्यम के घनतव के अनुक्रमानुपाती होती है ।
(ii) तारत्व (Pitch) — तारत्व ध्वनि का वह लक्षण है, जिससे ध्वनि को मोटी (grave) या पतली (shrill) कहा जाता है । तारत्व आवृत्ति पर निर्भर करता है । ध्वनि की आवृत्ति अधिक होने पर तारत्व अधिक होता है, एवं ध्वनि पतली (shrill) होती है। वही आवृत्ति कम होने पर तारत्व कम होता है एवं ध्वनि मोटी (grave) होती है !
(iii) गुणता (Quality) — ध्वनि का वह लक्षण जिसके कारण हमें समान प्रबलता तथा समान तारत्व की ध्वनियों में अन्दर प्रतीत होता है, गुणता कहलाता है । ध्वनि की गुणता संनादी स्वरों की संख्या क्रम तथा आपेक्षिक तीव्रता पर निर्भर करती है । प्रतिध्वनि (Echo) – जब ध्वनि तरंगें दूर स्थित किसी दृढ़ टावर या पहाड़ से टकराकर परावर्तित होती हैं, तो इस परावर्तित ध्वनि को प्रतिध्वनि कहते हैं ।
◆ प्रतिध्वनि सुनने के लिए स्रोता एवं परावर्तक सतह के बीच न्यूनतम 17 मी० ( 16.6m ) दूरी होनी चाहिए ।
◆ कान पर ध्वनि का प्रभाव 1/10 सेकंण्ड तक रहता हें ।
◆ ध्वनि के अपवर्तन के कारण ध्वनि दिन की अपेक्षा रात में अधिक दूरी तक सुनाई पड़ती है।
◆ अनुनाद (Resonance ) – जब किसी वस्तु के कम्पनों की स्वाभाविक आवृत्ति किसी चालक-बल के कम्पनों की आवृत्ति के बराबर होती है, तो वह वस्तु बहुत अधिक आयाम से कम्पन करने लगती है। इस घटना को अनुनाद कहते हैं ।
◆ ध्वनि का व्यतिकरण (Interference of Sound)– जब समान आवृत्ति या आयाम की दो ध्वनि-तरंगें एक साथ किसी बिन्दु पर पहुँचती है, तो उस बिन्दु पर ध्वनि-ऊर्जा का पुनः वितरण हो जाता है। इस घटना को ध्वनि का व्यतिकरण कहते हैं । यदि दोनों तरंगें उस बिन्दु पर एक ही कला (phase) में पहुँचती हैं, तो वहाँ ध्वनि की तीव्रता अधिकतम होती है। इसे सम्पोषी (constructive) व्यतिकरण कहते हैं। यदि दोनों तरंगें विपरीत कला में पहुँचती हैं, तो वहाँ पर तीव्रता न्यूनतम होती है । इसे विनाशी (destructive ) व्यतिकरण कहते हैं ।
◆ ध्वनि का विवर्तन (Diffraction of Sound) ध्वनि का तरंगदैर्घ्य 1 मी० की कोटि का होता है । अत: जब इसी कोटि का कोई अवरोध के मार्ग में आता है, तो ध्वनि अवरोध के किनारे से मुड़कर आगे बढ़ जाती है। इस घटना को ध्वनि का विवर्तन कहते हैं।
◆ डाप्लर प्रभाव (Doppler’s Effect) – जब किसी ध्वनि स्रोत एवं श्रोता के बीच आपेक्षिक गति होती हैं, तो श्रोता को ध्वनि की आवृत्ति उसकी वास्तविक आवृत्ति से अलग सुनाई पड़ती है; इसे ही डाप्लर प्रभाव कहते हैं
◆ मैक संख्या – किसी माध्यम में किसी पिंड की चाल तथा उसी माध्यम में ताप एवं दाब की उन्हीं परिस्थितियों में ध्वनि की चाल के अनुपात को उस वस्तु की उस माध्यम में मैक संख्या कहते हैं ।
◆ यदि मैक संख्या 1 से अधिक है, तो पिंड की चाल पराध्वनिक (Supersonic) कहलाती है। यदि मैक संख्या 5 से अधिक है, तो ध्वनि की चाल अति पराध्वनिक (hypersonic) कहलाती है।
◆ प्रघाती तरंग (Shock waves) — जब पिंड की चाल पराध्वनिक हो जाती है, तो वह अपने पीछे माध्यम में शंक्वाकार विक्षोभ छोड़ती है। इस विक्षोभ के संचरण को ही प्रघाती तरंग कहते हैं ।
13. ऊष्मा (Heat)
◆ ऊष्मा (Heat) — यह वह ऊर्जा है, जो एक वस्तु से दूसरी वस्तु में केवल तापान्तर (Temperature Difference) के कारण स्थानान्तरित होती है किसी वस्तु में निहित ऊष्मा उस वस्तु के द्रव्यमान पर निर्भर करती है ।
◆ ऊष्मा के मात्रक (Units of Heat)
ऊष्मा का S.I. मात्रक जूल है । इसके लिए निम्न मात्रक का प्रयोग भी किया जाता है
(i) कैलोरी ( Calorie)– एक ग्राम जल का ताप 1°C बढ़ाने के लिए आवश्यक ऊष्मा की मात्रा को कैलोरी कहते हैं ।
(ii) अन्तरराष्ट्रीय कैलोरी (International Calorie ) – 1 ग्राम शुद्ध जल का ताप 14.5°C से 15.5°C तक बढ़ाने के लिए आवश्यक ऊष्मा की मात्रा की 1 कैलोरी कहा जाता है।
(iii) ब्रिटिश थर्मल यूनिट (B. Th. U.)– एक पौंड जल का ताप 1°F बढ़ाने के लिए आवश्यक ऊष्मा की मात्रा को 1 B. Th. U. कहते हैं l
◆ विभिन्न मात्रकों में संबंध –
1 B. Th. U. = 252 कैलोरी 1 कैलोरी = 4.186 जूल
1 किलो कैलोरी = 4186 जूल = 1000 कैलोरी
◆ ताप ( Temperature ) – ताप वह भौतिक कारक हैं, जो एक वस्तु से दूसरी वस्तु में ऊष्मीय ऊर्जा के प्रवाह की दिशा निश्चित करता है । अर्थात् जिस कारण से ऊर्जा स्थानान्तरण होती है, उसे ताप कहते हैं ।
ताप मापन ( Measurement of Temperature)
◆ तापमापी (Thermometer) — ताप मापने के लिए जो उपकरण प्रयोग में लाया जाता है, उसे तापमापी कहते हैं ।
ताप मापने के पैमाने (Scales of Temperature Measurement)
◆ निम्न प्रकार के ताप पैमाने प्रचलित हैं-
1. सेल्सियस पैमाना – इस पैमाने का आविष्कार स्वीडेन के वैज्ञानिक सेल्सियस ने किया था । इस पैमाने में हिमांक को 0°C व भाप बिंदु को 100°C अंकित किया जाता है तथा इनके बीच की दूरी को 100 बराबर भागों में बाँट देते हैं। प्रत्येक भाग को 1°C कहते हैं ।
2. फारेनहाइट पैमाना इसका आविष्कार जर्मन वैज्ञानिक फारेनहाइट ने किया। इसका हिमांक 32°F एवं भाप – बिन्दु 212°F है । इनके बीच की दूरी को 180 बराबर भागों में बाँट दिया जाता है ।
3. रोमर पैमाना – इसका हिमांक 0°F एवं भाप – बिन्दु 80°R है। इनके बीच का भाग 80 बराबर भागों में बाँट दिया जाता है ।
4: केल्विन पैमाना—इसमें हिमांक को 273K एवं भाप – बिन्दु को 373K है। इन दोनों बिन्दुओं के बीच की दूरी को समान 100 भागों में विभाजित कर दिया जाता है।
◆ परम शून्य (Absolute Zero) – सिद्धान्त रूप से अधिकतम ताप की कोई सीमा नहीं है, परन्तु निम्नतम ताप की सीमा है। किसी भी वस्तु का ताप – 273.15°C से कम नहीं हो सकता है। इसे परम शून्य ताप कहते हैं । केल्विन पैमाने पर 0K लिखते हैं ।
अर्थात् 0K = −273.15°C एवं 273.16K = 0°C
◆ पहले सेल्सियस पैमाने को सेंटीग्रेड पैमाना कहा जाता था ।
◆ केल्विन में व्यक्त ताप में डिग्री (°) नहीं लिखा जाता है ।
◆ पारा : – 39°C पर जमता है, अत: इससे निम्न ताप ज्ञात करने के लिए अल्कोहल तापमापी का प्रयोग किया जाता है । अल्कोहल – 115°C पर जमता है।
◆ द्रव तापमापी – पारा तापमापी लगभग 30°C से 350°C तक के ताप मापने के लिए प्रयुक्त होता है ।
◆ गैस तापमापी– इस प्रकार के तापमापियों में स्थिर आयतन हाइड्रोजन गैस तापमापी से 500°C तक के ताप को मापा जा सकता है। हाइड्रोजन की जगह नाइट्रोजन गैस लेने पर 1500°C तक के ताप का मापन किया जा सकता है ।
◆ प्लेटनिम प्रतिरोध तापमापी – इसके द्वारा -200°C से 1600°C तक के ताप को मापा जाता है ।
◆ तापयुग्म तापमापी – इसका उपयोग -200°C से 1200°C तक के तापों के मापन के लिए किया जाता है ।
◆ पूर्ण विकिरण उत्तापमापी (Total Radiation Pyrometer) —इस तापमापी से दूर स्थित वस्तु के ताप को मापा जाता है; जैसे सूर्य का ताप | इसके द्वारा प्राय: 800°C से ऊँचे ताप ही मापे जाते हैं, इससे नीचे का ताप नहीं; क्योंकि इससे कम ताप की वस्तुएँ ऊष्मीय विकिरण उत्सर्जित नहीं करती हैं । यह तापमापी स्टीफेन के नियम पर आधारित है, जिसके अनुसार उच्च ताप पर किसी वस्तु से उत्सर्जित विकिरण की मात्रा इसके परम ताप के चतुर्थ घात के अनुक्रमानुपाती होती है ।
◆ विशिष्ट ऊष्मा (Specific Heat) —किसी पदार्थ विशिष्ट ऊष्माधारिता (J/kgK) कुछ पदार्थों की विशिष्ट ऊष्मा या की विशिष्ट ऊष्मा, ऊष्मा की वह मात्रा है, जो उस पदार्थ के एकांक द्रव्यमान में एकांक ताप-वृद्धि उत्पन्न करती है । इसे प्राय: C द्वारा व्यक्त किया जाता है। विशिष्ट ऊष्मा का S.I. मात्रक जूल किलोग्राम-1 केल्विन-1 (J kg-1K-1) होता है ।
◆ एक ग्राम जल का ताप 1°C बढ़ाने के लिए एक कैलोरी ऊष्मा की आवश्यकता होती है । अत: जल की विशिष्ट ऊष्मा धारिता एक कैलोरी/ग्राम°C होता है । जल की विशिष्ट ऊष्मा धारिता अन्य पदार्थों की तुलना में सबसे अधिक है ।
ऊष्मीय प्रसार (Thermal Expansion)
◆ किसी वस्तु को गरम करने पर उसकी लम्बाई, क्षेत्रफल एवं आयतन में वृद्धि होती है। लम्बाई में वृद्धि की माप रेखीय प्रसार गुणांक (α) क्षेत्रफल में वृद्धि की माप क्षेत्रीय प्रसार गुणांक (β) तथा आयतन में वृद्धि को आयतन प्रसार गुणांक (y) द्वारा व्यक्त किया जाता है ।
◆ α, β एवं y में संबंध –
α : β : y : : 1 : 2 : 3 or , β = 2α तथा y = – 3α
◆ जल का असामान्य प्रसार – प्रायः सभी द्रव गरम किए जाने पर आयतन में बढ़ते हैं, परन्तु जल 0°C से 4°C तक गरम करने पर आयतन में घटता है तथा 4°C के बाद गरम करने पर आयतन में बढ़ना शुरू कर देता है। इसका अर्थ यह है कि 4°C पर जल का घनत्व अधिकतम होता है ।
◆ ऊष्मा का संचरण-ऊष्मा का एक स्थान से दूसरे स्थान जाने को ऊष्मा का संचरण कहते हैं । इसकी तीन विधियाँ हैं—(i) चालन (ii) संवहन और (iii) विकिरण ।
◆ चालन (Conduction)—चालन के द्वारा ऊष्मा पदार्थ में एक स्थान से दूसरे स्थान तक, पदार्थ के कणों को अपने स्थान का परिवर्तन किए बिना पहुँचती है ।
◆ ठोस में ऊष्मा का संचरण चालन विधि द्वारा ही होता है ।
◆ संवहन (Convection)– इस विधि में ऊष्मा का संचरण पदार्थ के कणों के स्थानानतरण के द्वारा होता है । इस प्रकार पदार्थ के कणों के स्थानान्तरण से धाराएँ बहती हैं, जिन्हें संवहन धाराएँ कहते हैं । ।
◆ गैसों एवं द्रवों में ऊष्मा का संचरण संवहन द्वारा ही होता है ।
◆ वायुमंडल संवहन विधि के द्वारा ही गरम होता है ।
◆ विकिरण (Radiation) — इस विधि में ऊष्मा, गरम वस्तु से ठण्डी वस्तु की ओर बिना किसी माध्यम की सहायता के तथा बिना माध्यम की गरम किए प्रकाश की चाल से सीधी रेखा में संचरित होती है ।
◆ न्यूटन का शीतलन नियम (Newton’s Law of Cooling)- समान अवस्था रहने पर विकिरण द्वारा किसी वस्तु के ठण्डे होने की दर वस्तु तथा उसके चारों ओर के माध्यम के तापान्तर के अनुक्रमनुपाती होती है। अतः वस्तु जैसे-जैसे ठण्डी होती जाएगी उसके ठण्डे होने की दर कम होती जाएगी ।
◆ किरचौफ का नियम (Kirchhoff’s Law) — इसके अनुसार अच्छे अवशोषक ही अच्छे उत्सर्जक होते हैं। अंधेरे कमरे में यदि एक काली और एक सफेद वस्तु को समान ताप पर गरम करके रखा जाए तो काली वस्तु अधिक विकिरण उत्सर्जित करेगी । अतः काली वस्तु अंधेरे में अधिक चमकेगी ।
◆ स्टीफेन का नियम (Stephen’s Law)– किसी वस्तु की उत्सर्जन क्षमता E उसके परम ताप T के चौथे घात के अनुक्रमानुपाती होती है। अर्थात्—
E ∝ T4 या, E = σT4
जहाँ σ एक नियतांक है, जिसे स्टीफेन नियतांक कहते हैं ।
अवस्था परिवर्तन तथा गुप्त ऊष्मा (Change in State and Latent Heat)
◆ निश्चित ताप पर पदार्थ का एक अवस्था से दूसरी अवस्था में परिवर्तित होना अवस्था परिवर्तन कहलाता है। अवस्था परिवर्तन में पदार्थ का ताप नहीं बदलता है ।
◆ न्नीक बिन्दु – वह बिन्दु जिस पर तीनों अवस्थाएँ ठोस, तरल एवं गैस तीनों एक साथ पायी जाती है ।
◆ गलनांक–निश्चित ताप पर ठोस का द्रव में बदलना गलन कहलाता है तथा इस निश्चित • ताप को ठोस का गलनांक कहते हैं ।
◆ हिमांक—निश्चित ताप पर द्रव का ठोस में बदलना हिमीकरण कहलाता है तथा इस निश्चित ताप को द्रव का हिमांक कहते हैं ।
◆ प्रायः गलनांक एवं हिमांक बराबर होते हैं
◆ जो पदार्थ ठोस से द्रव में बदलने पर सिकुड़ते हैं, (जैसे— बर्फ) उनका गलनांक दाब बढ़ाने पर घटता है, तथा जो पदार्थ ठोस से द्रव में बदलने पर फैलते हैं, उनका गलनांक दाब बढ़ाने पर बढ़ता है 1
◆ अशुद्धि मिलाने से (जैसे बर्फ में नमक मिलाने से) गलनांक घटता है |
◆ क्वथनांक (Boilling Point) – निश्चित ताप पर द्रव का वाष्प में बदलना वाष्पन कहलाता है, तथ इस निश्चित ताप को द्रव का क्वथनांक कहते हैं ।
◆ संघनन—निश्चित ताप पर वाष्प का द्रव में बदलना संघनन कहलाता है।
◆ प्रायः क्वथनांक एवं संघनन ताप समान होता है।
◆ दाब बढ़ाने पर क्वथनांक बढ़ता 1 है
◆ अशुद्धि मिलाने से भी द्रव का क्वथनांक बढ़ता है ।
◆ गुप्त ऊष्मा (Latent Head) –नियत ताप पर पदार्थ की अवस्था में परिवर्तन के लिए ऊष्मा की आवश्यकता होती है। इसे ही पदार्थ की गुप्त ऊष्मा कहते हैं 1
◆ गलन की गुप्त ऊष्मा (Latent Heat of Fusion) – नियत ताप पर ठोस के एकांक द्रव्यमान को द्रव में बदलने के लिए आवश्यक ऊष्मा की मात्रा को ठोस की गलन की गुप्त ऊष्मा कहते हैं । बर्फ के लिए गलन की गुप्त ऊष्मा का मान 80 कैलोरी/ग्राम है।
◆ वाष्पन की गुप्त ऊष्मा (Latent Heat of Vaporisation) – नियत ताप पर द्रव के एकांक द्रव्यमान को वाष्प में बदलने के लिए आवश्यक ऊष्मा की मात्रा को द्रव की वाष्पन की गुप्त ऊष्मा कहते हैं । जल के लिए वाष्पन के गुप्त ऊष्मा का मान 540 कैलोरी/ग्राम है।
◆ यदि पदार्थ की गुप्त ऊष्मा L है, तो पदार्थ के m द्रव्यमान की अवस्था परिवर्तन के लिए आवश्यक ऊष्मा Q=mL
◆ गुप्त ऊष्मा का SI मात्रक जूल/किग्रा है।
◆ उबलते जल की अपेक्षा भाप से जलने पर अधिक कष्ट होता है, क्योंकि जल की अपेक्षा भाप की गुप्त ऊष्मा अधिक होती है 1
◆ 0°C पर पिघलती बर्फ में कुछ नमक, शोरा मिलाने से बर्फ का पलनांक 0°C से घटकर -22°C तक कम हो जाता है, ऐसे मिश्रण को हिम-मिश्रण (Freezing-mixure) कहते हैं । इस मिश्रण का उपयोग कुल्फी, आइसक्रीम आदि बनाने में किया जाता है।
◆ वाष्पीकरण (Evaporation) द्रव के खुली सतह से प्रत्येक ताप पर धीरे-धीरे द्रव का अपने वाष्प में बदलना चाष्पीकरण कहलाता है ।
◆ प्रशीतक (Refrigerator)—प्रशीतक में वाष्पीकरण द्वारा ठण्डक (cooling) उत्पन्न की जाती है | ताँबे को एक वाष्प कुण्डली में द्रव फ्रीऑन भरा रहता है, जो वाष्पीकृत होकर ठण्डक उत्पन्न करता है ।
◆ आपेक्षिक आर्द्रता (Relative Humidity) – किसी दिए हुए ताप पर वायु के किसी आयतन में उपस्थित जलवाष्प की मात्रा तथा उसी ताप पर, उसी आयतन की वायु को संतृप्त करने के लिए आवश्यक जलवाष्प की मात्रा के अनुपात को ‘आपेक्षिक आर्द्रता’ कहते हैं । इस अनुपात को 100 गुना करते हैं, क्योंकि आपेक्षिक आर्द्रता को प्रतिशत में व्यक्त किया जाता है।
◆ आपेक्षिक आर्द्रता मापने के लिए हाइग्रोमीटर (Hygrometer) नामक यंत्र का इस्तेमाल करते हैं ।
◆ ताप बढ़ने पर आपेक्षिक आर्द्रता (Relative Humidity) बढ़ जाती है ।
◆ वातानुकूलन (Air-Conditioning) सामान्यत: मनुष्य के स्वास्थ्य एवं अनुकूल जलवायु के लिए निम्न परिस्थितियाँ होनी चाहिए – (i) ताप : 23°C से 25°C (ii) आपेक्षिक आर्द्रता 60% से 65% के बीच (iii) वायु की गति : 0.75 मी०/मिनट से 2.5 मी०/मिनट तक
13.4 ऊष्मागतिकी (Thermodynamic)
◆ ऊष्मागतिकी का प्रथम नियम-ऊष्मागतिकी का प्रथम नियम मुख्यत: ऊर्जा संरक्षण को प्रदर्शित करता है । इस नियम के अनुसार किसी निकाय को दी जाने वाली ऊष्मा दो प्रकार के कार्यों में व्यय होती है –
(i) निकाय की आन्तरिक ऊर्जा में वृद्धि करने में, जिससे निकाय का ताप बढ़ता है।
(ii) बाह्य कार्य करने में ।
◆ समतापी प्रक्रम (Isothermal Process) – जब किसी निकाय में कोई परिवर्तन इस प्रकार हो कि निकाय का ताप पूरी क्रिया में स्थिर रहे, तो उस परिवर्तन को समतापी परिवर्तन कहते हैं ।
◆ रूद्धोष्म प्रक्रम (Adiabatic Process ) – यदि किसी निकाय में कोई परिवर्तन इस प्रकार पूरी प्रक्रिया के दौरान निकाय न तो बाहरी माध्यम को ऊष्मा दें और न ही उससे कोई ऊष्मा ले तो इस परिवर्तन को रुद्घोष्म परिवर्तन कहते हैं ।
◆ कार्बन डाइऑक्साइड का अचानक प्रसार होने पर वह शुष्क बर्फ के रूप में बदल जाती है, यह रूद्धोष्म परिवर्तन का उदाहरण है।
◆ ऊष्मागतिकी का दूसरा नियम-ऊष्मागतिकी का प्रथम ऊष्मा के प्रवाहित होने की दिशा नहीं बताता । ऊष्मागतिकी का द्वितीय नियम ऊष्मा के प्रवाहित होने की दिशा को व्यक्त करता है। इस नियम को दो कथनों के रूप में व्यक्त किया जाता है, जो निम्न हैं
(i) केल्विन के कधन के अनुसार, “ऊष्मा का पूर्णतया कार्य में परिवर्तन असंभव है
(ii) क्लासियस के कथन के अनुसार, “ऊष्मा अपने कम ताप की वस्तु से अधिक ताप की वस्तु की ओर प्रवाहित नहीं हो सकती है । ” ***
14. प्रकाश (Light)
◆ प्रकाश एक प्रकार की ऊर्जा है, जो विद्युत् चुम्बकीय तरंगों के रूप में संचारित होती है । इसका ज्ञान हमें आँखों द्वारा प्राप्त होता है। इसका तरंगदैर्घ्य 3900Å से 7800Å के बीच होता है।
◆ प्रकाश का विद्युत् चुम्बकीय तरंग-सिद्धान्त प्रकाश के केवल कुछ गुप्पों की व्याख्या कर पाता है; जैसे- प्रकाश का परावर्तन, प्रकाश का अपवर्तन, प्रकाश का सीधी रेखा में गमन, प्रकाश का विर्वतन, प्रकाश का व्यतिकरण एवं प्रकाश का ध्रुवण
◆ विद्युत् चुम्बकीय तरंग अनुप्रस्थ होती है। अतः प्रकाश भी अनुप्रस्थ तरंग है |
◆ प्रकाश के कुछ गुण ऐसे हैं, जिनकी व्याख्या तरंग-सिद्धान्त नहीं कर पाता है, जैसेप्रकाश – विद्युत् प्रभाव तथा क्रॉम्पटन-सिद्धान्त ।
◆ प्रकाश-विद्युत् प्रभाव एवं कॉम्पटन सिद्धान्त की व्याख्या आइन्सटीन द्वारा प्रतिपादित प्रकाश के फोटॉन सिद्धान्त द्वारा की जाती है। वास्तव में यह दोनों प्रभाव प्रकाश को कण प्रकृति को प्रकट करते हैं ।
◆ प्रकाश का फोटॉन सिद्धान्त- इसके अनुसार प्रकाश ऊर्जा के छोटे-छोटे बण्डलों या पैकिटों के रूप में चलता है, जिन्हें फोटॉन कहते हैं 1
◆ आज प्रकाश को कुछ घटनाओं में तरंग और कुछ में कण माना जाता है । इसी को प्रकाश की दोहरी प्रकृति कहते हैं ।
◆ प्रकाश के वेग की गणना सबसे पहले रोमन ने की थी ।
◆ वायु तथा निर्वात में प्रकांश की चा। सबसे अधिक होती है । (3 x 108 m/s)
◆ प्रकाश की चाल माध्यम के अपवर्तनांक (1) पर निर्भर करता है । जिस माध्यम का अपवर्तनांक जितना अधिक होता है, उसमें प्रकाश की चाल उतनी ही कम होती है ।
(μ = c/μ जहाँ u = माध्यम में प्रकाश की चाल, c = निर्वात में प्रकाश की चाल )
◆ प्रकाश को सूर्य से पृथ्वी तक आने में औसतन 499 से० यानी 8 मिनट 19 सेकेण्ड का समय लगता हैं ।
◆ चन्द्रमा से परावर्तित प्रकाश को पृथ्वी तक आने में 1.28 सेकेण्ड का समय लगता है
◆ प्रकाश को प्रति व्यवहार के आधार पर वस्तुओं को निम्न भागों में बाँटा जा सकता है –
1. प्रदीप्त वस्तुएँ (Iuminous bodies) — वे वस्तुएँ जो स्वयं के प्रकाश से प्रकाशित होती है; जैसे—सूर्य, विद्युत बल्ब आदि ।
(ii) अप्रदीप्त वस्तुएँ (Nonluminous bodies) – वे वस्तुएँ जिनका अपना स्वयं का प्रकाश नहीं होता लेकिन उनपर प्रकाश डालने पर वे दिखाई देने लगती है; जैसे—मेज, कुर्सी आदि ।
(iii) पारदर्शक वस्तुएँ (Transparent bodies ) वे वस्तुएँ जिनमें से होकर प्रकाश की किरणें निकल जाती है । जैसे— काँच, जल आदि ।
(iv) अर्ध पारदर्शक वस्तुएँ (Transparent bodioes) — कुछ वस्तुएँ ऐसी होती हैं, जिन पर प्रकाश की किरणें पड़ने से उनका कुछ भाग तो अवशोषित हो जाता है, तथा कुछ भाग बाहर निकल जाता है, ऐसी वस्तुएँ को अर्द्ध पारदर्शक वस्तुएँ कहते हैं; जैसे तेल लगा हुआ कागज ।
(v) अपारदर्शक वस्तुएँ (Opaque bodies) अपारदर्शक वस्तुएँ वे वस्तुएँ हैं, जिनमें होकर प्रकाश की किरणें बाहर नहीं निकल पातीं; जैसे—धातु
◆ प्रकाश का विवर्तन (Diffaction of Light)—प्रकाश को अवरोध के किनारों पर थोड़ा मुड़कर उसकी छाया में प्रवेश करने की घटना को विवर्तन कहते हैं।
◆ प्रकाश का प्रकीर्णन (Scattering of Light) – जब प्रकाश किसी ऐसे माध्यम से गुजरता है, जिसमें धूल तथा अन्य पदार्थों के अत्यन्त सूक्ष्म कण होते हैं, तो इनके द्वारा प्रकाश सभी दिशाओं में प्रसारित हो जाता है, इस घटना को प्रकाश का प्रकीर्णन कहा जाता है। बैंगनी रंग के प्रकाश का प्रकीर्णन सबसे अधिक तथा लाल रंग के प्रकाश का प्रकीर्णन सबसे कम होता है ।
◆ आकाश का रंग नीला प्रकाश के प्रकीर्णन के कारण होता है ।
◆ प्रकाश का परावर्तन (Reflection of Light)—प्रकाश के चिकने पृष्ठ से टकराकर वापस लौटने की घटना को प्रकाश का परावर्तन कहते हैं । परावर्तन के दो नियम हैं –
(i) आपतित किरण, आपतन बिन्दु पर अभिलंब व परावर्तित किरण एक ही तल में होते हैं।
(ii) आपतन कोण परावर्तन कोण बराबर होता है।
समतल दर्पण (Plane Mirror) से परावर्तन
◆ समतल दर्पण किसी वस्तु का प्रतिबिम्ब दर्पण के पीछे उतनी दूरी पर बनता है, जितनी दूरी पर वस्तु दर्पण के सामने रखी होती है। यह प्रतिबिम्ब काल्पनिक, के बराबर एवं पार्श्व उल्टा (Lateral Inverse) होता है ।
◆ यदि कोई वस्तु υ चाल से दर्पण की ओर चलता है, तो उसे दर्पण में अपना प्रतिबिम्ब 2υ चाल से अपनी ओर आता हुआ प्रतीत होगा ।
◆ यदि आपतित किरण को नियत रखते हुए दर्पण को θ° कोण से घुमा दिया जाए तो परावर्तित किरण 2θ° से घूम जाती है ।
◆ समतल दर्पण में वस्तु का पूर्ण प्रतिबिंब देखने के लिए दर्पण की लम्बाई वस्तु की लम्बाई की कम से कम आधी होनी चाहिए ।
◆ यदि दो समतल दर्पण θ° कोण पर झुके हों तो उनके बीच रखी वस्तु के प्रतिबिम्बों की
◆ अवतल दर्पण का उपयोग – (i) बड़ी फोकस दूरी वाला अवतल दर्पण दाढ़ी बनाने में काम आता है। (ii) आँख, कान एवं नाक के डॉक्टर के द्वारा उपयोग में लाया जाने वाला दर्पण (iii) गाड़ी के हेड लाइट एवं सर्चलाइट में (iv) सोलर कूकर में
◆ उत्तल दर्पण से बने प्रतिबिम्ब – उत्तल दर्पण में प्रत्येक दशा में प्रतिबिम्ब दर्पण के पीछे, उसके ध्रुव और फोकस के बीच वस्तु से छोटा, सीधा एवं आभासी बनता है ।
◆ उत्तल दर्पण का उपयोग – (i) इसका उपयोग गाड़ी में चालक की सीट के पास पीछे के दृश्य को देखने में किया जाता है । (side mirror रूप में) (ii) सोडियम परावर्तन लैम्प में
◆ प्रकाश का अपवर्तन (Refraction of Light)– जब प्रकाश की किरणें एक पारदर्शी माध्यम से दूसरे पारदर्शी माध्यम में प्रवेश करती हैं, तो दोनों माध्यमों को अलग करने वाले तल पर अभिलम्बत् आपाती होने पर बिना मुड़े सीधे निकल जाती हैं, परन्तु तिरछी आपाती होने पर वे अपनी मूल दिशा से विचलित हो जाती हैं । इस घटना को प्रकाश का अपवर्तन कहते हैं । जब प्रकाश की कोई किरण विरल माध्यम (rarer medium) से सघन माध्यम (denser medium) (जैसे हवा से पानी) में प्रवेश करती है, तो वह दोनों माध्यमों के पृष्ठ पर खींचे गए अभिलंब की ओर झुक जाती है तथा जब किरण सघन माध्यम से विरल माध्यम में प्रवेश करती है, तो वह अभिलंब से दूर हट जाती है, लेकिन जो किरण अभिलंब के समांतर प्रवेश करती है, उनके पथ में कोई परिवर्तन नहीं होता ।
◆ अपवर्तन के नियम –
(i) आपतित किरण, अभिलंब तथा अपवर्तित किरण तीनों एक ही समतल में स्थित होते हैं।
(ii) किन्हीं दो माध्यमों के लिए आपतन कोण के ज्या (sine) तथा अपवर्तन कोण को ज्या (sine) का अनुपात एक नियतांक होता है ।
नियतांक को पहले माध्यम के सापेक्ष दूसरे माध्यम का अपवर्तनांक कहते हैं । इस नियम को स्नेल का नियम भी कहते हैं ।
◆ किसी माध्यम का अपवर्तनांक भिन्न-भिन्न रंग के प्रकाश के लिए भिन्न-भिन्न होता है । तरंगदैर्घ्य बढ़ने के साथ अपवर्तनांक का मान कम हो जाता है । अतः लाल रंग का अपवर्तनांक सबसे कम तथा बैंगनी रंग का अपवर्तनांक सबसे अधिक होता है ।
◆ ताप बढ़ने पर भी सामान्यतः अपवर्तनांक घटता है। लेकिन यह परिवर्तन बहुत ही कम होता है।
◆ किसी माध्यम का निरपेक्ष अपवर्तनांक निर्वात में प्रकाश की चाल तथा उस माध्यम में प्रकाश की चाल के अनुपात के बराबर होता है ।
◆ प्रकाश के अपवर्तन के कारण घटने वाली घटनाएँ –
(i) द्रव में अंशत: डूबी हुई सीधी छड़ टेढ़ी दिखाई पड़ती है। (i) तारे टिमटिमाते हुए दिखाई पड़ते हैं। (iii) सूर्योदय के पहले एवं सूर्यास्त के बाद भी सूर्य दिखाई देता है । (iv) पानी से भरें किसी बर्तन की तली में पड़ा हुआ सिक्का ऊपर उठा हुआ दिखाई पड़ता है । (v) जल के अन्दर पड़ी हुई मछली वास्तविक गहराई से कुछ ऊपर उठी हुई दिखाई पड़ती है।
प्रकाश का पूर्ण आन्तरिक परावर्तन (Total Internal Reflection of Light)
◆ क्रान्तिक कोण (Critical Angle) क्रान्तिक कोण सघन माध्यम से बना वह आपतन कोण होता है, जिसके लिए विरत माध्यम में अपवर्तन कोण का मान 90° होता है ।
◆ आपतन कोण का मान क्रान्तिक कोण से धांड़ा-सा अधिक कर दें तो प्रकाश विरल माध्यम में बिल्कुल ही नहीं जाता, बल्कि सम्पूर्ण प्रकाश परावर्तित होकर सघन माध्यम में ही लौट है । इस घटना को प्रकाश का पूर्ण आन्तरिक परावर्तन कहते हैं । इसमें प्रकाश का अपवर्तन बिल्कुल नहीं होता, सम्पूर्ण आपतित प्रकाश परावर्त्तित हो जाता है। किसी पृष्ठ के जिस भाग से पूर्ण आन्तरिक परावर्तन होता है, वह चमकने लगता है।
◆ प्रकाश के पूर्ण आन्तरिक परावर्तन के लिए निम्न दो शर्तों का पूरा होना अनिवार्य है –
(i) प्रकाश की किरण सघन माध्यम से विरल माध्यम में जा रही हो
(ii) आपतन कोण क्रांतिक कोण से बड़ा हो ।
◆ पूर्ण आन्तरिक परावर्तन के उदाहरण हैं – (i) हीरा का चमकना (ii) रेगिस्तान में मरीचिका (Mirage) का बनना (iii) जल में बड़ी परखनली का चमकना (iv) काँच में आई दगुर का चमकना ।
◆ प्रकाशिक तन्तु (Optical Fibres)– प्रकाश सरल रेखा में गमन करता है, लेकिन पूर्ण आन्तरिक परावर्तन का उपयोग करके प्रकाश को एक वक्रीय मार्ग में चलाया जा सकता है । प्रकाशिक तन्तु, पूर्ण आन्तरिक परावर्तन के सिद्धान्त पर आधारित एक ऐसी युक्ति है। जिसके द्वारा प्रकाश सिग्नल को, इसकी तीव्रता में बिना क्षय के एक स्थान में दूसरे स्थान तक स्थानान्तरित किया जा सकता है, चाहे मार्ग कितना भी टेढ़ा-मेढ़ा हो ।
◆ प्रकाशित तन्तु का उपयोग-
(i) प्रकाश सिगनलों के दूर संचार में
(ii) विद्युत् सिग्नल को प्रकाश सिग्नल में बदलकर प्रेषित करने में तथा अभिग्रहण करने में
(iii) मनुष्य के शरीर के आन्तरिक भागों का परीक्षण करने में ।
(iv) शरीर के अन्दर लेसर किरणों को भेजने में
लेन्स द्वारा प्रकाश का अपवर्तन (Refraction of Light Through lens)
◆ सामान्यतः दो गोलीय पृष्ठों से घिरे हुए किसी अपवर्तक माध्यम को लेन्स कहा जाता है । प्रायः लेन्स दो प्रकार के होते हैं –
(i) उत्तल लेन्स (convex lens) और (ii) अवतल लेन्स (concave lens)
◆ लेन्सों से संबंधित कुछ पारिभाषिक शब्द –
◆ अवतल लेन्स में प्रतिबिम्ब F2 एवं प्रकाशिक केन्द्र (O) के बीच बनता है, यह प्रतिबिम्ब सीधा तथा आभासी एवं वस्तु से छोटा होता है, चाहे वस्तु कहीं भी रखी जाए ।
◆ लेन्स की क्षमता (Power of lens) – लेन्स की फोकस दूरी के व्युत्क्रम (reciprocal) को लेन्स की क्षमता कहते हैं । यदि किसी लेन्स की फोकस दूरी ƒ मी० में हो, तो उसकी क्षमता P = 1/ƒ डॉयोप्टर होती है । डॉयोप्टर S.I. मात्रक है, जिसे D द्वारा सूचित किया जाता है ।
◆ उत्तल लेन्स की क्षमता धनात्मक एवं अवतल लेन्स की क्षमता ऋणात्मक होती है ।
◆ यदि दो लेन्सों को परस्पर सटाकर रख दें, तो उनकी क्षमताएँ जुड़ जाती हैं तथा संयुक्त लेन्स की क्षमता दोनों लेन्सों की क्षमताओं के योग के बराबर होती है ।
◆ लेंस की क्षमता में परिवर्तन-लेंस को किसी द्रव में डुबाने पर उसकी फोकस दूरी व क्षमता दोनों बदल जाती है । यह लेंस एवं द्रव के अपवर्तनांक पर निर्भर करता है। मान लिया कि μ अपवर्तनांक वाले लेंस को μ’ अपवर्तनांक वाले द्रव में डुबाया जाता है तो निम्न में तीन स्थितियाँ उत्पन्न होंगी –
(i) u>μ’ अर्थात् जब लेंस को ऐसे द्रव में डुबाया जाता है जिसका अपवर्तनांक लेंस के में पदार्थ के अपवर्तनांक से कम हैं। ऐसी स्थिति में लेंस की क्षमता घट जाती है, अर्थात् उसकी फोकस दूरी बढ़ जाती है । लेंस की प्रकृति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। उदाहरण के लिए कांच (μ = 1.5) के लेंस को पानी (μ’ = 1.33) में डुबाने पर । ।
(ii) μ = μ’ अर्थात् जब लेंस को समान अपवर्तनांक वाले द्रव में डुबाते हैं। ऐसी स्थिति में लेंस की फोकस दूरी अनंत हो जाती है, जिससे उसकी क्षमता समाप्त हो जाती है । वह एक समतल प्लेट की भांति व्यवहार करता है । ऐसे द्रव में लेंस को डुबाने पर लेंस दिखाई नहीं देता है।
(iii) μ<μ’ अर्थात् जब लेंस को ऐसे द्रव में डुबाया जाता है, जिसका अपवर्तनांक लेंस के अपवर्तनांक से अधिक है। ऐसी स्थिति में फोकस दूरी बढ़ जाती है, जिससे उसकी क्षमता घट जाती है । इसके साथ-साथ लेंस की प्रकृति भी बदल जाती है, अर्थात् उत्तल लेंस, अवतल लेंस की भांति और अवतल लेंस, उत्तल लेंस की भांति व्यवहार करने लगता है । उदाहरण के लिए पानी के अन्दर हवा का बुलबुला उत्तल लेंस के समान दिखाई देता है, परन्तु व्यवहार अवतल लेंस के समान करता है । कांच (μ = 1.5) के लेंस को कार्बन डाइसल्फाइड (μ’ = 1.68) में डुबाने पर भी उत्तल लेंस, अवतल लेंस के समान तथा अवतल लेंस, उत्तल लेंस के समान व्यवहार करता है ।
◆ प्रकाश का वर्ण-विक्षेपण (Dispersion of Light) — जब सूर्य का प्रकाश प्रिज्म से होकर गुजरता है तो वह अपवर्तन के पश्चात् प्रिज्म के आधार की ओर झुकने के साथ-साथ विभिन्न रंगों के प्रकाश में बँट जाता है। इस प्रकार से प्राप्त रंगों के समूह को वर्णक्रम (spectrum) कहते हैं तथा श्वेत प्रकाश को अपने अवयवी रंगों में विभक्त होने की क्रिया को वर्ण-विक्षेपण कहते हैं ।
◆ सूर्य के प्रकाश से प्राप्त रंगों में बैंगनी रंग का विक्षेपण सबसे अधिक एवं लाल रंग का विक्षेपण सबसे कम होता है ।
◆ विभिन्न रंगों का आधार से ऊपर की ओर क्रम इस प्रकार है-बैंगनी (Violet), जामुनी (Indigo), नीला (Blue), हरा (Green), पीला (Yellow), नारंगी (Orange) तथा लाल (Red)।
◆ न्यूटन ने 1666 ई० में पाया कि भिन्न-भिन्न रंग भिन्न-भिन कोणों से विक्षेपित होते हैं। वर्ण-विक्षेपण किसी पारदर्शी पदार्थ में भिन्न-भिन्न रंगों के प्रकाश के भिन्न-भिन्न वेग होने के कारण होता है । अतः किसी पदार्थ का अपवर्तनांक भिन्न-भिन्न रंगों के प्रकाश के लिए भिन्न-भिन्न होता है ।
◆ पारदर्शी पदार्थ में जैसे-जैसे प्रकाश के रंगों का अपवर्तनांक बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे उस पदार्थ में उसकी चाल कम होती जाती है, जैसे— काँच में बैंगनी रंग के प्रकाश का वेग सबसे कम तथा अपवर्तनांक सबसे अधिक होता है तथा लाल रंग का वेग सबसे अधिक एवं अपवर्तनांक सबसे कम होता है ।
◆ इन्द्रधनुष (Rainbow) – परावर्तन, पूर्ण आन्तरिक परावर्तन तथा आवर्तन द्वारा वर्ण विक्षेपण का सबसे कुछ उदाहरण इन्द्रधनुष है ।
◆ इन्द्र धनुष दो प्रकार के होते हैं—
(i) प्राथमिक इन्द्रधनुष (Primary rainbow)
(ii) द्वितीयक इन्द्रधनुष (Secondary rainbow)
◆ प्राथमिक इन्द्रधनुष – जब वर्षा की बूँदों पर आपतित होने वाली सूर्य की किरणों का दो बार अपवर्तन व एक बार परावर्तन होता है, तो प्राथमिक इन्द्रधनुष का निर्माण होता है प्राथमिक इन्द्रधनुष में लाल रंग बाहर की ओर और बैंगनी रंग अन्दर की ओर होता है । इसमें अन्दर वाली, बैंगनी किरण आँख पर 40°8′ तथा बाहर वाली लाल किरण आँख पर 42°8′ का कोण बनाती है ।
◆ द्वितीयक इन्द्रधनुष – जब वर्षा की बूँदों पर आपतित होने वाली सूर्य-किरणों का दो बार अपवर्तन दो बार परावर्तन होता है, द्वितीयक इन्द्रधनुष का निर्माण होता है । इसमें बाहर की ओर बैंगनी रंग एवं अन्दर की ओर लाल रंग होता है। बाहर वाली बैंगनी किरण आँख पर 54°52′ का कोण तथा अन्दर वाली लाल किरण 50°8′ का कोण बनाती है ।
◆ द्वितीयक इन्द्रधनुष प्राथमिक इन्द्रधनुष की अपेक्षा कुछ धुँधला दिखलाई पड़ता है।
प्राथमिक, द्वितीयक तथा पूरक रंग (Primary, secondary and Complementary colours)
◆ लाल, हरा एवं नीला रंग को प्राथमिक रंग कहते हैं ।
◆ पीला, मैंजेंटा एवं पीकॉक नीला को द्वितीयक रंग कहते हैं । यह दो प्राथमिक रंगों को मिलाने से प्राप्त होता है ।जैसे –
लाल + नीला → मैंजेन्टा,
हरा+ नीला → पीकॉक नीला, लाल,+ हरा → पीला
◆ जब दो रंग परस्पर मिलने से श्वेत प्रकाश उत्पन्न करते हैं, तो उन्हें पूरक रंग कहते हैं ।
◆ लाल + पीकॉक नीला → सफेद हरा + मैंजेटा → सफेद
नीला + पीला → सफेद लाल + हरा + नीला → सफेद
◆ दैनिक जीवन में प्रयोग किए जाने वाले रंगों को मिलाने से इस प्रकार के रंग प्राप्त नहीं होते, क्योंकि प्रयोग में लाए जाने वाले रंगों में अशुद्धियाँ होती हैं ।
◆ रंगीन टेलीविजन में प्राथमिक रंग लाल, हरा एवं नीला का उपयोग किया जाता है ।
◆ वस्तुओं के रंग-वस्तु जिस रंग का दिखलाई देती है, वह वास्तव में उसी रंग का परावर्तित करती है, शेष सभी रंगों को अवशोषित कर लेती है, जो वस्तु सभी रंगों का परावर्तित कर देती है, वह श्वेत दिखलाई पड़ती है, क्योंकि सभी रंगों का मिश्रित प्रभाव सफेद होता है । जो वस्तु सभी रंगों को अवशोषित कर लेती है और किसी भी रंग को परावर्तित नहीं करती हे वह काली दिखाई देती है । इसलिए जब लाल गुलाब को हरा शीशा के माध्यम ! से देखा जाता है, तो वह काला दिखलाई पड़ता है, क्योंकि उसे परावर्तित करने के लिए लाल रंग नहीं मिलता और हरे रंग को वह अवशोषित कर लेता है ।
◆ विभिन्न वस्तुओं पर विभिन्न रंगों की किरणें डालने पर वे किस तरह की दिखती हैं; इसे निम्नलिखित तालिका में देखा जा सकता है –
◆ प्रकाश-तरंगों का व्यतिकरण (Interference of Light)प्रकाश तरंगों के व्यतिकरण का सिद्धान्त प्रकाश को तरंग प्रकृति की पुष्टि करता है । थामस यंग ने सर्वप्रथम 1802 ई० में प्रकाश के व्यतिकरण को प्रयोगात्मक रूप से दर्शाया । जब समान आवृत्ति व समान आयाम की दो प्रकाश-तरंगें जो मूलतः एक ही प्रकाश स्रोत से किसी माध्यम में एक ही दिशा में गमन करती हैं, तो उनके अध्यारोपण के फलस्वरूप प्रकाश की तीव्रता में परिवर्तन हो जाता है। इस घटना को प्रकाश का व्यतिकरण कहते हैं। व्यतिकरण दो प्रकार के होते हैं –
(i) संपोषी व्यतिकरण (Constructive interference)
(ii) विनाशी व्यतिकरण (Destructive interference)
◆ संपोषी व्यतिकरण माध्यम के जिस बिन्दु पर दोनों तरंगें समान कला में मिलती हैं, वहाँ प्रकाश की परिणामी तीव्रता अधिकतम होती है, इस संपोषी व्यतिकरण कहते हैं ।
◆ विनाशी व्यतिकरण– माध्यम के जिस बिन्दु पर दोनों तरंगें विपरीत कला में मिलती है, वहाँ प्रकाश की तीव्रता न्यूनतम या शून्य होती है । इस प्रकार के व्यतिकरण को विनाशी व्यतिकरण कहते हैं ।
नोट : दो स्वतंत्र प्रकाश स्रोतों से निकली प्रकाश तरंगों में व्यतिकरण की घटना नहीं पायी जाती है ।
◆ प्रकाश तरंगों का ध्रुवण (Polarisation of waves of light) — ध्रुवण प्रकाश संबंधी ऐसी घटना है, जो अनुदैर्घ्य तरंग और अनुप्रस्थ तरंग में अन्तर स्पष्ट करती है । अनुदैर्घ्य तरंग में ध्रुवण की घटना नहीं होती, जबकि अनुप्रस्थ तरंग में ध्रुवण की घटना होती है। यदि प्रकाश तरंग के कम्पन प्रकाश-संचरण की दिशा के लम्बवत् तल में एक ही दिशा में हो, प्रत्येक दिशा में सममित न हो, तो इस प्रकाश को समतल ध्रुवित प्रकाश कहते हैं प्रकाश संबंधी यह घटना ध्रुवण कहलाती है । साधारण प्रकाश में विद्युत् वेक्टर के कम्पन प्रकाश संचरण की दिशा में लम्बवत् तल में प्रत्येक दिशा में समान रूप से अथवा सममित में रूप से होते हैं; ऐसे प्रकाश के अध्रुवित प्रकाश (unpolarised light) कहते हैं । प्रकाश स्रोतों जैसे विद्युत बल्ब, मोमबत्ती, ट्यूब – लाइट, आदि से उत्सर्जित प्रकाश अध्रुवित होते हैं ।
◆ प्रकाश-तरंगों का प्रकाशीय प्रभाव केवल विद्युत्-वेक्टरों (विद्युत् क्षेत्र) के कारण होता है ।
मानव नेत्र (Human eye)
◆ स्पष्ट दृष्टि की न्यूनतम दूरी 25 cm होती है ।
1. निकट दृष्टिदोष (Myopia) — इस रोग से ग्रसित व्यक्ति नजदीक की वस्तु को देख लेता है परन्तु दूर स्थित वस्तु को नहीं देख पाता है । कारण (i) लेन्स की गोलाई बढ़ जाती है। (ii) लैन्स की फोकस दूरी घट जाती है । (iii) लेन्स की क्षमता बढ़ जाती है ।
इस कारण वस्तु का प्रतिबिम्ब रेटिना पर न बनकर रेटिना के आगे बन जाता है ।
रोग का निवारण–निकट दृष्टि दोष के निवारण के लिए उपर्युक्त फोकस दूरी के अवतल लेन्स का प्रयोग किया जाता है ।
2. दूर दृष्टि दोष (Hypermetropia) – इस रोग से ग्रसित व्यक्ति को दूर की वस्तु दिखलाई पड़ती है, निकट की वस्तु दिखलाई नहीं पड़ती है।
कारण –(i) लेन्स की गोलाई कम हो जाती है ।
(ii) लेन्स की फोकस दूरी बढ़ जाती है ।
(iii) लेन्स की क्षमता घट जाती है ।
इस रोग में निकट की वस्तु का प्रतिबिम्ब रेटिना के पीछे बनता है ।
रोग का निवारण – इस दोष के निवारण के लिए उपर्युक्त फोकस दूरी के उत्तल लेन्स का प्रयोग किया जाता है ।
3. जरा दृष्टि दोष (Presbyopia)—वृद्धावस्था के कारण आँख की सामंजस्य क्षमता घट जाती है या समाप्त हो जाती है, जिसके कारण व्यक्ति न तो दूर की वस्तु और न निकट की ही वस्तु देख पाता ।
रोग का निवारण – इस रोग के निवारण के लिए द्विफोकसी लेन्स (उभयातल लेन्स) या बाईफोकल लेन्स का उपयोग किया जाता है।
4. दृष्टि वैषम्य या अबिन्दुकता (Astigmation) — इसमें नेत्र क्षैतिज दिशा में तो ठीक देख पाता है, परन्तु ऊर्ध्व दिशा में नहीं देख पाता है। इसके निवारण हेतु बेलनाकार लेन्स (cylindrical lens) का प्रयोग किया जाता है ।
नोट – (i) रेटिना की शंकु (Cones) कोशिका से रंग का एवं छड़ (rods) कोशिका से प्रकाश की तीव्रता का आभास होता है ।
(ii) जब आँख में धूल जाती है तो उसका नेत्र श्लेष्मता (Conjunctiva) अंग सूज जाता है और लाल हो जाता है ।
(iii) आँख के रंग से मतलब आइरिस के रंग से होता है ।
सूक्ष्मदर्शी तथा दूरदर्शी (Microscope and Telescope)
◆ सरल सूक्ष्मदर्शी— यह कम फोकस दूरी का उत्तल लेंस होता है। इसमें वस्तु का आकार – वस्तु द्वारा नेत्र पर बनाए गए दर्शन कोण पर निर्भर करता है । दर्शन कोण जितना छोय होता है, उतनी ही वस्तु छोटी दिखाई पड़ती है।
◆ सरल सूक्ष्मदर्शी की आवर्धन क्षमता –
◆ संयुक्त सूक्ष्मदर्शी (Compound microscope) — इसमें एक ही अक्ष पर दो उत्तल लेन्स लगे होते हैं। जो लेन्स वस्तु की ओर होता है, उसे अभिदृश्यक लेन्स (objective lense) और जो आँख के समीप होता है, उसे अभिनेत्र लेन्स (eye lens) कहते हैं ।
◆ अभिदृश्यक लेन्स का द्वारक (मुख व्यास) अभिनेत्र लेन्स की अपेक्षा छोटा होता है ।
◆ नेत्रिका तथा अभिदृश्यक में जितनी ही कम फोकस दूरी के लेन्सों का उपयोग होता है, उसकी आवर्धन क्षमता उतनी ही अधिक होती है ।
◆ अभिदृश्यक लेन्स अधिक द्वारक का होता है, जिससे यह दूर से आने वाले प्रकाश की अधिक मात्रा को एकत्रित करता है ।
15. स्थिर वैद्युत् (Static Electricity)
◆ पदार्थों को परस्पर रगड़ने से उस पर जो आवेश की मात्रा संचित रहती है, उसे स्थिर – विद्युत् कहते हैं। स्थिर विद्युत् में आवेश स्थिर रहता है।
◆ बेंजामिन फ्रैंकलिन (Benjamin Franklin) ने दो प्रकार के आवेशों को धनात्मक आवेश व ऋणात्मक आवेश नाम दिया है ।
◆ समान प्रकार के (अर्थात् धन-धन या ऋण ऋण) आवेश परस्पर प्रतिकर्षित करते हैं तथा विपरीत प्रकार के आवेश परस्पर आकर्षित करते हैं ।
◆ वस्तुओं का आवेशन इलेक्ट्रॉनों के स्थानान्तरण को फलस्वरूप होता है।
◆ यहाँ नीचे सारणी में कुछ वस्तुएँ इस ढंग से सजायी गयी हैं कि यदि किसी वस्तु को, किसी दूसरी वस्तु से रगड़कर विद्युत उत्पन्न की जाय तो सारणी में जो ऊपर है, उसमें धन आवेश तथा जो नीचे है उसमें कण आवेश उत्पन्न होता है। जैसे—काँच को कागज के साथ रगड़ने पर काँच में धन आवंश एवं कागज में ऋण आवेश उत्पन्न हो जाता है ।
◆ आवेश का पृष्ठ घनत्व (Surface density of charge)– चालक के इकाई क्षेत्रफल पर स्थित आवेश की मात्रा को उस आवेश का पृष्ठ घनत्व कहते हैं ।
◆ चालक का पृष्ठ घनत्व चालक के आकार एवं चालक के समीप स्थित अन्य चालक या विद्युत् रोधी पदार्थों पर निर्भर करता है ।
◆ पृष्ठ घनत्व सबसे अधिक चालक के नुकीले भाग पर होता है, क्योंकि नुकीले भाग का क्षेत्रफल सबसे कम होता है ।
◆ चालक (Conductor) – जिन पदार्थों से होकर विद्युत आवेश सरलता से प्रवाहित होता है, उन्हें चालक कहते हैं । जैसे–चाँदी, ताँबा, एल्युमनियम आदि ।
◆ चाँदी सबसे अच्छा चालक है। (दूसरा स्थान ताँबा का है।
◆ अचालक (Nonconductors) – जिन पदार्थों से होकर आवेश का प्रवाह नहीं होता है, उन्हें अचालक कहते हैं । जैसे— लकड़ी रबड़, कागज आदि ।
◆ कूलॉम का नियम (Coulomb’s law)—दो स्थिर विद्युत् आवेशों के बीच लगने वाला आकर्षक अथवा प्रतिकर्षण बल दोनों आवेशों की मात्राओं के गुणनफल के अनुक्रमानुपाती एवं उनके बीच की दूरी के वर्ग के व्युत्क्रमानुपाती होता है तथा यह बल दोनों आवेशों को मिलाने वाली रेखा के अनुदिश कार्य करता है।
◆ विद्युत्क्षेत्र (Electric field) – किसी आवेश या आवेशित वस्तु के चारों ओर का स्थान जहाँ तक उसके प्रभाव का अनुभव किया जा सके, विद्युत् क्षेत्र कहलाता है ।
◆ विद्युत क्षेत्र की तीव्रता (Intensity of Electric field) — विद्युत् क्षेत्र में किसी बिन्दु पर स्थित एकांक घन आवेश पर क्रियाशील बल को विद्युत् क्षेत्र की तीव्रता कहा जाता है ।
◆ खोखले चालक के विद्युत क्षेत्र–किसी भी खोखले चालक के अन्दर विद्युत् क्षेत्र शून्य है । यदि ऐसे चालक को आवेशित किया जाय तो सम्पूर्ण आवेश उसके बाहरी पृष्ठ पर ही रहता है । अत: खोखला गोला एक विद्युत् परिक्षक (electro static shield) का कार्य करता है । यही कारण है कि यदि किसी कार पर तड़ित विद्युत् गिर जाए तो कार के अन्दर बैठे व्यक्ति पूर्ण सुरक्षित रहता है, तड़ित से प्राप्त विद्युत् आवेश कार की बाहरी सतह पर ही रहता है।
◆ विद्युत् विभव (Electric Potential) —किसी धनात्मक आवेश को अनन्त से विद्युत् क्षेत्र के किसी बिन्दु तक लाने में किए गए कार्य (W) एवं आवेश के मान (g) के अनुपात (ratio) को उस बिन्दु का विद्युत् विभव कहा जाता है । विद्युत् विभव का S.I. मात्रक वोल्ट होता है । यह एक अदिश राशि है ।
◆ विभवान्तर (Potential Difference)– एक कूलॉम धनात्मक आवेश को विद्युत् क्षेत्र में एक बिन्दु से दूसरे बिन्दु तक ले जाने में किए गए कार्य को उन बिन्दुओं के मध्य विभवान्तर कहते हैं। इसका मात्रक भी वोल्ट होता है । यह एक अदिश राशि है ।
◆ विद्युत् धारिता (Electric Capacity) – किसी चालक की धारिता (C) चालक को दिए गए आवेश (Q) तथा उसके कारण चालक के विभव में होने वाले परिवर्तन (V) के अनुपात ( ratio) को कहते हैं । विद्युत धारिता का S.I. मात्रक फैराड (F) होता है ।
◆ विद्युत् सेल ( Electric cell) — विद्युत् सेल मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं
(1) प्राथमिक सेल (primary cell)
(2) द्वितीयक सेल ( secondary cell)
◆ प्राथमिक सेलों में रासायनिक ऊर्जा को सीधे विद्युत् ऊर्जा में परिवर्तित किया जाता है । एक बार प्रयोग कर लेने के बाद यह बेकार हो जाता है ।
◆ वोल्टीय सेल, लेंकलांशे सेल (Leclanche cell), डेनियल सेल (Daniell cell), शुष्क सेल प्राथमिक सेल के उदाहरण हैं ।
◆ द्वितीयक सेल में पहले विद्युत् ऊर्जा को गुसायनिक ऊर्जा में फिर रासायनिक ऊर्जा को विद्युत् ऊर्जा में परिवर्तित किया जाता है । आवेशन (charging) कर इसे बार-बार प्रयोग में लाया जा सकता है ।
◆ वोल्टीय सेल का आविष्कार 1799 ई० में प्रोफेसर एलिजाण्डो वोल्टा ने किया था । इसमें जस्तं की छड़ कथोड़ के रूप में एवं ताबे की छड़ एनोड के रूप में प्रयोग की जाती है । इन छड़ों को काँच के बर्तन में रखे सल्फ्यूरिक अम्ल में रखा जाता ।
◆ लेकलांशे सेल में एनोड के रूप में कार्बन की छड़ एवं कैथोड के रूप में जस्ते की छड़ का प्रयोग किया जाता है । इन छड़ों को काँच के बर्तन में रखे अमोनियम क्लोराइड में रखा जाता है 1
◆ लंकलांशे सेल में एनोड के रूप में प्रयुक्त कार्बन की छड़ मैगनीज डाइऑक्साइड व कार्बन के मिश्रण के बीच रखी जाती है ।
◆ लेकलांशे सेल का विद्युत् – वाहक बल यानि विभव लगभग 1.5 वोल्ट होता है ।
◆ लेकलांशे सेल का प्रयोग वहाँ किया जाता है जहाँ रुक-रुक कर थोड़े समय के लिए विद्युत् धारा की आवश्यकता होती है । जैसे—विद्युत् घंटी, टेलीविजन आदि ।
◆ शुष्क सेल में जस्ते के बर्तन में मैंगनी, डाइऑक्साइड, अमोनियम क्लोराइड (नौसादर) एवं कार्बन का मिश्रण भरा रहता है । इस मिश्रण के बीच में कार्बन की एक छड़ रखी रहती है । इसमें कार्बन की छड़ एनोड के रूप में एवं जस्ते की बर्तन कैथोड के रूप में कार्य करती है । इस सेल का विभव 1.5 V होता है।
16. विद्युत धारा (Current Electricity)
◆ विद्युत् धारा – किसी चालक में विद्युत् आवेश के प्रवाह की दर को विद्युत् धारा कहते हैं । विद्युत् धारा की दिशा धन आवेश की गति की दिशा की ओर मानी जाती है । इसका S.I. मात्रक एम्पीयर है । यह एक अदिश राशि है ।
◆ एक एम्पीयर विद्युत् धारा – यदि किसी चालक तार में एक एम्पीयर (1A) विद्युत् धारा प्रवाहित हो रही है तो इसका अर्थ है, कि उस तार में प्रति सेकण्ड 6.25 × 1018 इलेक्ट्रॉन एक सिरे से प्रविष्टि होते हैं तथा इतने ही इलेक्ट्रॉन दूसरे सिरे से बाहर निकल जाते हैं
◆ प्रतिरोध (Resistance) — किसी चालक में विद्युत् धारा के प्रवाहित होने पर चालक के परमाणुओं तथा अन्य कारकों द्वारा उत्पन्न किए गये व्यवधान को ही चालक का प्रतिरोध कहते हैं । इसका SI मात्रक ओम Ω होता है ।
◆ ओम का नियम (Ohm’s law) — यदि चालक की भौतिक अवस्था जैसे–ताप आदि में कोई परिवर्तन न हो तो चालक के सिरों पर लगाया गया विभवान्तर उसमें प्रवाहित धारा के अनुक्रमानुपाती होता है। यदि किसी चालक के दो बिन्दुओं के बीच विभावन्तर / वोल्ट हो तथा उसमें प्रवाहित धारा I एम्पियर हो, तो ओम के नियमानुसार-
V ∝ I या, V = RI
जहाँ R एक नियतांक है, जिसे चालक का प्रतिरोध कहते हैं ।
◆ ओमीय प्रतिरोध (Ohmic resistance)– जो चालक ओम के नियम का पालन करते हैं, उनके प्रतिरोध को ओमीय प्रतिरोध कहते हैं। जैसे मैंगनीज का तार ।
◆ अनओमीय प्रतिरोध (Non- Ohmic resistance)—जो चालक ओम के नियम का पाला नहीं करते हैं, उनके प्रतिरोध की अनओमीय प्रतिरोध कहते हैं, जैसे–डायांड बल्द का प्रतिरोध, ट्रायोड बल्ब का प्रतिरोध ।
◆ चालकता (Conductance ) – किसी चालक के प्रतिरोध के व्युत्क्रम को चालक की चालकता कहते हैं । इसे G से सूचित करते हैं । ( G = 1 / R) इसकी SI इकाई ओम-1 (Ω-1) होता है, जिसे मूही भी कहते है । (इसका SI इकाई सीमेन भी होता है । )
◆ विशिष्ट प्रतिरोध ( Specific Resistance) — किसी चालक का प्रतिरोध उसकी लम्बाई के अनुक्रमानुपाती तथा उसके अनुप्रस्थ काट के क्षेत्रफल के व्युत्क्रमानुपाती होता है, अर्थात् यदि चालक की लम्बाई l और उसकी अनुप्रस्थ काट का क्षेत्रफल A है, तो—
◆ अमीटर (Ammeter) — विद्युत् धारा को एम्पीयर में मापने के लिए आमीटर नामक यंत्र का प्रयोग किया जाता है । इसे परिपथ में सदैव श्रेणी क्रम में लगाया जाता है ।
◆ एक आदर्श अमीटर का प्रतिरोध शून्य होना चाहिए ।
◆ वोल्टमीटर (Voltemeter) — वोल्टमीटर का प्रयोग परिपथ के किन्हीं दो बिन्दुओं के बीच विभवान्तर मापने में किया जाता है। इसे परिपथ में सदैव समानान्तर क्रम में लगाया जाता है ।
◆ एक आदर्श वोल्टमीटर का प्रतिरोध अनन्त होना चाहिए ।
◆ विद्युत् फ्यूज (Electric fuse) – विद्युत् फ्यूज का प्रयोग परिपथ में लगे उपकरणों की सुरक्षा के लिए किया जाता है, यह टिन (63% ) व सीसा (37% ) की मिश्रधातु का बना होता है । यह सदैव परिपथ के साथ श्रेणीक्रम में जोड़ा जाता है। इसका गलनांक कम होता है।
◆ गैल्वेनोमीटर (Galvanometer) — विद्युत् परिपथ में विद्युत् – धारा की उपस्थिति बताने वाला एक यंत्र है। इसकी सहायता से 10 ऐम्पियर तक की विद्युत् – धारा को मापा जा सकता है।
◆ शंट का उपयोग—–शंट एक अत्यन्त कम प्रतिरोध वाला तार होता है, जिसे गैल्वेनोमीटर के समान्तर क्रम में लगाकर अमीटर बनाया जाता है ।
◆ गैल्वेनोमीटर के श्रेणी क्रम में एक उच्च प्रतिरोध लगाकर वोल्टमीटर बनाया जाता है ।
◆ ट्रॉसफॉर्मर (Transformer) — विद्युत् चुम्बकीय प्रेरण के सिद्धान्त पर कार्य करने वाला यह एक ऐसा यंत्र है, जो उच्च A.C. वोल्टेज को निम्न A.C. वोल्टेज में एवं निम्न A.C. वोल्टेज को उच्च A.C. वोल्टेज में बदल देता है । यह केवल प्रत्यावर्ती धारा (A.C.) के लिए प्रयुक्त किया जाता है ।
◆ ए० सी० डायनेमी ( या जनरेटर ) – यह यांत्रिक ऊर्जा को विद्युत् ऊर्जा में परिवर्तित करता है । यह विद्युत् चुम्बकीय प्रेरण के सिद्धान्त पर कार्य करता है ।
◆ विद्युत् मोटर (Electric motor) — यह एक ऐसा यंत्र है, जो विद्युत् ऊर्जा को यांत्रिक ऊर्जा में बदल देता है । यह विद्युत् चुम्बकीय प्रेरण के सिद्धान्त पर कार्य नहीं करता है ।
◆ माइक्रोफोन – यह ध्वनि ऊर्जा को विद्युत् ऊर्जा में परिवर्तित करता है । माइक्रोफोन विद्युत् चुम्बकीय प्रेरण के सिद्धान्त पर आधारित होता है ।
◆ प्राथमिक शक्ति स्टेशनों पर जो विद्युत्-धारा उत्पन्न होती है, वह प्रत्यावर्ती धारा होती है तथा उसकी वोल्टता 22000V या इससे अधिक हो सकती है । ग्रिड उपस्टेशन ट्रांसफॉर्मर की सहायता से वोल्टता बढ़ा देते हैं, जो 132000V तक भी हो सकती है, ताकि विद्युत् संचरण में विद्युत् ऊर्जा का क्षय बहुत कम हो ।
17. चुम्बकत्व (Magnetism )
◆ प्राकृतिक चुम्बक लोहे का ऑक्साइड (Fe3, O4) है। इसका कोई निश्चित आकार नहीं होता है।
◆ कृत्रिम विधियों द्वारा बनाए गए चुम्बक को कृत्रिम चुम्बक कहते हैं। यह लोहा, इस्पात, कोबाल्ट आदि से बनाया जा सकता है । यह विभिन्न आकृति की होती है, जैसे- छड़ चुम्बक, घोड़ानाल चुम्बक, चुम्बकीय सूई आदि ।
◆ चुम्बकक लोहे को अपनी ओर आकर्षित करता है, इस गुण को चुम्बकत्व कहते हैं। चुम्बक के सिरों के समीप चुम्बकत्व सबसे अधिक होता है। वे क्षेत्र चुम्बक के ध्रुव (pole) कहलाते हैं। चुम्बक के ठीक मध्य में चुम्बक नहीं होता ।
◆ चुम्बक को क्षैतिज तल में स्वतंत्रतापूर्वक लटकाने पर उसका एक ध्रुव सदैव उत्तर की ओर तथा दूसरा ध्रुव सदैव दक्षिण की ओर ठहरता है । उत्तर की ओर हग्न वाले ध्रुव को उत्तरी ध्रुव (North Pole) तथा दक्षिण की ओर ठहरने वाले का दक्षिणी ध्रुव (South pole) कहते हैं।
◆ चुम्बक के दो ध्रुवों को मिलने वाली रेखा को चुम्बकीय अक्ष कहते हैं ।
◆ समान ध्रुव में प्रतिकर्षण एवं असमान ध्रुव में आकर्षण होता है ।
◆ चुम्बक चुम्बकीय पदार्थों में प्ररेण (Induction) द्वारा चुम्बक उत्पन्न कर देता है।
चुम्बकीय क्षेत्र (Magnetic Field)– चुम्बक के चारों ओर वह क्षेत्र, जिसमें चुम्बक कं प्रभाव का अनुभव किया जा सकता है, ‘चुम्बकीय क्षेत्र’ कहलाता है ।
◆ चुम्बकीय क्षेत्र की तीव्रता – चुम्बकीय क्षेत्र में क्षेत्र के लम्बवत् एकांक लम्बाई का ऐसा चालक तार रखा जाए जिसमें एकांक प्रबलता की धारा प्रवाहित हो रही हो तो चालक पर लगने वाला बल ही चुम्बकीय क्षेत्र की तीव्रता की माप होगी । चुम्बकीय क्षेत्र की तीव्रता एक सदिश राशि है । इसका मात्रक न्यूटन/ऐम्पीयर – मीटर अथवा वेबर / मी या टेसला (T ) होता है ।
◆ चुम्बकीय बल रेखाएँ (Magentic Lines of Force)– चुम्बकीय क्षेत्र में बल-रेखाएँ वे काल्पनिक रेखाएँ हैं, जो उस स्थान में चुम्बकीय क्षेत्र की दिशा को अविरत प्रदर्शन करती हैं । चुम्बकीय बल – रेखा के किसी भी बिन्दु पर खींची गई स्पर्श-रेखा उस बिन्दु पर चुम्बकीय क्षेत्र की दिशा को प्रदर्शित करती है
चुम्बकीय बल – रेखाओं के गुण
(i) चुम्बकीय बल – रेखाएँ सदैव चुम्बक के उत्तरी ध्रुव से निकलती हैं, तथा वक्र बनाती हुई दक्षिणी ध्रुव में प्रवेश कर जाती हैं और चुम्बक के अन्दर से होती हुई पुन: उत्तरी ध्रुव पर वापस आती हैं ।
(ii) दो बल – रेखाएँ एक-दूसरे को कभी नहीं काटतीं ।
(iii) चुम्बकीय क्षेत्र जहाँ प्रबल होता है वहाँ बल – रेखाएँ पास-पास होती हैं ।
(iv) एक समान चुम्बकीय क्षेत्र की बल-रेखाएँ परस्पर समान्तर एवं बराबर-बराबर दूरियों पर होती हैं ।
चुम्बकीय पदार्थ (Magnetic Substances )
(i) प्रति चुम्बकीय पदार्थ (Dia-Magnetic Substances) — प्रति चुम्बकीय पदार्थ वे पदार्थ हैं, जो चुम्बकीय क्षेत्र में रखे जाने पर क्षेत्र की विपरीत दिशा में चुम्बकीय हो जाते हैं । जस्ता, बिस्मथ, ताँबा, चाँदी, सोना, हीरा, नमक, जल आदि प्रति चुम्बकीय पदार्थों के उदाहरण हैं ।
(ii) अनुचुम्बकीय पदार्थ (Paramagnetic Substances) — अनु चुम्बकीय पदार्थ वे पदार्थ हैं, जो चुम्बकीय क्षेत्र में रखने पर क्षेत्र की दिशा में थोड़ी सी (एक से कम) चुम्बकीय हो जाते हैं। प्लैटनिम, क्रोमियम, सोडियम, ऐलुलिनियम, ऑक्सीजन आदि इसके उदाहरण हैं।
(iii) लौह चुम्बकीय (Ferromagnetic Substances )- लौह चुम्बकीय पदार्थ वे पदार्थ हैं, जो चुम्बकीय क्षेत्र में रखने पर क्षेत्र की दिशा में प्रबल रूप से चुम्बकीय हो जाते हैं। लोहा, निकिल, कोबाल्ट, इस्पात इसके उदाहरण हैं।
◆ डोमेन (Domains) — लौह चुम्बकीय पदार्थ में प्रत्येक परमाणु ही एक चुम्बक होता है और उनमें असंख्य परमाणुओं के समूह होते हैं जिन्हें डोमेन कहते हैं। एक डोमेन में 1018 से 1021 तक परमाणु होते हैं, लौह चुम्बकीय पदार्थों का तीव्र चुम्बकत्व इन डोमेनों के कारण ही होता है ।
◆ क्यूरी ताप (Curie Temperature ) – क्यूरी ताप वह ताप है, जिसके ऊपर पदार्थ अनु चुम्बकीय त जिसके नीचे पदार्थ लौह चुम्बकीय होता है । लोहा एवं निकिल के लिए क्यूरी ताप के मा क्रमश: 770°C तथा 358°C होता ।
◆ अस्थायी चुम्बक बनाने के लिए नर्म लोहे का प्रयोग किया जाता है ।
◆ स्थायी चुम्बक बनाने के लिए इस्पात (steel) का प्रयोग किया जाता है ।
◆ भू-चुम्बकत्व (Terrestrial Magnetism)– किसी स्थान पर पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र को तीन तत्त्वों द्वारा व्यक्त किया जाता है—दिकपात् कोण (angle of declination), नमन कोण (angle of dip) तथा चुम्बकीय क्षेत्र की क्षैतिज घटक (horizontal component of earth’s magnetic field) —
(i) दिक्पात कोण—किसी स्थान पर भौगोलिक याम्योत्तर तथा चुम्बकीय याम्योत्तर के बीच के कोण को दिकपात कोण कहते हैं ।
(ii) नमन कोण– किसी स्थान पर पृथ्वी का सम्पूर्ण चुम्बकीय क्षेत्र क्षैतिज तल के साथ जितना कोण बनता है, उसे उस स्थान का नमन कोण कहते हैं । पृथ्वी के ध्रुव पर नमन कोण का मान 90° तथा विषुवत् रेखा पर 0° होता है ।
◆ चुम्बकीय क्षेत्र के क्षैतिज घटक– पृथ्वी के सम्पूर्ण चुम्बकीय क्षेत्र के क्षैतिज घटक (H) अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग होता है। परन्तु इसका मान लगभग 0.4 गॉस या 0.4 x 10-4 टेसला होता है।
18. परमाणु भौतिकी (Atomic Physics)
◆ परमाणु (Atom)– परमाणु वे सूक्ष्मतम काण हैं, जो रासायनिक क्रिया में भाग ले सकते हैं, परन्तु स्वतंत्र अवस्था में नहीं रहते। परमाणु मुख्यतः तीन मूल कणों इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन व न्यूट्रॉन से मिलकर बना होता है। परमाणु के केन्द्र में एक नाभिक होता है, जिसमें प्रोटॉन एवं न्यूट्रॉन रहते हैं, इलेक्ट्रॉन नाभिक के चारों ओर चक्कर लगाते हैं ।
◆ परमाणु में प्रोटॉन एवं इलेक्ट्रॉन की संख्या समान एवं आवेश विपरीत होते हैं, जिसकेक कारण यह उदासीन होता है ।
◆ कैथोड किरण (Cathode ray) —- जब विसर्जन नलिका (discharge tube) के सिरों पर 20 किलो वोल्ट (20 kV) का विभान्तर लगाया जाता है और उसका दाब 0.1 मिली मीटर पारे के स्तम्भ के बराबर होता है, तो उसके कैथोड से एक इलेक्ट्रॉन पुँज (beam) निकलने लगता है, इसे ही कैथोड किरण कहते हैं । अतः कैथोड किरणें केवल उच्च ऊर्जा वाले इलेक्ट्रॉनों का पुँज है ।
गुण –
1. कैथोड किरण को केवल गैस का प्रयोग करके पैदा किा जा सकता है।
2.कैथोड किरणों के उत्पादन में विभव का स्रोत प्रेरण कुंडली (Induction Coii) होता है, जो कम विभव के सल से बहुत उच्च विभव प्रदान करता है । यह पारस्परिक प्रेरण के सिद्धांत पर कार्य करता है ।
3.कैथोड किरणें अदृश्य होती हैं और सीधी रेखाओं में चलती हैं ।
4.कैथोड किरणें ऋणात्मक होती हैं, इसलिए ये कैथोड से एनोड की तरफ गमन करती हैं । ये इलेक्ट्रॉन की बनी होती हैं और अपनी सतह के लंबवत् निकलती हैं।
5. कैथोड किरण का वेग प्रकाश के वेग का 1/10 गुणा होता है ।
6. यह किरण विद्युत् एवं चुम्बकीय क्षेत्र में विक्षेपित होती है ।
7. यह गैसों को आयनीकृत कर देती है एवं धातु पर ऊष्मीय प्रभाव दिखलाती है ।
8. यह फोटोग्राफ प्लेट को प्रभावित करती है ।
9. इसकी वेधन क्षमता कम होती है । यह पतली धातु की चादर से पार कर जाती है ।
10. कैथोड किरणें जब विद्युतीय क्षेत्र से होकर लम्बवत् गुजरती हैं, तो इसका रास्ता परवलयाकार होता है ।
नोट – जब कैथोड किरणें किसी उच्च परमाणु क्रमांक वाली धातु (जैसे— टंगस्टन) पर गिरती हैं, तो ये X-किरणें उत्पन्न करती हैं। “
◆ धनात्मक किरणें (Positive or Canal Rays) — विसर्जन नालिका में यदि छिद्र युक्त कैथोड प्रयुक्त किया जाए, तो उनसे निकलने वाली किरणें कैथोड किरणों के ठीक विपरीत दिशा में विक्षेपित हो जाती हैं और एनोड की ओर से कुछ किरणें निकलती हैं । अतः ये एनोड से निकलने वाली धनावेशित किरणें हैं। इनका पता 1886 ई० में गोल्डस्टीन ने लगाया था ।
गुण –
(1) ये किरणें धनावेशित होती हैं ।
(2) ये प्रतिदीप्ति तथा स्फुरदीप्ति उत्पन्न करती हैं ।
(3) ये विद्युत् व चुम्बकीय क्षेत्र में विक्षेपित हो जाती हैं ।
◆ डायोडं वाल्व (Diode Valve)– वैज्ञानिक फ्लेमिंग द्वारा सन् 1904 ई० निर्मित यह एक ऐसी निर्वात नलिका है, जिसमें केवल दो हीं इलेक्ट्रोड (तन्तु एवं प्लेट) होते हैं, तन्तु टंगस्टन का एक पतला तार होता है, जिस पर बेरियम ऑक्साइड का लेप होता है, इसे बैटरी से गर्म करने पर इलेक्ट्रॉन निकलते हैं, जो धनावेशित प्लेट की ओर चलते हैं, इसे डायोड परिपथ में प्लेट धारा का प्रवाह होने लगता है। प्लेट धारा ओम के नियम का पालन न करके चाइल्ड लैगूमर नियम का पालन करती है ।
नोट – कैथोड के आस-पास एकत्रित इलेक्ट्रॉन समूह को अन्तराल आवेश कहा जाता है ।
उपयोग — डायोड वाल्व जो ऋजुकारी (Rectifier) के रूप में प्रयुक्त होता है । अर्थात् इसके द्वारा प्रत्यावर्ती धारा (A.C.) को दिष्ट धारा (D.C.) में बदलते हैं ।
◆ ट्रायोड वाल्व (Triode Valve) — यह तीन इलेक्ट्रोड-प्लेट, ग्रिड व तन्तु वाली एक निर्वात नलिका है । इसका निर्माण 1907 ई० में ली० डी० फोरेस्ट (अमेरिका) ने किया था ।
उपयोग—ट्रायोड वाल्व का प्रवर्धक (Amplifier) दोलित्र (Oscillator), प्रेसी (Transmitter) एवं संसूचक a(Detector) की तरह प्रयोग करते हैं ।
◆ अर्द्धचालक (Semi Conductor) — ऐसे पदार्थ जिनमें इलेक्ट्रॉनिक संरचना इस प्रकार की होती है कि कहीं इलेक्ट्रॉन मुक्त हो जाता है और कहीं रिक्त (Hole) बन जाता है, अर्द्धचालक कहलाते हैं । इनकी विद्युत् चालकता सामान्य ताप पर चालक (conductors) व विद्युत् रोधी (Insulators) पदार्थ की चालकताओं के मध्य होती है । जर्मेनियम और सिलिकन ऐसे मुख्य पदार्थ हैं । इनका उपयोग इलेक्ट्रॉनिक्स व ट्रांजिस्टर उपकरणों में होता है ।
◆ निज अर्द्धचालक (Intrinsic semi-conductors) – जिन अर्द्धचालकों में मुक्त इलेक्ट्रॉन तथा कोटर ऊष्मीय प्रभाव द्वारा उत्पन्न किए जाते हैं, उन्हें निज अर्द्धचालक कहा जाता है ।
◆ बाह्य अर्द्धचालक (Extrinsic semi-conductors)— अर्द्धचालकों में अपद्रव्य मिलाने से प्राप्त ठोस को बाह्य अर्द्धचालक कहते हैं । अपद्रव्य के रूप में आर्सेनिक अथवा एल्यूमीनियम मिलाते हैं, जिससे अर्द्धचालक की चालकता काफी बढ़ जाती है ।
◆ N-प्रकार के अर्द्धचालक – ऐसे बाह्य अर्द्धचालक जिनमें विद्युत् का प्रवाह मुक्त इलेक्ट्रॉनों की संख्या बढ़ जाने के कारण होता है, N-प्रकार के अर्द्धचालक कहलाते हैं । जब शुद्ध अर्द्धचालक में पंच संयोजी अपद्रव्य (जैस-आर्सेनिक) मिला दिया जाता हैं, तो इस प्रकार के अर्द्धचालक प्राप्त होते हैं ।
◆ P-प्रकार के अर्द्धचालक – जिन अर्द्धचालकों में विद्युत् का प्रभाव कोटरों (Hole) की गति के कारण होता हैं, उन्हें P- प्रकार के अर्द्धचालक कहते हैं । शुद्ध अर्द्धचालक (जर्मेनियम) में त्रिसंयोजी अपद्रव्य (जैसे— एल्युमीनियम) मिलाने से ऐसे अर्द्धचालक प्राप्त होते हैं ।
◆ दाता ( Donor) – पंच संयोजी अपद्रव्य दाता कहे जाते हैं ।
◆ ग्राही ( Acceptor) — त्रिसंयोजी अपद्रव्य परमाणु ग्राही कहे जाते हैं ।
◆ डोपिंग (Doping)-अपद्रव्य मिलाए जाने की प्रक्रिया को डोपिंग कहते हैं ।
◆ ताप बढ़ाने पर अर्द्धचालक की चालकता बढ़ती है, परन्तु चालक की चालकता घटती है ।
◆ अतिचालकता (Superconductivity)— इसकी खोज 1911 ई० में केमरलिंध ओन्स ने की थी । अत्यन्त निम्न ताप पर कुछ पदार्थों का विद्युत् प्रतिरोध शून्य हो जाता है, इन्हें ही अतिचालक (supercounductor) कहते हैं और इस गुण को अतिचालकता कहते हैं ।
◆ 4.2 K (अर्थात्-268.8°C) पर पारा अतिचालक बन जाता है ।
◆ नियोबियस्टीन काफी ऊँचे ताप (100 k) पर भी अति चालकता प्राप्त कर लेती है ।
◆ अतिचालक पूर्णत: प्रति चुम्बकीय होता है, अर्थात वह पूर्ण चुम्बकीय कवच होता है, जिसे कोई चुम्बकीय बल – रेखा भेदकर उसके अन्दर नहीं जा सकती है ।
◆ अतिचालकता के महत्त्व को देखते हुए भारत सरकार ने 1991 ई० में एक राष्ट्रीय अति चालकता विज्ञान एवं तकनीकी बोर्ड की स्थापना की ।
नोट : घड़ी में क्वार्ट्ज क्रिस्टल का काम दाब (पाइजो) विद्युत् प्रभाव पर आधारित ।
19. रेडियोसक्रियता (Radioactivity )
◆ रेडियोसक्रियता की खोज फ्रेंच वैज्ञानिक हेनरी बेकरल, पी क्यूरी एवं एम० क्यूरी ने किया था । इस खोज के लिए इन तीनों को संयुक्त रूप से नोबेल पुरस्कार मिला ।
◆ जिन नाभिकों में प्रोटॉन की संख्या 83 या उससे अधिक होती है, वे अस्थायी होते हैं । स्थायित्व प्राप्त करने के लिए ये नाभिक स्वत: ही अल्फा (α), बीटा (β) एवं गामा (y) किरणे उत्सर्जित करने लगती हैं। ऐसे नाभिक जिन तत्त्वों के परमाणुओं में होते हैं, उन्हें रेडियों एक्टिव तत्त्व कहते हैं तथा किरणों की उत्सर्जन की घटना को रेडियो सक्रियता कहते हैं ।
◆ गामा किरणें (y) अल्फा एवं बीटा किरणों के बाद ही उत्सर्जित होती हैं ।
◆ राबर्ट पियरे एवं उनकी पत्नी मैडम क्यूरी ने नए रेडियो एक्टिव तत्व रेडियम की खोज की ।
◆ रेडियो सक्रियता के दौरान निकलने वाली किरणों की पहचान सर्वप्रथम 1902 ई० में रदरफोर्ड नामक वैज्ञानिक ने की ।
◆ सभी प्राकृतिक रेडियो सक्रिय तत्व (a), (B) एवं (y) किरणों उत्सर्जन के बाद अन्तत: सीसा में बदल जाते हैं ।
◆ एक β- किरण निकलने से परमाणु संख्या में एक है, तथा द्रव्यमान संख्या पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है
◆ α, β, और y किरणों के निकलने से परमाणु संख्या और द्रव्यमान संख्या पर पड़ने वाले प्रभाव को वर्ग विस्थापन नियम या सोडी फॉजन नियम कहा जाता है ।
◆ रेडियो सक्रियता की माप “जी० एम० काउंटर” से की जाती है ।
◆ जितने समय में किसी रेडियो सक्रिय तत्त्व के परमाणुओं की संख्या आधी हो जाय, वह समय उस तत्त्व का अर्द्ध जीवन काल कहलाता है । इसे प्राय: H.L. या t12 सं सूचित किया जाता है
◆ अभ्रकोष्ठ (cloud chamber) — इसका उपयोग रेडियो एक्टिव कणों की उपस्थिति का पता लगाने, उसकी ऊर्जा को मापने आदि के लिए किया जाता है। इसका आविष्कार सी० आर० टी० विल्सन ने किया था ।
◆ जीवाश्म मृत पेड़-पौधे आदि की आयु का अंकन कार्बन-14 के द्वारा किया जाता है । इस विधि में जीवाश्म या मृत पेड-पौधों में प्राप्त कार्बन के दो समस्थानिक 6C12 व6 6C14 का अनुपात ज्ञात करके आयु का निर्धारण किया जाता है ।
◆ द्रव्यमान – -ऊर्जा संबंध (Mass – Energy Relation)— 1905 ई० में आइन्स्टीन ने द्रव्यमान एवं ऊर्जा के बीच एक संबंध स्थापित किया जिसे आपेक्षिकता का सिद्धान्त (Theory of Relativity) कहा जाता है । इसके अनुसार द्रव्यमान एवं ऊर्जा एक-दूसरे से स्वतंत्र नहीं है, बल्कि दोनों एक-दूसरे से संबंधित है तथा प्रत्येक पदार्थ में उसके द्रव्यमान के कारण ऊर्जा भी होती है। यदि किसी वस्तु का द्रव्यमान m एवं प्रकाश का वेग c है, तो इस द्रव्यमान से संबंद्ध ऊर्जा, E = mc2 होती है ।
नोट : आइस्टीन जर्मनी में जन्में अमेरिकी वैज्ञानिक थे, जिन्हें 1921 ई० का भौतिकी में नोबल पुरस्कार मिला ।
◆ सूर्य से पृथ्वी को लगातार ऊर्जा ऊष्मा के रूप में प्राप्त हो रही है, जिसके फलस्वरूप सूर्य का द्रव्यमान लगातार घटता जा रहा है । आँकड़ों के अनुसार सूर्य से पृथ्वी को प्रति सेकण्ड 4 × 1026 जूल ऊर्जा प्राप्त हो रही हैं, जिसके फलस्वरूप इसका द्रव्यमान लगभग 4×109 kg प्रति सेकेण्ड की दर से घट रहा है । परन्तु सूर्य का द्रव्यमान इतना अधिक है कि वह लगातार एक हजार करोड़ वर्षों तक इसी दर से ऊर्जा देता रहेगा ।
20. नाभिकीय विखंड तथा संलयन (Nuclear fission and fusion)
◆ नाभिकीय विखंडन (Nuclear Fission) वह नाभिकीय प्रतिक्रिया जिसमें कोई एक भारी नाभिक दो भागों में टूटता है, नाभिकीय विखण्डन कहलाता है । विखण्डन के दौरान उत्पन्न ऊर्जा को नाभिकीय ऊर्जा कहते हैं ।
◆ सबसे पहले नाभिकीय विखंडन (fission) अमेरिका वैज्ञानिक स्ट्रासमैन एवं हॉन के द्वारा दिखाया गया । इन्होंने जब यूरेनियम-235 पर न्यूट्रॉनों की बममारी की तो पया कि यूरेनियम के नाभिक दो खण्डों में विभाजित हो जाते हैं ।
◆ शृंखला अभिक्रिया (Chain Reaction) — जब यूरेनियम पर न्यूट्रॉनों की बमबारी की जाती है, तो एक यूरेनियम नाभिक के विखंडन पर बहुत अधिक ऊर्जा व तीन नए न्यूट्रॉन उत्सर्जित होते हैं । ये उत्सर्जित न्यूट्रॉन यूरेनियम के अन्य नाभिकों को विखण्डित करते हैं । इस प्रकार यूरेनियम नाभिकों के विखंडन की एक श्रृंखला बन जाती है । इसे ही श्रृंखला अभिक्रिया कहते हैं ।
◆ श्रृंखला अभिक्रिया दो प्रकार की होती हैं— 1. अनियंत्रित शृंखला अभिक्रिया 2. नियंत्रितशृंखला अभिक्रिया ।
1. अनियंत्रित श्रृंखला अभिक्रिया (Uncontrolled chain reaction)— इस अभिक्रिया में तीन नए निकलने वाले न्यूट्रॉन पर नियंत्रण नहीं होता, जिसके कारण नाभिकों के विखंडन की दर 1, 3, 9, 27 … के अनुसार होती है, फलस्वरूप ऊर्जा अत्यन्त तीव्र गति से उत्पन्न होती है तथा बहुत कम समय में बहुत विनाश कर सकती है। इस अभिक्रिया में प्रचण्ड विस्फोट होता है । परमाणु बम में यही अभिक्रिया होती है ।
◆ परमाणु बम (Atom Bomb ) – परमाणु बम को बनाने के लिए यूरेनियम (92U235) तथा प्लूटोनियम ( 94Pu239) का प्रयोग किया जाता है । यह नाभिकीय विखंडन के सिद्धांत पर आध ारित है । परमाणु बम का सर्वप्रथम प्रयोग द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान संयुक्त राज्य अमेरिका के द्वारा जापान के विरुद्ध किया गया था । 6 अगस्त, 1945 एवं 9 अगस्त, 1945 ई० को क्रमशः हिरोशिमा एवं नागासाकी पर परमाणु बम गिराए गए थे ।
2. नियंत्रित शृंखला अभिक्रिया (Controlled chain reaction) — यह अभिक्रिया धीरे-धीरे होती है तथा इससे प्राप्त ऊर्जा क उपयोग लाभदायक कार्यों के लिए किया जाता हैं । परमाणु भट्ठी या नाभिकीय रिएक्टर में यही अभिक्रिया अपनाई जाती है ।
◆ परमाणु भट्टी (Atomic Pile) या नाभिकीय रिएक्टर (Nuclear Reactor)—सबसे पहला नाभिकीय रिएक्टर प्रो० फर्मी के निर्देशन में शिकांगो विश्वविद्यालय में बनाया गया ।
◆ नाभिकीय रिएक्टर से संबंधित कुछ महत्त्वपूर्ण जानकारी-
(i) रिएक्टर में ईंधन में रूप में यूरेनियम-235 या प्लूटोनियम-239 का प्रयोग किया जाता है।
(ii) रिएक्ट में मंदक रूप में भारी जल या ग्रेफाइड का प्रयोग किया जाता है। मंदक रिएन्स्टर में न्यूट्रॉन की गति को धीमा करता है ।
(iii) रिएक्टर में नियत्रंक छड़ (Controller Rod) के रूप में कैडमियम या बोरान छड़ का उपयोग किया जाता है । इसकी सहायता से नाभिक के विखंडन के दौरान निकलने वाले तीन नए न्यूट्रॉन में से दो को अवशोषित कर लिया जाता है ।
◆ नाभिकीय रिएक्टर के उपयोग –
(i) इससे प्राप्त नाभिकीय ऊर्जा से विद्युत् ऊर्जा प्राप्त जा सकता है ।
(ii) रिएक्टर में अनेक प्रकार के समस्थानिक उत्पन्न किया जा सकता है। जिसका उपयोग चिकित्सा, विज्ञान, कृषि आदि में किया जा सकता है ।
◆ नाभिकीय संलयन (Nuclear Fusion) – जब दो या दो से अधिक हल्के नाभिक सयुंक्त होकर एक भारी नाभिक बनाते हैं तथा अत्यधिक ऊर्जा विमुक्त करते हैं, तो इस अभिक्रिया को नाभिकीय संलयन कहते हैं। एक नाभिकीय संलयन अभिक्रिया का उदाहरण है
1H2 + 1H3 + → 2He4 + 0n1 + 17.6 Mev
◆ सूर्य एवं तारों से प्राप्त ऊर्जा एवं प्रकाश का स्रोत नाभिकीय संलयन ही है ।
◆ नाभिकों की संलयित करने के लिए करीब 108 केल्विन के उच्च ताप तथा अत्यन्त उच्च दाब की आवश्यकता होती है ।
◆ हाइड्रोजन बम (Hydrogen Bomb) हाइड्रोजन बम का आविष्कार अमेरिकी वैज्ञानिकों ने 1952 ई० में किया । यह नाभिकीय संलयन (fusion) पर आधारित है। यह बम वम की अपेक्षा 1000 गुना अधिक शक्तिशाली होता है ।
21. ब्रह्मांड (Universe)
◆ पृथ्वी, को घेरने वाली अपार आकाश तथा उसमें उपस्थित सभी खगोलीय पिंड (जैसे— मंदाकिनी, तारें, ग्रह, उपग्रह आदि) एवं सम्पूर्ण ऊर्जा को समग्र रूप से ब्रह्मांड (Universe) कहते हैं । ब्रह्मांड से संबंधित अध्ययन को ब्रह्मांड विज्ञान (Cosmology) कहते हैं । ब्रह्मांड इतना विशाल है, जिसकी हम कल्पना नहीं कर सकते । इसके आकार की विशालता, इसमें तारों की संख्या, अपार दूरी तथा द्रव्यमान का अनुमान लगाना कठिन है । फिर भी, बड़े परिमाण की संख्याओं के सहारे इनका अनुमान लगाने की कोशिश की जाती है । खगोल वैज्ञानिकों के अनुसार ब्रह्मांड में सैकड़ों अरब (1011) मंदाकिनी हैं तथा प्रत्येक मंदाकिनी में लगभग एक सौ अरब (1011) तारें हैं । इस प्रकार तारों की कुल संख्या 1011 x 1011 = 1022 कोटि की होगी ।
◆ ब्रह्मांड की उत्पत्ति (Evolution of the universe) – ब्रह्मांड के प्रारंभ तथा इसके भविष्य के प्रश्न को लेकर अनेक सिद्धान्त व्यक्त किए गए हैं। उन सभी सिद्धान्तों में बिग बैंग सिद्धान्त (Big Bang Theory) को सर्वाधिक मान्यता प्राप्त हुई । यह सिद्धान्त उस समय प्रतिपादित किया गया जब खगोल विज्ञानियों ने विकसित टेलिस्कोप तथा अन्य वैज्ञानिक साधनों द्वारा प्रेक्षणों के आधार पर यह बतलाया कि हमारा ब्रह्मांड लगातार फैलता जा रहा है।
◆ बिग बैंग सिद्धान्त ( Big Bang Theory) — इस सिद्धान्त का स्पष्टीकरण बेल्जियम के खगोलज्ञ एवं पादरी जार्ज लेमेतेर ने दिया । इस सिद्धान्त के अनुसार अरबों साल पहले यह ब्रह्मांड धनीभूत अवस्था में था और एक बिन्दु के रूप में था इस बिन्दु को वैज्ञानिकों ने विलक्षणता का बिन्दु (Point of singularity) कहा है । इस बिन्दु में एक महाविस्फोट हुआ और इसका विस्तार होना शुरू हो गया । इस महाविस्फोट ने अति सघन पिंड (बिन्दु को छिन्न-भिन्न कर दिया और इस पिंड के टूटे हुए अंश अर्थात् फोटॉन तथा लेप्टोक्वार्क ग्लुऑन अंतरिक्ष में दूर-दूर तक छिटक गए और उसी से आकाशगंगाएँ बनीं जो अभी तक भाग रही हैं ।
इस सिद्धान्त के अनुसार बिग बैंग के तत्काल बाद एक सेकेण्ड के कई गुना छोटे भाग के समयांतराल में ब्रह्मांड परमाण्विक आकार से बढ़कर कॉस्मिक आकार में बदल गया । तदुपरांत ब्रह्मांड के प्रसार की गति थोड़ी धीमी हुई पर इसका ताप काफी समय तक अत्यधि क रहा । हमारा सौर मंडल भी 4.5 खरब वर्ष पूर्व बना है । पृथ्वी पर जीवन की शुरुआत लगभग 0.37 खराब वर्ष पूर्व हुआ ।
◆ हर्मन बांडी, थॉमस गोल्ड और फ्रेड हॉयल नाम के ब्रिटिश वैज्ञानिकों ने बिग बैंग सिद्धान्त को चुनौती दी । उन्होंने 1948 ई० में ब्रह्मांड की उत्पत्ति के एक नए सिद्धान्त को प्रस्तुत किया जिसे स्थायी अवस्था सिद्धान्त (Steady state theory) कहा जाता है ।
◆ स्थायी अवस्था सिद्धान्त (Steady State Theory) — इस सिद्धान्त के अनुसाद ब्रह्मांड का न तो महाविस्फोट के साथ आरंभ हुआ था न ही कभी इसका अंत होगा अर्थात् इस विशाल ब्रह्मांड का न आदि है और न अन्त । इस सिद्धान्त के अनुसार आकाशगंगाएँ आपस में दूर तो होती जाती हैं परंतु उनका आकाशीय घनत्व अपरिवर्तित रहता है यानी दूर होती आकश गंगाओं के बीच की खाली जगहों में नई आकाशगंगाएँ बनती रहती हैं। इसीलिए ब्रह्मांड का पदार्थ घनत्व की खाली जगहों में नई आकाशगंगाएँ बनती रहती हैं। इसीलिए ब्रह्मांड का पदार्थ घनत्व एक-दम स्थिर बना रहता है ।
◆ आज तक दिये गए सभी सिद्धान्तों में बिग बैंग सिद्धान्त को ही सबसे ज्यादा मान्यता प्राप्त हुई | बिग बैंग सिद्धान्त का प्रतिपादन निम्नांकित तीन अन्वेषणों पर आधारित है
(i) ब्रह्मांड का लगातार प्रसार (Continuous expansion of the universe)
(ii) ब्रह्मांड विद्युत् चुम्बकीय विकिरण से भरा है (Universe is filled with electromagnetic radiation)
(iii) ब्रह्मांड का अधिकाधिक द्रव्यमान रहस्यमय ढंग से हमारी दृष्टि से परे है । ( Most of the mass of Universe is mysteriously hidden from our view )
◆ ब्रह्मांड के प्रसार का सिद्धान्त, डॉप्लर प्रभाव पर प्राप्त प्रेक्षण जिसे अवरक्त विस्थापन (Red shift) कहा जाता है, पर आधारित है ।
◆ अवरक्त विस्थापन (Red shift) — यदि हम प्रकाश स्रोत की ओर चले तो प्रकाश तरंग की आवृति में आभासी वृद्धि होगी अर्थात् यह दृश्य प्रकाश के स्पेक्ट्रम के नीले वर्ण की ओर विस्थापित होगी । इसके विपरीत यदि प्रकाश स्रोत की दूरी हमसे बढ़ती जाए तो प्राप्त प्रकाश की आवृत्ति में आभासी हास होगा और यह आवृत्ति दृश्य स्पेक्ट्रम के लाल वर्ण की ओर विस्थापित होगी । इस प्रकार के विस्थापन को अवरक्त विस्थापन (Red shift) कहते हैं ।
◆ अवरक्त विस्थापन के आधार पर ही 1929 ई० कैलीफोर्निया स्थित माउंट विल्सन वेधशाला (Observatory) में कार्य करते हुए एडबिन हब्ब्ल ने ब्रह्मांड में होनेवाले प्रसार की पुष्टि की । अपने प्रेक्षणों के दौरान हब्बल ने पाया कि कुछ निकटतम मंदाकिनियों के वर्णक्रमों की अवशोषण रेखाएँ वर्णक्रम के लाल छोर की ओर खिसक रही हैं । अतः अपने प्रेक्षणों के क्रम में वे निम्नांकित दो निष्कर्षों पर पहुँचे –
(i) सभी मदाकिनी (Galaxy) हमसे दूर जा रहे हैं ।
(ii) कोई मंदाकिनी हमसे जितनी दूरी पर है वह उतनी ही तेजी से हमसे दूर जा रहा है । इस प्रकार मंदाकिनी का वेग (v) दूरी (d) के समानुपाती होगा, अर्थात् v ∝ d या, v = HD उपर्युक्त सूत्र को हब्बल का नियम कहते हैं । यहाँ H एक नियतांक है जिसे हब्बल नियतांक या हब्बल पैरामीटर (Hubble Parameter) कहा जाता है ।
नियतांक H का मात्रक kms-1/Mpc तथा इसका मान 67 kms-1/Mpc होता है ( Mpc – मेगा पारसेक) हब्बल पैरामीटर का मात्रक समय का व्युत्क्रम (inverse of time) होता है । अतः अवश्य ही समय का मात्रक होगा । इस प्रकार हम यदि समय को पीछे लेते जाएँ तो ब्रह्मांड की आयु का आकलन से 15 × 109 वर्ष आता है । प्राप्त प्रेक्षणों के आधार पर ब्रह्मांड की आयु 10 × 109 वर्ष से 19 x 109 वर्ष के बीच होती है ।
नोट : हब्बल के मंदाकिनियों के प्रतिसरण (Hecession) के नियम पर आइजक ऐसीमोव का कहना है कि हब्बल के निरूपण के अनुसार यदि दूरी के साथ प्रतिसरण की गति बढ़ती जाए तो 125 करोड़ प्रकाश वर्ष की दूरी पर मंदाकिनियाँ इस तेजी से प्रतिसरण करेंगी कि उन्हें देख पाना हमारे लिए संभव नहीं होगा ।
◆ मंदाकिनी (Galaxy)– मंदाकिनी अरबों तारों का एक विशाल निकाय है । तारे मंदाकिनियों के साथ बंधे रहते हैं इसके लिए चारों मौलिक बलों (गुरुत्वाकर्षण बल, बिद्युत् चुम्बकीय बल (Electron magnetic Force) प्रबल या दृढ़ बल (Strong force) और कमजोर बल (Weak froce) में गुरुत्वाकर्षण बल जिम्मेदार होता है। ब्रह्मांड में लगभग 100 अरब मंदाकिनियाँ (1011 मंदाकिनियाँ) हैं, और प्रत्येक मंदाकिनी में औसतन 100 अरब ( 1111 ) तारे होते हैं । यानी ब्रह्मांड में तारों की कुल संख्या लगभग 1022 है । प्रत्येक मंदाकिनी में । तारों के अतिरिक्त गैसें तथा धूल होती हैं। मंदाकिनी का 98% भाग तारों से तथा शेष 2% गैसों या धूल से बना है।
नोट : मंदाकिनरी की विशालता के कारण इसे प्रायद्वीप ब्रह्मांड कहा जाता है ।
◆ मंदाकिनी का वर्गीकरण (Classification of Galaxy)—मंदाकिनियों को प्रायः उनके आकृति के आधार पर तीन वर्गों में बाँटा गया है-
(i) सर्पिल (sprial)
(ii) दीर्घवृत्तीय (Elliptical) और
(iii) अनियमित (Irregular) । अब तक की ज्ञात मंदाकिनियों में 80% सर्पिल 17% दीर्घवृत्तीय तथा 3% अनियमित आकार वाली हैं ।
◆ हमारी मंदाकिनी- दुग्धमेखला (Milkyway) या आकाशगंगा और इसकी सबसे नजदीकी मंदाकिनी देवयानी (Andromeda) सर्पिल आकार वाली मंदाकिनी है। सर्पिल मंदाकिनियाँ दूसरी मंदाकिनियाँ से प्रायः काफी बड़ी होती हैं ।
◆ दुग्धमेखला (Our own galaxy The wiilkyeay) —हमारा सौरमंडल दुग्धमेखला (Milkyway) या आकाशगंगा नामक चंद्रविसे का सदस्य है। इसकी व्यास लगभग 100 प्रकाश वर्ष और यह मंथर गति से चक्कर काट रही है । दुग्धमेखला मंदाकिनी, अपने केन्द्र के चारों ओर धीरे-धीरे घूमती है और आरे इसके केन्द्र के चारों ओर धीरे-धीरे घूमते हैं । सूर्य भी (सौरमंडल सहित ) इसके चारों ओर घूर्णन करता है। इसे एक परिक्रमा पूरी करने में 250 मिलियन (250 करोड़) चर्ष लगता है। पृथ्वी पर लोग, दुग्ध मेखला मंदाकिनो का अभिमुख दृश्य (exilon view or side view ) देख पाते हैं, क्योंकि पृथ्वी स्वयं इस मंदाकिनी का हिस्सा है ।
◆ हमारी मंदाकिनी में तारे चपटी चक्रिकानुमा संरचना में अन्तर्विष्ट होते हैं जो अंतरिक्ष के अन्दर 105 प्रकाश वर्ष तक फैली होती है। तारों की चक्रिका केन्द्र पर काफी मोटी होती है जो मंदाकिनी के केन्द्र पर तारों के अपेक्षाकृत उच्च सांद्रण को दर्शाता है।
◆ हमारा सूर्य और उसके ग्रह, मंदाकिनी के केन्द्रीय भाग से लगभग 3 × 104 प्रकाश वर्ष को दूरी पर इस चक्रियनुमा संरचना के एक भाव पर स्थित है। अतः सूर्य दुग्धमेखला मंदाकिनी के केन्द्र से काफी दूर !
◆ यदि आकाश स्वच्छ है, तो दुग्धमेखला मंदाकिनी अंधेरी रात में उत्तर से दक्षिण आकाश को हल्का सफेद तारों की चौड़ी पट्टी के रूप में प्रतीत होती है, जो करोड़ों टिमटिमाते तारों से मिलकर बनी है । अंधेरी रात में पृथ्वी से देखने पर यह प्रकाश की बहती हुई नदी की तरह प्रतीत होती है, यह आकाश गंगा कहलाती है ।
तारामंडल (Constellation )
◆ तारामंडल – पृथ्वी से देखने पर तारों का कोई समूह किसी विशेष आकृति का आभास देता प्रतीत होता है । हमारे पूर्वजों ने ऐसे कई तारा समूहों में कुछ आकृतियों की कल्पना की और उनको विशिष्अ नाम दिए । तारों के किसी ऐसे समूह को तारामंडल कहते हैं । इन तारामंडलों का नामाकरण उनकी आकृति के आधार पर की गई है। प्रमुख तारामंडल हैं— वृहत् सप्तऋषि मंडल (Ursa major), लघु सप्तऋषि (Ursa iminor), मृग (Orion), सिग्नस (Cygnus), हाइड्रा (Hydra) आदि ।
◆ आकाश में कुल 89 तारामंडल हैं। इनमें से सबसे बड़ा तारामंडल सेन्टॉरस है, जिसमें 94 तारे हैं । हाइड्रा में कम से कम 68 तारे हैं ।
◆ वृहत् सप्तर्षि नामक तारामंडल में बहुत से तारे हैं जिसमें सात सर्वाधिक चमकदार तारे हैं जो आसानी से दिखाई देते हैं । इन तारों से बना तारामंडल सामान्यतया वृहत् सप्तर्षि या बिग डिपर कहलाता है ।
◆ लघु सप्तर्षि में भी अधिक चमक वाले सात प्रमुख तारे हैं। उत्तरी गोलार्द्ध में वृहत् सप्तर्षि एवं लघु सप्तर्षि तारामंडलों को प्रायः बंसत ऋतु में देखा जा सकता है ।
◆ मृग (Orion) तारामंडल को शीत ऋतु में देखा जा सकता है। मृग सर्वाधिक भव्य तारामंडलों में से एक है । इसमें सात चमकीले तारे हैं, जिनमें से चार किसी चतुर्भुज की आकृति बनाते प्रतीत होते हैं । इस चतुर्भुज के एक कोने पर सबसे विशाल तारों में एक बीटलगीज नाम का तारा स्थित है जबकि दूसरे विपरीत कोने पर रिगल नाम अन्य चमकदार तारा स्थित है । मृग के अन्य तीन प्रमुख तारे तारामंडल के मध्यमें एक सरल रेखा में अवस्थित है ।
तारे (Stars)
◆ तारे ऐसे खगोलीय पिंड हैं, जो लगातार प्रकाश एवं ऊष्मा उत्सर्जित करते हैं । अतः सूर्य भी एक तारा है। भार के अनुपात में तारों में 70% में लौह एवं अन्य भारी तत्व होते हैं । तारों को उनके भौतिक अभिलक्ष्णों जैसे आकार, रंग, चमक (दीप्ति) और ताप के वर्गीकृत किया जाता है । ” अनुसार
◆ तारे तीन रंग के होते हैं—(i) लाल (Red) (ii) सफेद (White) और (iii) नौला (Blue) 1 तारे का रंप पृष्ठ ताप द्वारा निर्धारित होता है। तारे, जिनका पृष्ठ ताप अपेक्षाकृत निम्न होता है, लाल रंग के होते हैं, उच्च पृष्ठ ताप वाले तारे सफेद होते हैं, जबकि वे तारे, जिनका पृष्ट ताप अत्यधिक उच्च होता है, रंग में नीले होते हैं
◆ प्रॉक्जिमा सैन्टॉर—यह सूर्य के बाद पृथ्वी के सबसे निकट का तारा है । पृथ्वी से इसकी दूरी 4.22 प्रकाश वर्ष है । ऐल्फा सैन्टॉरी पृथ्वी से 4.3 प्रकाश वर्ष की दूरी पर है ।
◆ सभी तारे (ध्रुवतारा को छोड़कर) रात्रि आकाश में पूर्व से पश्चिम की ओर चलते प्रतीत होते है, क्योंकि पृथ्वी स्वयं अपने धुरी पर पश्चिम से पूर्व की ओर घूर्णन करती है, तारे विपरीत दिशा में पूर्व से पश्चिम की ओर चलते हुए प्रतीत होते हैं। अतः आकाश में तारों की आभासी गति पृथ्वी के अपनी धूरी पर घूर्णन के कारण होती है। ध्रुव तारा उत्तरी ध्रुव के ठीक ऊपर स्थिर प्रतीत होता है और समय के साथ अपनी स्थिति नहीं बदलता है, क्योंकि यह पृथ्वी के घूर्णन की धुरी (अक्ष) पर स्थित होता है । ध्रुव तारा अर्सा माइनर या लिटिल बियर तारा समूह का सदस्य है।
तारों का जन्म एवं विकास (Birth and Evolution of a star)
◆ तारे के निर्माण का कच्चा माल मुख्यतः हाइड्रोजन एवं हीलियम गैस है । तारे का जीवन चक्र मंदाकिनियों में उपस्थित हाइड्रोजन और हीलियम गैसों के घने बादलों के रूप में एकत्रित होने के साथ आरंभ होता है ।
◆ आदि तारा का निर्माण (Formation of a Protostar)–तारे का जीवनचक्र आकाशगंगा में हाइड्रोजन तथा हीलियम गैस के संघनन से प्रारंभ होता है जो अन्ततः घने बादलों का रूप धारण कर लेते हैं । इन बादलों को ऊर्स्ट बादल (Ort clouds) कहा जाता है । इन बादलों का ताप-173°C होता है । जैसे-जैसे इन बादलों का आकार बढ़ता जाता है, गैसों के अणुओं के बीच गुरुत्वाकर्षण बल बढ़ता जाता है। जब बादलों का आकार काफी बड़ा हो जाता है. तब यह स्वयं के गुरुत्वाकर्षण बल के कारण सिकुड़ता चला जाता है । यह सिकुड़ता हुआ घना गैस पिंड आदि तारा (Protostar) कहलाता है। आदि तारा प्रकाश उत्सर्जित नहीं करता है ।
◆ आदि तारे से तारे का निर्माण (Formation of a star from protostar)— आदि तारा, अत्यधिक संघन गैसीय द्रव्यमान है जो विशाल गुरुत्वाकर्षण बल के कारण आगे भी संकुचित होता रहता है । ज्योंही आदि तारा आगे संकुचित होना आरंभ करता है, गैस के बाद में उपस्थित हाइड्रोजन परमाणु अधिक जल्दी-जल्दी परस्पर टकराते हैं । हाइड्रोजन परमाणु के ये टक्कर आदि तारे के ताप को अधिकाधिक बढ़ा देते हैं। आदि तारे के संकुचन की प्रक्रिया लाखों वर्षों तक चलती है जिसके दौरान आदि तारा में आन्तरिक ताप, आरंभ में मात्र – 17°C से लगभग 107°C तक बढ़ता है। इस अत्यधिक उच्च ताप पर, हाइड्रोजन की नाभिकीय संलयन अभिक्रियाएँ होने लगती हैं। इस प्रक्रिया में चार छोटे हाइड्रोजन नाभिक संलयित होकर बड़े हीलियम नाभिक बनाते हैं और ऊष्मा तथा प्रकाश के रूप में ऊर्जा की विशाल मात्रा उत्पन्न होती है । हाइड्रोजन के संलयन से हीलियम बनने के दौरान उत्पन्न ऊर्जा आदि तारा को चमक प्रदान करता है और वह तारा बन जाता है ।
◆ तारे के जीवन का अंतिम चरण (Final Stages of a Star’s life)—अपने जीवन के अन्तिम चरण के पहले भाग में, तारा लाल (रक्त) दानव प्रावस्था (Red giant phase) में प्रवेश करता है, इसके बाद उसका भविष्य उसके प्रारंभिक द्रव्यमान पर निर्भर करता है यहाँ दो स्थितियाँ उत्पन्न होती हैं—
(i) यदि तारे का प्रारंभिक द्रव्यमान सूर्य के द्रव्यमान के तुल्य होता है, तो रक्त दानव तारा अपने प्रसारित बाह्य आवरण को खो देता है और उसका क्रोड सिकुड़ करके श्वेत वामन तारा (White dwarf star) बनाता है जो अंततोगत्वा अंतरिक्ष में पदार्थ के सघन पिंड के रूप में नष्ट हो जाता है।
(ii) यदि तारे का प्रारंभिक द्रव्यमान, सूर्य के द्रव्यमान से काफी अधिक होता है, तो उससे बना रक्त दानव तारा, अधिनव तारे (Supernova star) के रूप में विस्फोट करता है, और इस विस्फोटित अधिनव तारे का क्रोड संकुचित होकर न्यूट्रॉन तारा (Neutron star) अथवा कृष्ण छिद्र (Black hole) बन जाता है ।
◆ रक्त-दानव प्रावस्था (Red-Gaint phase) आरंभ में तारों में मुख्यत: हाइड्रोजन होती है । समय बीतने के साथ, हाइड्रोजन केन्द्र से बाहर की ओर, हीलियम में परिवर्तित हो जाती है। अब, जब तारे के क्रोड में उपस्थित सम्पूर्ण हाइड्रोजन, हीलियम में परिवर्तित हो जायगी तो क्रोड में संलयन अभिक्रिया बंद हो जायगी । संलयन अभिक्रियाओं के बंद हो जाने के कारण, तारे का क्रोड के भीतर दाब कम हो जाएगा और क्रोड अपने निजी गुरुत्व के तहत संकुचित होने लगेगा। लेकिन तारे के बारही आवरण में कुछ हाइड्रोजन बची रहती है, जो संलयन अभिक्रिया कर ऊर्जा विमुक्त करती रहेगी ( परन्तु तीव्रता बहुत ही कम होगी) । इन सभी परिवर्तनों के कारण, तारे में समग्र संतुलन गड़बड़ हो जाता है और उसे ‘पुन: व्यवस्थित करने के उद्देश्य से, तारे को उसके बाहरी क्षेत्र में प्रसार करना पड़ता है, जबकि गुरुत्वाकर्षण बलों के प्रभाव के कारण उसके क्रोड सिकुड़ता है जबकि बाहरी आवरण में अत्यधि क प्रसार होता है । यह रक्त दानव तारा कहलाता है क्योंकि यह रंग में लाल और आकार में दानवाकार होता है । हमारा अपना तारा सूर्य, अब से लगभग 5000 मिलियन वर्षों के बाद रक्त दानव तारे में बदल जाएगा । सूर्य का प्रसारित बाहरी आवरण तब इतना बड़ा हो जाएगा कि यह आन्तर ग्रहों जैसे बुध, शुक्र एवं पृथ्वी को भी निगल जाएगा । तारा, रक्त- दानव प्रावस्था में अपेक्षाकृत थोड़े समय ही रहता है, क्योंकि इस अवस्था में यह नितान्त अस्थायी रहता है ।
◆ श्वेत वामन तारे का निर्माण (Formation of white dwarf star)– जैसा कि ऊपर बताया गया है कि तारा जब रक्त- दानव प्रावस्था में पहुँचता है, तो उसका भविष्य उसके द्रव्यमान पर निर्भर करता है । जब रक्त- दानव तारा का द्रव्यमान सूर्य के द्रव्यमान के तुल्य होता है तो वह अपना प्रसारित बाह्य आवरण खो देगा, केवल उसका क्रोड बचा रहेगा । यह हीलियम क्रोड गुरुत्वाकर्षण के कारण धीरे-धीरे द्रव्य के अत्यधि क संघन पिंड में संकुचित होगा। हीलियम क्रोड के इस अत्यधिक संकुचन के कारण क्रोड का ताप अत्यधि क बढ़ जाएगा. और संलयन अभिक्रियाओं का एक अन्य नाभिकीय सेट प्रारंभ हो जाएगा जिसमें हीलियम भारी तत्वों जैसे कार्बन में परिवर्तित होता है, और ऊर्जा की अत्यधिक विशाल मात्रा निर्मुक्त होगी। में परिवर्तित हो जाती है और तब पुनः संलयन अभिक्रियाएँ पूर्णतः रूक जाती हैं। अब म्योंहि तारे भीतर उत्पन्न हो रही ऊर्जा बंद हो जाती है, तारे का क्रोड उसके अपने भार के कारण सिकुड़ने लगता है और यह श्वेत- वामन तारा (White dwarf star) बन जाता है।
श्वेत- वामन एक मृत तारा है, क्योंकि यह संलयन प्रक्रिया द्वारा कोई नवीन ऊर्जा नहीं उत्पन्न करता है । श्वेत- वामन तारा, जब अपनी संचित सम्पूर्ण ऊर्जा खो देता है, तो वह चमकना बंद कर देगा। इसके बाद श्वेत- वामन तारा कृष्ण वामन (Black dwarf) हो जाएगा और अंतरिक्ष में पदार्थ के सघन पिंड के रूप में विलीन हो जाएगा । श्वेत-वामन तारे का घनत्व लगभग 10,000 kg/m 3 होता है । एक धुंधले श्वेत वामन तारे सीरियस (Serius) नामक चमकीले तारे के निकट देखा गया हैं ।
◆ अधिनव तारे तथा न्यूट्रॉन तारे का निर्माण (Formation of Supernova star and Neutron star) — यदि किसी तारे का द्रव्यमान सूर्य के द्रव्यमान से बहुत अधिक हो तो रक्त दानव प्रावस्था के क्रम में इसके हीलियम क्रोड के संकुचन से विमुक्त नाभिकीय ऊर्जा बाहरी आवरण में तेज दमक के साथ विस्फोट उत्पन्न कर देती है। यह विस्फोट आकाश को कई दिनों तक प्रकाशित करता है। ऐसा विस्फोटक तारा अधिनव (Supernova) तारा कहलाता है । सुपरनोवा विस्फोट के बाद भी इसके क्रांड का संकुचन होते रहता है और वह न्यूट्रॉन तारा बन जाता है। हमारी मंदाकिनी दुग्धमेखला में न्यूट्रॉन तारों की संख्या का अनुमान लगभंग 108 लगाया गया है, जिनमें से लगभग एक हजार ऐसे तारों को देखा गया है । 1 न्यूट्रॉन तारे का घनत्व नाभिकीय घनत्व की कोटि का (1017 kg/m2) होता है। न्यूट्रॉन तारों का द्रव्यमान सूर्य के द्रव्यमान का लगभग दो गुना तथा त्रिज्या लगभग 10 किमी० होती है। यह अदीप्त होता है तथा सीधे तौर पर नहीं देखा जा सकता है
◆ कृष्ण छिद्र (Black Hole)— न्यूट्रॉन तारे का भविष्य भी है । अनुमान के अनुसार भारी न्यूट्रॉन तारों का संकुचन अनिश्चित काल तक हो सकता हैं । इसी क्रम में जब m द्रव्यमान का एक न्यूट्रॉन तारा संकुचित होकर त्रिज्यां r= 2 Gm/C² ( जहाँ c, प्रकाश की चाल, तथा G, गुरुत्वाकर्षण नियतांक है) प्राप्त कर ले तब वह कृष्ण छिद्र (Black Hole) बन जाता है। सर्वप्रथम मिचेल (Mitchell) ने कृष्ण छिद्र के अस्तित्व की कल्पना की थी । कृष्ण छिद्र अपने पृष्ठ से किसी चीज का, यहाँ तक कि प्रकाश का भी पलायन नहीं होने देते हैं। कारण यह है कि कृष्ण छिद्रों में अत्यधिक आकर्षण बल होता हैं । कृष्ण छिद्रों से प्रकाश भी पलायन नहीं कर सकता है इसीलिए कृष्ण छिद्र अदृश्य होते हैं, वे देखे नहीं जा सकते हैं। इसकी उपस्थिति को, आकाश में उसके पड़ोसी पिंडों पर उसके गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र के प्रभाव द्वारा कंवल महसूस किया जा सकता है ।
विविध (Miscellaneous)
22. वैज्ञानिक उपकरण (Scientific Instruments)
1. अक्यूमुलेट (Accumulater) — इस उपकरण के द्वारा विद्युत् ऊर्जा का संग्रह किया जाता है, इस विद्युत् को आवश्यकता पड़ने पर काम में लिया जा सकता है ।
2. एयरोमीटर (Aerometer) — इस उपकरण का प्रयोग वायु एवं गैस का भार तथा घनत्व ज्ञात करने में होता है ।
3. अल्टीमीटर ( Altimeter) — इसका उपयोग उड़ते हुए विमान की ऊँचाई नापने के लिए किया जाता है ।
4. अमीटर (Ammeter) — इसका उपयोग विद्युत् धारा को मापने के लिए किया जाता है।
5. अनिमोमीटर (Anemometer) — यह उपकरण हवा की शक्ति तथा गति को मापता है।
6. ओडियोमीटर ( Audiometer) — यह उपकरण ध्वनि की तीव्रता मापने के काम में आता है।
7. ओडियोफोन (Audiophone) — इसका उपयोग लोग सुनने में सहायता के लिए कान में लगाने के लिए करते हैं ।
8. बेलिस्टिक गैल्वानोमीटर (Ballistic Galvanometer) — इसका उपयोग लघु धारा (माइक्रो एम्पियर) को नापने में करते हैं ।
9. बैरोग्राफ (Barographr) — इसके द्वारा वायुमण्डल के दाब में होने वाले परिवर्तन की मापा जाता है।
10. बैरोमीटर ( Barometer)- यह उपकरण वायु दाब मापने के काम में आता है।
11. बाइनोक्यूलर (Binocular)- यह उपकरण दूर की वस्तुएँ देखने के काम में आता है।
12. कैलीपर्स (Calipers)– इसके द्वारा बेलनाकार वस्तुओं के अन्दर तथा बाहर के व्यास मापे जाते हैं तथा इससे वस्तु की मोटाई भी मापी जाती है ।
13. कैलोरीमीटर (Calorimeter) — यह उपकरण ताँबे का बना होता है और ऊष्मा की मात्रा ज्ञात करने के काम में आता है ।
14. कारबुरेटर (Carburetter)—इस उपकरण का उपयोग अन्त: दहन पेट्रोल इंजनों में होता है । इस यंत्र से पेट्रोल तथा हवा का मिश्रण बनाया जाता है ।
15. कार्डियोग्राम (Cardiogram) — इसके द्वारा हृदय गति की जाँच की जाती है । इसको इलेक्टो कार्डियोग्राम भी कहते हैं ।
16. क्रोनोमीटर (Chronometer) — यह उपकरण जलयानों पर लगा होता है। इससे सही समय का पता लगता है ।
17. सिनेमाटोग्राफ (Cinematograph)– इस उपकरण को छोटी-छोटी फिल्म को बड़ा करके पर्दे पर लगातार क्रम में प्रक्षेपण (Projection) के लिए प्रयोग किया जाता है ।
18. कम्पास-बॉक्स ( Compass Box) — इस उपकरण के द्वारा किसी स्थान पर उत्तर-दक्षिण दिशा का ज्ञान होता है ।
19. कम्प्यूटर (Computer) — यह एक प्रकार की गणितीय यांत्रिक व्यवस्था है । इसका उपयोग गणितीय समस्याओं एवं गणनाओं को हल करने में होता है ।
20. साइक्लोट्रॉन (Cyclotron)इस उपकरण की सहायता से आवेशित कणों जैसे नाभिक कण प्रोटॉन, इलेक्ट्रॉन आदि को त्वरित किया जाता है ।
21. डेनिसिटीमीटर (Densitymeter) — इस उपकरण का प्रयोग घनत्व ज्ञात करने में किया जाता है ।
22. डिक्टाफोन (Dictaphone) — इसका उपयोग अपनी बात तथा आदेश दूसरे व्यक्ति को सुनाने के लिए रिकार्ड किया जाता है । यह प्राय: ऑफिसों में प्रयोग किया जाता है ।
23. नमनमापी – यह उपकरण किसी स्थान पर नमन कोण मापने के लिए प्रयोग किया जाता है।
24. डाइनेमीटर (Dynamometer) — इस यंत्र का प्रयोग इंजन द्वारा उत्पन्न की गई शक्ति को मापने में होता है ।
25. ऐपीडास्कोप (Epidiascope) — इसका प्रयोग चित्रों को पर्दे पर प्रेक्षपण (projection) के लिए किया जाता है ।
26. फैदोमीटर (Fathometer) — यह यंत्र समुद्र की गहराई नापने के काम आता है ।
27. गैल्वेनोमीटर (Galvanometer) — इस यंत्र का उपयोग छोटे विद्युत् परिपथों में विद्युत् ध रा की दिशा एवं मात्रा ज्ञत करने में किया जाता है ।
28. गाइगर मूल काउण्टर (Geiger-Muller Counter) — इस उपकरण की सहायता से रिडयो ऐक्टिव स्रोत के विकिरण की गणना की जाती है ।
29. ग्रेवीमीटर (Gravimeter) — इस यंत्र के द्वारा पानी की सतह पर तेल की उपस्थिति ज्ञज्ञत की जाती है ।
30. गाइरोस्कोप (Gyroscope) — इस यंत्र में घूमती हुई वस्तुओं की गति ज्ञात करते हैं।
31. हाइड्रोमीटर (Hydrometer) — इस उपकरण के द्वारा द्रवों का आपेक्षिक घनत्व ज्ञात करते हैं ।
32. हाइड्रोफ़ोन (Hydrophone) – यह पानी के अन्दर ध्वनि तरंगों की गणना करने में काम आने वाला उपकरण है ।
33. हाइग्रोमीटर (Hygrometer) — इसकी सहायता से वायुमण्डल से व्याप्त आर्द्रता नापी जाती है ।
34. स्क्रूगेज – इसका प्रयोग बारीक तारों के व्यास नापने के काम आता है ।
35. किलोस्कोप – टेलीविजन द्वारा प्राप्त चित्रों को इस उपकरण के ऊपर देखा जाता है.
36. कैलिडोस्कोप – इसके द्वारा रेखा – गणितीय आकृति भिन्न-भिन्न प्रकार की दिखाई देती है ।
37. लाइटिंग कन्डक्टर (Lighting Conductor) — यह उपकरण ऊँची इमारतों के ऊपर उनके ऊँचे भागों पर लगा दिया जाता है, जिससे बिजली का कोई प्रभाव नहीं पड़ता और इमारतें सुरक्षित रहती हैं ।
38. मैगाफोन – वह उपकरण है, जिसके द्वारा ध्वनि को दूर स्थान पर ले जाया जाता है ।
39. मेनोमीटर — गैस का दाब ज्ञज्ञत करने में इसकी मदद ली जाती है ।
40. माइक्रोमीटर – यह एक प्रकार का पैमाना है जिसकी सहायता से मिमी के हजारवें भाग को ज्ञात कर सकते हैं ।
41. माइक्रोस्कोप – यह छोटी वस्तुओं को आवर्धित करके बड़ा कर देता है; अतः जिन वस्तुओं को आँखों से नहीं देखा जा सकता, उन्हें इस उपकरण से देख सकते हैं ।
42. माइक्रोटोम– किसी वस्तुअ को बहुत छोटे-छोटे टुकड़ों में काटने में काम आता है, जिनका कि सूक्ष्म अध्ययन करना होता है ।
43. ओडोमीटर – पहिये वाली गाड़ी द्वारा चली दूरी नापने के काम आता है ।
44. ओसिलोग्राफ— विद्युतीय तथा यांत्रिक कम्पनों को ग्राफ पर चित्रित करने वाला उपकरण है।
45. पेरिस्कोप – पनडुब्बियों में उपयोग होने वाला ऐसा उपकरण जिसकी सहायता से पानी में डूबे हुए को पानी के ऊपर को दृश्य दिखाई पड़ सकता है ।
46. पोटेनशियोमीटर – यह विद्युत् – वाहक बलों की तुलना करने में, लघुप्रतिरोधों के मापन में तथा वोल्टमीटर व अमीटर के केलीब्रिशन में काम आता है ।
47. पायरोमीटर – दूर स्थित वस्तुओं के ताप की ज्ञात करने हेतु इस यंत्र का प्रयोग किया जाता है ।
48. फोनोग्राफ— ध्वनि – लेखन के काम आने वाले उपकरण को फोनोग्राफ कहते हैं ।
49. फोटामीटर – यह दो स्रोतों की प्रदीपन तीव्रता की तुलना करने में काम आता है ।
50. फोटो टेलीग्राफ— यह फोटोग्राफ एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचने वाला उपकरण है।
51. साइटोट्रोन — यह कृत्रिम मौसम उत्पन्न करने के काम आने वाला उपकरण है ।
52. रडार – यह यंत्र अन्तरिक्ष में आने-जाने वाले वायुयानों के संसूचन और उनकी स्थिति ज्ञात करने के काम आता है ।
53. रैनगेज – यह वर्षा नापने के काम में वाला उपकरण है ।
54. रेडियोमीटर – इस यंत्र का उपयोग विकिरण की माप करने के लिए किया जाता है ।
55. रेडियो टेलिस्कोप – यह एक ऐसा उपकरण है, जिसकी सहायता से दूर स्थान की घटनाओं को बेतार प्रणाली से दूसरे स्थान पर देखा जा सकता है ।
56. रिफरेक्ट्रोमीटर (Rifractrometer) — यह पारदर्शक माध्यमों का अपवर्तनांक ज्ञात करने “ला उपकरण होता है ।
57. 1सस्मोग्राफ – यह भूकम्प का पता लगाने वाला उपकरण है ।
58. सेफ्टी लैम्प (Safety Lamp) – यह प्रकाश के लिए खानों में उपयोग होने वाला उपकरण है। इसका सहायता से ख़ानों में होने वाले विस्फोट को बचाया जा सकता है ।
59. सेक्सटेण्ट — यह किसी ऊँचाई (मीनार आदि) को नापने में काम आने वाला उपकरण है।
60. स्ट्रोवोस्कोप – आवर्तित गति से घूमने वाली वस्तुओं की चाल को इस उपकरण की सहायता से ज्ञज्ञत करते हैं ।
61. स्पीडो मीटर – यह गति को प्रदर्शित करने वाला उपकरण है, जो कि कार, ट्रक आदि वाहनों में लगा रहता है ।
62. सबमेरीन—यह पानी के अन्दर चलने वाला छोटा जलयान है, जिसकी सहायता से समुद्र की सतह पर होने वाली हलचल का भी ज्ञान होता रहता है ।
63. स्फेरोमीटर – यह गोलीय तल की वक्रता की त्रिज्या ज्ञात करने के काम आता है ।
64. बिस्कोमीटर—यह द्रवों की श्यानता ज्ञात करने के काम आने वाला उपकरण I –
65. टेली फोटोग्राफी – इस उपकरण की सहायता से गतिशील वस्तु का चित्र दूसरे स्थान पर प्रदर्शित किया जा सकता है ।
66. टेलीप्रिन्टर – यह समाचार प्राप्त करने का उपकरण है । इसकी सहायता से स्वतः ही – समाचार टाइप होते रहते हैं ।
67. टेलेक्स – इसके अन्तर्गत दो स्थानों के मध्य समाचारों का सीधा आदान-प्रदान होता है ।
68. टेलिस्कोप–इस उपकरण की सहायता से दूर की वस्तुओं को स्पष्ट देखा जा सकता है ।
69. टेलस्टार – यह, अन्तरिक्ष में स्थित ऐसा उपकरण है, जिसकी सहायता से महाद्वीपों के आर-पार टेलीविजन तथा बेतार प्रसारण भेजे जाते हैं, इस उपकरण को अमेरिका ने अन्तरिक्ष में स्थापित किया है ।
70. थर्मोटर – इसके प्रयोग से किसी वस्तु का ताप एक निश्चित बिन्दु तक बनाये रखा जाता है ।
71. थियोडोलाइट — यह अनुप्रस्थ तथा लम्बवत् कोणों की माप ज्ञात करने के काम आने वाला उपकरण है।
72. एक्टिओमीटर (Actiometer) —सूर्य किरणों की तीव्रता का निर्धारण करने वाला उपकरण है।
73. होबरक्राफ्ट (Hovercraft)- एक वाहन जो वायु की मोटी गद्दी (cushion ) पर चलता है, यह साधारण भूमि, दलदली, बर्फीले मैदानों, रेगिस्तानों पर तीव्र गति से भाग सकता है। इस वाहन का भूमि से सम्पर्क नहीं रहता।
74. टैकोमीटर (Tachometer) — यह वायुयानों तथा मोटर नाव की गति को गति को नापने वाला उपकरण है ।
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