भारतीय सांस्कृतिक पर्व – दीपावली
भारतीय सांस्कृतिक पर्व – दीपावली
संघर्षमय संसार की कटु-स्मृतियों को क्षण भर को भुला देने के लिये मानव इतस्ततः मृगमरीचिका में भटकता है। सुख और शान्ति की पिपासा को शान्त करने के लिए उसने नये-नये आयोजन किये। जीवन के कण्टकाकीर्ण मार्गों को सुगम और सरल बनाने के लिये उसने नये आविष्कार किये। जीवन के उत्पीड़न, शोक, चिन्ता और दुःख को भुलाकर मानव मुस्करा सके और एक साथ बैठकर हँस सके और गा सके, इन्हीं सब प्रवृत्तियों ने मिलकर हमारे त्यौहारों को जन्म दिया, उनमें से दीपावली भी एक है। यह शरद्काल का प्रधान त्यौहार है । इसके अतिरिक्त इन त्यौहारों: के अपने-अपने ऐतिहासिक और सामाजिक महत्त्व भी हैं। वर्ण-व्यवस्था की दृष्टि से दीपावली वैश्यों का, रक्षाबन्धन ब्राह्मणों का, दशहरा क्षत्रियों का और होली शूद्रों का प्रधान पर्व माना जाता है।
दीपावली के पर्व के साथ हमारी अनेक ऐतिहासिक तथा धार्मिक परम्पराएँ जुड़ी हुई हैं। रामचन्द्रजी चौदह वर्ष के वनवास के के पश्चात् अत्याचारी एवं दुराचारी रावण का वध करके सहोदर लक्ष्मण तथा पुनीत प्रिया मैथिली के साथ जब अयोध्या लौटे तो साकेतवासियों की प्रसन्नता की सीमा न रही । गद्गद् हृदय से उन्होंने राम का स्वागत किया तथा उस दिन उन्होंने खूब खुशियाँ मनायीं । घर-घर में पूड़ी और पकवान बने, रात्रि को अयोध्या में दीपावली की गई। तभी से राम के अयोध्या लौटने एवं रामराज्य के प्रारम्भ होने की तथा पाप के ऊपर पुण्य की विजय की पुनीत स्मृति में यह उत्सव भारत में प्रति वर्ष मनाया जाने लगा। श्रीकृष्ण द्वारा नरकासुर के वध के दूसरे दिन दीपावली मनाई जाती है। नरकासुर भी एक लोक प्रपीड़क, नृशंस राक्षस था। उसके वध से भी जनता में अपार प्रसन्नता फैली। इसी दिन श्रीकृष्ण ने इन्द्र के कोप से डूबते हुए ब्रजवासियों की गोवर्धन पर्वत को धारण करके रक्षा की थी। राजा बलि की दानशीलता देखकर देवलोक कम्पित हो उठा और देवताओं ने राजा बलि की परीक्षा के लिए भगवान् विष्णु से प्रार्थना की। राजा बलि की परीक्षा लेने के लिये भगवान् गए और तीन पग वसुधा की याचना की और तीन पग में ही तीनों लोक नाप लिए । वामनावतार विष्णु ने बलि के भूदान से प्रसन्न होकर यह बरदान दिया कि भूलोकवासी उसकी स्मृति में दीपावली का पवित्र उत्सव मनाया करेंगे। असुरों का वध करने के पश्चात् भी जब महामाया दुर्गा का क्रोध शान्त न हुआ और संसार का संहार करने के लिए उद्यत हो गई तब समस्त संसार में हाहाकार मच गया। संसार की रक्षा के लिए शंकर स्वयं उसके चरणों में जाकर लेट गए। क्रोधोन्मत्त महामाया इनके वक्षस्थल पर सवार हो गई। शिव के तपोमय शरीर के स्पर्शमात्र से ही महाकाली का क्रोध शान्त हो गया और संसार संहार से बच गया। जनश्रुति है कि इसी प्रसन्नता में दीपावली का उत्सव मनाया जाता है ।
दीपावली के इन धार्मिक महत्त्वों के अतिरिक्त कुछ ऐतिहासिक महापुरुषों की जन्म-मरण की तिथियाँ भी इस पर्व से सम्बन्धित हैं। स्वामी शंकराचार्य का निर्जीव शरीर जब चिता पर दिया गया तब सहसा उनके शरीर में इसी दिन पुनः प्राण संचार हुआ। रोती हुई आँखें फिर हँसने लगीं, घर-घर खुशियाँ मनाई जाने लगीं। जैन मतावलम्बी भी दीपावली को २४वें तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी का निर्वाण दिवस मानकर मनाते हैं। आर्य समाज के प्रवर्तक स्वामी दयानन्द का निर्वाण भी आज के ही दिन हुआ था तथा स्वामी रामतीर्थ की जन्म एवं निधन तिथि भी दीपावली है। अतः भारतीय आज के ही दिन महापुरुषों को अपनी श्रद्धांजली अर्पित करते हैं ।
इन धार्मिक तथा ऐतिहासिक कारणों के अतिरिक्त इसका एक प्रमुख सामाजिक कारण भी है। भारतवर्ष कृषि प्रधान देश है, इसलिए होली और दीपावली जैसे बड़े त्यौहार तभी मनाये जाते थे, जबकि खेतों में फैला हुआ किसानों का धन घर आ जाता था । जब रबी की फसल तैयार हो जाती तब होली मनाई जाती थी और जब खरीफ की फसल तैयार हो जाती तब दीपावली का उत्सव मनाया जाता था। खेतों में फसल कटकर जब घर आ जाती तब किसान फूला नहीं समाता और अपने हृदय के आह्लाद को अगणित दीप जलाकर प्रकट करता है, सूखी रोटियों के स्थान पर उस दिन वह पूड़ी खाता तथा अपने इष्टदेव की पूजा करता है। गृह-लक्ष्मियाँ थाल भरे दीपों को अपने यहाँ जलातीं और अपने पड़ौस में भी जलाती हैं।
दीपावली के उत्सव का दूसरा कारण हमारे स्वास्थ्य के नियमों से सम्बन्धित है। वर्षा ऋतु में हमारे घर सील जाते हैं, चारों ओर गन्दगी फैल जाती है। स्वास्थ्य के भयंकर शत्रु मक्खी और मच्छर पैदा हो जाते हैं, वर्षा की समाप्ति पर हम अपने घरों को साफ करते हैं, पुताई करवाते हैं और तरह-तरह से सजाते हैं। रात्रि को इतनी अधिक संख्या में दीपक जलाने का मुख्य कारण यह भी है कि छोटे-छोटे उड़ने वाले कीटाणु भी शिखा पर आकर्षित होकर अपने प्राणों को दे दें, जिससे उनके द्वारा होने वाले रोग कुछ समय के लिए टल जायें ।
दीपावली के दिन व्यापारी लक्ष्मी की पूजा करते हैं। उनका विश्वास है कि आज हमारे यहाँ लक्ष्मी जी आयेंगी। पुराने बही-खाते बदल दिये जाते हैं और नये प्रारम्भ किये जाते हैं। दीपावली से ही व्यापारी वर्ग का नया वर्ष प्रारम्भ होता है। इसका यही कारण है कि वर्षा के दिनों में व्यापारियों का व्यापार कुछ ठण्डा पड़ जाता है और जैसे ही वर्षा ऋतु समाप्त होती है व्यापार बढ़ने लगता है, तभी व्यापारी यह आशा करते हैं कि हमारे यहाँ लक्ष्मी आयेगी।
दीपावली आने से कई दिन पूर्व से ही लोग अपने-अपने घरों व दुकानों को साफ करना और सजाना शुरू कर देते हैं। लिपाई और पुताई के बाद साधारण घर भी अपनी युवावस्था में आकर मुस्कराने लगते हैं। दरवाजों, खिडकियों, रोशनदानों पर तरह-तरह के रंग-रोगन किये जाते हैं। नये बर्तन खरीदने को आज के दिन गृह लक्ष्मियाँ मचल उठती हैं। नये कपड़े सीते-सीते दर्जियों को फुरसत कहाँ कि किसी से एक मिनट बात भी कर लें।
आज के दिन सुबह से ही बाजारों में एक विचित्र शोभा होती है। हलवाई अपने मिठाई के से थालों को सजाकर बाहर नुमाइश-सी लगा देते हैं। तस्वीरों की दुकानों पर बच्चों की भीड़ हटायें नहीं हटती, खील और खांड के खिलौने वालों के यहाँ भीड़ लगी रहती है। मिट्टी के खिलौने वालों की दुकानें एक अनोखी शोभा दिखलाती हैं। कहीं गुजरी और गुड्डे बिक रहें, तो कहीं लक्ष्मी और गणेश ।
दीपावली का वास्तविक आनन्द संध्या के घनीभूत अन्धकार में, जबकि चारों और अनन्त दीपों से पक्तियाँ अपने प्रकाश में जगमगा उठती हैं, आता है। आज के विज्ञान ने यद्यपि प्रकाश के अनेक अद्भुत साधन समाज को प्रदान किये हैं परन्तु सरसों के तेल भरे दीपों के पंक्तिबद्ध प्रकाश में जो शान्ति और सौन्दर्य है वह नेत्रदाही बल्वों में कहाँ ? रात्रि को अपने-अपने घरों में रोशनी करने के बाद लोग अपने-अपने बच्चों को लेकर बाजारों की रोशनी देखने जाते हैं। बाजारों में मिठाई और खिलौनों की दुकानों पर खरीदारों की भीड़ लगी रहती है। रंग-बिरंगे बिजली के बल्बों से बाजार जगमगा उठता है। पहले तो आज के दिन लोग नफीरी और नगाड़े बजाया करते थे, बड़े-बड़े धनी व्यापारी पंडितों से गोपाल सहस्र नाम का पाठ कराते थे और स्वयं भी रात्रि जागरण करते थे, परन्तु आजकल इन सबका स्थान माइक, ग्रामोफोन और रेडियो ने ले लिया है । बाजारों मे इतना कोलाहल होता है कि कुछ सुनाई नहीं पड़ता । मुहल्लों में, गलियों में बच्चे आतिशबाजी. छोड़ते हैं, फुलझड़ियों की चमक और पटाखों के शोर से एक अनोखा दृश्य उपस्थित हो जाता है ।
बाजार की शोभा देखकर, घर लौटकर लोग अपने-अपने घरों में लक्ष्मी पूजा करते हैं, पाक-पकवान खाते हैं और इसके पश्चात् अपने-अपने भाग्य की परीक्षा करने के लिये कि यह वर्ष हमारा कैसा रहेगा, जुआ खेलने में लग जाते हैं। प्रत्येक वस्तु के अच्छे और बुरे दो रूप होते हैं, जहाँ दीपावली आनन्द का उत्सव है, वहाँ विनाश का दिन भी है। आतिशबाजी आनन्द और उल्लास में छोड़ी जाती है, परन्तु कभी-कभी देखा गया है कि इन छोटी फुलझड़ियों की चिनगारियाँ बड़े-बड़े भवनों को भस्मीभूत कर देती हैं, कितनी ही माताओं के लाल सदा के लिये सो जाते हैं। जुआ खेलने की भी बुरी लत है। दीपावली के बहाने से नगरों में महीनों तक जुआ होता रहता है और अपने-अपने परिश्रम से कमाए हुए धन को लोग जुए में गँवाते हैं और जब यह आदत अपना विशाल रूप धारण कर लेती है, तब घर का सत्यानाश हुए बिना नहीं रहता । जुआरी को तो जुआ खेलने को पैसे चाहिएँ । चाहे स्त्री के गहने बिकें या घर गिरवी रक्खा जाए।
जब आज का सभ्य व्यक्ति दीपावली के दिन जुआ खेलना अपना धर्म समझता है तब फिर बताइये चोर पीछे कैसे रह जायेंगे ? वे भी अपने भाग्य परीक्षण के लिये कार्तिकी अमावस्या की अन्धकारमयी रजनी में घात लगाने निकलते हैं। उनका भी विश्वास है कि अगर आज के दिन अच्छा माल हाथ लगा तो पूरे वर्ष उन्हें सफलता मिलती रहेगी। इधर जनता का विश्वास है कि यदि आज के दिन रात-भर घर के दरवाजे खुले रहें तभी लक्ष्मी आयेगी, और बन्द कर दिये तो शायद लक्ष्मी लौट न जाए। फिर क्या है चोरों को मौका मिलता है, लक्ष्मी आती तो नहीं, बल्कि निकल जाती है। बस इसलिए यह आवश्यक है कि अपनी और अपने देश की समृद्धि के लिये हम पुरातन अन्ध विश्वासों को छोड़ दें और दीपावली के राष्ट्रीय पर्व को कुत्सित और घृणापूर्ण न बनायें ।
आइये, हम दीपावली के पुनीत अवसर पर अपने समस्त दूषित कार्यों का परित्याग कर दीपावली से प्रेरणा लेकर अपने शुभ कर्मों से संसार को आलोकित करें ।
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