पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं (पराधीनता)

पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं (पराधीनता)

          भक्त शिरोमणि गोस्वामी तुलसी को यह सूक्ति बड़ी ही सारगर्भित और भावप्रद है –
‘पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं ।’ 
          अर्थात् पराधीन व्यक्ति को स्वप्न में भी सुख प्राप्त नहीं होता है। पराधीनता अर्थात् परतंत्रता वास्तव में कष्ट और विपदा को उत्पन्न करने वाली होती है। पराधीनता का अर्थ ही है- पर + अधीनता; अर्थात् दूसरे के अधीन वश, में रहना ही पराधीनता है।
          पराधीनता के स्वरूप पर विचारने से हम यह सोच सकते हैं कि दूसरे के वश में या अधिकार में रहने वाले व्यक्ति का जीवन किस प्रकार से सुखी रह सकता है। वह न तो अपने कोई इच्छा रखते हुए कार्य कर सकता है और न इसकी कोई आशा ही रख सकता है; क्योंकि लगातार गुलामी की बेड़ी में जकड़ा होने के कारण वह अपनी भावनाओं को जीवित नहीं रख सकता है। इसलिए पराधीन व्यक्ति को आत्मा से मरा हुआ व्यक्ति समझा जाता है। जिस प्राणी की आत्मा ही नहीं है, वह फिर क्या कोई इच्छा या भावना रखकर कोई कार्य कर सकता है अर्थात् नहीं।
          सुप्रसिद्ध फ्रांसीसी विद्वान रूसी ने एक बार कहा था- ‘मानव स्वतंत्र जन्मा है, किन्तु वह प्रत्येक जगह बंधनों में बँधा हुआ है।’ इस उक्ति पर विचार करने पर हम यह देखते हैं कि मनुष्य सचमुच में स्वतंत्र रूप से तो इस धरती पर आया है, लेकिन वह सांसारिक बंधनों से पूरी तरह से बँधा हुआ है। पराधीनता एक प्रकार की अज्ञानता ही तो है, जो सभी प्रकार आपदाओं और कष्टों की जननी होती है। पराधीनता के फलस्वरूप व्यक्ति निरा पशु बन जाता है। वह एक यन्त्र चालित के समान कार्य करता है। वह अंग्रेजी की इस उक्ति को चरितार्थ पूरी तरह से करता है –
“Their’s not reason why
But to do and Die.”
          अर्थात् एक पराधीन व्यक्ति अपने स्वामी और ईश्वर से कभी यह प्रश्न नहीं करता है कि ‘उसे वह क्यों ऐसा आदेश दे रहा है बल्कि वह इस आदेश का पालन अपने प्राणों की बाजी लगा करके करता है, क्योंकि उसे या तो करना है या मरना है I
          पराधीनता से न केवल व्यक्ति का अपितु समाज और राष्ट्र का पूरा पतन होता है। इसे हम अपने देश की पराधीनता के इतिहास को देखकर समझ सकते हैं। हमारा देश कई शताब्दियों तक लगातार पराधीन रहा है, जिससे हम न केवल व्यक्तिगत रूप से पिछड़े रहे हैं, अपितु सामाजिक और राष्ट्रीय स्तर पर भी हमारा पतन होता रहा है। हम चाहे मुगलों के पराधीन रहे हों चाहे अंग्रेजों के प्रत्येक दशा में हम अपनी संस्कृति और सभ्यता को भूलते हुए अपने आदर्शों को खोते रहे हैं। देश के पराधीन होने का ही यह परिणाम है कि आज हम विदेशी सभ्यता और संस्कृति से बुरी तरह दुष्प्रभावित हो चुके हैं। आज हम स्वाधीन होकर भी अपनी सभ्यता और संस्कृति को भूल चुके हैं। आज हम अपने राष्ट्र में रहकर भी अपने राष्ट्र से कोसों दूर हैं, क्योंकि हमारा तन-मन पराधीनता से जकड़ चुका है। हम आजादी या स्वाधीनता का पूरा और सही अर्थ न समझ सकने के कारण आज भी गुलामी की मानसिकता लिए हुए स्वाधीन होने का झूठा गर्व और अनुभव करते हैं। आज हमारी यह स्थिति है कि हम स्वाधीनता का अर्थ ही गलत समझ रहे हैं । आज हम स्वाधीनता का अर्थ परम स्वतन्त्रता से लगा करके चारों ओर से अपनी उदण्डता का परिचय दे रहे हैं ।
          तोड़-फोड़, लूटमार, हाय-हत्या, डकैती, चोरी, कालाबाजारी, अनाचार, दुराचार, व्यभिचार आदि न जाने कितने प्रकार के अनैतिक कार्यों को बेहिचके अपनाते हुए अपनी अमानवता का परिचय दे-देकर हम समाज और राष्ट्र को पथ-भ्रष्ट किया करते हैं । इस प्रकार से हम पराधीनता के स्वरूप और प्रभाव को देख और समझ रहे हैं। स्वाधीनता का महत्त्व तभी है, जब पराधीनता का स्वरूप प्रकट नहीं होता है। यही कारण है आज हम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के अमर सेनानियों के प्रति अपनी श्रद्धांजली बार-बार अर्पित करते हैं ।
          अन्ततः हम महाकवि गोस्वामी तुलसीदास की इस काव्य पंक्ति का समर्थन करते हुए कह सकते हैं कि पराधीनता से स्वप्न में भी सुख प्राप्त नहीं हो सकता है। इसे कोई भी अपने मन में सोच-विचार कर सकता है।
‘पराधीन सुख सपनेहुँ नाहीं । 
सोच विचार देखि मन माहीं।।’
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