निर्वाचन स्थल का आँखों देखा दृश्य
निर्वाचन स्थल का आँखों देखा दृश्य
प्रजातन्त्र शासन प्रणाली में जनता को अनेक प्रकार के राजनीतिक अधिकार प्रदान किये जाते हैं, उनमें निर्वाचन का अधिकार भी एक प्रमुख अधिकार है । प्रजातन्त्र शासन में सरकार की सर्वोच्च सत्ता जनता में निहित रहती है। प्रत्येक वयस्क को मताधिकार होता है। वह अपनी भावना और विचारों के अनुरूप अपना मत देकर अपने प्रतिनिधि को चुनता है। वे प्रतिनिधि संसद में और विधान सभाओं में जनता के विचारों का प्रतिनिधित्व करते हैं। मताधिकार और निर्वाचन से ही लोकतन्त्र शासन-प्रणाली का अस्तित्व है। इससे जनता अपनी मनोनुकूल सरकार बना सकती है तथा उसके कार्य से असन्तुष्ट होने पर उसे हटा भी सकती है।
आम चुनाव होने वाले थे। तारीख निश्चित हो चुकी थी। प्रत्येक पार्टी अपने-अपने उम्मीदवार की विजय के लिए निरन्तर प्रयत्नशील थी । झूठे-सच्चे प्रलोभन दिखाकर जनता को फांसा जा रहा उपसंहार । था। कोई कहता था कि मैं ऊपर जाकर किसानों के कर हटवा दूँगा, कोई कहता था कि मैं बिक्री कर कम कराऊँगा, कोई कहता था कि मैं भारतवर्ष की गरीबी को दूर कर गरीबों और अमीरों दोनों को एक आसन पर बैठाने का प्रयत्न करूंगा, कोई कहता था कि मैं भारत को इसका पुराना स्वर्णिम काल, इसका पुराना वैभव, इसकी पुरातन शक्ति और संगठन पुनः प्राप्त कराने का प्रयत्न करूँगा 1. कोई-कोई अपने पुराने त्याग और बलिदान की कहानी सुनाकर पुराने तपे हुये नेताओं के नाम पर ही वोट माँगता । अजीब दृश्य था। जनता को नित्य नई-नई तस्वीरें दिखायी जाती थीं। जनता हैरान थी कि किसकी बात मानी जाये और किसकी न मानी जाये । जो बहुत पुराने आदमी थे, वे गाँधी बाबा का गुण गाते थे । जो नये थे और जिन्होंने केवल शहर देखा भर था, ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं थे, वे केवल पंचायती पुस्तकालयों में कभी-कभी अखबार की मोटी सुर्खियों पर नजर डाल लिया करते थे, वे बिना पढ़े लिखों पर तर्क-वितर्क से अपना रोब गाँठते थे, और अपने पक्ष में वोट डालने की जब तक हाँ न करा लेते तब तक उन बेचारे निरक्षरों का पिंड न छोड़ते। गाँव बड़ा था और शहर के पास ही था इसलिये कुछ पढ़े-लिखे और संजीदा आदमी भी गाँव में थे । वे भी शाम के समय चौपालों पर बैठकर अपने सैद्धान्तिक प्रवचन करते । शहर में जब कोई नेता जिस पार्टी का आता, बस हमारे गाँव में अवश्य आता । भगवे झण्डों, लाल झण्डों और तिरंगें झण्डों की चारों ओर धूम मच रही थी । अपनी-अपनी दुकानों और मकानों पर लोगों ने झण्डे लगा रक्खे थे, जो उनकी अभिरुचि के प्रतीक थे । मक्खियों ने उन पर बैठ-बैठकर उनका रंग अवश्य भद्दा कर दिया था पर उन्हें देखकर मतदाता से यह पूछने की आवश्यकता न होती थी कि तुम किसे वोट दोगे ? पुरुषों की भाँति महिलाओं में भी एक नई जागृति दिखाई पड़ रही थी । भिन्न-भिन्न पार्टियों की स्वयं सेविकाएँ घरों में जातीं और अपने पक्ष में वोट डालने के लिये गृह-स्वामिनियों से प्रार्थना करतीं । तरह-तरह के झण्डे लेकर बच्चों की टोलियाँ गलियों में नारे लगाती हुई घूमती थीं । कोई हाथी वाले को वोट डालने को कहता, कोई शेर वाले को, कोई साइकिल को, कोई दीपक को तो कोई सूरज को ।
प्रचार कार्यों से जनता ऊब चुकी थी । माइक की आवाज से उनके कान बहरे हो चुके थे। दूध और दही की नदियों के स्वप्न देखते-देखते लोग थक चुके थे । सब चाहते थे कि निर्वाचन का दिन जल्दी से आ जाये । पार्टियों में भी तोड़-फोड़ अपनी सीमा पार करती जा रही थी । कल जिसके जीतने की आशा थी, आज उसे अपनी पराजय के लक्षण दिखाई पड़ने लगे और जो कल रात तक अपने को हारा हुआ समझे बैठा था, राजनीति ने ऐसा पलटा खाया कि आज उसे सोलह आने जीतने की आशा होने लगी। चौपालों पर, खलिहानों में, दुकानों पर, घरों के चबूतरों पर, मोटरों के अड्डे पर, यहाँ तक कि पनघटों पर भी वोट की ही चर्चा हो रही थी। जहाँ भी चार आदमी इकट्ठे खड़े हो जाते वहाँ यही चर्चा होती कि वह जीता और वह जीता । सहसा वह दिन भी आ गया जिस दिन प्रत्येक नागरिक अपने देश से भाग्य-विधाता को चुनने के लिये उत्सुक था । चुनाव से एक दिन पहले ही पुलिस का एक छोटा दस्ता गाँव में आ चुका था। चुनाव स्थल की रक्षा तथा जनता में व्यवस्था और अनुशासन का भार पुलिस पर था, क्योंकि पिछले चुनाव में हमारे ही गाँव में निर्वाचन स्थल पर खूब लाठी चली थी, लोगों के सिर फटे थे। सारे गाँव में डोंडी पिटवा दी गई कि कल कोई भी माइक का प्रयोग नहीं कर सकता तथा झण्डे इत्यादि लेकर जुलूस नहीं निकाल सकता। हमारे गाँव का मालवीय इण्टर कॉलिज ही निर्वाचन स्थल था। एक दिन पहले ही शाम को चुनाव अधिकारी भी गाँव में आ गये थे। उनमें शहर के गवर्नमेंट कॉलिज के प्रिंसिपल प्रिजाइडिंग ऑफीसर थे, उनके साथ चार-पाँच पोलिंग ऑफीसर थे, जो भिन्न-भिन्न विभागों के सरकारी कर्मचारी थे। उनके पास कुछ सामान भी था, कुछ लोहे के डिब्बे थे जिनमें हम अपना वोट डालते हैं, जिन्हें बैलटबॉक्स कहा जाता है। प्रिजाइडिंग ऑफीसर ने निर्वाचन स्थल का निरीक्षण किया, जहाँ पहले से ही बूथ बने हुए थे। सुबह होते ही गाँव में नई चहल-पहल नजर आने लगी। दूसरे गाँव के दूकानदारों ने भी रातों-रात अपनी दुकानें लगाकर और सजाकर तैयार करली थीं। चारों ओर सफाई और स्वच्छता नजर आती थी। आज गाँव वालों ने अपने खेतों और खलिहानों के काम बन्द कर दिये थे | वे सुबह ही नहा-धोकर अपनी-अपनी मूँछों को ऐंठते हुये अपनी-अपनी पार्टी में जा मिले थे। स्त्रियाँ भी घरों में वोट डालने की उत्सुकता में, जल्दी-जल्दी काम-धाम कर रही थीं। तरह-तरह के खोमचे वालों की आवाजों से गाँव में एक गूंज फैल रही थी। शहर के पास होने के कारण, दस-बीस रिक्शे वाले भी गाँव में नजर आ रहे थे । धुले और प्रेस किए कोट पैन्टों में, कुछ नई शक्लें आज गाँव में नजर आ रही थीं, ये थे निर्वाचन में विशेष रुचि रखने वाले शहर के कुछ राजनैतिक ठेकेदार । निर्वाचन स्थल से सौ गज की दूरी पर यानि कॉलिज के गेट के बाहर सभी पार्टियों ने अपने-अपने शामियाने लगा रक्खे थे, चाँदनियाँ बिछी थीं, कुछ लोग कुर्सियों पर बैठे थे और कुछ चाँदनियों पर । जो लोग चाँदनी पर थे उनके आगे लम्बी-लम्बी लिस्टें खुली थीं, जिनमें मतदाताओं के नाम थे।
प्रातः आठ बजे से मतदान प्रारम्भ होने वाला था । अभी थोड़ा-सा समय बाकी था, गाँव के चारों ओर की सड़कें भरी चली आ रही थीं। लोगों में उत्साह था, उमंगें थीं अपने प्रतिनिधि को जिताने की । आस-पास के आठ-दस गाँवों के वोट इसी मतदान केन्द्र पर पड़ने थे, इसलिये देखते ही देखते गाँव में एक विशाल जन समूह इकट्ठा हो गया । तरह-तरह की पोशाकें और तरह-तरह की मुखाकृतियाँ। कोई सिर पर पगड़ी बाँधे था तो कोई साफा, कोई टोपी पहने था तो किसी ने सर पर कपड़ा ही रख रक्खा था। नई रोशनी के नवयुवकों के सिरों में सीमा से अधिक तेल चमक रहा था ! किसी की माँग टेढ़ी थी, तो किसी की सीधी । कुछ ऐसे भी थे जिन्हें देखकर यह मालूम पड़ता था, ये साबुन से नहाकर आये हैं। कोई साइकिल पर चला आ रहा था, कोई अपने घोड़े पर, किसी ने अपना बैल ताँगा ही काम में लिया था। जिनके पास घोड़े या साइकिलें नहीं थीं, वे पैदल ही मस्ती भरे गीत गाते हुये चले आ रहे थे। शहर में तो जिस व्यक्ति को आप अपना मत देने जा रहे हैं, वह आपकी सवारी का भी इन्तजाम करता है, परन्तु पक्की सड़कें न होने के कारण गाँव में यह सुविधा नहीं होती।
समय से पहले ही प्रिजाइडिंग ऑफीसर ने सभी पार्टियों के पोलिंग एजेन्टों को बुलाकर बैलटबॉक्सों को खोलकर दिखाया, जिससे किसी को यह सन्देह न रहे कि इसमें पहले से वोट भरे हुये हैं या हमारे नाम का कागज इस पर नहीं लगा हुआ है। फिर उन डिब्बों को बन्द करके लाख से सील कर दिया गया। घड़ी ने आठ बजाये, मतदान प्रारम्भ हो गया। मतदाताओं की पंक्ति लग गई। पोलिंग स्टेशन बड़ा होने के कारण चार बूथ पुरुषों के लिये थे और एक बूथ स्त्रियों के लिए। प्रत्येक बूथ पर काम करने के लिये अलग-अलग पोलिंग ऑफीसर थे । मतदाता अपनी-अपनी पार्टी से अपनी पर्ची लिखाकर लाता था, कुछ, जो किसी पार्टी से सम्बन्धित नहीं थे, वे सीधे भी चले जाते थे। पहिले एक अधिकारी मतदाता के सीधे हाथ की उंगली में न मिटने वाली स्याही का एक चिन्ह लगाते थे, जिससे यह मालूम पड़ जाये कि किस व्यक्ति ने अब तक मतदान नहीं किया है। इसके बाद दूसरा अधिकारी मतदाता को उसका नम्बर देता था, तीसरा अधिकारी उसे बैलट पेपर दे देता था, जिसमें सभी उम्मीदवारों के नाम तथा उनके चिन्ह छपे रहते हैं। मतदाता जिसे अपना मत देना चाहता था, वह उसी के चिन्ह के आगे x ऐसा निशान लगा देता था। यह सभी उसे पोलिंग बूथ में जाकर एकान्त में करना पड़ता था। इसलिये इसे गुप्त मतदान कहा जाता है और अब तो १९९६ के महानिर्वाचनों से मतदाता की प्रक्रिया में अधिक गोपनीयता बनाये रखने के लिये महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किए गए हैं। सरकार की ओर से परिचय पत्रों की व्यवस्था की गई है। जिससे एक के स्थान पर दूसरे के वोट डालने की परम्परा ध्वस्त हो जाये। इसका श्रेय मुख्य चुनाव आयुक्त श्री शेषन को है। पुरुषों और स्त्रियों के लिये वोट देने की अलग-अलग व्यवस्था की गई थी। पुरुषों के लिये पुरुष पोलिंग ऑफीसर और स्त्रियों के लिये महिला पोलिंग ऑफीसर थे। स्त्रियों के लिए पोलिंग एजेन्ट भी महिलायें ही थीं। यदि कोई अन्धा, रुग्ण या अशक्त व्यक्ति मतदान करने आता तो प्रिजाइडिंग ऑफीसर उसकी सहायता करते थे। कोई-कोई ऐसा व्यक्ति अपने साथ सहायक भी लाता था । वह जिस चिन्ह को बताता था उस पर वे निशान लगा देते थे और मत- पत्र को मतदान पेटी में डाल देते थे। इस प्रकार दोपहर तक खूब भीड़-भाड़ रही । ४९ वर्षों में भारत की जनता चतुर हो चुकी थी। लोग बाहर वायदा कुछ करके आते थे, परन्तु भीतर जाकर अपनी इच्छानुसार किसी को भी मत देते थे ।
कुछ मतदाताओं पर पोलिंग एजेन्टों ने उनके सही व्यक्ति होने पर सन्देह प्रकट किया और झगड़ा बढ़ने लगा। प्रिजाइडिग ऑफीसर ने उनका चेलेजिंग वोट डलवा दिया तथा चेलेंज करने वाले पोलिंग एजेन्टों से चेलेंज की फीस ली । ऐसे वोटों का निर्णय गणना के समय चुनाव अधिकारी किया करते हैं। कुछ धाँधलेबाजी में और भीड़ भड़क्के में उन आदमियों के वोट डाले गये जो बहुत पहले ही मर चुके थे या गाँव छोड़कर गाँव से बाहर चले गये थे, उन्हें किसे ने चैक नहीं किया। बीच-बीच में कभी-कभी शहर की ओर से दौड़ती हुई मोटर कार आती और निर्वाचन-स्थल का निरीक्षण करते, प्रिजाइडिंग आफीसर से बातें करते और फिर लौट जाते। बाद में पूछने पर कभी पता चलता कि ए० डी० एम० प्लानिंग थे, दौरे पर आए थे, कभी मालूम पड़ता कि वे डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट थे।
दोपहर के बाद भीड़ जब कुछ कम हुई तो मैं भी मतदान करने गया । स्याही लगी, मत-पत्र मिला। बूथ पर जाने के लिए रास्ता बता दिया गया । भीतर जाकर देखा कि कई डिब्बे रक्खे हुये हैं, सभी पर कुछ लेबिल चिपके हुये हैं। पास ही निशान लगाने के लिये मोहर रक्खी हुई है। मैंने भी अपना निशान लगाया और मत-पत्र मतदान पेटी में डाल दिया, परन्तु देखा कि बहुत से मत-पत्र डिब्बों के बाहर ज्यों के त्यों पड़े हुये हैं, कुछ मत-पत्र फूँस की बनाई दीवार में लग रहे हैं। कुछ मत-पत्र मतदान पेटी के नीचे दबे पड़े थे। यह देखकर मुझे आश्चर्य भी हुआ और दुःख भी । पास में स्त्रियों का बूथ था। मैने कौतूहलवश उसमें झाँककर देखा। मेरे आश्चर्य की सीमा न रही। स्त्रियाँ उस मत-पत्र को मोड़कर डिब्बे के ऊपर चढ़ा रही थीं, चढ़ाने के बाद उस डिब्बे के हाथ जोड़तीं, फिर सिर,झुकातीं और तब बाहर आतीं। एक स्त्री की धीमी गुनगुनाहट भी मेरे कानों तक आई। वह कह रही थी, “हे बैलों की जोड़ी मैया! जा दिन तू मेरे घर आइकै बँधैगी वा दिन घी गुड़ से पूजूँगी।” दूसरी ने कहा, “हे दीपक महाराज! मेरे आदमी कू मेरे बस में कर देउ तो मैं से तुम्हें महादेव के मन्दिर में जराऊँगी।” यह सब दृश्य कुछ क्षणों में ही देखता हुआ मैं बाहर आ गया ।
पाँच बजने में कुछ समय शेष रह गया था, अधिकांश भीड़ जा चुकी थी। सभी पार्टियों के प्रतिनिधि वोटों का अनुमान लगाने में व्यस्त थे कि इस पोलिंग पर किस पार्टी को कितने मत मिले। सहसा पाँच का घण्टा बजा, मतदान बन्द करने की घोषणा कर दी गई, परन्तु पोलिंग स्टेशन में जितने आदमी पहुँच चुके थे, उन्हें मतदान करने का अधिकार था, उन्हें मत- पत्र दिया गया। प्रिजाइडिंग ऑफीसर ने एक बार फिर सभी पार्टियों के एजेन्टों को बुलाया और बैलट बाक्स दिखाकर उन्हें दोबारा सील करवा दिया। एक सरकारी ट्रक आया, जिसमें वे डिब्बे रख दिये। सभी अधिकारी उसमें बैठ गये। ट्रक धूल उड़ाता हुआ नगर की ओर चल दिया। अब गाँव की छोटी-छोटी दुकानों और खोमचे वालों का मेला भी समाप्त हो चुका था, परन्तु अभी हार-जीत की चर्चा समाप्त नहीं हुई थी ।
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