जलवायु Climate

जलवायु  Climate

 

जलवायु क्या है ?
♦ एक विशाल क्षेत्र में लम्बे समयावधि (30 वर्ष से अधिक) में मौसम की अवस्थाओं तथा विविधताओं का कुल योग ही जलवायु है।
♦ मौसम एक विशेष समय में एक क्षेत्र के वायुमण्डल की अवस्था को बताता है।
♦ मौसम तथा जलवायु के तत्त्व, जैसे- तापमान, वायुमण्डलीय दाब, पवन, आर्द्रता तथा वर्षण एक ही होते हैं।
♦ मौसम की अवस्था प्रायः एक दिन में ही कई बार बदलती है। लेकिन फिर भी कुछ सप्ताह, महीनों तक वायुमण्डलीय अवस्था लगभग एक समान ही बनी रहती है, जैसे दिन गर्म या ठण्डे, ॐ हवादार या शान्त, आसमान बादलों से घिरा या साफ तथा आर्द्र या शुष्क हो सकते हैं।
♦ महीनों के औसत वायुमण्डलीय अवस्था के आधार पर वर्ष को ग्रीष्म / शीत या वर्षा ऋतुओं में विभाजित किया गया है।
♦ विश्व को अनेक जलवायु प्रदेशों में बाँटा गया है।
♦ मानसून शब्द की व्युत्पत्ति अरबी शब्द ‘मौसिम’ से हुई है, जिसका शाब्दिक अर्थ है— मौसम ।
♦ मानसून का अर्थ, एक वर्ष के दौरान वायु की दिशा में ऋतु के अनुसार परिवर्तन होना।
♦ भारत की जलवायु को मानसूनी जलवायु कहा जाता है। इस प्रकार की जलवायु मुख्यतः दक्षिण तथा दक्षिण-पूर्व एशिया में पाई जाती है। सामान्य प्रतिरूप में लगभग एकरूपता होते हुए भी देश की जलवायु अवस्था में स्पष्ट प्रदेशिक भिन्नताएँ हैं।
♦ दो महत्त्वपूर्ण तत्त्व तापमान एवं वर्षण को लेकर इस भिन्नता को समझा जा सकता है— गर्मियों में, राजस्थान के मरुस्थल में कुछ स्थानों का तापमान लगभग 50° C तक पहुँच जाता है, जबकि जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में तापमान लगभग 20°C रहता है । सर्दी की रात में, जम्मू-कश्मीर में द्रास का तापमान 45°C तक हो सकता है, जबकि तिरुअनन्तपुरम् में यह 20°C हो सकता है।
♦ कुछ क्षेत्रों में रात एवं दिन के तापमान में बहुत अधिक अन्तर होता है। थार के मरुस्थल में दिन का तापमान 50°C तक हो सकता है, जबकि उसी रात यह नीचे गिरकर 15°C तक पहुँच सकता है। दूसरी ओर, केरल या अण्डमान एवं निकोबार में दिन तथा रात का तापमान लगभग समान ही रहता है।
वर्षण
♦ वर्षण के रूप तथा प्रकार में ही नहीं, बल्कि इसकी मात्रा एवं ऋतु के अनुसार वितरण में भी भिन्नता होती है।
♦ हिमालय में वर्षण अधिकतर हिम के रूप में होता है तथा देश के शेष भाग में यह वर्षा के रूप में होता है।
♦ वार्षिक वर्षण में भिन्नता मेघालय में 400 सेमी से लेकर लद्दाख एवं पश्चिमी राजस्थान में यह 10 सेमी से कम होती है।
♦ देश के अधिकतर भागों में जून से सितम्बर तक वर्षा होती है, लेकिन कुछ क्षेत्रों जैसे तमिलनाडु तट पर अधिकतर वर्षा अक्टूबर एवं नवम्बर में होती है।
♦ सामान्य रूप से तटीय क्षेत्रों के तापमान में अन्तर कम होता है। देश के आन्तरिक भागों में मौसमी या ऋतुनिष्ठ अन्तर अधिक होता है।
♦ उत्तरी मैदान में वर्षा की मात्रा सामान्यतः पूर्व से पश्चिम की ओर घटती जाती है। ये भिन्नताएँ लोगों के जीवन में विविधता लाती हैं, जो उनके भोजन, वस्त्र और घरों के प्रकार में दिखती है।
जलवायवी नियन्त्रण
♦ किसी भी क्षेत्र की जलवायु को नियन्त्रित करने वाले छ: प्रमुख कारक हैं—अक्षांश, तुंगता (ऊँचाई), वायुदाब एवं पवन तन्त्र, समुद्र से दूरी, महासागरीय धाराएँ तथा उच्चावच लक्षण |
♦ पृथ्वी की गोलाई के कारण, इसे प्राप्त सौर ऊर्जा की मात्रा अक्षांशों के अनुसार अलग-अलग होती है। इसके परिणामस्वरूप तापमान विषुवत वृत्त से ध्रुवों की ओर घटता जाता है।
♦ जब कोई व्यक्ति पृथ्वी की सतह से ऊँचाई की ओर जाता है, तो वायुमण्डल की सघनता कम हो जाती है तथा तापमान घट जाता है इसलिए पहाड़ियाँ गर्मी के मौसम में भी ठण्डी होती हैं। किसी भी क्षेत्र का वायुदाब एवं पवन तन्त्र उस स्थान के अक्षांश तथा ऊँचाई पर निर्भर करती है। इस प्रकार यह तापमान एवं वर्षा के वितरण को प्रभावित करता है।
♦ समुद्र पर जलवायु का समकारी प्रभाव पड़ता है, जैसे-जैसे समुद्र दूरी बढ़ती है यह प्रभाव कम होता जाता है एवं लोग विषम मौसमी अवस्थाओं को महसूस करते हैं। इसे महाद्वीपीय अवस्था (गर्मी में बहुत अधिक गर्म एवं सर्दी में बहुत अधिक ठण्डा) कहते हैं।
♦ महासागरीय धाराएँ समुद्र से तट की ओर चलने वाली हवाओं के साथ तटीय क्षेत्रों की जलवायु को प्रभावित करती हैं। उदाहरण के लिए, कोई भी तटीय क्षेत्र जहाँ गर्म या ठण्डी जल धाराएँ बहती हैं और वायु की दिशा समुद्र से तट की ओर हो, तब वह तट गर्म या ठण्डा हो जाएगा।
♦ किसी स्थान की जलवायु को निर्धारित करने में उच्चावच की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। ऊँचे पर्वत ठण्डी अथवा गर्म वायु को अवरोधित करते हैं। यदि उनकी ऊँचाई इतनी हो कि वे वर्षा लाने वाली वायु के रास्तों को रोकने में सक्षम होते हैं, तो ये उस क्षेत्र में वर्षा का कारण भी बन सकते हैं। पर्वतों के पवनाविमुख ढाल सूखे रहते हैं।
भारत की जलवायु को प्रभावित करने वाले कारक
अक्षांश
♦ कर्क वृत्त देश के मध्य भाग, पश्चिम में कच्छ के रन से लेकर पूर्व में मिजोरम से होकर गुजरती है।
♦ देश का लगभग आधा भाग कर्क वृत्त के दक्षिण में स्थित है, जो उष्ण कटिबन्धीय क्षेत्र है।
♦ कर्क वृत्त के उत्तर में स्थित शेष भाग उपोष्ण कटिबन्धीय है । इसलिए भारत की जलवायु में उष्ण कटिबन्धीय जलवायु एवं उपोष्ण कटिबन्धीय जलवायु दोनों की विशेषताएँ उपस्थित हैं।
ऊँचाई
♦ भारत के उत्तर में हिमालय पर्वत है। इसकी औसत ऊँचाई लगभग 6000 मीटर है।
♦ भारत का तटीय क्षेत्र भी विशाल है, जहाँ अधिकतम ऊँचाई लगभग 30 मीटर है।
♦ हिमालय मध्य एशिया से आने वाली ठण्डी हवाओं को भारतीय उपमहाद्वीप में प्रवेश करने से रोकता है। इन्हीं पर्वतों के कारण क्षेत्र में मध्य एशिया की तुलना में ठण्ड कम पड़ती है।
वायु दाब एवं पवन
♦ भारत में जलवायु तथा सम्बन्धित मौसमी अवस्थाएँ निम्नलिखित वायुमण्डलीय अवस्थाओं से संचालित होती हैं
♦ वायु दाब एवं धरातलीय पवनें
♦ ऊपरी वायु परिसंचरण तथा
♦ पश्चिमी चक्रवाती विक्षोभ एवं उष्ण कटिबन्धीय चक्रवात
♦ भारत उत्तर-पूर्वी व्यापारिक पवनों (Trade Winds) वाले क्षेत्र में स्थित है। ये पवनें उत्तरी गोलार्द्ध के उपोष्ण कटिबन्धीय उच्च दाब पट्टियों से उत्पन्न होती हैं। ये दक्षिण की ओर बहती, ‘कोरिआलिस बल के कारण दाहिनी ओर विक्षेपित होकर वषुवतीय निम्न दाब वाले क्षेत्रों की ओर बढ़ती हैं।
♦ पृथ्वी के घूर्णन के कारण उत्पन्न आभासी बल को कोरिआलिस बल कहते हैं। इस बल के कारण पवनें उत्तरी गोलार्द्ध में दाहिनी ओर तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में बाईं ओर विक्षेपित हो जाती हैं। इसे फेरेल का नियम भी कहा जाता है।
♦ सामान्यतः इन पवनों में नमी की मात्रा बहुत कम होती है, क्योंकि ये स्थलीय भागों पर उत्पन्न होती हैं एवं बहती हैं। इसलिए इन पवनों के द्वारा वर्षा कम या नहीं होती है।
♦ भारत की वायुदाब एवं पवन तन्त्र अद्वितीय है। शीत ऋतु में, हिमालय के उत्तर में उच्च दाब होता है। इस क्षेत्र की ठण्डी शुष्क हवाएँ दक्षिण में निम्न दाब वाले महासागरीय क्षेत्र के ऊपर बहती हैं।
♦ ग्रीष्म ऋतु में, आन्तरिक एशिया एवं उत्तर पूर्वी भारत के ऊपर निम्न दाब का क्षेत्र उत्पन्न हो जाता है। इसके कारण गर्मी के दिनों में वायु की दिशा पूरी तरह से परिवर्तित हो जाती है।
♦ वायु दक्षिण में स्थित हिन्द महासागर के उच्च दाब वाले क्षेत्र से दक्षिण-पूर्वी दिशा में बहते हुए विषुवत् वृत्त को पार कर दाहिनी ओर मुड़ते हुए भारतीय उप महाद्वीप पर स्थित निम्न दाब की ओर बहने लगती हैं। इन्हें दक्षिण-पश्चिम मानसून पवनों के नाम से जाना जाता है। ये पवनें कोष्ण महासागरों के ऊपर से बहती हैं, नमी ग्रहण करती हैं तथा भारत की मुख्य भूमि पर वर्षा करती हैं।
♦ इस प्रदेश में, ऊपरी वायु परिसंचरण पश्चिमी प्रवाह के प्रभाव में रहता है। इस प्रवाह का एक मुख्य घटक जेट धारा है।
♦ जेट धारा एक संकरी पट्टी में स्थित क्षोभमण्डल में अत्यधिक ऊँचाई (12000 मीटर से अधिक) वाली पश्चिमी हवाएँ होती हैं। इनकी गति गर्मी में 110 किमी प्रति घण्टा एवं सर्दी में 184 किमी प्रति घण्टा होती है। बहुत-सी अलग-अलग जेट धाराओं को पहचाना गया है। उनमें सबसे स्थिर मध्य अक्षांशीय एवं उपोष्ण कटिबन्धीय जेट धाराएँ हैं।
♦ जेट धाराएँ लगभग 27° से 30° उत्तर अक्षांशों के बीच स्थित होती हैं, इसलिए इन्हें उपोष्ण कटिबन्धीय पश्चिमी जेट धाराएँ कहा जाता है। भारत में, ये जेट धाराएँ ग्रीष्म ऋतु को छोड़कर पूरे वर्ष हिमालय के दक्षिण में प्रवाहित होती हैं। इस पश्चिमी प्रवाह के द्वारा देश के उत्तर एवं उत्तर पश्चिमी भाग में पश्चिमी चक्रवाती विक्षोभ आते हैं।
♦ गर्मियों में, सूर्य की आभासी गति के साथ ही उपोष्ण कटिबन्धीय पश्चिमी जेट धारा हिमालय के उत्तर में चली जाती है। एक पूर्वी जेट धारा जिसे उष्ण कटिबन्धीय पूर्वी जेट धारा कहा जाता है । गर्मी के महीनों में प्रायद्वीपीय भारत के ऊपर लगभग 14° उत्तरी अक्षांश में प्रवाहित होती है।
पश्चिमी चक्रवातीय विक्षोभ
♦ सर्दी के महीनों में उत्पन्न होने वाला पश्चिमी चक्रवातीय विक्षोभ भूमध्यसागरीय क्षेत्र से आने वाले पश्चिमी प्रवाह के कारण होता है। वे प्राय: भारत के उत्तर एवं उत्तर-पश्चिमी क्षेत्रों को प्रभावित करते हैं।
♦ उष्ण कटिबन्धीय चक्रवात मानसूनी महीनों के साथ-साथ अक्टूबर एवं नवम्बर के महीनों में आते हैं तथा ये पूर्वी प्रवाह के एक भाग होते हैं एवं देश के तटीय क्षेत्रों को प्रभावित करते हैं।
भारतीय मानसून
♦ भारत की जलवायु मानसूनी पवनों से बहुत अधिक प्रभावित है।
♦ ऐतिहासिक काल में भारत आने वाले नाविकों ने सबसे पहले मानसून परिघटना पर ध्यान दिया था। पवन तन्त्र की दिशा उलट जाने (उत्क्रमण) के कारण उन्हें लाभ हुआ। चूँकि, उनके जहाज पवन के प्रवाह की दिशा पर निर्भर थे।
♦ अरबवासी जो व्यापारियों की तरह भारत आए थे उन लोगों ने पवन तन्त्र के इस मौसमी उत्क्रमण को मानसून का नाम दिया।
♦ मानसून का प्रभाव उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में लगभग 20° उत्तर एवं 20° दक्षिण के बीच रहता है।
♦ मानसून की प्रक्रिया को समझने के लिए निम्नलिखित तथ्य महत्त्वपूर्ण हैं
(i) स्थल तथा जल के गर्म एवं ठण्डे होने की विभेदी प्रक्रिया के कारण भारत के स्थल भाग पर निम्न दाब का क्षेत्र उत्पन्न होता है, जबकि इसके आस-पास के समुद्रों के ऊपर उच्च दाब का क्षेत्र बनता है।
(ii) ग्रीष्म ऋतु के दिनों में अन्त: उष्ण कटिबन्धीय अभिसरण क्षेत्र की स्थिति गंगा के मैदान की ओर खिसक जाती है (यह विषुवतीय गर्त है, जो प्रायः विषुवत् वृत्त से लगभग उत्तर में स्थित होता है, जिसे मानसून ऋतु में मानसून गर्त के नाम से भी जाना जाता है।)
                                                   अन्त: उष्ण कटिबन्धीय अभिसरण क्षेत्र
ये विषुवतीय अक्षांशों में विस्तृत गर्त एवं निम्न दाब का क्षेत्र होता है। यहीं पर उत्तर-पूर्वी एवं दक्षिण-पूर्वी व्यापारिक पवनें आपस में मिलती हैं। यह अभिसरण क्षेत्र विषुवत् वृत्त के लगभग समानान्तर होता है, लेकिन सूर्य की आभासी गति के साथ-साथ यह उत्तर या दक्षिण की ओर खिसकता है।
(iii) हिन्द महासागर में मेडागास्कर के पूर्व लगभग 20° दक्षिण अक्षांश के ऊपर उच्च दाब वाला क्षेत्र होता है। इस उच्च दाब वाले क्षेत्र की स्थिति एवं तीव्रता भारतीय मानसून को प्रभावित करती है।
(iv) ग्रीष्म ऋतु में, तिब्बत का पठार बहुत अधिक गर्म हो जाता है, जिसके परिणामस्वरूप पठार के ऊपर समुद्र तल से लगभग 9 किमी की ऊँचाई पर तीव्र ऊर्ध्वाधर वायु धाराओं एवं उच्च दाब का निर्माण होता है।
(v) ग्रीष्म ऋतु में हिमालय के उत्तर-पश्चिमी जेट धाराओं का तथा भारतीय प्रायद्वीप के ऊपर उष्ण कटिबन्धीय पूर्वी जेट धाराओं का प्रभाव होता है।
♦ इसके अतिरिक्त, दक्षिणी महासागरों के ऊपर दाब की अवस्थाओं में परिवर्तन भी मानसून को प्रभावित करता है।
♦ सामान्यतः जब दक्षिण प्रशान्त महासागरों के उष्ण काटेबन्धीय पूर्वी भाग में उच्च दाब होता है तब हिन्द महासागर के उष्ण कटिबन्धीय पूर्वी भाग में निम्न दाब होता है, लेकिन कुछ विशेष वर्षों में वायु दाब की स्थिति विपरीत हो जाती है तथा पूर्वी प्रशान्त महासागर के ऊपर हिन्द महासागर की तुलना में निम्न दाब का क्षेत्र बन जाता है।
♦ दाब की अवस्था में इस नियतकालिक परिवर्तन को दक्षिणी दोलन के नाम से जाना जाता है।
♦ डार्विन, उत्तरी ऑस्ट्रेलिया (हिन्द महासागर ताहिती (प्रशान्त 12°30 दक्षिण / 131° पूर्व )महासागर तथा 18°दक्षिण/149° पश्चिम) के दाब के अन्तर की गणना मानसून की तीव्रता के पूर्वानुमान के लिए की जाती है ।
♦ अगर दाब का अन्तर ऋणात्मक है, तो इसका अर्थ होगा औसत से कम तथा विलम्ब से आने वाला मानसून |
♦ एलनीनो, दक्षिणी दोलन से जुड़ा हुआ एक लक्षण है। यह एक गर्म समुद्री जल धारा है, जो पेरू की ठण्डी धारा के स्थान पर प्रत्येक 2 या 5 वर्ष के अन्तराल में पेरू तट से होकर बहती है।
♦ दाब की अवस्था में परिवर्तन का सम्बन्ध एलनीनो से है। इसलिए इस परिघटना को एसो (ENSO) (एलनीनो दक्षिणी दोलन) कहा जाता है
                                                                       एलनीनी
ठण्डी पेरू जलधारा के स्थान पर अस्थायी तौर पर गर्म जलधारा के विकास को एलनीनो का नाम दिया गया है। एलनिनो स्पैनिश शब्द है, जिसका अर्थ होता है बच्चा तथा जो कि बेबी क्राइस्ट को व्यक्त करता है, क्योंकि यह धारा क्रिसमस के समय बहना शुरू करती है। एलनीनो की उपस्थिति समुद्र की सतह के तापमान को बढ़ा देती है तथा उस क्षेत्र में व्यापारिक पवनों को शिथिल कर देती है।
मानसून का आगमन एवं वापसी
♦ व्यापारिक पत्रनों के विपरीत मानसूनी पवनें नियमित नहीं हैं, लेकिन ये स्पन्दमान प्रकृति की होती है। उष्ण कटिबन्धीय समुद्रों के ऊपर प्रवाह के दौरान ये विभिन्न वायुमण्डलीय अवस्थाओं से प्रभावित होती हैं।
♦ मानसून का समय जून के आरम्भ से लेकर मध्य सितम्बर तक, 100 से 120 दिनों के बीच होता है। इसके आगमन के समय सामान्य वर्षा में अचानक वृद्धि हो जाती है तथा लगातार कई दिनों तक यह जारी रहती है। इसे मानसून विस्फोट ( फटना) कहते हैं तथा इसे मानसून पूर्व बौछारों से पृथक किया जा सकता है।
♦ सामान्यतः जून के प्रथम सप्ताह में मानसून भारतीय प्रायद्वीप के दक्षिणी छोर से प्रवेश करता है। इसके बाद यह दो भागों में बँट जाता है— अरब सागर शाखा एवं बंगाल की खाड़ी शाखा ।
♦ अरब सागर शाखा लगभग दस दिन बाद, 10 जून के आस-पास मुम्बई पहुँचती है। यह एक तीव्र प्रगति है।
♦ बंगाल की खाड़ी शाखा भी तीव्रता से आगे की ओर बढ़ती है तथा जून के प्रथम सप्ताह में असोम पहुँच जाती है। ऊँचे पतंतों के कारण मानसून पवनें पश्चिम में गंगा के मैदान की ओर मुड़ जाती है।
♦ मध्य जून तक अरब सागर शाखा सौराष्ट्र, कच्छ एवं देश के मध्य भागों में पहुँच जाती है।
♦ अरब सागर शाखा एवं बंगाल की खाड़ी शाखा, दोनों गंगा के मैदान के उत्तर-पश्चिम भाग में आपस में मिल जाती हैं।
♦ दिल्ली में सामान्यतः मानसूनी वर्षा बंगाल की खाड़ी शाखा से जून के अन्तिम सप्ताह में (लगभग 29 जून तक) होती है।
♦ जुलाई के प्रथम सप्ताह तक मानसून पश्चिमी उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा तथा पूर्वी राजस्थान में पहुँच जाता है।
♦ मध्य जुलाई तक मानसून हिमाचल प्रदेश एवं देश के शेष हिस्सों में पहुँच जाता है।
♦ मानसून की वापसी अपेक्षाकृत एक क्रमिक प्रक्रिया है, जो भारत के उत्तर-पश्चिमी राज्यों से सितम्बर में प्रारम्भ हो जाती है।
♦ मध्य अक्टूबर तक मानसून प्रायद्वीप के उत्तरी भाग से पूरी तरह पीछे हट जाता है। प्रायद्वीप के दक्षिणी आधे भाग में वापसी की गति तीव्र होती है। दिसम्बर के प्रारम्भ तक देश के शेष भाग से मानसून की वापसी हो जाती है। द्वीपों पर मानसून की सबसे पहली वर्षा होती है। यह क्रमश: दक्षिण से उत्तर की ओर अप्रैल के प्रथम सप्ताह से लेकर मई के प्रथम सप्ताह तक होती है।
♦ मानसून की वापसी भी क्रमशः दिसम्बर के प्रथम सप्ताह से जनवरी के प्रथम सप्ताह तक उत्तर से दक्षिण की ओर होती है। इस समय देश का शेष भाग शीत ऋतु के प्रभाव में होता है।
ऋतुएँ
♦ मानसूनी जलवायु की विशेषता एक विशिष्ट मौसमी प्रतिरूप होता है। । एक ऋतु से दूसरे ऋतु में मौसम की अवस्थाओं में बहुत अधिक परिवर्तन होता है। विशेषकर देश के आन्तरिक भागों में, ये परिवर्तन अधिक मात्रा में परिलक्षित होते हैं।
♦ तटीय क्षेत्रों के तापमान में बहुत अधिक भिन्नता नहीं होती है यद्यपि यहाँ वर्षा के प्रारूपों में भिन्नताएँ होती हैं।
♦ भारत में मुख्यतः चार ऋतुओं को पहचाना जा सकता है। ये हैं, शीत ऋतु, ग्रीष्म ऋतु, कुछ क्षेत्रीय विविधताओं के साथ मानसून के आगमन (वर्षा ऋतु) तथा वापसी का काल।
शीत ऋतु
♦ उत्तरी भारत में शीत ऋतु मध्य नवम्बर से आरम्भ होकर फरवरी तक रहती है।
♦ भारत के उत्तरी भाग में दिसम्बर एवं जनवरी सबसे ठण्डे महीने होते हैं। तापमान दक्षिण से उत्तर की ओर बढ़ने पर घटता जाता है।
♦ पूर्वी तट पर चेन्नई का औसत तापमान 24°C से 25°C के बीच होता है, जबकि उत्तरी मैदान में यह 10°C से 15°C के बीच होता है।
♦ दिन गर्म तथा रातें ठण्डी होती हैं।
♦ उत्तर में तुषारापात सामान्य होता है तथा हिमालय के ऊपरी ढालों पर हिमपात होता है।
♦ इस ऋतु में, देश में उत्तर-पूर्वी व्यापारिक पवनें प्रवाहित होती हैं। ये स्थल से समुद्र की ओर बहती हैं तथा इसलिए देश के अधिकतर भाग में शुष्क मौसम होता है। इन पवनों के कारण कुछ मात्रा में वर्षा तमिलनाडु के तट पर होती है, क्योंकि वहाँ ये पवनें समुद्र से स्थल की ओर बहती हैं।
♦ देश के उत्तरी भाग में, एक कमजोर उच्च दाब का क्षेत्र बन जाता है, जिसमें हल्की पवनें इस क्षेत्र से बाहर की ओर प्रवाहित होती हैं। उच्चावच से प्रभावित होकर ये पवन पश्चिम तथा उत्तर-पश्चिम से गंगा घाटी में बहती हैं।
♦ सामान्यतः इस मौसम में आसमान साफ, तापमान तथा आर्द्रता कम एवं पवनें शिथिल तथा परिवर्तित होती हैं।
♦ शीत ऋतु में उत्तरी मैदानों में पश्चिम एवं उत्तर-पश्चिम से चक्रवाती विक्षोभ का अन्तर्वाह विशेष लक्षण है। यह कम दाब वाली प्रणाली भूमध्यसागर एवं पश्चिमी एशिया के ऊपर उत्पन्न होती है तथा पश्चिमी पवनों के साथ भारत में प्रवेश करती है। इसके कारण शीतकाल में मैदानों में वर्षा होती है तथा पर्वतों पर हिमपात, जिसकी उस समय बहुत अधिक आवश्यकता होती है।
♦ यद्यपि शीतकाल में वर्षा, जिसे स्थानीय तौर पर ‘महावट’ कहा जाता है, इसकी कुल मात्रा कम होती है, लेकिन ये रबी फसलों के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण होती है।
♦ प्रायद्वीपीय भागों में शीत ऋतु स्पष्ट नहीं होती है। समुद्री पवनों के प्रभाव के कारण शीत ऋतु में भी यहाँ तापमान के प्रारूप में न के बराबर परिवर्तन होता है।
ग्रीष्म ऋतु
♦ सूर्य के उत्तर की ओर आभासी गति के कारण भूमण्डलीय ताप पट्टी उत्तर की तरफ खिसक जाती है।
♦ मार्च से मई तक भारत में ग्रीष्म ऋतु होती है। ताप पट्टी के स्थानान्तरण के प्रभाव का पता विभिन्न अक्षांशों पर मार्च से मई के दौरान रिकॉर्ड किए गए तापमान को देखकर लगाया जा सकता है।
♦ मार्च में दक्कन के पठार का उच्च तापमान लगभग 38°C होता है।
♦ अप्रैल में मध्य प्रदेश एवं गुजरात का तापमान लगभग 42°C होता है।
♦ मई में देश के उत्तर-पश्चिमी भागों का तापमान सामान्यतः 45°C होता है।
♦ प्रायद्वीपीय भारत में समुद्री प्रभाव के कारण तापमान कम होता है।
♦ देश के उत्तरी भाग में, ग्रीष्मकाल में तापमान में वृद्धि होती है तथा वायु दाब में कमी आती है।
♦ मई के अन्त में, उत्तर-पश्चिम में थार के रेगिस्तान से लेकर पूर्व एवं दक्षिण-पूर्व में पटना तथा छोटा नागपुर पठार तक एक कम दाब का लम्बवत क्षेत्र उत्पन्न होता है। पवन का परिसंचरण इस गर्त के चारों ओर प्रारम्भ होता है।
♦ लू, ग्रीष्मकाल का एक प्रभावी लक्षण है। ये धूल भरी गर्म एवं शुष्क पवनें होती हैं, जो कि दिन के समय भारत के उत्तर एवं उत्तर-पश्चिमी क्षेत्रों में चलती हैं। कभी-कभी ये देर शाम तक जारी रहती हैं। इस हवा का सीधा प्रभाव घातक भी हो सकता है।
♦ उत्तरी भारत में मई महीने के दौरान सामान्यत: धूल भरी आँधियाँ आती हैं। ये आँधियाँ अस्थायी रूप से आराम पहुँचाती हैं, क्योंकि ये तापमान को कम कर देती हैं तथा अपने साथ ठण्डी हवा एवं हल्की वर्षा लाती हैं।
♦ इस मौसम में कभी-कभी तीव्र हवाओं के साथ गरज वाली मूसलाधार वर्षा भी होती है, इसके साथ प्रायः हिम वृष्टि भी होती है । वैशाख के महीने में होने के कारण पश्चिम बंग में इसे ‘काल वैशाखी’ कहा जाता है।
♦ ग्रीष्म ऋतु के अन्त में कर्नाटक एवं केरल में प्राय: पूर्व-मानसूनी वर्षा होती है। इसके कारण आम जल्दी पक जाते हैं तथा प्रायः इसे ‘आम्र वर्षा’ भी कहा जाता है।
वर्षा ऋतु या मानसून का आगमन
♦ जून के प्रारम्भ में उत्तरी मैदानों में निम्न दाब की अवस्था तीव्र हो जाती है। यह दक्षिणी गोलार्द्ध की व्यापारिक पवनों को आकर्षित करता है। ये दक्षिण-पूर्व व्यापारिक पवनें, दक्षिणी समुद्रों के उपोष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों में उत्पन्न होती हैं। चूँकि, ये पवनें गर्म महासागरों के ऊपर से होकर गुजरती हैं, इसलिए ये अपने साथ इस महाद्वीप में बहुत अधिक मात्रा में नमी लाती हैं। ये पवनें तीव्र होती हैं तथा 30 किमी प्रति घण्टे के औसत वेग से चलती हैं। सुदूर उत्तर पूर्वी भाग को छोड़कर ये मानसूनी पवनें देश के शेष भाग में लगभग 1 महीने में पहुँच जाती हैं।
♦ दक्षिण-पश्चिम मानसून का भारत में अन्तर्वाह यहाँ के मौसम को पूरी तरह परिवर्तित कर देता है।
♦ मौसम के प्रारम्भ के पश्चिम घाट के पवनमुखी भागों में भारी वर्षा (लगभग 250 सेमी अधिक) होती है। दक्कन का पठार एवं मध्य प्रदेश के कुछ भाग में भी वर्षा होती है, यद्यपि ये क्षेत्र वृष्टि छाया क्षेत्र में आते हैं। इस मौसम की अधिकतर वर्षा देश के उत्तर-पूर्वी भागों में होती है।
♦ खासी पहाड़ी के दक्षिणी शृंखलाओं में स्थित मासिनराम विश्व में सबसे अधिक औसत वर्षा प्राप्त करता है।
♦ गंगा की घाटी में पूर्व से पश्चिम की ओर वर्षा की मात्रा घटती जाती है ।
♦ राजस्थान एवं गुजरात के कुछ भागों में बहुत कम वर्षा होती है ।
♦ मानसून से सम्बन्धित एक अन्य परिघटना है, ‘वर्षा में विराम’। इस प्रकार, इसमें आर्द्र एवं शुष्क दोनों तरह के अन्तराल होते हैं। दूसरे शब्दों में मानसूनी वर्षा एक समय में कुछ दिनों तक ही होती है । इनमें वर्षा रहित अन्तराल भी होते हैं। मानसून में आने वाले ये विराम मानसूनी गर्त की गति से सम्बन्धित होते हैं।
♦ विभिन्न कारणों से गर्त एवं इसका अक्ष उत्तर या दक्षिण की ओर खिसकता रहता है, जिसके कारण वर्षा का स्थानिक वितरण सुनिश्चित होता है।
♦ जब मानसून के गर्त का अक्ष मैदान के ऊपर होता है तब इन भागों में वर्षा अच्छी होती है।
♦ जब अक्ष हिमालय के समीप चला जाता है तब मैदानों में लम्बे समय तक शुष्क अवस्था रहती है तथा हिमालय की नदियों के पर्वतीय जलग्रहण क्षेत्रों में विस्तृत वर्षा होती है। इस भारी वर्षा के कारण मैदानी क्षेत्रों में विनाशकारी बाढ़ें आती हैं जिसे जान एवं माल की भारी क्षति होती है।
♦ उष्ण कटिबन्धीय निम्न दाब की तीव्रता एवं आवृत्ति भी मानसूनी वर्षा की मात्रा एवं समय को निर्धारित करती है। यह निम्न दाब का क्षेत्र बंगाल की खाड़ी के ऊपर बनता है तथा मुख्य स्थलीय भाग को पार कर जाता है। यह गर्त निम्न दाब के मानसून गर्त के अक्ष के अनुसार होता है।
♦ मानसून को इसकी अनिश्चितता के लिए जाना जाता है। शुष्क एवं आर्द्र स्थितियों की तीव्रता, आवृत्ति एवं समयकाल में भिन्नता होती है। इसके कारण यदि एक भाग में बाढ़ आती है, तो दूसरे भाग में सूखा पड़ता है। इसका आगमन एवं वापसी प्रायः अव्यवस्थित होता है इसलिए यह कभी-कभी देश के किसानों की कृषि कार्यों को अव्यवस्थित कर देता है।
मानसून की वापसी (परिवर्तनीय मौसम)
♦ अक्टूबर-नवम्बर के दौरान दक्षिण की तरफ सूर्य की आभासी गति के कारण मानसून गर्त या निम्न दाब वाला गर्त, उत्तरी मैदानों के ऊपर शिथिल हो जाता है। धीरे-धीरे उच्च दाब प्रणाली इसका स्थान ले लेती है। दक्षिण-पश्चिम मानसून शिथिल हो जाते हैं तथा धीरे-धीरे पीछे की ओर हटने लगते हैं।
♦ अक्टूबर के प्रारम्भ में मानसून पवनें उत्तर के मैदान से हट जाती हैं।
♦ अक्टूबर एवं नवम्बर का महीना, गर्म वर्षा ऋतु से शीत ऋतु में परिवर्तन का काल होता है। मानसून की वापसी होने से आसमान साफ एवं तापमान में वृद्धि हो जाती है। दिन का तापमान उच्च होता है, जबकि रातें ठण्डी एवं सुहावनी होती हैं। स्थल अभी भी आर्द्र होता है।
♦ उच्च तापमान एवं आर्द्रता वाली अवस्था के कारण दिन का मौसम असह्य हो जाता है। इसे सामान्यतः ‘क्वार की उमस’ के नाम से जाना जाता है।
♦ अक्टूबर के उत्तरार्द्ध में, विशेषकर उत्तरी भारत में तापमान तेजी से गिरने लगता है।
♦ मासिनराम विश्व में सबसे अधिक वर्षा वाला क्षेत्र है तथा स्टैलैग्माइट एवं स्टैलैक्टाइट गुफाओं के लिए प्रसिद्ध है।
♦ नवम्बर के प्रारम्भ में, उत्तर पश्चिम भारत के ऊपर निम्न दाब वाली अवस्था बंगाल की खाड़ी पर स्थानान्तरित हो जाती है। यह स्थानान्तरण चक्रवाती निम्न दाब से सम्बन्धित होता है, जो कि अण्डमान सागर के ऊपर उत्पन्न होता है। ये चक्रवात सामान्यत भारत के पूर्वी तट को पार करते हैं, जिनके कारण व्यापक एवं भारी वर्षा होती है। ये उष्ण कटिबन्धीय चक्रवात प्रायः विनाशकारी होते हैं।
♦ गोदावरी, कृष्णा एवं कावेरी नदियों के सघन आबादी वाले डेल्टा प्रदेशों में अक्सर चक्रवात आते हैं, जिसके कारण बड़े पैमाने पर जान एवं माल की क्षति होती है। कभी-कभी ये चक्रवात ओडिशा, पश्चिम बंग एवं बांग्लादेश के तटीय क्षेत्रों में भी पहुँच जाते हैं। कोरोमण्डल तट पर अधिकतर वर्षा इन्हीं चक्रवातों तथा अवदाबों से होती हैं।
वर्षा का वितरण
♦ पश्चिमी तट एवं उत्तर-पूर्वी भारत में लगभग 400 सेमी वार्षिक वर्षा होती है किन्तु, पश्चिमी राजस्थान एवं इससे सटे पंजाब, हरियाणा एवं गुजरात के भागों में 60 सेमी से भी कम वर्षा होती है।
♦ दक्षिणी पठार के आन्तरिक भागों एवं सह्याद्रि के पूर्व में भी वर्षा की मात्रा समान रूप से कम होती है। जम्मू-कश्मीर के लेह में भी वर्षा की मात्रा काफी कम होती है। देश के शेष हिस्से में वर्षा की मात्रा मध्यम रहती है।
♦ हिमपात हिमालयी क्षेत्रों तक ही सीमित होता है।
♦ मानसून की प्रकृति के परिमाणस्वरूप एक वर्ष से दूसरे वर्ष होने वाले वार्षिक वर्षा की मात्रा में भिन्नता होती है।
♦ वर्षा की विषमता निम्न वर्षा वाले क्षेत्र जैसे— राजस्थान, गुजरात के कुछ भाग तथा पश्चिमी घाटों के वृष्टि छाया प्रदेशों में अधिक पाई जाती है। अतः अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में बाढ़ें अधिक आती हैं, जबकि निम्न वर्षा वाले क्षेत्रों में सूखे की आशंका बनी रहती है।
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