जन-संघर्ष और आन्दोलन Population Struggles and Movements

जन-संघर्ष और आन्दोलन    Population Struggles and Movements

 

नेपाल में लोकतन्त्र का आन्दोलन
♦ नेपाल लोकतन्त्र की ‘तीसरी लहर’ के देशों में एक है जहाँ लोकतन्त्र सन् 1990 के दशक में कायम हुआ था। नेपाल में राजा औपचारिक रूप से राज्य का प्रधान बना रहा लेकिन वास्तविक सत्ता का प्रयोग जनता के द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों के हाथों में था।
♦ आत्यन्तिक राजतन्त्र से संवैधानिक राजतन्त्र के इस संक्रमण को राजा वीरेन्द्र ने स्वीकार कर लिया था लेकिन शाही खानदान के एक रहस्यमय कत्लेआम में राजा वीरेन्द्र की हत्या हो गई।
♦ नेपाल के नये राजा ज्ञानेन्द्र लोकतान्त्रिक शासन को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे। लोकतान्त्रिक रूप से निर्वाचित सरकार की अलोकप्रियता और कमजोरी का उन्होंने फायदा उठाया।
♦ सन् 2005 की फरवरी में राजा ज्ञानेन्द्र ने तत्कालीन प्रधानमन्त्री को अपदस्थ करके जनता द्वारा निर्वाचित सरकार को भंग कर दिया। इसके फलस्वरूप सन् 2006 को अप्रैल में जो आन्दोलन उठ खड़ा हुआ उसका लक्ष्य शासन की बागडोर राजा के हाथ से लेकर दोबारा जनता के हाथों में सौंपना था।
♦ संसद की सभी बड़ी राजनीतिक पार्टियों ने एक ‘सेवेन पार्टी अलायन्स’ (सप्तदलीय गठबन्धन- एसपीए) बनाया और नेपाल की राजधानी काठमाण्डू में चार दिन के ‘बन्द’ का आह्वान किया। इस प्रतिरोध ने जल्दी ही अनियतकालीन ‘बन्द’ का रूप ले लिया और इसमें माओवादी बागी तथा अन्य संगठन भी साथ हो लिए।
♦ लोग कर्फ्यू तोड़कर सड़कों पर उतर आए। तकरीबन एक लाख लोग रोजाना एकजुट होकर लोकतन्त्र की बहाली की माँग कर रहे थे और लोगों की इतनी बड़ी तादाद के आगे सुरक्षा बलों की एक न चल सकी।
♦ 21 अप्रैल के दिन आन्दोलनकारियों की संख्या 3-5 लाख तक पहुँच गई और आन्दोलनकारियों ने राजा को ‘अल्टीमेटम’ दे दिया। राजा ने आधे-अधूरे मन से कुछ रियायत देने की घोषणा की जिसे आन्दोलन के नेताओं ने स्वीकार नहीं किया। नेता अपनी माँगों पर अडिग रहे कि संसद को बहाल किया जाए; सर्वदलीय सरकार बने तथा एक नई संविधान सभा का गठन हो ।
♦ 24 अप्रैल, 2006 अल्टीमेटम का अन्तिम दिन था। इस दिन राजा तीनों माँगों को मानने के लिए बाध्य हुआ। एसपीए ने गिरिजा प्रसाद कोईराला को अन्तरिम सरकार का प्रधानमन्त्री चुना। संसद फिर बहाल हुई और इसने अपनी बैठक में कानून पारित किए। इन कानूनों के सहारे राजा की अधिकांश शक्तियाँ वापस ले ली गई ।
♦ नई संविधान सभा के निर्वाचन के तौर-तरीकों पर एसपीए और माओवादियों के बीच सहमति बनी। इस संघर्ष को नेपाल का ‘लोकतन्त्र के लिए दूसरा आन्दोलन’ कहा गया। नेपाल के लोगों का यह संघर्ष पूरे विश्व के लोकतन्त्र प्रेमियों के लिए प्रेरणा का स्रोत है।
♦ 20 सितम्बर, 2015 को नेपाल में नया संविधान लागू हुआ तथा अब इसे हिन्दू राष्ट्र की जगह धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित किया गया है।
♦ इस संविधान का विरोध मधेशियों ने किया। उनका मानना है कि उन्हें संविधान द्वारा कम राजनीतिक अधिकार प्रदान किए गए हैं। अतः इसमें संशोधन कर उन्हें प्रतिनिधित्व एवं अधिकार प्रदान किया जाए।
♦ नए संविधान के तहत् नेपाल की पहली महिला राष्ट्रपति, विद्या देवी भण्डारी बनी तथा पहले प्रधान खड्क प्रसाद शर्मा ओली बने।
बोलिविया का जल-युद्ध
♦ बोलिविया में लोगों ने पानी के निजीकरण के खिलाफ एक सफल संघर्ष चलाया। इससे पता चलता है कि लोकतन्त्र की जीवन्तता से जन-संघर्ष का अन्दरूनी रिश्ता है।
♦ बोलिविया, लातिनी अमेरिका का एक गरीब देश है। विश्व बैंक ने यहाँ की सरकार पर नगरपालिका द्वारा की जा रही जलापूर्ति से अपने नियन्त्रण छोड़ने के लिए दबाव डाला।
♦ सरकार ने कोचबम्बा शहर में जलापूर्ति के अधिकार एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी को बेच दिए। इस कम्पनी ने आनन-फानन में पानी की कीमत में चार गुना इजाफा कर दिया। अनेक लोगों का पानी का मासिक बिल ₹ 1000 तक जा पहुँचा जबकि बोलिविया में लोगों की औसत आमदनी ₹5000 महीना है। इसके फलस्वरूप स्वतः स्फूर्तजन-संघर्ष भड़क उठा।
♦ सन् 2000 की जनवरी में श्रमिकों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं तथा सामुदायिक नेताओं के बीच एक गठबन्धन ने आकार ग्रहण किया और इस गठबन्धन ने शहर में चार दिनों की कामयाब आम हड़ताल की।
♦ सरकार बातचीत के लिए राजी हुई और हड़ताल वापस ले ली गई। फिर भी, कुछ हाथ नहीं लगा।
♦ फरवरी में फिर आन्दोलन शुरू हुआ लेकिन इस बार पुलिस ने बर्बरतापूर्वक दमन किया। अप्रैल में एक और हड़ताल हुई और सरकार ने ‘मार्शल लॉ’ लगा दिया। लेकिन, जनता की ताकत के आगे बहुराष्ट्रीय कम्पनी के अधिकारियों को शहर छोड़कर भागना पड़ा। सरकार को आन्दोलनकारियों की सारी माँगें माननी पड़ीं।
♦ बहुराष्ट्रीय कम्पनी के साथ किया गया करार रद्द कर दिया गया और जलापूर्ति दोबारा नगरपालिका को सौंप कर पुरानी दरें कायम कर दी गईं। इस आन्दोलन को ‘बोलिविया के जलयुद्ध’ के नाम से जाना गया।
लोकतन्त्र और जन-संघर्ष
♦ नेपाल में चले आन्दोलन का लक्ष्य लोकतन्त्र को स्थापित करना था जबकि बोलिविया के जन-संघर्ष में एक निर्वाचित और लोकतान्त्रिक सरकार को जनता की माँग मानने के लिए बाध्य किया गया। ये दो कथाएँ राजनीतिक संघर्ष का उदाहरण हैं।
♦ दोनों ही घटनाओं में जनता बड़े पैमाने पर लामबन्द हुई। जन-समर्थन की सार्वजनिक अभिव्यक्ति ने विवाद को उसके परिणाम तक पहुँचाया।
♦ उपरोक्त दो उदाहरणों से कुछ सामान्य निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं
♦ लोकतन्त्र का जन-संघर्ष के जरिए विकास होता है। यह भी सम्भव है कि कुछ महत्त्वपूर्ण फैसले आम सहमति से हो जाएँ और ऐसे फैसलों के पीछे किसी तरह का संघर्ष न हो। फिर भी, इसे अपवाद ही कहा जाएगा। लोकतन्त्र की निर्णायक घड़ी अमूमन वही होती है जब सत्ताधारियों और सत्ता में हिस्सेदारी चाहने वालों के बीच संघर्ष होता है। ऐसी घड़ी तब आती है जब कोई देश लोकतन्त्र की ओर कदम बढ़ा रहा हो उस देश में लोकतन्त्र का विस्तार हो रहा हो अथवा वहाँ लोकतन्त्र की जड़ें मजबूत होने की प्रक्रिया में हों।
♦ लोकतान्त्रिक संघर्ष का समाधान जनता की व्यापक लामबन्दी के जरिए होता है। सम्भव है, कभी-कभी इस संघर्ष का समाधान मौजूदा संस्थाओं मसलन संसद अथवा न्यायपालिका के जरिए हो जाए। लेकिन, जब विवाद ज्यादा गहन होता है तो ये संस्थाएँ स्वयं अगर उस विवाद का हिस्सा बन जाती हैं। ऐसे में समाधान इन संस्थाओं के जरिए नहीं बल्कि उनके बाहर यानी जनता के माध्यम से होता है।
♦ ऐसे संघर्ष और लामबन्दियों का आधार राजनीतिक संगठन होते हैं। यह बात सच है कि ऐसी ऐतिहासिक घटनाओं में स्वतःस्फूर्त होने का भाव भी कहीं न कहीं जरूर मौजूद होता है लेकिन जनता की स्वतःस्फूर्त सार्वजनिक भागीदारी संगठित राजनीति के जरिए कारगर हो पाती है। संगठित राजनीति के कई माध्यम हो सकते हैं। ऐसे माध्यमों में राजनीतिक दल, दबाव-समूह और आन्दोलनकारी समूह शामिल हैं।
लामबन्दी और संगठन
♦ ऐसे अनेक अप्रत्यक्ष तरीके हैं जिनके सहारे लोग सरकार से अपनी माँग अथवा नजरिए का इजहार कर सकते हैं। लोग इसके लिए संगठन बनाकर अपने हितों अथवा नजरिए को बढ़ावा देने वाली गतिविधियाँ कर सकते हैं। इसे हित-समूह अथवा दबाव-समूह कहते हैं।
♦ कभी-कभी लोग बगैर संगठन बनाए अपनी माँगों के लिए एकजुट होने का फैसला करते हैं। ऐसे समूहों को आन्दोलन कहा जाता है।
♦ बतौर संगठन दबाव-समूह सरकार की नीतियों को प्रभावित करने की कोशिश करते हैं। लेकिन, राजनीतिक पार्टियों के समान दबाव-समूह का लक्ष्य सत्ता पर प्रत्यक्ष नियन्त्रण करने अथवा उसमें हिस्सेदारी करने का नहीं होता।
♦ दबाव-समूह का निर्माण तब होता है जब समान पेशे, हित, आकांक्षा अथवा मत के लोग एक समान उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए एकजुट होते हैं।
♦ हम अक्सर कई तरह की सामूहिक कार्यवाहियों के लिए जन-आन्दोलन जैसा शब्द व्यवहार होता सुनते हैं, जैसे-नर्मदा बचाओ आन्दोलन, सूचना के अधिकार का आन्दोलन, शराब-विरोधी आन्दोलन, महिला आन्दोलन तथा पर्यावरण आन्दोलन। दबाव-समूह के समान आन्दोलन भी चुनावी मुकाबले में सीधे भागीदारी करने के बजाय राजनीति को प्रभावित करने की कोशिश करते हैं। लेकिन, दबाव-समूहों के विपरीत आन्दोलनों में संगठन ढीला-ढाला होता है।
♦ आन्दोलनों में फैसले अनौपचारिक ढंग से लिए जाते हैं और ये फैसले लचीले भी होते हैं।
♦ आन्दोलन जनता की स्वतःस्फूर्त भागीदारी पर निर्भर होते हैं न कि दबाव-समूह पर ।
वर्ग विशेष के हित-समूह और जन सामान्य के हित-समूह
♦ हित-समूह अमूमन समाज के किसी खास हिस्से अथवा समूह के हितों को बढ़ावा देना चाहते हैं। मजदूर संगठन, व्यावसायिक संघ और पेशेवरों (वकील, डॉक्टर, शिक्षक आदि) के निकाय इस तरह के दबाव-समूह के उदाहरण हैं।
♦ ये दबाव-समूह वर्ग – विशेषी होते हैं क्योंकि ये समाज के किसी खास तबके मसलन मजदूर, कर्मचारी, व्यवसायी, उद्योगपति, धर्म-विशेष के अनुयायी अथवा किसी खास जाति आदि का प्रतिनिधित्व करते हैं।
♦ ऐसे दबाव-समूह का मुख्य सरोकार पूरे समाज का नहीं बल्कि अपने सदस्यों की बेहतरी और कल्याण करना होता है।
♦ कुछ संगठन समाज के किसी एक तबके के ही हितों का प्रतिनिधित्व नहीं करते। ये संगठन सर्व सामान्य हितों की
नुमाइन्दगी करते हैं जिनकी रक्षा जरूरी होती है। सम्भव है, ऐसा संगठन जिस उद्देश्य को पाना चाहता हो उससे इसके सदस्यों को कोई लाभ न हो।
♦ इन दूसरे किस्म के संगठनों को जन-सामान्य के हित-समूह अथवा लोककल्याणकारी समूह कहते हैं। ऐसे संगठन किसी खास हित के बजाय सामूहिक हित का प्रतिनिधित्व करते हैं। इनका लक्ष्य अपने सदस्यों की नहीं बल्कि किन्हीं और की मदद करना होता है। मिसाल के लिए हम बन्धुआ मजदूरी के खिलाफ लड़ने वाले समूहों का नाम ले सकते हैं। ऐसे समूह अपनी भलाई के लिए नहीं बल्कि बन्धुआ मजदूरी के बोझ तले पिस रहे लोगों के लिए लड़ते हैं।
♦ कुछ मामलों में सम्भव है कि जन-सामान्य के हितों का प्रतिनिधित्व करने वाले समूह ऐसे उद्देश्य को साधने के लिए आगे आएँ जिससे बाकियों के साथ-साथ उन्हें भी फायदा होता हो।
आन्दोलनकारी समूह
♦ दबाव समूह के समान किसी आन्दोलन में कई तरह के समूह शामिल रहते हैं। अधिकतर आन्दोलन किसी खास मुद्दे पर केन्द्रित होते हैं। ऐसे आन्दोलन एक सीमित समय-सीमा के भीतर किसी एक लक्ष्य को पाना चाहते हैं। कुछ आन्दोलन ज्यादा सार्वभौमिक प्रकृति के होते हैं और एक व्यापक लक्ष्य को बहुत बड़ी समयावधि में हासिल करना चाहते हैं।
♦ भारत में, नर्मदा बचाओ आन्दोलन ऐसे आन्दोलन का अच्छा उदाहरण है। नर्मदा नदी पर बनाए जा रहे सरदार सरोवर बाँध के कारण लोग विस्थापित हुए। यह आन्दोलन इसी खास मुद्दे को लेकर शुरू हुआ। इसका उद्देश्य बाँध को बनने से रोकना था। धीरे-धीरे इस आन्दोलन ने व्यापक रूप धारण किया।
♦ ऐसे आन्दोलनों में नेतृत्व बड़ा स्पष्ट होता है और उनका संगठन भी होता है लेकिन ऐसे आन्दोलन बहुत थोड़े समय तक ही सक्रिय रह पाते हैं।
♦ दबाव समूह और आन्दोलन राजनीति पर कई तरह से असर डालते हैं
♦ दबाव समूह और आन्दोलन अपने लक्ष्य तथा गतिविधियों के लिए जनता का समर्थन और सहानुभूति हासिल करने की कोशिश करते हैं। इसके लिए सूचना अभियान चलाना, बैठक आयोजित करना अथवा अर्जी दायर करने जैसे तरीकों का सहारा लिया जाता है। ऐसे अधिकतर समूह मीडिया को प्रभावित करने की कोशिश करते हैं ताकि उनके मसलों पर मीडिया ज्यादा ध्यान दे।
♦ ऐसे समूह अक्सर हड़ताल अथवा सरकारी काम-काज में बाधा पहुँचाने जैसे उपायों का सहारा लेते हैं। मजदूर संगठन, कर्मचारी संघ तथा अधिकतर आन्दोलनकारी समूह अक्सर ऐसी युक्तियों का इस्तेमाल करते हैं कि सरकार उनकी माँगों की तरफ ध्यान देने के लिए बाध्य हो।
♦ व्यवसाय समूह अक्सर पेशेवर ‘लॉबिस्ट’ नियुक्त करते हैं अथवा महँगे विज्ञापनों को प्रायोजित करते हैं। दबाव समूह अथवा आन्दोलनकारी समूह के कुछ व्यक्ति सरकार को सलाह देने वाली समितियों और आधिकारिक निकायों में शिरकत कर सकते हैं।
♦ हालाँकि दबाव समूह और आन्दोलन दलीय राजनीति में सीधे भाग नहीं लेते लेकिन वे राजनीतिक दलों पर असर डालना चाहते हैं। अधिकतर आन्दोलन किसी राजनीतिक दल से सम्बद्ध नहीं होते लेकिन उनका एक राजनीतिक पक्ष होता है। कुछ मामलों में दबाव समूह राजनीतिक दलों द्वारा ही बनाए गए होते हैं अथवा उनका नेतृत्व राजनीतिक दल के नेता करते हैं। कुछ दबाव समूह राजनीतिक दल की एक शाखा के रूप में काम करते हैं। उदाहरण के लिए भारत के अधिकतर मजदूर संगठन और छात्र संगठन या तो बड़े राजनीतिक दलों द्वारा बनाए गए हैं अथवा उनकी सम्बद्धता राजनीतिक दलों से है। ऐसे दबाव समूहों के अधिकतर नेता अमूमन किसी न किसी राजनीतिक दल के कार्यकर्ता और नेता होते हैं।
♦ कभी-कभी आन्दोलन राजनीतिक दल का रूप अख्तियार कर लेते हैं। उदाहरण के लिए ‘विदेशी’ लोगों के विरुद्ध छात्रों ने ‘असम आन्दोलन’ चलाया और अब इस आन्दोलन की समाप्ति हुई तो इस आन्दोलन ने ‘असम गण परिषद्’ का रूप ले लिया।
♦ अधिकांशतया दबाव समूह और आन्दोलन का राजनीतिक दलों से प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं होता। दोनों परस्पर विरोधी पक्ष लेते हैं। फिर भी, इनके बीच संवाद कायम रहता है और सुलह की बातचीत चलती रहती है। आन्दोलनकारी समूहों ने नये-नये मुद्दे उठाए हैं और राजनीतिक दलों ने इन मुद्दों को आगे बढ़ाया है। राजनीतिक दलों के अधिकतर नेता दबाव समूह अथवा आन्दोलनकारी समूहों से आते हैं।
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